श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना
(सुभद्राहरणपर्व)
अष्टादशाधिकद्विशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
रैवतक पर्वतके उत्सवमें अर्जुनका सुभद्रापर आसक्त होना और श्रीकृष्ण तथा युधिष्ठिरकी अनुमतिसे उसे हर ले जानेका निश्चय करना
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः कतिपयाहस्य तस्मिन् रैवतके गिरौ।
वृष्ण्यन्धकानामभवदुत्सवो नृपसत्तम ॥ १ ॥
मूलम्
ततः कतिपयाहस्य तस्मिन् रैवतके गिरौ।
वृष्ण्यन्धकानामभवदुत्सवो नृपसत्तम ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— नृपश्रेष्ठ! तदनन्तर कुछ दिन बीतनेके बाद रैवतक पर्वतपर वृष्णि और अन्धकवंशके लोगोंका एक बड़ा भारी उत्सव हुआ॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र दानं ददुर्वीरा ब्राह्मणेभ्यः सहस्रशः।
भोजवृष्ण्यन्धकाश्चैव महे तस्य गिरेस्तदा ॥ २ ॥
मूलम्
तत्र दानं ददुर्वीरा ब्राह्मणेभ्यः सहस्रशः।
भोजवृष्ण्यन्धकाश्चैव महे तस्य गिरेस्तदा ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पर्वतपर होनेवाले उस उत्सवमें भोज, वृष्णि और अन्धकवंशके वीरोंने सहस्रों ब्राह्मणोंको दान दिया॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रासादै रत्नचित्रैश्च गिरेस्तस्य समन्ततः।
स देशः शोभितो राजन् कल्पवृक्षैश्च सर्वशः ॥ ३ ॥
मूलम्
प्रासादै रत्नचित्रैश्च गिरेस्तस्य समन्ततः।
स देशः शोभितो राजन् कल्पवृक्षैश्च सर्वशः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! उस पर्वतके चारों ओर रत्नजटित विचित्र राजभवन और कल्पवृक्ष थे, जिनसे उस स्थानकी बड़ी शोभा हो रही थी॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वादित्राणि च तत्रान्ये वादकाः समवादयन्।
ननृतुर्नर्तकाश्चैव जगुर्गेयानि गायनाः ॥ ४ ॥
मूलम्
वादित्राणि च तत्रान्ये वादकाः समवादयन्।
ननृतुर्नर्तकाश्चैव जगुर्गेयानि गायनाः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ बाजे बजानेमें कुशल मनुष्य अनेक प्रकारके बाजे बजाते, नाचनेवाले नाचते और गायकगण गीत गाते थे॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अलंकृताः कुमाराश्च वृष्णीनां सुमहौजसाम्।
यानैर्हाटकचित्रैश्च चञ्चूर्यन्ते स्म सर्वशः ॥ ५ ॥
मूलम्
अलंकृताः कुमाराश्च वृष्णीनां सुमहौजसाम्।
यानैर्हाटकचित्रैश्च चञ्चूर्यन्ते स्म सर्वशः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महान् तेजस्वी वृष्णिवंशियोंके बालक वस्त्राभूषणोंसे विभूषित हो सुवर्णचित्रित सवारियोंपर बैठकर देदीप्यमान होते हुए चारों ओर घूम रहे थे॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पौराश्च पादचारेण यानैरुच्चावचैस्तथा ।
सदाराः सानुयात्राश्च शतशोऽथ सहस्रशः ॥ ६ ॥
ततो हलधरः क्षीबो रेवतीसहितः प्रभुः।
अनुगम्यमानो गन्धर्वैरचरत् तत्र भारत ॥ ७ ॥
मूलम्
पौराश्च पादचारेण यानैरुच्चावचैस्तथा ।
सदाराः सानुयात्राश्च शतशोऽथ सहस्रशः ॥ ६ ॥
ततो हलधरः क्षीबो रेवतीसहितः प्रभुः।
अनुगम्यमानो गन्धर्वैरचरत् तत्र भारत ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
