श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना
एकादशाधिकद्विशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
तिलोत्तमापर मोहित होकर सुन्द-उपसुन्दका आपसमें लड़ना और मारा जाना एवं तिलोत्तमाको ब्रह्माजीद्वारा वरप्राप्ति तथा पाण्डवोंका द्रौपदीके विषयमें नियम-निर्धारण
मूलम् (वचनम्)
नारद उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
जित्वा तु पृथिवीं दैत्यौ निःसपत्नौ गतव्यथौ।
कृत्वा त्रैलोक्यमव्यग्रं कृतकृत्यौ बभूवतुः ॥ १ ॥
मूलम्
जित्वा तु पृथिवीं दैत्यौ निःसपत्नौ गतव्यथौ।
कृत्वा त्रैलोक्यमव्यग्रं कृतकृत्यौ बभूवतुः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नारदजी कहते हैं— युधिष्ठिर! वे दोनों दैत्य सुन्द और उपसुन्द सारी पृथ्वीको जीतकर शत्रुओंसे रहित एवं व्यथारहित हो तीनों लोकोंको पूर्णतः अपने वशमें करके कृतकृत्य हो गये॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवगन्धर्वयक्षाणां नागपार्थिवरक्षसाम् ।
आदाय सर्वरत्नानि परां तुष्टिमुपागतौ ॥ २ ॥
मूलम्
देवगन्धर्वयक्षाणां नागपार्थिवरक्षसाम् ।
आदाय सर्वरत्नानि परां तुष्टिमुपागतौ ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवता, गन्धर्व, यक्ष, नाग, मनुष्य तथा राक्षसोंके सभी रत्नोंको छीनकर उन दोनों दैत्योंको बड़ा हर्ष प्राप्त हुआ॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदा न प्रतिषेद्धारस्तयोः सन्तीह केचन।
निरुद्योगौ तदा भूत्वा विजह्रातेऽमराविव ॥ ३ ॥
मूलम्
यदा न प्रतिषेद्धारस्तयोः सन्तीह केचन।
निरुद्योगौ तदा भूत्वा विजह्रातेऽमराविव ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब त्रिलोकीमें उनका सामना करनेवाले कोई नहीं रह गये, तब वे देवताओंके समान अकर्मण्य होकर भोग-विलासमें लग गये॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्त्रीभिर्माल्यैश्च गन्धैश्च भक्ष्यभोज्यैः सुपुष्कलैः।
पानैश्च विविधैर्हृद्यैः परां प्रीतिमवापतुः ॥ ४ ॥
मूलम्
स्त्रीभिर्माल्यैश्च गन्धैश्च भक्ष्यभोज्यैः सुपुष्कलैः।
पानैश्च विविधैर्हृद्यैः परां प्रीतिमवापतुः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुन्दरी स्त्रियों, मनोहर मालाओं, भाँति-भाँतिके सुगन्ध-द्रव्यों, पर्याप्त भोजन-सामग्रियों तथा मनको प्रिय लगनेवाले अनेक प्रकारके पेय रसोंका सेवन करके वे बड़े आनन्दसे दिन बिताने लगे॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्तःपुरवनोद्याने पर्वतेषु वनेषु च।
यथेप्सितेषु देशेषु विजह्रातेऽमराविव ॥ ५ ॥
मूलम्
अन्तःपुरवनोद्याने पर्वतेषु वनेषु च।
यथेप्सितेषु देशेषु विजह्रातेऽमराविव ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अन्तःपुरके उपवन और उद्यानमें, पर्वतोंपर, वनोंमें तथा अन्य मनोवांछित प्रदेशोंमें भी वे देवताओंकी भाँति विहार करने लगे॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः कदाचिद् विन्ध्यस्य प्रस्थे समशिलातले।
पुष्पिताग्रेषु शालेषु विहारमभिजग्मतुः ॥ ६ ॥
मूलम्
ततः कदाचिद् विन्ध्यस्य प्रस्थे समशिलातले।
पुष्पिताग्रेषु शालेषु विहारमभिजग्मतुः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर एक दिन विन्ध्यपर्वतके शिखरपर जहाँकी शिलामयी भूमि समतल थी और जहाँ ऊँचे शाल-वृक्षोंकी शाखाएँ फूलोंसे भरी हुई थीं, वहाँ वे दोनों दैत्य विहार करनेके लिये गये॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिव्येषु सर्वकामेषु समानीतेषु तावुभौ।
