श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना
नवाधिकद्विशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
सुन्द और उपसुन्दद्वारा क्रूरतापूर्ण कर्मोंसे त्रिलोकीपर विजय प्राप्त करना
मूलम् (वचनम्)
नारद उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
उत्सवे वृत्तमात्रे तु त्रैलोक्याकाङ्क्षिणावुभौ।
मन्त्रयित्वा ततः सेनां तावाज्ञापयतां तदा ॥ १ ॥
मूलम्
उत्सवे वृत्तमात्रे तु त्रैलोक्याकाङ्क्षिणावुभौ।
मन्त्रयित्वा ततः सेनां तावाज्ञापयतां तदा ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नारदजी कहते हैं— युधिष्ठिर! उत्सव समाप्त हो जानेपर तीनों लोकोंको अपने अधिकारमें करनेकी इच्छासे आपसमें सलाह करके उन दोनों दैत्योंने सेनाको कूच करनेकी आज्ञा दी॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुहृद्भिरप्यनुज्ञातौ दैत्यैर्वृद्धैश्च मन्त्रिभिः ।
कृत्वा प्रास्थानिकं रात्रौ मघासु ययतुस्तदा ॥ २ ॥
मूलम्
सुहृद्भिरप्यनुज्ञातौ दैत्यैर्वृद्धैश्च मन्त्रिभिः ।
कृत्वा प्रास्थानिकं रात्रौ मघासु ययतुस्तदा ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुहृदों तथा दैत्यजातीय बूढ़े मन्त्रियोंकी अनुमति लेकर उन्होंने रातके समय मघा नक्षत्रमें प्रस्थान करके यात्रा प्रारम्भ की॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गदापट्टिशधारिण्या शूलमुद्गरहस्तया ।
प्रस्थितौ सह वर्मिण्या महत्या दैत्यसेनया ॥ ३ ॥
मङ्गलैः स्तुतिभिश्चापि विजयप्रतिसंहितैः ।
चारणैः स्तूयमानौ तौ जग्मतुः परया मुदा ॥ ४ ॥
मूलम्
गदापट्टिशधारिण्या शूलमुद्गरहस्तया ।
प्रस्थितौ सह वर्मिण्या महत्या दैत्यसेनया ॥ ३ ॥
मङ्गलैः स्तुतिभिश्चापि विजयप्रतिसंहितैः ।
चारणैः स्तूयमानौ तौ जग्मतुः परया मुदा ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके साथ गदा, पट्टिश, शूल, मुद्गर और कवचसे सुसज्जित दैत्योंकी विशाल सेना जा रही थी। वे दोनों सेनाके साथ प्रस्थान कर रहे थे। चारणलोग विजयसूचक मंगल और स्तुतिपाठ करते हुए उन दोनोंके गुण गाते जाते थे। इस प्रकार उन दोनों दैत्योंने बड़े आनन्दसे यात्रा की॥३-४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तावन्तरिक्षमुत्प्लुत्य दैत्यौ कामगमावुभौ ।
देवानामेव भवनं जग्मतुर्युद्धदुर्मदौ ॥ ५ ॥
मूलम्
तावन्तरिक्षमुत्प्लुत्य दैत्यौ कामगमावुभौ ।
देवानामेव भवनं जग्मतुर्युद्धदुर्मदौ ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युद्धके लिये उन्मत्त रहनेवाले वे दोनों दैत्य इच्छानुसार सर्वत्र जानेकी शक्ति रखते थे; अतः आकाशमें उछलकर पहले देवताओंके ही घरोंपर जा चढ़े॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तयोरागमनं ज्ञात्वा वरदानं च तत् प्रभोः।
हित्वा त्रिविष्टपं जग्मुर्ब्रह्मलोकं ततः सुराः ॥ ६ ॥
मूलम्
तयोरागमनं ज्ञात्वा वरदानं च तत् प्रभोः।
हित्वा त्रिविष्टपं जग्मुर्ब्रह्मलोकं ततः सुराः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनका आगमन सुनकर और ब्रह्माजीसे मिले हुए उनके वरदानका विचार करके देवतालोग स्वर्ग छोड़कर ब्रह्मलोकमें चले गये॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ताविन्द्रलोकं निर्जित्य यक्षरक्षोगणांस्तदा ।
खेचराण्यपि भूतानि जघ्नतुस्तीव्रविक्रमौ ॥ ७ ॥
मूलम्
ताविन्द्रलोकं निर्जित्य यक्षरक्षोगणांस्तदा ।
