२२५ जल-वर्षणम्

श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना

पञ्चविंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

खाण्डववनमें जलते हुए प्राणियोंकी दुर्दशा और इन्द्रके द्वारा जल बरसाकर आग बुझानेकी चेष्टा

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तौ रथाभ्यां रथश्रेष्ठौ दावस्योभयतः स्थितौ।
दिक्षु सर्वासु भूतानां चक्राते कदनं महत् ॥ १ ॥

मूलम्

तौ रथाभ्यां रथश्रेष्ठौ दावस्योभयतः स्थितौ।
दिक्षु सर्वासु भूतानां चक्राते कदनं महत् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! वे दोनों रथियोंमें श्रेष्ठ वीर दो रथोंपर बैठकर खाण्डववनके दोनों ओर खड़े हो गये और सब दिशाओंमें घूम-घूमकर प्राणियोंका महान् संहार करने लगे॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत्र यत्र च दृश्यन्ते प्राणिनः खाण्डवालयाः।
पलायन्तः प्रवीरौ तौ तत्र तत्राभ्यधावताम् ॥ २ ॥

मूलम्

यत्र यत्र च दृश्यन्ते प्राणिनः खाण्डवालयाः।
पलायन्तः प्रवीरौ तौ तत्र तत्राभ्यधावताम् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

खाण्डववनमें रहनेवाले प्राणी जहाँ-जहाँ भागते दिखायी देते, वहीं-वहीं वे दोनों प्रमुख वीर उनका पीछा करते॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

छिद्रं न स्म प्रपश्यन्ति रथयोराशुचारिणोः।
आविद्धावेव दृश्येते रथिनौ तौ रथोत्तमौ ॥ ३ ॥

मूलम्

छिद्रं न स्म प्रपश्यन्ति रथयोराशुचारिणोः।
आविद्धावेव दृश्येते रथिनौ तौ रथोत्तमौ ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

(खाण्डववनके प्राणियोंको) शीघ्रतापूर्वक सब ओर दौड़नेवाले उन दोनों महारथियोंका छिद्र नहीं दिखायी देता था, जिससे वे भाग सकें। रथियोंमें श्रेष्ठ वे दोनों रथारूढ़ वीर अलातचक्रकी भाँति सब ओर घूमते हुए ही दीख पड़ते थे॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

खाण्डवे दह्यमाने तु भूताः शतसहस्रशः।
उत्पेतुर्भैरवान् नादान् विनदन्तः समन्ततः ॥ ४ ॥

मूलम्

खाण्डवे दह्यमाने तु भूताः शतसहस्रशः।
उत्पेतुर्भैरवान् नादान् विनदन्तः समन्ततः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब खाण्डववनमें आग फैल गयी और वह अच्छी तरह जलने लगा, उस समय लाखों प्राणी भयानक चीत्कार करते हुए चारों ओर उछलने-कूदने लगे॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दग्धैकदेशा बहवो निष्टप्ताश्च तथापरे।
स्फुटिताक्षा विशीर्णाश्च विप्लुताश्च तथापरे ॥ ५ ॥

मूलम्

दग्धैकदेशा बहवो निष्टप्ताश्च तथापरे।
स्फुटिताक्षा विशीर्णाश्च विप्लुताश्च तथापरे ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बहुत-से प्राणियोंके शरीरका एक हिस्सा जल गया था, बहुतेरे आँचमें झुलस गये थे, कितनोंकी आँखें फूट गयी थीं और कितनोंके शरीर फट गये थे। ऐसी अवस्थामें भी सब भाग रहे थे॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समालिङ्ग्य सुतानन्ये पितॄन् भ्रातॄनथापरे।
त्यक्तं न शेकुः स्नेहेन तत्रैव निधनं गताः ॥ ६ ॥

मूलम्

समालिङ्ग्य सुतानन्ये पितॄन् भ्रातॄनथापरे।
त्यक्तं न शेकुः स्नेहेन तत्रैव निधनं गताः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कोई अपने पुत्रोंको छातीसे चिपकाये हुए थे, कुछ प्राणी अपने पिता और भाइयोंसे सटे हुए थे। वे स्नेहवश एक-दूसरेको छोड़ न सके और वहीं कालके गालमें समा गये॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संदष्टदशनाश्चान्ये समुत्पेतुरनेकशः ।
ततस्तेऽतीव घूर्णन्तः पुनरग्नौ प्रपेदिरे ॥ ७ ॥

मूलम्

संदष्टदशनाश्चान्ये समुत्पेतुरनेकशः ।
ततस्तेऽतीव घूर्णन्तः पुनरग्नौ प्रपेदिरे ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुछ जानवर दाँत कटकटाते, बार-बार उछलते-कूदते और अत्यन्त चक्कर काटते हुए फिर आगमें ही पड़ जाते थे॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दग्धपक्षाक्षिचरणा विचेष्टन्तो महीतले ।
तत्र तत्र स्म दृश्यन्ते विनश्यन्तः शरीरिणः ॥ ८ ॥

