२२९ जरिता-पुत्र-संवादः

श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना

एकोनत्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

जरिताका अपने बच्चोंकी रक्षाके लिये चिन्तित होकर विलाप करना

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः प्रज्वलिते वह्नौ शार्ङ्गकास्ते सुदुःखिताः।
व्यथिताः परमोद्विग्ना नाधिजग्मुः परायणम् ॥ १ ॥

मूलम्

ततः प्रज्वलिते वह्नौ शार्ङ्गकास्ते सुदुःखिताः।
व्यथिताः परमोद्विग्ना नाधिजग्मुः परायणम् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! तदनन्तर जब आग प्रज्वलित हुई, तब वे शाङ्‌र्गक शिशु बहुत दुःखी, व्यथित और अत्यन्त उद्विग्न हो गये। उस समय उन्हें अपना कोई रक्षक नहीं जान पड़ता था॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निशम्य पुत्रकान् बालान् माता तेषां तपस्विनी।
जरिता शोकदुःखार्ता विललाप सुदुःखिता ॥ २ ॥

मूलम्

निशम्य पुत्रकान् बालान् माता तेषां तपस्विनी।
जरिता शोकदुःखार्ता विललाप सुदुःखिता ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन बच्चोंको छोटे जानकर उनकी तपस्विनी माता शोक और दुःखसे आतुर हुई जरिता बहुत दुःखी होकर विलाप करने लगी॥२॥

मूलम् (वचनम्)

जरितोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अयमग्निर्दहन् कक्षमित आयाति भीषणः।
जगत् संदीपयन् भीमो मम दुःखविवर्धनः ॥ ३ ॥

मूलम्

अयमग्निर्दहन् कक्षमित आयाति भीषणः।
जगत् संदीपयन् भीमो मम दुःखविवर्धनः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जरिता बोली— यह भयानक आग इस वनको जलाती हुई इधर ही बढ़ी आ रही है। जान पड़ता है, यह सम्पूर्ण जगत्‌को भस्म कर डालेगी। इसका स्वरूप भयंकर और मेरे दुःखको बढ़ानेवाला है॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इमे च मां कर्षयन्ति शिशवो मन्दचेतसः।
अबर्हाश्चरणैर्हीनाः पूर्वेषां नः परायणाः ॥ ४ ॥

मूलम्

इमे च मां कर्षयन्ति शिशवो मन्दचेतसः।
अबर्हाश्चरणैर्हीनाः पूर्वेषां नः परायणाः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये सांसारिक ज्ञानसे शून्य चित्तवाले शिशु मुझे अपनी ओर आकर्षित करते हैं। इन्हें पाँखें नहीं निकलीं और अभीतक ये पैरोंसे भी हीन हैं, हमारे पितरोंके ये ही आधार हैं॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रासयंश्चायमायाति लेलिहानो महीरुहान् ।
अजातपक्षाश्च सुता न शक्ताः सरणे मम ॥ ५ ॥

मूलम्

त्रासयंश्चायमायाति लेलिहानो महीरुहान् ।
अजातपक्षाश्च सुता न शक्ताः सरणे मम ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सबको त्रास देती और वृक्षोंको चाटती हुई यह आगकी लपट इधर ही चली आ रही है। हाय! मेरे बच्चे बिना पंखके हैं, मेरे साथ उड़ नहीं सकते॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आदाय च न शक्नोमि पुत्रांस्तरितुमात्मना।
न च त्यक्तुमहं शक्ता हृदयं दूयतीव मे ॥ ६ ॥

मूलम्

आदाय च न शक्नोमि पुत्रांस्तरितुमात्मना।
न च त्यक्तुमहं शक्ता हृदयं दूयतीव मे ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं स्वयं भी इन्हें लेकर इस आगसे पार नहीं हो सकूँगी। इन्हें छोड़ भी नहीं सकती। मेरे हृदयमें इनके लिये बड़ी व्यथा हो रही है॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कं तु जह्यामहं पुत्रं कमादाय व्रजाम्यहम्।
किं नु मे स्यात्‌ कृतं कृत्वा मन्यध्वं पुत्रकाः कथम्॥७॥

मूलम्

कं तु जह्यामहं पुत्रं कमादाय व्रजाम्यहम्।
किं नु मे स्यात्‌ कृतं कृत्वा मन्यध्वं पुत्रकाः कथम्॥७॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं किस बच्चेको छोड़ दूँ और किसे साथ लेकर जाऊँ? क्या करनेसे कृतकृत्य हो सकती हूँ? मेरे बच्चो! तुमलोगोंकी क्या राय है?॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चिन्तयाना विमोक्षं वो नाधिगच्छामि किंचन।
छादयिष्यामि वो गात्रैः करिष्ये मरणं सह ॥ ८ ॥