खेचराण्यपि भूतानि जघ्नतुस्तीव्रविक्रमौ ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार इन्द्रलोकपर विजय पाकर वे तीव्रपराक्रमी दैत्य यक्षों, राक्षसों तथा अन्यान्य आकाशचारी भूतोंको मारने और पीड़ा देने लगे॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्तर्भूमिगतान् नागाञ्जित्वा तौ च महारथौ।
समुद्रवासिनीः सर्वा म्लेच्छजातीर्विजिग्यतुः ॥ ८ ॥
मूलम्
अन्तर्भूमिगतान् नागाञ्जित्वा तौ च महारथौ।
समुद्रवासिनीः सर्वा म्लेच्छजातीर्विजिग्यतुः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन दोनों महारथियोंने भूमिके अंदर पातालमें रहनेवाले नागोंको जीतकर समुद्रके तटपर निवास करनेवाली सम्पूर्ण म्लेच्छ जातियोंको परास्त किया॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः सर्वां महीं जेतुमारब्धावुग्रशासनौ।
सैनिकांश्च समाहूय सुतीक्ष्णं वाक्यमूचतुः ॥ ९ ॥
मूलम्
ततः सर्वां महीं जेतुमारब्धावुग्रशासनौ।
सैनिकांश्च समाहूय सुतीक्ष्णं वाक्यमूचतुः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर भयंकर शासन करनेवाले वे दोनों दैत्य सारी पृथ्वीको जीतनेके लिये उद्यत हो गये और अपने सैनिकोंको बुलाकर अत्यन्त तीखे वचन बोले—॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजर्षयो महायज्ञैर्हव्यकव्यैर्द्विजातयः ।
तेजो बलं च देवानां वर्धयन्ति श्रियं तथा ॥ १० ॥
मूलम्
राजर्षयो महायज्ञैर्हव्यकव्यैर्द्विजातयः ।
तेजो बलं च देवानां वर्धयन्ति श्रियं तथा ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इस पृथ्वीपर बहुतसे राजर्षि और ब्राह्मण रहते हैं, जो बड़े-बड़े यज्ञ करके हव्य-कव्योंद्वारा देवताओंके तेज, बल और लक्ष्मीकी वृद्धि किया करते हैं’॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषामेवंप्रवृत्तानां सर्वेषामसुरद्विषाम् ।
सम्भूय सर्वैरस्माभिः कार्यः सर्वात्मना वधः ॥ ११ ॥
मूलम्
तेषामेवंप्रवृत्तानां सर्वेषामसुरद्विषाम् ।
सम्भूय सर्वैरस्माभिः कार्यः सर्वात्मना वधः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इस प्रकार यज्ञादि कर्मोंमें लगे हुए वे सभी लोग असुरोंके द्रोही हैं। इसलिये हम सबको संगठित होकर उन सबका सब प्रकारसे वध कर डालना चाहिये’॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं सर्वान् समादिश्य पूर्वतीरे महोदधेः।
क्रूरां मतिं समास्थाय जग्मतुः सर्वतोमुखौ ॥ १२ ॥
मूलम्
एवं सर्वान् समादिश्य पूर्वतीरे महोदधेः।
क्रूरां मतिं समास्थाय जग्मतुः सर्वतोमुखौ ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
समुद्रके पूर्वतटपर अपने समस्त सैनिकोंको ऐसा आदेश देकर मनमें क्रूर संकल्प लिये वे दोनों भाई सब ओर आक्रमण करने लगे॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यज्ञैर्यजन्ति ये केचिद् याजयन्ति च ये द्विजाः।
तान् सर्वान् प्रसभं हत्वा बलिनौ जग्मतुस्ततः ॥ १३ ॥
मूलम्
यज्ञैर्यजन्ति ये केचिद् याजयन्ति च ये द्विजाः।
तान् सर्वान् प्रसभं हत्वा बलिनौ जग्मतुस्ततः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो लोग यज्ञ करते तथा जो ब्राह्मण आचार्य बनकर यज्ञ कराते थे, उन सबका बलपूर्वक वध करके वे महाबली दैत्य आगे बढ़ जाते थे॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आश्रमेष्वग्निहोत्राणि मुनीनां भावितात्मनाम् ।
गृहीत्वा प्रक्षिपन्त्यप्सु विश्रब्धं सैनिकास्तयोः ॥ १४ ॥
मूलम्
आश्रमेष्वग्निहोत्राणि मुनीनां भावितात्मनाम् ।