वरासनेषु संहृष्टौ सह स्त्रीभिर्निषीदतुः ॥ ७ ॥
मूलम्
दिव्येषु सर्वकामेषु समानीतेषु तावुभौ।
वरासनेषु संहृष्टौ सह स्त्रीभिर्निषीदतुः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ उनके लिये सम्पूर्ण दिव्य भोग प्रस्तुत किये गये, तदनन्तर वे दोनों भाई श्रेष्ठ आसनोंपर सुन्दरी स्त्रियोंके साथ आनन्दमग्न होकर बैठे॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो वादित्रनृत्याभ्यामुपातिष्ठन्त तौ स्त्रियः।
गीतैश्च स्तुतिसंयुक्तैः प्रीत्या समुपजग्मिरे ॥ ८ ॥
मूलम्
ततो वादित्रनृत्याभ्यामुपातिष्ठन्त तौ स्त्रियः।
गीतैश्च स्तुतिसंयुक्तैः प्रीत्या समुपजग्मिरे ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर बहुत-सी स्त्रियाँ प्रेमपूर्वक उनके पास आयीं और वाद्य, नृत्य, गीत एवं स्तुति-प्रशंसा आदिके द्वारा उन दोनोंका मनोरंजन करने लगीं॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तिलोत्तमा तत्र वने पुष्पाणि चिन्वती।
वेशं साऽऽक्षिप्तमाधाय रक्तेनैकेन वाससा ॥ ९ ॥
मूलम्
ततस्तिलोत्तमा तत्र वने पुष्पाणि चिन्वती।
वेशं साऽऽक्षिप्तमाधाय रक्तेनैकेन वाससा ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी समय तिलोत्तमा वहाँ वनमें फूल चुनती हुई आयी। उसके शरीरपर एक ही लाल रंगकी महीन साड़ी थी। उसने ऐसा वेश धारण कर रखा था, जो किसी भी पुरुषको उन्मत्त बना सकता था॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नदीतीरेषु जातान् सा कर्णिकारान् प्रचिन्वती।
शनैर्जगाम तं देशं यत्रास्तां तौ महासुरौ ॥ १० ॥
मूलम्
नदीतीरेषु जातान् सा कर्णिकारान् प्रचिन्वती।
शनैर्जगाम तं देशं यत्रास्तां तौ महासुरौ ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नदीके किनारे उगे हुए कनेरके फूलोंका संग्रह करती हुई वह धीरे-धीरे उसी स्थानकी ओर गयी, जहाँ वे दोनों महादैत्य बैठे थे॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तौ तु पीत्वा वरं पानं मदरक्तान्तलोचनौ।
दृष्ट्वैव तां वरारोहां व्यथितौ सम्बभूवतुः ॥ ११ ॥
मूलम्
तौ तु पीत्वा वरं पानं मदरक्तान्तलोचनौ।
दृष्ट्वैव तां वरारोहां व्यथितौ सम्बभूवतुः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन दोनोंने बहुत अच्छा मादक रस पी लिया था, जिससे उनके नेत्र नशेके कारण कुछ लाल हो गये थे। उस सुन्दर अंगोंवाली तिलोत्तमाको देखते ही वे दोनों दैत्य कामवेदनासे व्यथित हो उठे॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तावुत्थायासनं हित्वा जग्मतुर्यत्र सा स्थिता।
उभौ च कामसम्मत्तावुभौ प्रार्थयतश्च ताम् ॥ १२ ॥
मूलम्
तावुत्थायासनं हित्वा जग्मतुर्यत्र सा स्थिता।
उभौ च कामसम्मत्तावुभौ प्रार्थयतश्च ताम् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
और अपना आसन छोड़कर खड़े हो उसी स्थानपर गये, जहाँ वह खड़ी थी। दोनों ही कामसे उन्मत्त हो रहे थे, इसलिये दोनों ही उसे अपनी स्त्री बनानेके लिये उससे प्रेमकी याचना करने लगे॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दक्षिणे तां करे सुभ्रूं सुन्दो जग्राह पाणिना।
उपसुन्दोऽपि जग्राह वामे पाणौ तिलोत्तमाम् ॥ १३ ॥
मूलम्
दक्षिणे तां करे सुभ्रूं सुन्दो जग्राह पाणिना।
