२२१ अग्न्यागमनम्

श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना

(खाण्डवदाहपर्व)
एकविंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

युधिष्ठिरके राज्यकी विशेषता, कृष्ण और अर्जुनका खाण्डववनमें जाना तथा उन दोनोंके पास ब्राह्मणवेशधारी अग्निदेवका आगमन

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इन्द्रप्रस्थे वसन्तस्ते जघ्नुरन्यान् नराधिपान्।
शासनाद् धृतराष्ट्रस्य राज्ञः शान्तनवस्य च ॥ १ ॥

मूलम्

इन्द्रप्रस्थे वसन्तस्ते जघ्नुरन्यान् नराधिपान्।
शासनाद् धृतराष्ट्रस्य राज्ञः शान्तनवस्य च ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! राजा धृतराष्ट्र तथा शान्तनुनन्दन भीष्मकी आज्ञासे इन्द्रप्रस्थमें रहते हुए पाण्डवोंने अन्य बहुत-से राजाओंको, जो उनके शत्रु थे, मार दिया॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आश्रित्य धर्मराजानं सर्वलोकोऽवसत् सुखम्।
पुण्यलक्षणकर्माणं स्वदेहमिव देहिनः ॥ २ ॥

मूलम्

आश्रित्य धर्मराजानं सर्वलोकोऽवसत् सुखम्।
पुण्यलक्षणकर्माणं स्वदेहमिव देहिनः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धर्मराज युधिष्ठिरका आसरा लेकर सब लोग सुखसे रहने लगे, जैसे जीवात्मा पुण्यकर्मोंके फलस्वरूप अपने उत्तम शरीरको पाकर सुखसे रहता है॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स समं धर्मकामार्थान् सिषेवे भरतर्षभ।
त्रीनिवात्मसमान् बन्धून् नीतिमानिव मानयन् ॥ ३ ॥

मूलम्

स समं धर्मकामार्थान् सिषेवे भरतर्षभ।
त्रीनिवात्मसमान् बन्धून् नीतिमानिव मानयन् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! महाराज युधिष्ठिर नीतिज्ञ पुरुषकी भाँति धर्म, अर्थ और काम इन तीनोंको आत्माके समान प्रिय बन्धु मानते हुए न्याय और समतापूर्वक इनका सेवन करते थे॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेषां समविभक्तानां क्षितौ देहवतामिव।
बभौ धर्मार्थकामानां चतुर्थ इव पार्थिवः ॥ ४ ॥

मूलम्

तेषां समविभक्तानां क्षितौ देहवतामिव।
बभौ धर्मार्थकामानां चतुर्थ इव पार्थिवः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार तुल्यरूपसे बँटे हुए धर्म, अर्थ और काम तीनों पुरुषार्थ भूतलपर मानो मूर्तिमान् होकर प्रकट हो रहे थे और राजा युधिष्ठिर चौथे पुरुषार्थ मोक्षकी भाँति सुशोभित होते थे॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अध्येतारं परं वेदान् प्रयोक्तारं महाध्वरे।
रक्षितारं शुभाल्ँलोकान् लेभिरे तं जनाधिपम् ॥ ५ ॥

मूलम्

अध्येतारं परं वेदान् प्रयोक्तारं महाध्वरे।
रक्षितारं शुभाल्ँलोकान् लेभिरे तं जनाधिपम् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रजाने महाराज युधिष्ठिरके रूपमें ऐसा राजा पाया था, जो परम ब्रह्म परमात्माका चिन्तन करनेवाला, बड़े-बड़े यज्ञोंमें वेदोंका उपयोग करनेवाला और शुभ लोकोंके संरक्षणमें तत्पर रहनेवाला था॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अधिष्ठानवती लक्ष्मीः परायणवती मतिः।
वर्धमानोऽखिलो धर्मस्तेनासीत् पृथिवीक्षिताम् ॥ ६ ॥

मूलम्

अधिष्ठानवती लक्ष्मीः परायणवती मतिः।
वर्धमानोऽखिलो धर्मस्तेनासीत् पृथिवीक्षिताम् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा युधिष्ठिरके द्वारा दूसरे राजाओंकी चंचल लक्ष्मी भी स्थिर हो गयी, बुद्धि उत्तम निष्ठावाली हो गयी और सम्पूर्ण धर्मकी दिनोंदिन वृद्धि होने लगी॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भ्रातृभिः सहितो राजा चतुर्भिरधिकं बभौ।
प्रयुज्यमानैर्विततो वेदैरिव महाध्वरः ॥ ७ ॥