गृहीत्वा प्रक्षिपन्त्यप्सु विश्रब्धं सैनिकास्तयोः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके सैनिक शुद्धात्मा मुनियोंके आश्रमोंपर जाकर उनके अग्निहोत्रकी सामग्री उठाकर बिना किसी डर-भयके पानीमें फेंक देते थे॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तपोधनैश्च ये क्रुद्धैः शापा उक्ता महात्मभिः।
नाक्रामन्त तयोस्तेऽपि वरदाननिराकृताः ॥ १५ ॥
मूलम्
तपोधनैश्च ये क्रुद्धैः शापा उक्ता महात्मभिः।
नाक्रामन्त तयोस्तेऽपि वरदाननिराकृताः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुछ तपस्याके धनी महात्माओंने क्रोधमें भरकर उन्हें जो शाप दिये, उनके शाप भी उन दैत्योंके मिले हुए वरदानसे प्रतिहत होकर उनका कुछ बिगाड़ नहीं सके॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाक्रामन्त यदा शापा बाणा मुक्ताः शिलास्विव।
नियमान् सम्परित्यज्य व्यद्रवन्त द्विजातयः ॥ १६ ॥
मूलम्
नाक्रामन्त यदा शापा बाणा मुक्ताः शिलास्विव।
नियमान् सम्परित्यज्य व्यद्रवन्त द्विजातयः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पत्थरपर चलाये हुए बाणोंकी भाँति जब शाप उन्हें पीड़ित न कर सके, तब ब्राह्मणलोग अपने सारे नियम छोड़कर वहाँसे भाग चले॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पृथिव्यां ये तपःसिद्धा दान्ताः शमपरायणाः।
तयोर्भयाद् दुद्रुवुस्ते वैनतेयादिवोरगाः ॥ १७ ॥
मूलम्
पृथिव्यां ये तपःसिद्धा दान्ताः शमपरायणाः।
तयोर्भयाद् दुद्रुवुस्ते वैनतेयादिवोरगाः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे साँप गरुड़के डरसे भाग जाते हैं, उसी प्रकार भूमण्डलके जितेन्द्रिय, शान्तिपरायण एवं तपःसिद्ध महात्मा भी उन दोनों दैत्योंके भयसे भाग जाते थे॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मथितैराश्रमैर्भग्नैर्विकीर्णकलशस्रुवैः ।
शून्यमासीज्जगत् सर्वं कालेनेव हतं तदा ॥ १८ ॥
मूलम्
मथितैराश्रमैर्भग्नैर्विकीर्णकलशस्रुवैः ।
शून्यमासीज्जगत् सर्वं कालेनेव हतं तदा ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सारे आश्रम मथकर उजाड़ डाले गये। कलश और स्रुव तोड़-फोड़कर फेंक दिये गये। उस समय सारा जगत् कालके द्वारा विनष्ट हुएकी भाँति सूना हो गया॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो राजन्नदृश्यद्भिर्ऋषिभिश्च महासुरौ ।
उभौ विनिश्चयं कृत्वा विकुर्वाते वधैषिणौ ॥ १९ ॥
मूलम्
ततो राजन्नदृश्यद्भिर्ऋषिभिश्च महासुरौ ।
उभौ विनिश्चयं कृत्वा विकुर्वाते वधैषिणौ ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! तदनन्तर जब गुफाओंमें छिपे हुए ऋषि दिखायी न दिये, तब उन दोनोंने एक राय करके उनके वधकी इच्छासे अपने स्वरूपको अनेक जीव-जन्तुओंके रूपमें बदल लिया॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रभिन्नकरटौ मत्तौ भूत्वा कुञ्जररूपिणौ।
संलीनमपि दुर्गेषु निन्यतुर्यमसादनम् ॥ २० ॥
मूलम्
प्रभिन्नकरटौ मत्तौ भूत्वा कुञ्जररूपिणौ।
संलीनमपि दुर्गेषु निन्यतुर्यमसादनम् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कठिन-से-कठिन स्थानमें छिपे हुए मुनिको भी वे मद बहानेवाले मतवाले हाथीका रूप धारण करके यमलोक पहुँचा देते थे॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सिंहौ भूत्वा पुनर्व्याघ्रौ पुनश्चान्तर्हितावुभौ।
तैस्तैरुपायैस्तौ क्रूरावृषीन् दृष्ट्वा निजघ्नतुः ॥ २१ ॥
निवृत्तयज्ञस्वाध्याया प्रणष्टनृपतिद्विजा ।
उत्सन्नोत्सवयज्ञा च बभूव वसुधा तदा ॥ २२ ॥
मूलम्
सिंहौ भूत्वा पुनर्व्याघ्रौ पुनश्चान्तर्हितावुभौ।