उपसुन्दोऽपि जग्राह वामे पाणौ तिलोत्तमाम् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुन्दने सुन्दर भौंहोंवाली तिलोत्तमाका दाहिना हाथ पकड़ा और उपसुन्दने उसका बायाँ हाथ पकड़ लिया॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वरप्रदानमत्तौ तावौरसेन बलेन च।
धनरत्नमदाभ्यां च सुरापानमदेन च ॥ १४ ॥
मूलम्
वरप्रदानमत्तौ तावौरसेन बलेन च।
धनरत्नमदाभ्यां च सुरापानमदेन च ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक तो वे दुर्लभ वरदानके मदसे उन्मत्त थे, दूसरे उनपर अपने स्वाभाविक बलका नशा सवार था। इसके सिवा धनमद, रत्नमद और सुरापानके मदसे भी वे उन्मत्त हो रहे थे॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वैरेतैर्मदैर्मत्तावन्योन्यं भ्रुकुटीकृतौ ।
(तौ कटाक्षेण दैत्येन्द्रावाकर्षति मुहुर्मुहुः।
दक्षिणेन कटाक्षेण सुन्दं जग्राह कामिनी॥
वामेनैव कटाक्षेण उपसुन्दं जिघृक्षती।
गन्धाभरणरूपैस्तौ व्यामोहं जग्मतुस्तदा ॥)
मदकामसमाविष्टौ परस्परमथोचतुः ॥ १५ ॥
मूलम्
सर्वैरेतैर्मदैर्मत्तावन्योन्यं भ्रुकुटीकृतौ ।
(तौ कटाक्षेण दैत्येन्द्रावाकर्षति मुहुर्मुहुः।
दक्षिणेन कटाक्षेण सुन्दं जग्राह कामिनी॥
वामेनैव कटाक्षेण उपसुन्दं जिघृक्षती।
गन्धाभरणरूपैस्तौ व्यामोहं जग्मतुस्तदा ॥)
मदकामसमाविष्टौ परस्परमथोचतुः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन सभी मदोंसे उन्मत्त होनेके कारण आपसमें ही एक-दूसरेपर उनकी भौंहें तन गयीं। तिलोत्तमा कटाक्षद्वारा उन दोनों दैत्यराजोंको बार-बार अपनी ओर आकृष्ट कर रही थी। उस कामिनीने अपने दाहिने कटाक्षसे सुन्दको आकृष्ट कर लिया और बायें कटाक्षसे वह उपसुन्दको वशमें करनेकी चेष्टा करने लगी। उसकी दिव्य सुगन्ध, आभूषणराशि तथा रूपसम्पत्तिसे वे दोनों दैत्य तत्काल मोहित हो गये। उनमें मद और कामका आवेश हो गया; अतः वे एक-दूसरेसे इस प्रकार बोले—॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मम भार्या तव गुरुरिति सुन्दोऽभ्यभाषत।
मम भार्या तव वधूरुपसुन्दोऽभ्यभाषत ॥ १६ ॥
मूलम्
मम भार्या तव गुरुरिति सुन्दोऽभ्यभाषत।
मम भार्या तव वधूरुपसुन्दोऽभ्यभाषत ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुन्दने कहा—‘अरे! यह मेरी पत्नी है, तुम्हारे लिये माताके समान है।’ यह सुनकर उपसुन्द बोल उठा—‘नहीं-नहीं, यह मेरी भार्या है, तुम्हारे लिये तो पुत्रवधूके समान है’॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैषा तव ममैषेति ततस्तौ मन्युराविशत्।
तस्या रूपेण सम्मत्तौ विगतस्नेहसौहृदौ ॥ १७ ॥
मूलम्
नैषा तव ममैषेति ततस्तौ मन्युराविशत्।
तस्या रूपेण सम्मत्तौ विगतस्नेहसौहृदौ ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यह तुम्हारी नहीं है, मेरी है’, यही कहते-कहते उन दोनोंको क्रोध चढ़ आया। तिलोत्तमाके रूपसे मतवाले होकर वे दोनों स्नेह और सौहार्दसे शून्य हो गये॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्या हेतोर्गदे भीमे संगृह्णीतावुभौ तदा।
प्रगृह्य च गदे भीमे तस्यां तौ काममोहितौ ॥ १८ ॥
मूलम्
तस्या हेतोर्गदे भीमे संगृह्णीतावुभौ तदा।
प्रगृह्य च गदे भीमे तस्यां तौ काममोहितौ ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस सुन्दरीको पानेके लिये दोनों भाइयोंने उस समय हाथमें भयंकर गदाएँ ले लीं। दोनों ही उसके प्रति कामसे मोहित हो रहे थे॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं पूर्वमहं पूर्वमित्यन्योन्यं निजघ्नतुः।
तौ गदाभिहतौ भीमौ पेततुर्धरणीतले ॥ १९ ॥
मूलम्