द्वारकापुरीके निवासी सैकड़ों-हजारों मनुष्य अपनी स्त्रियों और सेवकोंके साथ पैदल चलकर अथवा छोटी-बड़ी सवारियोंके द्वारा आकर उस उत्सवमें सम्मिलित हुए थे। भारत! भगवान् बलराम हर्षोन्मत्त होकर वहाँ रेवतीके साथ विचर रहे थे। उनके पीछे-पीछे गन्धर्व (गायक) चल रहे थे॥६-७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथैव राजा वृष्णीनामुग्रसेनः प्रतापवान्।
अनुगीयमानो गन्धर्वैः स्त्रीसहस्रसहायवान् ॥ ८ ॥
मूलम्
तथैव राजा वृष्णीनामुग्रसेनः प्रतापवान्।
अनुगीयमानो गन्धर्वैः स्त्रीसहस्रसहायवान् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वृष्णिवंशके प्रतापी राजा उग्रसेन भी वहाँ आमोद-प्रमोद कर रहे थे। उनके पास बहुतसे गन्धर्व गा रहे थे और सहस्रों स्त्रियाँ उनकी सेवा कर रही थीं॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रौक्मिणेयश्च साम्बश्च क्षीबौ समरदुर्मदौ।
दिव्यमाल्याम्बरधरौ विजह्रातेऽमराविव ॥ ९ ॥
मूलम्
रौक्मिणेयश्च साम्बश्च क्षीबौ समरदुर्मदौ।
दिव्यमाल्याम्बरधरौ विजह्रातेऽमराविव ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युद्धमें दुर्मद वीरवर प्रद्युम्न और साम्ब दिव्य मालाएँ तथा दिव्य वस्त्र धारण करके आनन्दसे उन्मत्त हो देवताओंकी भाँति विहार करते थे॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अक्रूरः सारणश्चैव गदो बभ्रुर्विदूरथः।
निशठश्चारुदेष्णश्च पृथुर्विपृथुरेव च ॥ १० ॥
सत्यकः सात्यकिश्चैव भङ्गकारमहारवौ ।
हार्दिक्य उद्धवश्चैव ये चान्ये नानुकीर्तिताः ॥ ११ ॥
एते परिवृताः स्त्रीभिर्गन्धर्वैश्च पृथक् पृथक्।
तमुत्सवं रैवतके शोभयाञ्चक्रिरे तदा ॥ १२ ॥
मूलम्
अक्रूरः सारणश्चैव गदो बभ्रुर्विदूरथः।
निशठश्चारुदेष्णश्च पृथुर्विपृथुरेव च ॥ १० ॥
सत्यकः सात्यकिश्चैव भङ्गकारमहारवौ ।
हार्दिक्य उद्धवश्चैव ये चान्ये नानुकीर्तिताः ॥ ११ ॥
एते परिवृताः स्त्रीभिर्गन्धर्वैश्च पृथक् पृथक्।
तमुत्सवं रैवतके शोभयाञ्चक्रिरे तदा ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अक्रूर, सारण, गद, बभ्रु, विदूरथ, निशठ, चारुदेष्ण, पृथु, विपृथु, सत्यक, सात्यकि, भंगकार, महारव, हृदिकपुत्र कृतवर्मा, उद्धव और जिनका नाम यहाँ नहीं लिया गया है, ऐसे अन्य यदुवंशी भी सब-के-सब अलग-अलग स्त्रियों और गन्धर्वोंसे घिरे हुए रैवतक पर्वतके उस उत्सवकी शोभा बढ़ा रहे थे॥१०—१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चित्रकौतूहले तस्मिन् वर्तमाने महाद्भुते।
वासुदेवश्च पार्थश्च सहितौ परिजग्मतुः ॥ १३ ॥
मूलम्
चित्रकौतूहले तस्मिन् वर्तमाने महाद्भुते।
वासुदेवश्च पार्थश्च सहितौ परिजग्मतुः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस अत्यन्त अद्भुत विचित्र कौतूहलपूर्ण उत्सवमें भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुन एक साथ घूम रहे थे॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र चङ्क्रममाणौ तौ वसुदेवसुतां शुभाम्।
अलंकृतां सखीमध्ये भद्रां ददृशतुस्तदा ॥ १४ ॥
मूलम्
तत्र चङ्क्रममाणौ तौ वसुदेवसुतां शुभाम्।
अलंकृतां सखीमध्ये भद्रां ददृशतुस्तदा ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी समय वहाँ वसुदेवजीकी सुन्दरी पुत्री सुभद्रा शृंगारसे सुसज्जित हो सखियोंसे घिरी हुई उधर आ निकली। वहाँ टहलते हुए श्रीकृष्ण और अर्जुनने उसे देखा॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृष्ट्वैव तामर्जुनस्य कन्दर्पः समजायत।
