२०६ पाण्डव-निवर्तनम्

श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना

षडधिकद्विशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

पाण्डवोंका हस्तिनापुरमें आना और आधा राज्य पाकर इन्द्रप्रस्थ नगरका निर्माण करना एवं भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजीका द्वारकाके लिये प्रस्थान

मूलम् (वचनम्)

द्रुपद उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमेतन्महाप्राज्ञ यथाऽऽत्थ विदुराद्य माम्।
ममापि परमो हर्षः सम्बन्धेऽस्मिन् कृते प्रभो ॥ १ ॥

मूलम्

एवमेतन्महाप्राज्ञ यथाऽऽत्थ विदुराद्य माम्।
ममापि परमो हर्षः सम्बन्धेऽस्मिन् कृते प्रभो ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्रुपद बोले— महाप्राज्ञ विदुरजी! आज आपने जो कुछ मुझसे कहा है, सब ठीक है। प्रभो! (कौरवोंके साथ) यह सम्बन्ध हो जानेसे मुझे भी महान् हर्ष हुआ है॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गमनं चापि युक्तं स्याद् दृढमेषां महात्मनाम्।
न तु तावन्मया युक्तमेतद् वक्तुं स्वयं गिरा ॥ २ ॥
यदा तु मन्यते वीरः कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः।
भीमसेनार्जुनौ चैव यमौ च पुरुषर्षभौ ॥ ३ ॥
रामकृष्णौ च धर्मज्ञौ तदा गच्छन्तु पाण्डवाः।
एतौ हि पुरुषव्याघ्रावेषां प्रियहिते रतौ ॥ ४ ॥

मूलम्

गमनं चापि युक्तं स्याद् दृढमेषां महात्मनाम्।
न तु तावन्मया युक्तमेतद् वक्तुं स्वयं गिरा ॥ २ ॥
यदा तु मन्यते वीरः कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः।
भीमसेनार्जुनौ चैव यमौ च पुरुषर्षभौ ॥ ३ ॥
रामकृष्णौ च धर्मज्ञौ तदा गच्छन्तु पाण्डवाः।
एतौ हि पुरुषव्याघ्रावेषां प्रियहिते रतौ ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महात्मा पाण्डवोंका अपने नगरमें जाना भी अत्यन्त उचित ही है। तथापि मेरे लिये अपने मुखसे इन्हें जानेके लिये कहना उचित नहीं है। यदि कुन्तीकुमार वीरवर युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन और नरश्रेष्ठ नकुल-सहदेव जाना उचित समझें तथा धर्मज्ञ बलराम और श्रीकृष्ण पाण्डवोंका वहाँ जाना उचित समझते हों तो ये अवश्य वहाँ जायँ; क्योंकि ये दोनों पुरुषसिंह सदा इनके प्रिय और हितमें लगे रहते हैं॥२—४॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

परवन्तो वयं राजंस्त्वयि सर्वे सहानुगाः।
यथा वक्ष्यसि नः प्रीत्या तत् करिष्यामहे वयम् ॥ ५ ॥

मूलम्

परवन्तो वयं राजंस्त्वयि सर्वे सहानुगाः।
यथा वक्ष्यसि नः प्रीत्या तत् करिष्यामहे वयम् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने कहा— राजन्! हम सब लोग अपने सेवकोंसहित सदा आपके अधीन हैं। आप स्वयं प्रसन्नतापूर्वक हमसे जैसा कहेंगे, वही हम करेंगे॥५॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽब्रवीद् वासुदेवो गमनं रोचते मम।
यथा वा मन्यते राजा द्रुपदः सर्वधर्मवित् ॥ ६ ॥

मूलम्

ततोऽब्रवीद् वासुदेवो गमनं रोचते मम।
यथा वा मन्यते राजा द्रुपदः सर्वधर्मवित् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! तब वसुदेवनन्दन भगवान् श्रीकृष्णने कहा—‘मुझे तो इनका जाना ही ठीक जान पड़ता है अथवा सब धर्मोंके ज्ञाता महाराज द्रुपद जैसा उचित समझें, वैसा किया जाय’॥६॥

मूलम् (वचनम्)

द्रुपद उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथैव मन्यते वीरो दाशार्हः पुरुषोत्तमः।
प्राप्तकालं महाबाहुः सा बुद्धिर्निश्चिता मम ॥ ७ ॥
यथैव हि महाभागाः कौन्तेया मम साम्प्रतम्।
तथैव वासुदेवस्य पाण्डुपुत्रा न संशयः ॥ ८ ॥

मूलम्

यथैव मन्यते वीरो दाशार्हः पुरुषोत्तमः।
प्राप्तकालं महाबाहुः सा बुद्धिर्निश्चिता मम ॥ ७ ॥
यथैव हि महाभागाः कौन्तेया मम साम्प्रतम्।
तथैव वासुदेवस्य पाण्डुपुत्रा न संशयः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्रुपद बोले— दशार्हकुलके रत्न वीरवर पुरुषोत्तम महाबाहु श्रीकृष्ण इस समय जो कर्तव्य उचित समझते हों, निश्चय ही मेरी भी वही सम्मति है। महाभाग कुन्तीपुत्र इस समय मेरे लिये जैसे अपने हैं, उसी प्रकार इन भगवान् वासुदेवके लिये भी समस्त पाण्डव उतने ही प्रिय एवं आत्मीय हैं—इसमें संशय नहीं है॥७-८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न तद् ध्यायति कौन्तेयः पाण्डुपुत्रो युधिष्ठिरः।
यथैषां पुरुषव्याघ्रः श्रेयो ध्यायति केशवः ॥ ९ ॥