अहं पूर्वमहं पूर्वमित्यन्योन्यं निजघ्नतुः।
तौ गदाभिहतौ भीमौ पेततुर्धरणीतले ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पहले मैं इसे प्राप्त करूँगा’, ‘नहीं, पहले मैं’; ऐसा कहते हुए दोनों एक-दूसरेको मारने लगे। इस प्रकार गदाओंकी चोट खाकर वे दोनों भयानक दैत्य धरतीपर गिर पड़े॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रुधिरेणावसिक्ताङ्गौ द्वाविवार्कौ नभश्च्युतौ ।
ततस्ता विद्रुता नार्यः स च दैत्यगणस्तथा ॥ २० ॥
पातालमगमत् सर्वो विषादभयकम्पितः ।
ततः पितामहस्तत्र सह देवैर्महर्षिभिः ॥ २१ ॥
आजगाम विशुद्धात्मा पूजयंश्च तिलोत्तमाम्।
वरेणच्छन्दयामास भगवान् प्रपितामहः ॥ २२ ॥
मूलम्
रुधिरेणावसिक्ताङ्गौ द्वाविवार्कौ नभश्च्युतौ ।
ततस्ता विद्रुता नार्यः स च दैत्यगणस्तथा ॥ २० ॥
पातालमगमत् सर्वो विषादभयकम्पितः ।
ततः पितामहस्तत्र सह देवैर्महर्षिभिः ॥ २१ ॥
आजगाम विशुद्धात्मा पूजयंश्च तिलोत्तमाम्।
वरेणच्छन्दयामास भगवान् प्रपितामहः ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके सारे अंग खूनसे लथपथ हो रहे थे। ऐसा जान पड़ता था, मानो आकाशसे दो सूर्य पृथ्वीपर गिर गये हों। उनके मारे जानेपर वे सब स्त्रियाँ वहाँसे भाग गयीं और दैत्योंका वह सारा समुदाय विषाद और भयसे कम्पित होकर पातालमें चला गया। तत्पश्चात् विशुद्ध अन्तःकरणवाले भगवान् ब्रह्माजी देवताओं और महर्षियोंके साथ तिलोत्तमाकी प्रशंसा करते हुए वहाँ आये और भगवान् पितामहने उसे वरके द्वारा प्रसन्न किया॥२०—२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वरं दित्सुः स तत्रैनां प्रीतः प्राह पितामहः।
आदित्यचरिताल्ँलोकान् विचरिष्यसि भाविनि ॥ २३ ॥
तेजसा च सुदृष्टां त्वां न करिष्यति कश्चन।
एवं तस्यै वरं दत्त्वा सर्वलोकपितामहः ॥ २४ ॥
इन्द्रे त्रैलोक्यमाधाय ब्रह्मलोकं गतः प्रभुः।
मूलम्
वरं दित्सुः स तत्रैनां प्रीतः प्राह पितामहः।
आदित्यचरिताल्ँलोकान् विचरिष्यसि भाविनि ॥ २३ ॥
तेजसा च सुदृष्टां त्वां न करिष्यति कश्चन।
एवं तस्यै वरं दत्त्वा सर्वलोकपितामहः ॥ २४ ॥
इन्द्रे त्रैलोक्यमाधाय ब्रह्मलोकं गतः प्रभुः।
अनुवाद (हिन्दी)
वर देनेके लिये उत्सुक हुए ब्रह्माजी स्वयं ही प्रसन्नतापूर्वक बोले—‘भामिनि! जहाँतक सूर्यकी गति है, उन सभी लोकोंमें तू इच्छानुसार विचर सकेगी। तुझमें इतना तेज होगा कि कोई आँख भरकर तुझे अच्छी तरह देख भी न सकेगा।’ इस प्रकार सम्पूर्ण लोकोंके पितामह ब्रह्माजी तिलोत्तमाको वरदान देकर तथा त्रिलोकीकी रक्षाका भार इन्द्रको सौंपकर पुनः ब्रह्मलोकको चले गये॥२३-२४॥
मूलम् (वचनम्)
नारद उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं तौ सहितौ भूत्वा सर्वार्थेष्वेकनिश्चयौ ॥ २५ ॥
तिलोत्तमार्थं संक्रुद्धावन्योन्यमभिजघ्नतुः ।
तस्माद् ब्रवीमि वः स्नेहात् सर्वान् भरतसत्तमाः ॥ २६ ॥
यथा वो नात्र भेदः स्यात् सर्वेषां द्रौपदीकृते।
तथा कुरुत भद्रं वो मम चेत् प्रियमिच्छथ ॥ २७ ॥
मूलम्
एवं तौ सहितौ भूत्वा सर्वार्थेष्वेकनिश्चयौ ॥ २५ ॥
तिलोत्तमार्थं संक्रुद्धावन्योन्यमभिजघ्नतुः ।
तस्माद् ब्रवीमि वः स्नेहात् सर्वान् भरतसत्तमाः ॥ २६ ॥
यथा वो नात्र भेदः स्यात् सर्वेषां द्रौपदीकृते।