तैस्तैरुपायैस्तौ क्रूरावृषीन् दृष्ट्वा निजघ्नतुः ॥ २१ ॥
निवृत्तयज्ञस्वाध्याया प्रणष्टनृपतिद्विजा ।
उत्सन्नोत्सवयज्ञा च बभूव वसुधा तदा ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे कभी सिंह होते, कभी बाघ बन जाते और कभी अदृश्य हो जाते थे। इस प्रकार वे क्रूर दैत्य विभिन्न उपायोंद्वारा ऋषियोंको ढूँढ़-ढूँढ़कर मारने लगे। उस समय पृथ्वीपर यज्ञ और स्वाध्याय बंद हो गये। राजर्षि और ब्राह्मण नष्ट हो गये और यात्रा, विवाह आदि उत्सवों तथा यज्ञोंकी सर्वथा समाप्ति हो गयी॥२१-२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हाहाभूता भयार्ता च निवृत्तविपणापणा।
निवृत्तदेवकार्या च पुण्योद्वाहविवर्जिता ॥ २३ ॥
मूलम्
हाहाभूता भयार्ता च निवृत्तविपणापणा।
निवृत्तदेवकार्या च पुण्योद्वाहविवर्जिता ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सर्वत्र हाहाकार छा रहा था, भयका आर्तनाद सुनायी पड़ता था। बाजारोंमें खरीद-बिक्रीका नाम नहीं था। देवकार्य बंद हो गये। पुण्य और विवाहादि कर्म छूट गये थे॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निवृत्तकृषिगोरक्षा विध्वस्तनगराश्रमा ।
अस्थिकङ्कालसंकीर्णा भूर्बभूवोग्रदर्शना ॥ २४ ॥
मूलम्
निवृत्तकृषिगोरक्षा विध्वस्तनगराश्रमा ।
अस्थिकङ्कालसंकीर्णा भूर्बभूवोग्रदर्शना ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कृषि और गोरक्षाका नाम नहीं था, नगर और आश्रम उजड़कर खण्डहर हो गये थे। चारों ओर हड्डियाँ और कंकाल भरे पड़े थे। इस प्रकार पृथ्वीकी ओर देखना भी भयानक प्रतीत होता था॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निवृत्तपितृकार्यं च निर्वषट्कारमङ्गलम् ।
जगत् प्रतिभयाकारं दुष्प्रेक्ष्यमभवत् तदा ॥ २५ ॥
मूलम्
निवृत्तपितृकार्यं च निर्वषट्कारमङ्गलम् ।
जगत् प्रतिभयाकारं दुष्प्रेक्ष्यमभवत् तदा ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्राद्धकर्म लुप्त हो गया। वषट्कार और मंगलका कहीं नाम नहीं रह गया। सारा जगत् भयानक प्रतीत होता था। इसकी ओर देखनातक कठिन हो गया था॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चन्द्रादित्यौ ग्रहास्तारा नक्षत्राणि दिवौकसः।
जग्मुर्विषादं तत् कर्म दृष्ट्वा सुन्दोपसुन्दयोः ॥ २६ ॥
मूलम्
चन्द्रादित्यौ ग्रहास्तारा नक्षत्राणि दिवौकसः।
जग्मुर्विषादं तत् कर्म दृष्ट्वा सुन्दोपसुन्दयोः ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुन्द और उपसुन्दका वह भयानक कर्म देखकर चन्द्रमा, सूर्य, ग्रह, तारे, नक्षत्र और देवता सभी अत्यन्त खिन्न हो उठे॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं सर्वा दिशो दैत्यौ जित्वा क्रूरेण कर्मणा।
निःसपत्नौ कुरुक्षेत्रे निवेशमभिचक्रतुः ॥ २७ ॥
मूलम्
एवं सर्वा दिशो दैत्यौ जित्वा क्रूरेण कर्मणा।
निःसपत्नौ कुरुक्षेत्रे निवेशमभिचक्रतुः ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार वे दोनों दैत्य अपने क्रूर कर्मद्वारा सम्पूर्ण दिशाओंको जीतकर शत्रुओंसे रहित हो कुरुक्षेत्रमें निवास करने लगे॥२७॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि विदुरागमनराज्यलम्भपर्वणि सुन्दोपसुन्दोपाख्याने नवाधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २०९ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत विदुरागमनराज्यलम्भपर्वमें सुन्दोपसुन्दोपाख्यानविषयक दो सौ नौवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२०९॥