मूलम्

न तद् ध्यायति कौन्तेयः पाण्डुपुत्रो युधिष्ठिरः।
यथैषां पुरुषव्याघ्रः श्रेयो ध्यायति केशवः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुरुषोत्तम केशव जिस प्रकार इन पाण्डवोंके श्रेय (अत्यन्त हित)-का ध्यान रखते हैं, उतना ध्यान कुन्तीनन्दन पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर भी नहीं रखते॥९॥

मूलम् (वचनम्)

(वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

पृथायास्तु तथा वेश्म प्रविवेश महाद्युतिः।
पादौ स्पृष्ट्‌वा पृथायास्तु शिरसा च महीं गतः।
दृष्ट्‌वा तु देवरं कुन्ती शुशोच च मुहुर्मुहुः॥

मूलम्

पृथायास्तु तथा वेश्म प्रविवेश महाद्युतिः।
पादौ स्पृष्ट्‌वा पृथायास्तु शिरसा च महीं गतः।
दृष्ट्‌वा तु देवरं कुन्ती शुशोच च मुहुर्मुहुः॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! उसी प्रकार महातेजस्वी विदुर कुन्तीके भवनमें गये। वहाँ उन्होंने धरतीपर माथा टेककर उनके चरणोंमें प्रणाम किया। विदुरको आया देख कुन्ती बार-बार शोक करने लगी।

मूलम् (वचनम्)

कुन्त्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

वैचित्रवीर्य ते पुत्राः कथंचिज्जीवितास्त्वया।
त्वत्प्रसादाज्जतुगृहे त्राताः प्रत्यागतास्तव ॥
कूर्मश्चिन्तयते पुत्रान् यत्र वा तत्र वा गतान्।
चिन्तया वर्धयेत् पुत्रान् यथा कुशलिनस्तथा॥
तव पुत्रास्तु जीवन्ति त्वं त्राता भरतर्षभ।
यथा परभृतः पुत्रानरिष्टा वर्धयेत् सदा।
तथैव तव पुत्रास्तु मया तात सुरक्षिताः॥
दुःखास्तु बहवः प्राप्ता तथा प्राणान्तिका मया।
अतः परं न जानामि कर्तव्यं ज्ञातुमर्हसि॥

मूलम्

वैचित्रवीर्य ते पुत्राः कथंचिज्जीवितास्त्वया।
त्वत्प्रसादाज्जतुगृहे त्राताः प्रत्यागतास्तव ॥
कूर्मश्चिन्तयते पुत्रान् यत्र वा तत्र वा गतान्।
चिन्तया वर्धयेत् पुत्रान् यथा कुशलिनस्तथा॥
तव पुत्रास्तु जीवन्ति त्वं त्राता भरतर्षभ।
यथा परभृतः पुत्रानरिष्टा वर्धयेत् सदा।
तथैव तव पुत्रास्तु मया तात सुरक्षिताः॥
दुःखास्तु बहवः प्राप्ता तथा प्राणान्तिका मया।
अतः परं न जानामि कर्तव्यं ज्ञातुमर्हसि॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुन्ती बोली— विदुरजी! आपके पुत्र पाण्डव किसी प्रकार आपके ही कृपाप्रसादसे जीवित हैं। लाक्षागृहमें आपने इन सबके प्राण बचाये हैं और अब यह पुनः आपके समीप जीते-जागते लौट आये हैं। कछुआ अपने पुत्रोंका, वे कहीं भी क्यों न हो, मनसे चिन्तन करता रहता है। इस चिन्तासे ही अपने पुत्रोंका वह पालन-पोषण एवं संवर्धन करता है। उसीके अनुसार जैसे वे सकुशल जीवित रहते हैं, वैसे ही आपके पुत्र पाण्डव (आपकी ही मंगल-कामनासे) जी रहे हैं! भरतश्रेष्ठ! आप ही इनके रक्षक हैं। तात! जैसे कोयलके पुत्रोंका पालन-पोषण सदा कौएकी माता करती है, उसी प्रकार आपके पुत्रोंकी रक्षा मैंने की है। अबतक मैंने बहुत-से प्राणान्तक कष्ट उठाये हैं; इसके बाद मेरा क्या कर्तव्य है, यह मैं नहीं जानती। यह सब आप ही जानें!

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्येवमुक्ता दुःखार्ता शुशोच परमातुरा।
प्रणिपत्याब्रवीत् क्षत्ता मा शोच इति भारत॥

मूलम्

इत्येवमुक्ता दुःखार्ता शुशोच परमातुरा।
प्रणिपत्याब्रवीत् क्षत्ता मा शोच इति भारत॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— यों कहकर दुःखसे पीड़ित हुई कुन्ती अत्यन्त आतुर होकर शोक करने लगी। उस समय विदुरने उन्हें प्रणाम करके कहा, तुम शोक न करो।

मूलम् (वचनम्)

विदुर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

न विनश्यन्ति लोकेषु तव पुत्रा महाबलाः।
नचिरेणैव कालेन स्वराज्यस्था भवन्ति ते।
बान्धवैः सहिताः सर्वैर्मा शोकं कुरु माधवि॥)

मूलम्

न विनश्यन्ति लोकेषु तव पुत्रा महाबलाः।
नचिरेणैव कालेन स्वराज्यस्था भवन्ति ते।
बान्धवैः सहिताः सर्वैर्मा शोकं कुरु माधवि॥)

अनुवाद (हिन्दी)

विदुर बोले— यदुकुलनन्दिनी! तुम्हारे महाबली पुत्र संसारमें (दूसरोंके सतानेसे) नष्ट नहीं हो सकते। अब वे थोड़े ही दिनोंमें समस्त बन्धुओंके साथ अपने राज्यपर अधिकार करनेवाले हैं। अतः तुम शोक मत करो।