तथा कुरुत भद्रं वो मम चेत् प्रियमिच्छथ ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नारदजी कहते हैं— युधिष्ठिर! इस प्रकार सुन्द और उपसुन्दने परस्पर संगठित और सभी बातोंमें एकमत रहकर भी तिलोत्तमाके लिये कुपित हो एक-दूसरेको मार डाला। अतः भरतवंशशिरोमणियो! मैं तुम सब लोगोंसे स्नेहवश कहता हूँ कि यदि मेरा प्रिय चाहते हो, तो ऐसा कुछ नियम बना लो, जिससे द्रौपदीके लिये तुम सब लोगोंमें फूट न होने पावे। तुम्हारा कल्याण हो॥२५—२७॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्ता महात्मानो नारदेन महर्षिणा।
समयं चक्रिरे राजंस्तेऽन्योन्यवशमागताः ।
समक्षं तस्य देवर्षेर्नारदस्यामितौजसः ॥ २८ ॥
मूलम्
एवमुक्ता महात्मानो नारदेन महर्षिणा।
समयं चक्रिरे राजंस्तेऽन्योन्यवशमागताः ।
समक्षं तस्य देवर्षेर्नारदस्यामितौजसः ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! देवर्षि नारदके ऐसा कहनेपर एक-दूसरेके अधीन रहनेवाले उन अमिततेजस्वी महात्मा पाण्डवोंने देवर्षिके सामने ही यह नियम बनाया—॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(एकैकस्य गृहे कृष्णा वसेद् वर्षमकल्मषा।)
द्रौपद्या नः सहासीनानन्योन्यं योऽभिदर्शयेत्।
स नो द्वादश वर्षाणि ब्रह्मचारी वने वसेत् ॥ २९ ॥
मूलम्
(एकैकस्य गृहे कृष्णा वसेद् वर्षमकल्मषा।)
द्रौपद्या नः सहासीनानन्योन्यं योऽभिदर्शयेत्।
स नो द्वादश वर्षाणि ब्रह्मचारी वने वसेत् ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘हममेंसे प्रत्येकके घरमें पापरहित द्रौपदी एक-एक वर्ष निवास करे। द्रौपदीके साथ एकान्तमें बैठे हुए हममेंसे एक भाईको यदि दूसरा देख ले, तो वह बारह वर्षोंतक ब्रह्मचर्यपूर्वक वनमें निवास करे’॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृते तु समये तस्मिन् पाण्डवैर्धर्मचारिभिः।
नारदोऽप्यगमत् प्रीत इष्टं देशं महामुनिः ॥ ३० ॥
मूलम्
कृते तु समये तस्मिन् पाण्डवैर्धर्मचारिभिः।
नारदोऽप्यगमत् प्रीत इष्टं देशं महामुनिः ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्मका आचरण करनेवाले पाण्डवोंद्वारा यह नियम स्वीकार कर लिये जानेपर महामुनि नारदजी प्रसन्न हो अभीष्ट स्थानको चले गये॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं तैः समयः पूर्वं कृतो नारदचोदितैः।
न चाभिद्यन्त ते सर्वे तदान्योन्येन भारत ॥ ३१ ॥
मूलम्
एवं तैः समयः पूर्वं कृतो नारदचोदितैः।
न चाभिद्यन्त ते सर्वे तदान्योन्येन भारत ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! इस प्रकार नारदजीकी प्रेरणासे पाण्डवोंने पहले ही नियम बना लिया था। इसीलिये वे सब आपसमें कभी एक-दूसरेके विरोधी नहीं हुए॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(एतद् विस्तरशः सर्वमाख्यातं ते नरेश्वर।
काले च तस्मिन् सम्पन्नं यथावज्जनमेजय॥)
मूलम्
(एतद् विस्तरशः सर्वमाख्यातं ते नरेश्वर।
काले च तस्मिन् सम्पन्नं यथावज्जनमेजय॥)
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर जनमेजय! उस समय जो बातें जिस प्रकार घटित हुई थीं, वे सब मैंने तुम्हें विस्तारपूर्वक बतायी हैं।
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि विदुरागमनराज्यलम्भपर्वणि सुन्दोपसुन्दोपाख्याने एकादशाधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २११ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत विदुरागमनराज्यम्भपर्वमें सुन्दोपसुन्दोपाख्यानविषयक दो सौ ग्यारहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२११॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ३ श्लोक मिलाकर कुल ३४ श्लोक हैं)