मूलम्

चिन्तयाना विमोक्षं वो नाधिगच्छामि किंचन।
छादयिष्यामि वो गात्रैः करिष्ये मरणं सह ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं तुमलोगोंके छुटकारेका उपाय सोचती हूँ; किंतु कुछ भी समझमें नहीं आता। अच्छा; अपने अंगोंसे तुमलोगोंको ढक लूँगी और तुम्हारे साथ ही मैं भी मर जाऊँगी॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जरितारौ कुलं ह्येतज्ज्येष्ठत्वेन प्रतिष्ठितम्।
सारिसृक्कः प्रजायेत पितॄणां कुलवर्धनः ॥ ९ ॥
स्तम्बमित्रस्तपः कुर्याद् द्रोणो ब्रह्मविदां वरः।
इत्येवमुक्त्वा प्रययौ पिता वो निर्घृणः पुरा ॥ १० ॥

मूलम्

जरितारौ कुलं ह्येतज्ज्येष्ठत्वेन प्रतिष्ठितम्।
सारिसृक्कः प्रजायेत पितॄणां कुलवर्धनः ॥ ९ ॥
स्तम्बमित्रस्तपः कुर्याद् द्रोणो ब्रह्मविदां वरः।
इत्येवमुक्त्वा प्रययौ पिता वो निर्घृणः पुरा ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुत्रो! तुम्हारे निर्दयी पिता पहले ही यह कहकर चल दिये कि ‘जरितारि ज्येष्ठ है, अतः इस कुलकी रक्षाका भार इसीपर होगा। दूसरा पुत्र सारिसृक्क अपने पितरोंके कुलकी वृद्धि करनेवाला होगा। स्तम्बमित्र तपस्या करेगा और द्रोण ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ होगा’॥९-१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कमुपादाय शक्येयं गन्तुं कष्टापदुत्तमा।
किं नु कृत्वा कृतं कार्यं भवेदिति च विह्वला।
नापश्यत् स्वधिया मोक्षं स्वसुतानां तदानलात् ॥ ११ ॥

मूलम्

कमुपादाय शक्येयं गन्तुं कष्टापदुत्तमा।
किं नु कृत्वा कृतं कार्यं भवेदिति च विह्वला।
नापश्यत् स्वधिया मोक्षं स्वसुतानां तदानलात् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हाय! मुझपर बड़ी भारी कष्टदायिनी आपत्ति आ पड़ी। इन चारों बच्चोंमेंसे किसको लेकर मैं इस आगको पार कर सकूँगी। क्या करनेसे मेरा कार्य सिद्ध हो सकता है?
इस प्रकार विचार करते-करते जरिता अत्यन्त विह्वल हो गयी; परंतु अपने पुत्रोंको उस आगसे बचानेका कोई उपाय उस समय उसके ध्यानमें नहीं आया॥११॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं ब्रुवाणां शार्ङ्गास्ते प्रत्यूचुरथ मातरम्।
स्नेहमुत्सृज्य मातस्त्वं पत यत्र न हव्यवाट् ॥ १२ ॥

मूलम्

एवं ब्रुवाणां शार्ङ्गास्ते प्रत्यूचुरथ मातरम्।
स्नेहमुत्सृज्य मातस्त्वं पत यत्र न हव्यवाट् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! इस प्रकार बिलखती हुई अपनी मातासे वे शाङ्‌र्गपक्षीके बच्चे बोले—‘माँ! तुम स्नेह छोड़कर जहाँ आग न हो, उधर उड़ जाओ॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्मास्विह विनष्टेषु भवितारः सुतास्तव।
त्वयि मातर्विनष्टायां न नः स्यात् कुलसंततिः ॥ १३ ॥

मूलम्

अस्मास्विह विनष्टेषु भवितारः सुतास्तव।
त्वयि मातर्विनष्टायां न नः स्यात् कुलसंततिः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘माँ! यदि हम यहाँ नष्ट हो जायँ तो भी तुम्हारे दूसरे बच्चे हो सकते हैं; परंतु तुम्हारे नष्ट हो जानेपर तो हमारे इस कुलकी परम्परा ही लुप्त हो जायगी॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्ववेक्ष्यैतदुभयं क्षेमं स्याद् यत् कुलस्य नः।
तद् वै कर्तुं परः कालो मातरेष भवेत् तव॥१४॥

मूलम्

अन्ववेक्ष्यैतदुभयं क्षेमं स्याद् यत् कुलस्य नः।
तद् वै कर्तुं परः कालो मातरेष भवेत् तव॥१४॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘माँ! इन दोनों बातोंपर विचार करके जिस प्रकार हमारे कुलका कल्याण हो, वही करनेको तुम्हारे लिये यह उत्तम अवसर है॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मा त्वं सर्वविनाशाय स्नेहं कार्षीः सुतेषु नः।
न हीदं कर्म मोघं स्याल्लोककामस्य नः पितुः ॥ १५ ॥

मूलम्

मा त्वं सर्वविनाशाय स्नेहं कार्षीः सुतेषु नः।
न हीदं कर्म मोघं स्याल्लोककामस्य नः पितुः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुम हम सब पुत्रोंपर ऐसा स्नेह न करो, जिससे सबका विनाश हो जाय। उत्तम लोककी इच्छा रखनेवाले मेरे पिताका यह कर्म व्यर्थ न हो जाय’॥१५॥