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्ते समनुज्ञाता द्रुपदेन महात्मना।
पाण्डवाश्चैव कृष्णश्च विदुरश्च महीपते ॥ १० ॥
आदाय द्रौपदीं कृष्णां कुन्तीं चैव यशस्विनीम्।
सविहारं सुखं जग्मुर्नगरं नागसाह्वयम् ॥ ११ ॥

मूलम्

ततस्ते समनुज्ञाता द्रुपदेन महात्मना।
पाण्डवाश्चैव कृष्णश्च विदुरश्च महीपते ॥ १० ॥
आदाय द्रौपदीं कृष्णां कुन्तीं चैव यशस्विनीम्।
सविहारं सुखं जग्मुर्नगरं नागसाह्वयम् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! तदनन्तर महात्मा द्रुपदकी आज्ञा पाकर पाण्डव, श्रीकृष्ण और विदुर द्रुपद-कुमारी कृष्णा और यशस्विनी कुन्तीको साथ ले आमोद-प्रमोद करते हुए हस्तिनापुरकी ओर चले॥१०-११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(सुवर्णकक्ष्याग्रैवेयान् सुवर्णाङ्‌कुशभूषितान् ।
जाम्बूनदपरिष्कारान् प्रभिन्नकरटामुखान् ॥
अधिष्ठितान् महामात्रैः सर्वशस्त्रसमन्वितान् ।
सहस्रं प्रददौ राजा गजानां वरवर्णिनाम्॥
रथानां च सहस्रं वै सुवर्णमणिचित्रितम्।
चतुर्युजां भानुमच्च पञ्चानां प्रददौ तदा॥
सुवर्णपरिबर्हाणां वरचामरमालिनाम् ।
जात्यश्वानां च पञ्चाशत्सहस्रं प्रददौ नृपः॥
दासीनामयुतं राजा प्रददौ वरभूषणम्।
ततः सहस्रं दासानां प्रददौ वरधन्विनाम्॥
हैमानि शय्यासनभाजनानि
द्रव्याणि चान्यानि च गोधनानि।
पृथक् पृथक् चैव ददौ स कोटिं
पाञ्चालराजः परमप्रहृष्टः ॥
शिबिकानां शतं पूर्णं वाहान् पञ्चशतं नरान्।
एवमेतानि पाञ्चालो कन्यार्थे प्रददौ धनम्॥
हरणं चापि पाञ्चाल्या ज्ञातिदेयं तु सौमकिः।
धृष्टद्युम्नो ययौ तत्र भगिनीं गृह्य भारत॥
नानद्यमाने बहुभिस्तूर्यशब्दैः सहस्रशः ॥)

मूलम्

(सुवर्णकक्ष्याग्रैवेयान् सुवर्णाङ्‌कुशभूषितान् ।
जाम्बूनदपरिष्कारान् प्रभिन्नकरटामुखान् ॥
अधिष्ठितान् महामात्रैः सर्वशस्त्रसमन्वितान् ।
सहस्रं प्रददौ राजा गजानां वरवर्णिनाम्॥
रथानां च सहस्रं वै सुवर्णमणिचित्रितम्।
चतुर्युजां भानुमच्च पञ्चानां प्रददौ तदा॥
सुवर्णपरिबर्हाणां वरचामरमालिनाम् ।
जात्यश्वानां च पञ्चाशत्सहस्रं प्रददौ नृपः॥
दासीनामयुतं राजा प्रददौ वरभूषणम्।
ततः सहस्रं दासानां प्रददौ वरधन्विनाम्॥
हैमानि शय्यासनभाजनानि
द्रव्याणि चान्यानि च गोधनानि।
पृथक् पृथक् चैव ददौ स कोटिं
पाञ्चालराजः परमप्रहृष्टः ॥
शिबिकानां शतं पूर्णं वाहान् पञ्चशतं नरान्।
एवमेतानि पाञ्चालो कन्यार्थे प्रददौ धनम्॥
हरणं चापि पाञ्चाल्या ज्ञातिदेयं तु सौमकिः।
धृष्टद्युम्नो ययौ तत्र भगिनीं गृह्य भारत॥
नानद्यमाने बहुभिस्तूर्यशब्दैः सहस्रशः ॥)

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय राजा द्रुपदने उन्हें एक हजार सुन्दर हाथी प्रदान किये, जिनकी पीठोंपर सोनेके हौदे कसे हुए थे और गलेमें सोनेके आभूषण शोभा पा रहे थे। उनके अंकुश भी सोनेके ही थे। जाम्बूनद नामक सुवर्णसे उन सबको सजाया गया था। उनके गण्डस्थलसे मदकी धारा बह रही थी। बड़े-बड़े महावत उन सबका संचालन करते थे। वे सभी गजराज सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रोंसे सम्पन्न थे। राजाने पाँचों पाण्डवोंके लिये चार घोड़ोंसे जुते हुए एक हजार रथ दिये, जो सुवर्ण और मणियोंसे विभूषित होनेके कारण विचित्र शोभा धारण करते थे और सब ओर अपनी प्रभा बिखेर रहे थे। इतना ही नहीं, राजाने अच्छी जातिके पचास हजार घोड़े भी दिये, जो सुनहरे साज-बाजसे सुसज्जित और सुन्दर चँवर तथा मालाओंसे अलंकृत थे। इनके सिवा सुन्दर आभूषणोंसे विभूषित दस हजार दासियाँ भी दीं। साथ ही उत्तम धनुष धारण करनेवाले एक हजार दास पाण्डवोंको भेंट किये। बहुत-सी शय्याएँ, आसन और पात्र भी दिये जो सब-के-सब सुवर्णके बने हुए थे। दूसरे-दूसरे द्रव्य और गोधन भी समर्पित किये। इन सबकी पृथक्-पृथक् संख्या एक-एक करोड़ थी। इस प्रकार पांचालराज द्रुपदने बड़े हर्ष और उल्लासके साथ पाण्डवोंको उपर्युक्त वस्तुएँ अर्पित कीं। सौ पालकियाँ और उनको ढोनेवाले पाँच सौ कहार दिये। इस प्रकार पांचालराजने अपनी कन्याके लिये ये सभी वस्तुएँ तथा बहुत-सा धन दहेजमें दिया। जनमेजय! धृष्टद्युम्न स्वयं अपनी बहिनका हाथ पकड़कर सवारीपर बैठानेके लिये ले गये। उस समय सहस्रों प्रकारके बाजे एक साथ बज उठे।