मूलम्

भ्रातृभिः सहितो राजा चतुर्भिरधिकं बभौ।
प्रयुज्यमानैर्विततो वेदैरिव महाध्वरः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे यथावसर उपयोगमें लाये जानेवाले चारों वेदोंके द्वारा विस्तारपूर्वक आरम्भ किया हुआ महायज्ञ शोभा पाता है, उसी प्रकार अपनी आज्ञाके अधीन रहनेवाले चारों भाइयोंके साथ राजा युधिष्ठिर अत्यन्त सुशोभित होते थे॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं तु धौम्यादयो विप्राः परिवार्योपतस्थिरे।
बृहस्पतिसमा मुख्याः प्रजापतिमिवामराः ॥ ८ ॥

मूलम्

तं तु धौम्यादयो विप्राः परिवार्योपतस्थिरे।
बृहस्पतिसमा मुख्याः प्रजापतिमिवामराः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे बृहस्पति-सदृश मुख्य-मुख्य देवता प्रजापतिकी सेवामें उपस्थित होते हैं, उसी प्रकार धौम्य आदि ब्राह्मण राजा युधिष्ठिरको सब ओरसे घेरकर बैठते थे॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मराजे ह्यतिप्रीत्या पूर्णचन्द्र इवामले।
प्रजानां रेमिरे तुल्यं नेत्राणि हृदयानि च ॥ ९ ॥

मूलम्

धर्मराजे ह्यतिप्रीत्या पूर्णचन्द्र इवामले।
प्रजानां रेमिरे तुल्यं नेत्राणि हृदयानि च ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

निर्मल एवं पूर्ण चन्द्रमाके समान आनन्दप्रद राजा युधिष्ठिरके प्रति अत्यन्त प्रीति होनेके कारण उन्हें देखकर प्रजाके नेत्र और मन एक साथ प्रफुल्लित हो उठते थे॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न तु केवलदैवेन प्रजा भावेन रेमिरे।
यद् बभूव मनःकान्तं कर्मणा स चकार तत् ॥ १० ॥

मूलम्

न तु केवलदैवेन प्रजा भावेन रेमिरे।
यद् बभूव मनःकान्तं कर्मणा स चकार तत् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रजा केवल उनके पालनरूप राजोचित कर्मसे ही संतुष्ट नहीं थी, वह उनके प्रति श्रद्धा और भक्तिभाव रखनेके कारण भी सदा आनन्दित रहती थी। राजाके प्रति प्रजाकी भक्ति इसलिये थी कि प्रजाके मनको जो प्रिय लगता था, राजा युधिष्ठिर उसीको क्रियाद्वारा पूर्ण करते थे॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न ह्ययुक्तं न चासत्यं नासह्यं न च वाप्रियम्।
भाषितं चारुभाषस्य जज्ञे पार्थस्य धीमतः ॥ ११ ॥

मूलम्

न ह्ययुक्तं न चासत्यं नासह्यं न च वाप्रियम्।
भाषितं चारुभाषस्य जज्ञे पार्थस्य धीमतः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सदा मीठी बातें करनेवाले बुद्धिमान् कुन्तीनन्दन राजा युधिष्ठिरके मुखसे कभी कोई अनुचित, असत्य, असह्य और अप्रिय बात नहीं निकलती थी॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स हि सर्वस्य लोकस्य हितमात्मन एव च।
चिकीर्षन् सुमहातेजा रेमे भरतसत्तम ॥ १२ ॥

मूलम्

स हि सर्वस्य लोकस्य हितमात्मन एव च।
चिकीर्षन् सुमहातेजा रेमे भरतसत्तम ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! महातेजस्वी राजा युधिष्ठिर सब लोगोंका और अपना भी हित करनेकी चेष्टामें लगे रहकर सदा प्रसन्नतापूर्वक समय बिताते थे॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा तु मुदिताः सर्वे पाण्डवा विगतज्वराः।
अवसन् पृथिवीपालांस्तापयन्तः स्वतेजसा ॥ १३ ॥

मूलम्

तथा तु मुदिताः सर्वे पाण्डवा विगतज्वराः।
अवसन् पृथिवीपालांस्तापयन्तः स्वतेजसा ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार सभी पाण्डव अपने तेजसे दूसरे नरेशोंको संतप्त करते हुए निश्चिन्त तथा आनन्दमग्न होकर वहाँ निवास करते थे॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः कतिपयाहस्य बीभत्सुः कृष्णमब्रवीत्।
उष्णानि कृष्ण वर्तन्ते गच्छावो यमुनां प्रति ॥ १४ ॥