तं तदैकाग्रमनसं कृष्णः पार्थमलक्षयत् ॥ १५ ॥
मूलम्
दृष्ट्वैव तामर्जुनस्य कन्दर्पः समजायत।
तं तदैकाग्रमनसं कृष्णः पार्थमलक्षयत् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसे देखते ही अर्जुनके हृदयमें कामाग्नि प्रज्वलित हो उठी। उनका चित्त उसीके चिन्तनमें एकाग्र हो गया। भगवान् श्रीकृष्णने अर्जुनकी इस मनोदशाको भाँप लिया॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अब्रवीत् पुरुषव्याघ्रः प्रहसन्निव भारत।
वनेचरस्य किमिदं कामेनालोड्यते मनः ॥ १६ ॥
मूलम्
अब्रवीत् पुरुषव्याघ्रः प्रहसन्निव भारत।
वनेचरस्य किमिदं कामेनालोड्यते मनः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर वे पुरुषोतम हँसते हुए-से बोले—‘भारत! यह क्या, वनवासीका मन भी इस तरह कामसे उन्मथित हो रहा है?॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ममैषा भगिनी पार्थ सारणस्य सहोदरा।
सुभद्रा नाम भद्रं ते पितुर्मे दयिता सुता।
यदि ते वर्तते बुद्धिर्वक्ष्यामि पितरं स्वयम् ॥ १७ ॥
मूलम्
ममैषा भगिनी पार्थ सारणस्य सहोदरा।
सुभद्रा नाम भद्रं ते पितुर्मे दयिता सुता।
यदि ते वर्तते बुद्धिर्वक्ष्यामि पितरं स्वयम् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कुन्तीनन्दन! यह मेरी बहिन और सारणकी सगी बहिन है, तुम्हारा कल्याण हो, इसका नाम सुभद्रा है। यह मेरे पिताकी बड़ी लाड़िली कन्या है। यदि तुम्हारा विचार इससे ब्याह करनेका हो तो मैं पितासे स्वयं कहूँगा’॥१७॥
मूलम् (वचनम्)
अर्जुन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुहिता वसुदेवस्य वासुदेवस्य च स्वसा।
रूपेण चैषा सम्पन्ना कमिवैषा न मोहयेत् ॥ १८ ॥
मूलम्
दुहिता वसुदेवस्य वासुदेवस्य च स्वसा।
रूपेण चैषा सम्पन्ना कमिवैषा न मोहयेत् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुनने कहा— यह वसुदेवजीकी पुत्री, साक्षात् आप वासुदेवकी बहिन और अनुपम रूपसे सम्पन्न है, फिर यह किसका मन न मोह लेगी॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृतमेव तु कल्याणं सर्वं मम भवेद् ध्रुवम्।
यदि स्यान्मम वार्ष्णेयी महिषीयं स्वसा तव ॥ १९ ॥
मूलम्
कृतमेव तु कल्याणं सर्वं मम भवेद् ध्रुवम्।
यदि स्यान्मम वार्ष्णेयी महिषीयं स्वसा तव ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सखे! यदि यह वृष्णिकुलकी कुमारी और आपकी बहिन सुभद्रा मेरी रानी हो सके तो निश्चय ही मेरा समस्त कल्याणमय मनोरथ पूर्ण हो जाय॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्राप्तौ तु क उपायः स्यात् तं ब्रवीहि जनार्दन।
आस्थास्यामि तदा सर्वं यदि शक्यं नरेण तत् ॥ २० ॥
मूलम्
प्राप्तौ तु क उपायः स्यात् तं ब्रवीहि जनार्दन।
आस्थास्यामि तदा सर्वं यदि शक्यं नरेण तत् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जनार्दन! बताइये, इसे प्राप्त करनेका क्या उपाय हो सकता है? यदि मनुष्यके द्वारा कर सकने योग्य होगा तो वह सारा प्रयत्न मैं अवश्य करूँगा॥२०॥
मूलम् (वचनम्)
वासुदेव उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वयंवरः क्षत्रियाणां विवाहः पुरुषर्षभ।