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुत्वा चाप्यागतान् वीरान् धृतराष्ट्रो जनेश्वरः।
प्रतिग्रहाय पाण्डूनां प्रेषयामास कौरवान् ॥ १२ ॥

मूलम्

श्रुत्वा चाप्यागतान् वीरान् धृतराष्ट्रो जनेश्वरः।
प्रतिग्रहाय पाण्डूनां प्रेषयामास कौरवान् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा धृतराष्ट्रने पाण्डववीरोंका आगमन सुनकर उनकी अगवानीके लिये कौरवोंको भेजा॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विकर्णं च महेष्वासं चित्रसेनं च भारत।
द्रोणं च परमेष्वासं गौतमं कृपमेव च ॥ १३ ॥

मूलम्

विकर्णं च महेष्वासं चित्रसेनं च भारत।
द्रोणं च परमेष्वासं गौतमं कृपमेव च ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! विकर्ण, महान् धनुर्धर चित्रसेन, विशाल धनुषवाले द्रोणाचार्य, गौतमवंशी कृपाचार्य आदि भेजे गये थे॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तैस्ते परिवृता वीराः शोभमाना महाबलाः।
नगरं हास्तिनपुरं शनैः प्रविविशुस्तदा ॥ १४ ॥
(पाण्डवानागताञ्छ्रुत्वा नागरास्तु कुतूहलात् ।
मण्डयाञ्चक्रिरे तत्र नगरं नागसाह्वयम्॥
मुक्तपुष्पावकीर्णं तज्जलसिक्तं तु सर्वशः।
धूपितं दिव्यधूपेन मण्डनैश्चापि संवृतम्॥
पताकोच्छ्रितमाल्यं च पुरमप्रतिमं बभौ॥
शङ्खभेरीनिनादैश्च नानावादित्रनिःस्वनैः ।)
कौतूहलेन नगरं दीप्यमानमिवाभवत् ।
तत्र ते पुरुषव्याघ्राः शोकदुःखविनाशनाः ॥ १५ ॥
तत उच्चावचा वाचः पौरैः प्रियचिकीर्षुभिः।
उदीरिता अशृण्वंस्ते पाण्डवा हृदयंगमाः ॥ १६ ॥

मूलम्

तैस्ते परिवृता वीराः शोभमाना महाबलाः।
नगरं हास्तिनपुरं शनैः प्रविविशुस्तदा ॥ १४ ॥
(पाण्डवानागताञ्छ्रुत्वा नागरास्तु कुतूहलात् ।
मण्डयाञ्चक्रिरे तत्र नगरं नागसाह्वयम्॥
मुक्तपुष्पावकीर्णं तज्जलसिक्तं तु सर्वशः।
धूपितं दिव्यधूपेन मण्डनैश्चापि संवृतम्॥
पताकोच्छ्रितमाल्यं च पुरमप्रतिमं बभौ॥
शङ्खभेरीनिनादैश्च नानावादित्रनिःस्वनैः ।)
कौतूहलेन नगरं दीप्यमानमिवाभवत् ।
तत्र ते पुरुषव्याघ्राः शोकदुःखविनाशनाः ॥ १५ ॥
तत उच्चावचा वाचः पौरैः प्रियचिकीर्षुभिः।
उदीरिता अशृण्वंस्ते पाण्डवा हृदयंगमाः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन सबसे घिरे हुए शोभाशाली महाबली वीर पाण्डवोंने तब धीरे-धीरे हस्तिनापुर नगरमें प्रवेश किया। पाण्डवोंका आगमन सुनकर नागरिकोंने कौतूहलवश हस्तिनापुर नगरको (अच्छी तरहसे) सजा रखा था। सड़कोंपर सब ओर फूल बिखेरे गये थे, जलका छिड़काव किया गया था, सारा नगर दिव्य धूपकी सुगन्धसे महँ-महँ कर रहा था और भाँति-भाँतिकी प्रसाधन-सामग्रियोंसे सजाया गया था। पताकाएँ फहराती थीं और ऊँचे गृहोंमें पुष्पहार सुशोभित होते थे। शंख, भेरी तथा नाना प्रकारके वाद्योंकी ध्वनिसे वह अनुपम नगर बड़ी शोभा पा रहा था। उस समय कौतूहलवश सारा नगर देदीप्यमान-सा हो उठा। पुरुषसिंह पाण्डव प्रजाजनोंके शोक और दुःखका निवारण करनेवाले थे; अतः वहाँ उनका प्रिय करनेकी इच्छावाले पुरवासियोंद्वारा कही हुई भिन्न-भिन्न प्रकारकी हृदय-स्पर्शिनी बातें सुनायी पड़ीं—॥१४—१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अयं स पुरुषव्याघ्रः पुनरायाति धर्मवित्।
यो नः स्वानिव दायादान् धर्मेण परिरक्षति ॥ १७ ॥

मूलम्

अयं स पुरुषव्याघ्रः पुनरायाति धर्मवित्।
यो नः स्वानिव दायादान् धर्मेण परिरक्षति ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