मूलम्

ततः कतिपयाहस्य बीभत्सुः कृष्णमब्रवीत्।
उष्णानि कृष्ण वर्तन्ते गच्छावो यमुनां प्रति ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर कुछ दिनोंके बाद अर्जुनने श्रीकृष्णसे कहा—‘कृष्ण! बड़ी गरमी पड़ रही है। चलिये, यमुनाजीमें स्नानके लिये चलें॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुहृज्जनवृतौ तत्र विहृत्य मधुसूदन।
सायाह्ने पुनरेष्यावो रोचतां ते जनार्दन ॥ १५ ॥

मूलम्

सुहृज्जनवृतौ तत्र विहृत्य मधुसूदन।
सायाह्ने पुनरेष्यावो रोचतां ते जनार्दन ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मधुसूदन! मित्रोंके साथ वहाँ जलविहार करके हमलोग शामतक फिर लौट आयेंगे। जनार्दन! यदि आपकी रुचि हो, तो चलें’॥१५॥

मूलम् (वचनम्)

वासुदेव उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुन्तीमातर्ममाप्येतद् रोचते यद् वयं जले।
सुहृज्जनवृताः पार्थ विहरेम यथासुखम् ॥ १६ ॥

मूलम्

कुन्तीमातर्ममाप्येतद् रोचते यद् वयं जले।
सुहृज्जनवृताः पार्थ विहरेम यथासुखम् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वासुदेव बोले— कुन्तीनन्दन! मेरी भी ऐसी ही इच्छा हो रही है कि हमलोग सुहृदोंके साथ वहाँ चलकर सुखपूर्वक जलविहार करें॥१६॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

आमन्त्र्य तौ धर्मराजमनुज्ञाप्य च भारत।
जग्मतुः पार्थगोविन्दौ सुहृज्जनवृतौ ततः ॥ १७ ॥

मूलम्

आमन्त्र्य तौ धर्मराजमनुज्ञाप्य च भारत।
जग्मतुः पार्थगोविन्दौ सुहृज्जनवृतौ ततः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— भारत! यह सलाह करके युधिष्ठिरकी आज्ञा ले अर्जुन और श्रीकृष्ण सुहृदोंके साथ वहाँ गये॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विहारदेशं सम्प्राप्य नानाद्रुममनुत्तमम् ।
गृहैरुच्चावचैर्युक्तं पुरन्दरपुरोपमम् ॥ १८ ॥
भक्ष्यैर्भोज्यैश्च पेयैश्च रसवद्भिर्महाधनैः ।
माल्यैश्च विविधैर्गन्धैर्युक्तं वार्ष्णेयपार्थयोः ॥ १९ ॥
विवेशान्तःपुरं तूर्णं रत्नैरुच्चावचैः शुभैः।
यथोपजोषं सर्वश्च जनश्चिक्रीड भारत ॥ २० ॥

मूलम्

विहारदेशं सम्प्राप्य नानाद्रुममनुत्तमम् ।
गृहैरुच्चावचैर्युक्तं पुरन्दरपुरोपमम् ॥ १८ ॥
भक्ष्यैर्भोज्यैश्च पेयैश्च रसवद्भिर्महाधनैः ।
माल्यैश्च विविधैर्गन्धैर्युक्तं वार्ष्णेयपार्थयोः ॥ १९ ॥
विवेशान्तःपुरं तूर्णं रत्नैरुच्चावचैः शुभैः।
यथोपजोषं सर्वश्च जनश्चिक्रीड भारत ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यमुनाके तटपर जहाँ विहारस्थान था, वहाँ पहुँचकर श्रीकृष्ण और अर्जुनके रनिवासकी स्त्रियाँ नाना प्रकारके सुन्दर रत्नोंके साथ क्रीड़ाभवनके भीतर चली गयीं। वह उत्तम विहारभूमि नाना प्रकारके वृक्षोंसे सुशोभित थी। वहाँ बने हुए अनेक छोटे-बड़े भवनोंके कारण वह स्थान इन्द्रपुरीके समान सुशोभित होता था। अन्तःपुरकी स्त्रियोंके साथ अनेक प्रकारके भक्ष्य, भोज्य, बहुमूल्य सरस पेय, भाँति-भाँतिके पुष्पहार और सुगन्धित द्रव्य भी थे। भारत! वहाँ जाकर सब लोग अपनी-अपनी रुचिके अनुसार जलक्रीड़ा करने लगे॥१८—२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्त्रियश्च विपुलश्रोण्यश्चारुपीनपयोधराः ।
मदस्खलितगामिन्यश्चिक्रीडुर्वामलोचनाः ॥ २१ ॥