मूलम्

दग्धपक्षाक्षिचरणा विचेष्टन्तो महीतले ।
तत्र तत्र स्म दृश्यन्ते विनश्यन्तः शरीरिणः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कितने ही पक्षी पाँख, आँख और पंजोंके जल जानेसे धरतीपर गिरकर छटपटा रहे थे। स्थान-स्थानपर मरणोन्मुख जीव-जन्तु दृष्टिगोचर हो रहे थे॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जलाशयेषु तप्तेषु क्वाथ्यमानेषु वह्निना।
गतसत्त्वाः स्म दृश्यन्ते कूर्ममत्स्याः समन्ततः ॥ ९ ॥

मूलम्

जलाशयेषु तप्तेषु क्वाथ्यमानेषु वह्निना।
गतसत्त्वाः स्म दृश्यन्ते कूर्ममत्स्याः समन्ततः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जलाशय आगसे तपकर काढ़ेकी भाँति खौल रहे थे। उनमें रहनेवाले कछुए और मछली आदि जीव सब ओर निर्जीव दिखायी देते थे॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शरीरैरपरे दीप्तैर्देहवन्त इवाग्नयः ।
अदृश्यन्त वने तत्र प्राणिनः प्राणिसंक्षये ॥ १० ॥

मूलम्

शरीरैरपरे दीप्तैर्देहवन्त इवाग्नयः ।
अदृश्यन्त वने तत्र प्राणिनः प्राणिसंक्षये ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्राणियोंके संहारस्थल बने हुए उस वनमें कितने ही प्राणी अपने जलते हुए अंगोंसे मूर्तिमान् अग्निके समान दीख पड़ते थे॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कांश्चिदुत्पततः पार्थः शरैः संछिद्य खण्डशः।
पातयामास विहगान् प्रदीप्ते वसुरेतसि ॥ ११ ॥

मूलम्

कांश्चिदुत्पततः पार्थः शरैः संछिद्य खण्डशः।
पातयामास विहगान् प्रदीप्ते वसुरेतसि ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुनने कितने ही उड़ते हुए पक्षियोंको अपने बाणोंसे टुकड़े-टुकड़े करके प्रज्वलित आगमें झोंक दिया॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते शराचितसर्वाङ्गा निनदन्तो महारवान्।
ऊर्ध्वमुत्पत्य वेगेन निपेतुः खाण्डवे पुनः ॥ १२ ॥

मूलम्

ते शराचितसर्वाङ्गा निनदन्तो महारवान्।
ऊर्ध्वमुत्पत्य वेगेन निपेतुः खाण्डवे पुनः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पहले तो पक्षी बड़े वेगसे ऊपरको उड़ते, परंतु बाणोंसे सारा अंग छिद जानेपर जोर-जोरसे आर्तनाद करते हुए पुनः खाण्डववनमें ही गिर पड़ते थे॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शरैरभ्याहतानां च संघशः स्म वनौकसाम्।
विरावः शुश्रुवे घोरः समुद्रस्येव मथ्यतः ॥ १३ ॥

मूलम्

शरैरभ्याहतानां च संघशः स्म वनौकसाम्।
विरावः शुश्रुवे घोरः समुद्रस्येव मथ्यतः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बाणोंसे घायल हुए झुंड-के-झुंड वनवासी जीवोंका भयानक चीत्कार समुद्र-मन्थनके समय होनेवाले जल-जन्तुओंके करुण-क्रन्दनके समान जान पड़ता था॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वह्नेश्चापि प्रदीप्तस्य खमुत्पेतुर्महार्चिषः ।
जनयामासुरुद्वेगं सुमहान्तं दिवौकसाम् ॥ १४ ॥

मूलम्

वह्नेश्चापि प्रदीप्तस्य खमुत्पेतुर्महार्चिषः ।
जनयामासुरुद्वेगं सुमहान्तं दिवौकसाम् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रज्वलित अग्निकी बड़ी-बड़ी लपटें आकाशमें ऊपरकी ओर उठने और देवताओंके मनमें बड़ा भारी भय उत्पन्न करने लगीं॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेनार्चिषा सुसंतप्ता देवाः सर्षिपुरोगमाः।
ततो जग्मुर्महात्मानः सर्व एव दिवौकसः।
शतक्रतुं सहस्राक्षं देवेशमसुरार्दनम् ॥ १५ ॥