(पुरवासी कह रहे थे—) ‘ये ही वे नरश्रेष्ठ धर्मज्ञ युधिष्ठिर पुनः यहाँ पधार रहे हैं, जो धर्मपूर्वक अपने पुत्रोंकी भाँति हमलोगोंकी रक्षा करते थे॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अद्य पाण्डुर्महाराजो वनादिव जनप्रियः।
आगतः प्रियमस्माकं चिकीर्षुर्नात्र संशयः ॥ १८ ॥

मूलम्

अद्य पाण्डुर्महाराजो वनादिव जनप्रियः।
आगतः प्रियमस्माकं चिकीर्षुर्नात्र संशयः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इनके आनेसे निःसंदेह ऐसा जान पड़ता है, आज प्रजाजनोंके प्रिय महाराज पाण्डु ही मानो हमारा प्रिय करनेके लिये वनसे चले आये हों॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किं नु नाद्य कृतं तात सर्वेषां नः परं प्रियम्।
यन्नः कुन्तीसुता वीरा नगरं पुनरागताः ॥ १९ ॥

मूलम्

किं नु नाद्य कृतं तात सर्वेषां नः परं प्रियम्।
यन्नः कुन्तीसुता वीरा नगरं पुनरागताः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तात! कुन्तीके वीर पुत्र यदि पुनः इस नगरमें चले आये तो आज हम सब लोगोंका कौन-सा परम प्रिय कार्य नहीं सम्पन्न हो गया॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि दत्तं यदि हुतं विद्यते यदि नस्तपः।
तेन तिष्ठन्तु नगरे पाण्डवाः शरदां शतम् ॥ २० ॥

मूलम्

यदि दत्तं यदि हुतं विद्यते यदि नस्तपः।
तेन तिष्ठन्तु नगरे पाण्डवाः शरदां शतम् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि हमने दान और होम किया है, यदि हमारी तपस्या शेष है तो उन सबके पुण्यसे ये पाण्डव सौ वर्षतक इसी नगरमें निवास करें’॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्ते धृतराष्ट्रस्य भीष्मस्य च महात्मनः।
अन्येषां च तदर्हाणां चक्रुः पादाभिवन्दनम् ॥ २१ ॥

मूलम्

ततस्ते धृतराष्ट्रस्य भीष्मस्य च महात्मनः।
अन्येषां च तदर्हाणां चक्रुः पादाभिवन्दनम् ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इतनेमें ही पाण्डवोंने धृतराष्ट्र, महात्मा भीष्म तथा अन्य वन्दनीय पुरुषोंके पास जाकर उन सबके चरणोंमें प्रणाम किया॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृत्वा तु कुशलप्रश्नं सर्वेण नगरेण च।
न्यविशन्ताथ वेश्मानि धृतराष्ट्रस्य शासनात् ॥ २२ ॥

मूलम्

कृत्वा तु कुशलप्रश्नं सर्वेण नगरेण च।
न्यविशन्ताथ वेश्मानि धृतराष्ट्रस्य शासनात् ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर समस्त नगरवासियोंसे कुशलप्रश्न करके वे राजा धृतराष्ट्रकी आज्ञासे राजमहलोंमें गये॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(दुर्योधनस्य महिषी काशिराजसुता तदा।
धृतराष्ट्रस्य पुत्राणां बधूभिः सहिता तदा॥
पाञ्चालीं प्रतिजग्राह द्रौपदीं श्रीमिवापराम्।
पूजयामास पूजार्हां शचीदेवीमिवागताम् ॥
ववन्दे तत्र गान्धारीं माधवी कृष्णया सह।
आशिषश्च प्रयुक्त्वा तु पाञ्चालीं परिषस्वजे॥
परिष्वज्य च गान्धारी कृष्णां कमललोचनाम्।
पुत्राणां मम पाञ्चाली मृत्युरेवेत्यमन्यत।
सा चिन्त्य विदुरं प्राह युक्तितः सुबलात्मजा॥

मूलम्

(दुर्योधनस्य महिषी काशिराजसुता तदा।
धृतराष्ट्रस्य पुत्राणां बधूभिः सहिता तदा॥
पाञ्चालीं प्रतिजग्राह द्रौपदीं श्रीमिवापराम्।
पूजयामास पूजार्हां शचीदेवीमिवागताम् ॥
ववन्दे तत्र गान्धारीं माधवी कृष्णया सह।
आशिषश्च प्रयुक्त्वा तु पाञ्चालीं परिषस्वजे॥
परिष्वज्य च गान्धारी कृष्णां कमललोचनाम्।
पुत्राणां मम पाञ्चाली मृत्युरेवेत्यमन्यत।
सा चिन्त्य विदुरं प्राह युक्तितः सुबलात्मजा॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय दुर्योधनकी रानीने, जो काशिराजकी पुत्री थी, धृतराष्ट्रपुत्रोंकी अन्य वधुओंके साथ आकर द्वितीय लक्ष्मीके समान सुन्दरी पंचालराजकुमारी द्रौपदीकी अगवानी की। द्रौपदी सर्वथा पूजाके योग्य थी। उसे देखकर ऐसा प्रतीत होता था मानो साक्षात् शचीदेवीने पदार्पण किया हो। दुर्योधन-पत्नीने उसका भलीभाँति सत्कार किया। वहाँ पहुँचकर कुन्तीने अपनी बहूरानी द्रौपदीके साथ गान्धारीको प्रणाम किया। गान्धारीने आशीर्वाद देकर द्रौपदीको हृदयसे लगा लिया। कमलसदृश नेत्रोंवाली कृष्णाको हृदयसे लगाकर गान्धारी सोचने लगी कि यह पाञ्चाली तो मेरे पुत्रोंकी मृत्यु ही है। यह सोचकर सुबलपुत्री गान्धारीने युक्तिसे विदुरको बुलाकर कहा—