मूलम्

स्त्रियश्च विपुलश्रोण्यश्चारुपीनपयोधराः ।
मदस्खलितगामिन्यश्चिक्रीडुर्वामलोचनाः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विशाल नितम्बों और मनोहर पीन उरोजोंवाली वामलोचना वनिताएँ भी यौवनके मदके कारण डगमगाती चालसे चलकर इच्छानुसार क्रीड़ाएँ करने लगीं॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वने काश्चिचज्जले काश्चित् काश्चिद् वेश्मसु चाङ्गनाः।
यथायोग्यं यथाप्रीति चिक्रीडुः पार्थकृष्णयोः ॥ २२ ॥

मूलम्

वने काश्चिचज्जले काश्चित् काश्चिद् वेश्मसु चाङ्गनाः।
यथायोग्यं यथाप्रीति चिक्रीडुः पार्थकृष्णयोः ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे स्त्रियाँ श्रीकृष्ण और अर्जुनकी रुचिके अनुसार कुछ वनमें, कुछ जलमें और कुछ घरोंमें यथोचितरूपसे क्रीड़ा करने लगीं॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्रौपदी च सुभद्रा च वासांस्याभरणानि च।
प्रायच्छतां महाराज ते तु तस्मिन् मदोत्कटे ॥ २३ ॥

मूलम्

द्रौपदी च सुभद्रा च वासांस्याभरणानि च।
प्रायच्छतां महाराज ते तु तस्मिन् मदोत्कटे ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! उस समय यौवनमदसे युक्त द्रौपदी और सुभद्राने बहुत-से वस्त्र और आभूषण बाँटे॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

काश्चित् प्रहृष्टा ननृतुश्चुक्रुशुश्च तथापराः।
जहसुश्च परा नार्यो जगुश्चान्या वरस्त्रियः ॥ २४ ॥

मूलम्

काश्चित् प्रहृष्टा ननृतुश्चुक्रुशुश्च तथापराः।
जहसुश्च परा नार्यो जगुश्चान्या वरस्त्रियः ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ कुछ श्रेष्ठ स्त्रियाँ हर्षोल्लासमें भरकर नृत्य करने लगीं। कुछ जोर-जोरसे कोलाहल करने लगीं। अन्य बहुत-सी स्त्रियाँ ठठाकर हँसने लगीं तथा कुछ सुन्दरी स्त्रियाँ गीत गाने लगीं॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रुरुधुश्चापरास्तत्र प्रजघ्नुश्च परस्परम् ।
मन्त्रयामासुरन्याश्च रहस्यानि परस्परम् ॥ २५ ॥

मूलम्

रुरुधुश्चापरास्तत्र प्रजघ्नुश्च परस्परम् ।
मन्त्रयामासुरन्याश्च रहस्यानि परस्परम् ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुछ एक-दूसरीको पकड़कर रोकने और मृदु प्रहार करने लगीं तथा कुछ दूसरी स्त्रियाँ एकान्तमें बैठकर आपसमें कुछ गुप्त बातें करने लगीं॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वेणुवीणामृदङ्गानां मनोज्ञानां च सर्वशः।
शब्देन पूर्यते हर्म्यं तद् वनं सुमहर्द्धिमत् ॥ २६ ॥

मूलम्

वेणुवीणामृदङ्गानां मनोज्ञानां च सर्वशः।
शब्देन पूर्यते हर्म्यं तद् वनं सुमहर्द्धिमत् ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँका राजभवन और महान् समृद्धिशाली वन वीणा, वेणु और मृदंग आदि मनोहर वाद्योंकी सुमधुर ध्वनिसे सब ओर गूँजने लगा॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मिंस्तदा वर्तमाने कुरुदाशार्हनन्दनौ ।
समीपं जग्मतुः कंचिदुद्देशं सुमनोहरम् ॥ २७ ॥