मूलम् (वचनम्)

जरितोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इदमाखोर्बिलं भूमौ वृक्षस्यास्य समीपतः।
तदाविशध्वं त्वरिता वह्नेरत्र न वो भयम् ॥ १६ ॥

मूलम्

इदमाखोर्बिलं भूमौ वृक्षस्यास्य समीपतः।
तदाविशध्वं त्वरिता वह्नेरत्र न वो भयम् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जरिता बोली— मेरे बच्चो! इस वृक्षके पास भूमिमें यह चूहेका बिल है। तुमलोग जल्दी-से-जल्दी इसके भीतर घुस जाओ। इसके भीतर तुम्हें आगसे भय नहीं है॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽहं पांसुना छिद्रमपिधास्यामि पुत्रकाः।
एवं प्रतिकृतं मन्ये ज्वलतः कृष्णवर्त्मनः ॥ १७ ॥

मूलम्

ततोऽहं पांसुना छिद्रमपिधास्यामि पुत्रकाः।
एवं प्रतिकृतं मन्ये ज्वलतः कृष्णवर्त्मनः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुमलोगोंके घुस जानेपर मैं इस बिलका छेद धूलसे बंद कर दूँगी। बच्चो! मेरा विश्वास है, ऐसा करनेसे इस जलती आगसे तुम्हारा बचाव हो सकेगा॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत एष्याम्यतीतेऽग्नौ विहन्तुं पांसुसंचयम्।
रोचतामेष वो वादो मोक्षार्थं च हुताशनात् ॥ १८ ॥

मूलम्

तत एष्याम्यतीतेऽग्नौ विहन्तुं पांसुसंचयम्।
रोचतामेष वो वादो मोक्षार्थं च हुताशनात् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर आग बुझ जानेपर मैं धूल हटानेके लिये यहाँ आ जाऊँगी। आगसे बचनेके लिये मेरी यह बात तुमलोगोंको पसंद आनी चाहिये॥१८॥

मूलम् (वचनम्)

शाङ्‌र्गका ऊचुः

विश्वास-प्रस्तुतिः

अबर्हान्‌ मांसभूतान्‌ नः क्रव्यादाखुर्विनाशयेत्।
पश्यमाना भयमिदं प्रवेष्टुं नात्र शक्नुमः ॥ १९ ॥

मूलम्

अबर्हान्‌ मांसभूतान्‌ नः क्रव्यादाखुर्विनाशयेत्।
पश्यमाना भयमिदं प्रवेष्टुं नात्र शक्नुमः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शाङ्‌र्गक बोले— अभी हम बिना पंखोंके बच्चे हैं, हमारा शरीर मांसका लोथड़ामात्र है। चूहा मांसभक्षी जीव है, वह हमें नष्ट कर देगा। इस भयको देखते हुए हम इस बिलमें प्रवेश नहीं कर सकते॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथमग्निर्न नो धक्ष्येत् कथमाखुर्न नाशयेत्।
कथं न स्यात् पिता मोघः कथं माता ध्रियेत नः॥२०॥

मूलम्

कथमग्निर्न नो धक्ष्येत् कथमाखुर्न नाशयेत्।
कथं न स्यात् पिता मोघः कथं माता ध्रियेत नः॥२०॥

अनुवाद (हिन्दी)

हम तो यह सोचते हैं कि क्या उपाय हो, जिससे अग्नि हमें न जलावे, चूहा हमें न मारे एवं हमारे पिताका संतानोत्पादनविषयक प्रयत्न निष्फल न हो और हमारी माता भी जीवित रहे?॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिल आखोर्विनाशः स्यादग्नेराकाशचारिणाम् ।
अन्ववेक्ष्यैतदुभयं श्रेयान् दाहो न भक्षणम् ॥ २१ ॥

मूलम्

बिल आखोर्विनाशः स्यादग्नेराकाशचारिणाम् ।
अन्ववेक्ष्यैतदुभयं श्रेयान् दाहो न भक्षणम् ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बिलमें चूहेसे हमारा विनाश हो जायगा और आकाशमें उड़नेपर अग्निसे। इन दोनों परिणामोंपर विचार करनेसे हमें आगसे जल जाना ही श्रेष्ठ जान पड़ता है, चूहेका भोजन बनना नहीं॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गर्हितं मरणं नः स्यादाखुना भक्षिते बिले।
शिष्टादिष्टः परित्यागः शरीरस्य हुताशनात् ॥ २२ ॥

मूलम्

गर्हितं मरणं नः स्यादाखुना भक्षिते बिले।
शिष्टादिष्टः परित्यागः शरीरस्य हुताशनात् ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि हमलोगोंको बिलमें चूहेने खा लिया तो वह हमारी निन्दित मृत्यु होगी। आगसे जलकर शरीरका परित्याग करनेके लिये शिष्ट पुरुषोंकी आज्ञा है॥२२॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि मयदर्शनपर्वणि जरिताविलापे एकोनत्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २२९ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत मयदर्शनपर्वमें जरिताविलापविषयक दो सौ उन्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२२९॥