मूलम् (वचनम्)

गान्धार्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुन्तीं राजसुतां क्षत्तः सवधूं सपरिच्छदाम्।
पाण्डोर्निवेशनं शीघ्रं नीयतां यदि रोचते॥
करणेन मुहूर्तेन नक्षत्रेण शुभे तिथौ।
यथासुखं तथा कुन्ती रंस्यते स्वगृहे सुतैः॥

मूलम्

कुन्तीं राजसुतां क्षत्तः सवधूं सपरिच्छदाम्।
पाण्डोर्निवेशनं शीघ्रं नीयतां यदि रोचते॥
करणेन मुहूर्तेन नक्षत्रेण शुभे तिथौ।
यथासुखं तथा कुन्ती रंस्यते स्वगृहे सुतैः॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर गान्धारीने कहा— विदुर! यदि तुम्हें जँचे तो राजकुमारी कुन्तीको पुत्रवधूसहित शीघ्र ही पाण्डुके महलमें ले जाओ और वहीं इनका सारा सामान भी पहुँचा दो। उत्तम करण, मुहूर्त और नक्षत्रसहित शुभ तिथिको उस महलमें इन्हें प्रवेश करना चाहिये, जिससे कुन्तीदेवी अपने घरमें पुत्रोंके साथ सुखपूर्वक रह सकें।

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथेत्येव तदा क्षत्ता कारयामास तत्तदा॥
पूजयामासुरत्यर्थं बान्धवाः पाण्डवांस्तदा ।
नागराः श्रेणिमुख्याश्च पूजयन्ति स्म पाण्डवान्॥
भीष्मो द्रोणस्तथा कर्णो बाह्लीकः ससुतस्तदा।
शासनाद् धृतराष्ट्रस्य अकुर्वन्नतिथिक्रियाम् ॥
एवं विहरतां तेषां पाण्डवानां महात्मनाम्।
नेता सर्वस्य कार्यस्य विदुरो राजशासनात्॥)

मूलम्

तथेत्येव तदा क्षत्ता कारयामास तत्तदा॥
पूजयामासुरत्यर्थं बान्धवाः पाण्डवांस्तदा ।
नागराः श्रेणिमुख्याश्च पूजयन्ति स्म पाण्डवान्॥
भीष्मो द्रोणस्तथा कर्णो बाह्लीकः ससुतस्तदा।
शासनाद् धृतराष्ट्रस्य अकुर्वन्नतिथिक्रियाम् ॥
एवं विहरतां तेषां पाण्डवानां महात्मनाम्।
नेता सर्वस्य कार्यस्य विदुरो राजशासनात्॥)

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! ‘बहुत अच्छा’ कहकर उसी समय विदुरने वैसी ही व्यवस्था की। सभी बन्धु-बान्धवोंने पाण्डवोंका उस समय अत्यन्त आदर-सत्कार किया। प्रमुख नागरिकों तथा सेठोंने भी पाण्डवोंका पूजन किया। भीष्म, द्रोण, कर्ण तथा पुत्रसहित बाह्लीकने धृतराष्ट्रके आदेशसे पाण्डवोंका आतिथ्य-सत्कार किया। इस प्रकार हस्तिनापुरमें विहार करनेवाले महात्मा पाण्डवोंके सभी कार्योंमें विदुरजी ही नेता थे। उन्हें इसके लिये राजाकी ओरसे आदेश प्राप्त हुआ था।

विश्वास-प्रस्तुतिः

विश्रान्तास्ते महात्मानः कंचित् कालं महाबलाः।
आहूता धृतराष्ट्रेण राज्ञा शांतनवेन च ॥ २३ ॥

मूलम्

विश्रान्तास्ते महात्मानः कंचित् कालं महाबलाः।
आहूता धृतराष्ट्रेण राज्ञा शांतनवेन च ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुछ कालतक विश्राम कर लेनेपर उन महाबली महात्मा पाण्डवोंको राजा धृतराष्ट्र तथा भीष्मजीने बुलाया॥२३॥

मूलम् (वचनम्)

धृतराष्ट्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

भ्रातृभिः सह कौन्तेय निबोध गदतो मम।
(पाण्डुना वर्धितं राज्यं पाण्डुना पालितं जगत्॥
शासनान्मम कौन्तेय मम भ्राता महाबलः।
कृतवान् दुष्करं कर्म नित्यमेव विशाम्पते॥
तस्मात् त्वमपि कौन्तेय शासनं कुरु मा चिरम्॥
मम पुत्रा दुरात्मानो दर्पाहंकारसंयुताः।
शासनं न करिष्यन्ति मम नित्यं युधिष्ठिर॥
स्वकार्यनिरतैर्नित्यमवलिप्तैर्दुरात्मभिः ।)
पुनर्वो विग्रहो मा भूत् खाण्डवप्रस्थमाविश ॥ २४ ॥