मूलम्

तेनार्चिषा सुसंतप्ता देवाः सर्षिपुरोगमाः।
ततो जग्मुर्महात्मानः सर्व एव दिवौकसः।
शतक्रतुं सहस्राक्षं देवेशमसुरार्दनम् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस लपटसे संतप्त हुए देवता और महर्षि आदि सभी देवलोकवासी महात्मा असुरोंका नाश करनेवाले देवेश्वर सहस्राक्ष इन्द्रके पास गये॥१५॥

मूलम् (वचनम्)

देवा ऊचुः

विश्वास-प्रस्तुतिः

किं न्विमे मानवाः सर्वे दह्यन्ते चित्रभानुना।
कच्चिन्न संक्षयः प्राप्तो लोकानाममरेश्वर ॥ १६ ॥

मूलम्

किं न्विमे मानवाः सर्वे दह्यन्ते चित्रभानुना।
कच्चिन्न संक्षयः प्राप्तो लोकानाममरेश्वर ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवता बोले— अमरेश्वर! अग्निदेव इन सब मनुष्योंको क्यों जला रहे हैं? कहीं संसारका प्रलय तो नहीं आ गया॥१६॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तच्छ्रुत्वा वृत्रहा तेभ्यः स्वयमेवान्ववेक्ष्य च।
खाण्डवस्य विमोक्षार्थं प्रययौ हरिवाहनः ॥ १७ ॥

मूलम्

तच्छ्रुत्वा वृत्रहा तेभ्यः स्वयमेवान्ववेक्ष्य च।
खाण्डवस्य विमोक्षार्थं प्रययौ हरिवाहनः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! देवताओंसे यह सुनकर वृत्रासुरका नाश करनेवाले इन्द्र स्वयं वह घटना देखकर खाण्डववनको आगके भयसे छुड़ानेके लिये चले॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

महता रथवृन्देन नानारूपेण वासवः।
आकाशं समवाकीर्य प्रववर्ष सुरेश्वरः ॥ १८ ॥

मूलम्

महता रथवृन्देन नानारूपेण वासवः।
आकाशं समवाकीर्य प्रववर्ष सुरेश्वरः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने अपने साथ अनेक प्रकारके विशाल रथ ले लिये और आकाशमें स्थित हो देवताओंके स्वामी वे इन्द्र जलकी वर्षा करने लगे॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽक्षमात्रा व्यसृजन् धाराः शतसहस्रशः।
चोदिता देवराजेन जलदाः खाण्डवं प्रति ॥ १९ ॥

मूलम्

ततोऽक्षमात्रा व्यसृजन् धाराः शतसहस्रशः।
चोदिता देवराजेन जलदाः खाण्डवं प्रति ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवराज इन्द्रसे प्रेरित होकर मेघ रथके धुरेके समान मोटी-मोटी असंख्य धाराएँ खाण्डववनमें गिराने लगे॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

असम्प्राप्तास्तु ता धारास्तेजसा जातवेदसः।
ख एव समशुष्यन्त न काश्चित् पावकं गताः ॥ २० ॥

मूलम्

असम्प्राप्तास्तु ता धारास्तेजसा जातवेदसः।
ख एव समशुष्यन्त न काश्चित् पावकं गताः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परंतु अग्निके तेजसे वे धाराएँ वहाँ पहुँचनेसे पहले आकाशमें ही सूख जाती थीं। अग्नितक कोई धारा पहुँची ही नहीं॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो नमुचिहा क्रुद्धों भृशमर्चिष्मतस्तदा।
पुनरेव महामेघैरम्भांसि व्यसृजद् बहु ॥ २१ ॥

मूलम्

ततो नमुचिहा क्रुद्धों भृशमर्चिष्मतस्तदा।
पुनरेव महामेघैरम्भांसि व्यसृजद् बहु ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब नमुचिनाशक इन्द्रदेव अग्निपर अत्यन्त कुपित हो पुनः बड़े-बड़े मेघोंद्वारा बहुत जलकी वर्षा कराने लगे॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अर्चिर्धाराभिसम्बद्धं धूमविद्युत्समाकुलम् ।
बभूव तद् वनं घोरं स्तनयित्नुसमाकुलम् ॥ २२ ॥

मूलम्

अर्चिर्धाराभिसम्बद्धं धूमविद्युत्समाकुलम् ।
बभूव तद् वनं घोरं स्तनयित्नुसमाकुलम् ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आगकी लपटों और जलकी धाराओंसे संयुक्त होनेपर उस वनमें धुआँ उठने लगा। सब ओर बिजली चमकने लगी और चारों ओर मेघोंकी गड़गड़ाहटका शब्द गूँज उठा। इस प्रकार खाण्डववनकी दशा बड़ी भयंकर हो गयी॥२२॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि खाण्डवदाहपर्वणि इन्द्रक्रोधे पञ्चविंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २२५ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत खाण्डवदाहपर्वमें इन्द्रकोपविषयक दो सौ पचीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२२५॥