स च संशयितः पार्थ स्वभावस्यानिमित्ततः ॥ २१ ॥
मूलम्
स्वयंवरः क्षत्रियाणां विवाहः पुरुषर्षभ।
स च संशयितः पार्थ स्वभावस्यानिमित्ततः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्ण बोले— नरश्रेष्ठ पार्थ! क्षत्रियोंके विवाहका स्वयंवर एक प्रकार है, परंतु उसका परिणाम संदिग्ध होता है; क्योंकि स्त्रियोंका स्वभाव अनिश्चित हुआ करता है (पता नहीं, वे स्वयंवरमें किसका वरण करें)॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रसह्य हरणं चापि क्षत्रियाणां प्रशस्यते।
विवाहहेतुः शूराणामिति धर्मविदो विदुः ॥ २२ ॥
मूलम्
प्रसह्य हरणं चापि क्षत्रियाणां प्रशस्यते।
विवाहहेतुः शूराणामिति धर्मविदो विदुः ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बलपूर्वक कन्याका हरण भी शूरवीर क्षत्रियोंके लिये विवाहका उत्तम हेतु कहा गया है; ऐसा धर्मज्ञ पुरुषोंका मत है॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स त्वमर्जुन कल्याणीं प्रसह्य भगिनीं मम।
हर स्वयंवरे ह्यस्याः को वै वेद चिकीर्षितम् ॥ २३ ॥
मूलम्
स त्वमर्जुन कल्याणीं प्रसह्य भगिनीं मम।
हर स्वयंवरे ह्यस्याः को वै वेद चिकीर्षितम् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः अर्जुन! मेरी राय तो यही है कि तुम मेरी कल्याणमयी बहिनको बलपूर्वक हर ले जाओ। कौन जानता है, स्वयंवरमें उसकी क्या चेष्टा होगी—वह किसे वरण करना चाहेगी?॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽर्जुनश्च कृष्णश्च विनिश्चित्येति कृत्यताम्।
शीघ्रगान् पुरुषानन्याम् प्रेषयामासतुस्तदा ॥ २४ ॥
धर्मराजाय तत् सर्वमिन्द्रप्रस्थगताय वै।
श्रुत्वैव च महाबाहुरनुजज्ञे स पाण्डवः ॥ २५ ॥
मूलम्
ततोऽर्जुनश्च कृष्णश्च विनिश्चित्येति कृत्यताम्।
शीघ्रगान् पुरुषानन्याम् प्रेषयामासतुस्तदा ॥ २४ ॥
धर्मराजाय तत् सर्वमिन्द्रप्रस्थगताय वै।
श्रुत्वैव च महाबाहुरनुजज्ञे स पाण्डवः ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब अर्जुन और श्रीकृष्णने कर्तव्यका निश्चय करके कुछ दूसरे शीघ्रगामी पुरुषोंको इन्द्रप्रस्थमें धर्मराज युधिष्ठिरके पास भेजा और सब बातें उन्हें सूचित करके उनकी सम्मति जाननेकी इच्छा प्रकट की। महाबाहु युधिष्ठिरने यह सुनते ही अपनी ओरसे आज्ञा दे दी॥२४-२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(भीमसेनस्तु तच्छ्रुत्वा कृतकृत्योऽभ्यमन्यत ।
इत्येवं मनुजैः सार्धमुक्त्वा प्रीतिमुपेयिवान्॥)
मूलम्
(भीमसेनस्तु तच्छ्रुत्वा कृतकृत्योऽभ्यमन्यत ।
इत्येवं मनुजैः सार्धमुक्त्वा प्रीतिमुपेयिवान्॥)
अनुवाद (हिन्दी)
भीमसेन यह समाचार सुनकर अपनेको कृतकृत्य मानने लगे और दूसरे लोगोंके साथ ये बातें करके उनको बड़ी प्रसन्नता हुई।
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सुभद्राहरणपर्वणि युधिष्ठिरानुज्ञायामष्टादशाधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २१८ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत सुभद्राहरणपर्वमें युधिष्ठिरकी आज्ञासम्बन्धी दो सौ अठारहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२१८॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका १ श्लोक मिलाकर कुल २६ श्लोक हैं)