मूलम्

भ्रातृभिः सह कौन्तेय निबोध गदतो मम।
(पाण्डुना वर्धितं राज्यं पाण्डुना पालितं जगत्॥
शासनान्मम कौन्तेय मम भ्राता महाबलः।
कृतवान् दुष्करं कर्म नित्यमेव विशाम्पते॥
तस्मात् त्वमपि कौन्तेय शासनं कुरु मा चिरम्॥
मम पुत्रा दुरात्मानो दर्पाहंकारसंयुताः।
शासनं न करिष्यन्ति मम नित्यं युधिष्ठिर॥
स्वकार्यनिरतैर्नित्यमवलिप्तैर्दुरात्मभिः ।)
पुनर्वो विग्रहो मा भूत् खाण्डवप्रस्थमाविश ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धृतराष्ट्र बोले— कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर! मैं जो कुछ कह रहा हूँ, उसे अपने भाइयोंसहित ध्यान देकर सुनो। कुन्तीनन्दन! मेरी आज्ञासे पाण्डुने इस राज्यको बढ़ाया और पाण्डुने ही जगत्‌का पालन किया। मेरे भाई पाण्डु बड़े बलवान् थे। राजन्! मेरे कहनेसे सदा ही दुष्कर कार्य किया करते थे। कुन्तीकुमार! तुम भी यथासम्भव शीघ्र मेरी आज्ञाका पालन करो, विलम्ब न करो। मेरे दुरात्मा पुत्र दर्प और अहंकारसे भरे हुए हैं। युधिष्ठिर! वे सदा मेरी आज्ञाका पालन नहीं करेंगे। अपने स्वार्थसाधनमें लगे हुए उन बलाभिमानी दुरात्माओंके साथ तुम्हारा फिर कोई झगड़ा न खड़ा हो जाय, इसलिये तुम खाण्डवप्रस्थमें निवास करो॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न च वो वसतस्तत्र कश्चिच्छक्तः प्रबाधितुम्।
संरक्ष्यमाणान् पार्थेन त्रिदशानिव वज्रिणा ॥ २५ ॥
अर्धं राज्यस्य सम्प्राप्य खाण्डवप्रस्थमाविश।

मूलम्

न च वो वसतस्तत्र कश्चिच्छक्तः प्रबाधितुम्।
संरक्ष्यमाणान् पार्थेन त्रिदशानिव वज्रिणा ॥ २५ ॥
अर्धं राज्यस्य सम्प्राप्य खाण्डवप्रस्थमाविश।

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ रहते समय कोई तुम्हें बाधा नहीं दे सकता; क्योंकि जैसे वज्रधारी इन्द्र देवताओंकी रक्षा करते हैं, उसी प्रकार कुन्तीनन्दन अर्जुन वहाँ तुमलोगोंकी भलीभाँति रक्षा करेंगे। तुम आधा राज्य लेकर खाण्डवप्रस्थमें चलकर रहो॥२५॥

मूलम् (वचनम्)

(धृतराष्ट्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभिषेकस्य सम्भारान् क्षत्तरानय मा चिरम्।
अभिषिक्तं करिष्यामि अद्य वै कुरुनन्दनम्॥
ब्राह्मणा नैगमश्रेष्ठाः श्रेणीमुख्याश्च सर्वशः।
आहूयन्तां प्रकृतयो बान्धवाश्च विशेषतः॥
पुण्याहं वाच्यतां तात गोसहस्रं तु दीयताम्।
ग्राममुख्याश्च विप्रेभ्यो दीयन्तां सहदक्षिणाः॥
अङ्गदे मुकुटं क्षत्तः हस्ताभरणमानय॥
मुक्तावलीश्च हारं च निष्कादीन् कुण्डलानि च।
कटिबन्धश्च सूत्रं च तथोदरनिबन्धनम्॥
अष्टोत्तरसहस्रं तु ब्राह्मणाधिष्ठिता गजाः।
जाह्नवीसलिलं शीघ्रमानयन्तु पुरोहितैः ॥
अभिषेकोदकक्लिन्नं सर्वाभरणभूषितम् ।
औपवाह्योपरिगतं दिव्यचामरवीजितम् ॥
सुवर्णमणिचित्रेण श्वेतच्छत्रेण शोभितम् ।
जयेति द्विजवाक्येन स्तूयमानं नृपैस्तथा॥
दृष्ट््वा कुन्तीसुतं ज्येष्ठमाजमीढं युधिष्ठिरम्।
प्रीताः प्रीतेन मनसा प्रशंसन्तु पुरे जनाः॥
पाण्डोः कृतोपकारस्य राज्यं दत्त्वा ममैव च।
प्रतिक्रियाकृतमिदं भविष्यति न संशयः॥

मूलम्

अभिषेकस्य सम्भारान् क्षत्तरानय मा चिरम्।
अभिषिक्तं करिष्यामि अद्य वै कुरुनन्दनम्॥
ब्राह्मणा नैगमश्रेष्ठाः श्रेणीमुख्याश्च सर्वशः।
आहूयन्तां प्रकृतयो बान्धवाश्च विशेषतः॥
पुण्याहं वाच्यतां तात गोसहस्रं तु दीयताम्।
ग्राममुख्याश्च विप्रेभ्यो दीयन्तां सहदक्षिणाः॥
अङ्गदे मुकुटं क्षत्तः हस्ताभरणमानय॥
मुक्तावलीश्च हारं च निष्कादीन् कुण्डलानि च।
कटिबन्धश्च सूत्रं च तथोदरनिबन्धनम्॥
अष्टोत्तरसहस्रं तु ब्राह्मणाधिष्ठिता गजाः।
जाह्नवीसलिलं शीघ्रमानयन्तु पुरोहितैः ॥
अभिषेकोदकक्लिन्नं सर्वाभरणभूषितम् ।
औपवाह्योपरिगतं दिव्यचामरवीजितम् ॥
सुवर्णमणिचित्रेण श्वेतच्छत्रेण शोभितम् ।
जयेति द्विजवाक्येन स्तूयमानं नृपैस्तथा॥
दृष्ट््वा कुन्तीसुतं ज्येष्ठमाजमीढं युधिष्ठिरम्।
प्रीताः प्रीतेन मनसा प्रशंसन्तु पुरे जनाः॥
पाण्डोः कृतोपकारस्य राज्यं दत्त्वा ममैव च।
प्रतिक्रियाकृतमिदं भविष्यति न संशयः॥