मूलम्

तस्मिंस्तदा वर्तमाने कुरुदाशार्हनन्दनौ ।
समीपं जग्मतुः कंचिदुद्देशं सुमनोहरम् ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार जब वहाँ क्रीड़ा-विहारका आनन्दमय उत्सव चल रहा था, उसी समय श्रीकृष्ण और अर्जुन पासके ही किसी अत्यन्त मनोहर प्रदेशमें गये॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र गत्वा महात्मानौ कृष्णौ परपुरंजयौ।
महार्हासनयो राजंस्ततस्तौ संनिषीदतुः ॥ २८ ॥
तत्र पूर्वव्यतीतानि विक्रान्तानीतराणि च।
बहूनि कथयित्वा तौ रेमाते पार्थमाधवौ ॥ २९ ॥

मूलम्

तत्र गत्वा महात्मानौ कृष्णौ परपुरंजयौ।
महार्हासनयो राजंस्ततस्तौ संनिषीदतुः ॥ २८ ॥
तत्र पूर्वव्यतीतानि विक्रान्तानीतराणि च।
बहूनि कथयित्वा तौ रेमाते पार्थमाधवौ ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! वहाँ जाकर शत्रुओंकी राजधानीको जीतनेवाले वे दोनों महात्मा श्रीकृष्ण और अर्जुन दो बहुमूल्य सिंहासनोंपर बैठे और पहले किये हुए पराक्रमों तथा अन्य बहुत-सी बातोंकी चर्चा करके आमोद-प्रमोद करने लगे॥२८-२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्रोपविष्टौ मुदितौ नाकपृष्ठेऽश्विनाविव ।
अभ्यागच्छत् तदा विप्रो वासुदेवधनंजयौ ॥ ३० ॥

मूलम्

तत्रोपविष्टौ मुदितौ नाकपृष्ठेऽश्विनाविव ।
अभ्यागच्छत् तदा विप्रो वासुदेवधनंजयौ ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ प्रसन्नतापूर्वक बैठे हुए धनंजय और वासुदेव स्वर्गलोकमें स्थित अश्विनीकुमारोंकी भाँति सुशोभित हो रहे थे। उसी समय उन दोनोंके पास एक ब्राह्मणदेवता आये॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बृहच्छालप्रतीकाशः प्रतप्तकनकप्रभः ।
हरिपिङ्गोज्ज्वलश्मश्रुः प्रमाणायामतः समः ॥ ३१ ॥

मूलम्

बृहच्छालप्रतीकाशः प्रतप्तकनकप्रभः ।
हरिपिङ्गोज्ज्वलश्मश्रुः प्रमाणायामतः समः ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे विशाल शालवृक्षके समान ऊँचे थे। उनकी कान्ति तपाये हुए सुवर्णके समान थी। उनके सारे अंग नीले और पीले रंगके थे, दाढ़ी-मूँछें अग्निज्वालाके समान पीतवर्णकी थीं तथा ऊँचाईके अनुसार ही उनकी मोटाई थी॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तरुणादित्यसंकाशश्चीरवासा जटाधरः ।
पद्मपत्राननः पिङ्गस्तेजसा प्रज्वलन्निव ॥ ३२ ॥

मूलम्

तरुणादित्यसंकाशश्चीरवासा जटाधरः ।
पद्मपत्राननः पिङ्गस्तेजसा प्रज्वलन्निव ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे प्रातःकालिक सूर्यके समान तेजस्वी जान पड़ते थे। वे चीरवस्त्र पहने और मस्तकपर जटा धारण किये हुए थे। उनका मुख कमलदलके समान शोभा पा रहा था। उनकी प्रभा पिंगलवर्णकी थी और वे अपने तेजसे मानो प्रज्वलित हो रहे थे॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपसृष्टं तु तं कृष्णौ भ्राजमानं द्विजोत्तमम्।
अर्जुनो वासुदेवश्च तूर्णमुत्पत्य तस्थतुः ॥ ३३ ॥

मूलम्

उपसृष्टं तु तं कृष्णौ भ्राजमानं द्विजोत्तमम्।
अर्जुनो वासुदेवश्च तूर्णमुत्पत्य तस्थतुः ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे तेजस्वी द्विजश्रेष्ठ जब निकट आ गये, तब अर्जुन और भगवान् श्रीकृष्ण तुरंत ही आसनसे उठकर खड़े हो गये॥३३॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि खाण्डवदाहपर्वणि ब्राह्मणरूप्यनलागमने एकविंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २२१ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत खाण्डवदाहपर्वमें ब्राह्मणरूपी अग्निदेवके आगमनसे सम्बन्ध रखनेवाला दो सौ इक्कीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२२१॥