अनुवाद (हिन्दी)

(फिर) धृतराष्ट्रने (विदुरसे) कहा— विदुर! तुम राज्याभिषेककी सामग्री लाओ, इसमें विलम्ब नहीं होना चाहिये। मैं आज ही कुरुकुलनन्दन युधिष्ठिरका अभिषेक करूँगा। वेदवेत्ता विद्वानोंमें श्रेष्ठ ब्राह्मण, नगरके सभी प्रमुख व्यापारी, प्रजावर्गके लोग और विशेषतः बन्धु-बान्धव बुलाये जायँ। तात! पुण्याहवाचन कराओ और ब्राह्मणोंको दक्षिणाके साथ एक सहस्र गौएँ तथा मुख्य-मुख्य ग्राम दो। विदुर! दो भुजबंद, एक सुन्दर मुकुट तथा हाथके आभूषण मँगाओं। मोतीकी कई मालाएँ, हार, पदक, कुण्डल, करधनी, कटिसूत्र तथा उदरबन्ध भी ले आओ। एक हजार आठ हाथी मँगाओ, जिनपर ब्राह्मण सवार हों। पुरोहितोंके साथ जाकर वे हाथी शीघ्र गंगाजीका जल ले आयें। युधिष्ठिर अभिषेकके जलसे भीगे हों, समस्त आभूषणोंसे उन्हें विभूषित किया गया हो, वे राजाकी सवारीके योग्य गजराजपर बैठे हों, उनपर दिव्य चँवर ढुल रहे हों और उनके मस्तकके ऊपर सुवर्ण और मणियोंसे विचित्र शोभा धारण करनेवाला श्वेत छत्र सुशोभित हो, ब्राह्मणोंद्वारा की हुई जय-जयकारके साथ बहुत-से नरेश उनकी स्तुति करते हों। इस प्रकार कुन्तीके ज्येष्ठ पुत्र अजमीढकुलतिलक युधिष्ठिरका प्रसन्नमनसे दर्शन करके प्रसन्न हुए पुरवासीजन इनकी भूरि-भूरि प्रशंसा करें। राजा पाण्डुने मुझे ही अपना राज्य देकर जो उपकार किया था, उसका बदला इसीसे पूर्ण होगा कि युधिष्ठिरका राज्याभिषेक कर दिया जाय; इसमें संशय नहीं है।

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

भीष्मो द्रोणः कृपः क्षत्ता साधु साध्वित्यभाषत।

मूलम्

भीष्मो द्रोणः कृपः क्षत्ता साधु साध्वित्यभाषत।

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! यह सुनकर भीष्म, द्रोण, कृप तथा विदुरने कहा—‘बहुत अच्छा! बहुत अच्छा!’

मूलम् (वचनम्)

श्रीवासुदेव उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

युक्तमेतन्महाराज कौरवाणां यशस्करम् ।
शीघ्रमद्यैव राजेन्द्र यथोक्तं कर्तुमर्हसि॥

मूलम्

युक्तमेतन्महाराज कौरवाणां यशस्करम् ।
शीघ्रमद्यैव राजेन्द्र यथोक्तं कर्तुमर्हसि॥

अनुवाद (हिन्दी)

(तब) भगवान् श्रीकृष्ण बोले— महाराज! आपका यह विचार सर्वथा उत्तम तथा कौरवोंका यश बढ़ानेवाला है। राजेन्द्र! आपने जैसा कहा है, उसे आज ही जितना शीघ्र सम्भाव हो सके, पूर्ण कर डालिये।

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्येवमुक्त्वा वार्ष्णेयस्त्वरयामास तं तदा।
यथोक्तं धृतराष्ट्रस्य कारयामास कौरवः॥
तस्मिन् क्षणे महाराज कृष्णद्वैपायनस्तदा।
आगत्य कुरुभिः सर्वैः पूजितः स सुहृद्‌गणैः॥
मूर्धावसिक्तैः सहितो ब्राह्मणैर्वेदपारगैः ।
कारयामास विधिवत् केशवानुमते तदा॥
कृपो द्रोणश्च भीष्मश्च धौम्यश्च व्यासकेशवौ।
बाह्लीकः सोमदत्तश्च चातुर्वेद्यपुरस्कृताः ॥
अभिषेकं तदा चक्रुर्भद्रपीठे सुसंयतम्।
जित्वा तु पृथिवीं कृत्स्नां वशे कृत्वा नरर्षभान्॥
राजसूयादिभिर्यज्ञैः क्रतुभिर्भूरिदक्षिणैः ।
स्नात्वा ह्यवभृथस्नानं मोदतां बान्धवैः सह॥
एवमुक्त्वा तु ते सर्वे आशीर्भिरभिपूजयन्।
मूर्धाभिषिक्तः कौरव्य सर्वाभरणभूषितः ॥
जयेति संस्तुतो राजा प्रददौ धनमक्षयम्।
सर्वमूर्धावसिक्तैश्च पूजितः कुरुनन्दनः ॥
औपवाह्यमथारुह्य श्वेतच्छत्रेण शोभितः ।
रराजानुगतो राजा महेन्द्र इव दैवतैः॥
ततः प्रदक्षिणीकृत्य नगरं नागसाह्वयम्।
प्रविवेश ततो राजा नागरैः पूजितो भृशम्॥
मूर्धाभिषिक्तं कौन्तेयमभ्यनन्दन्त बान्धवाः ।
गान्धारिपुत्राः शोचन्तः सर्वे ते सह बान्धवैः॥
ज्ञात्वा शोकं तु पुत्राणां धृतराष्ट्रोऽब्रवीन्नृपम्।
समक्षं वासुदेवस्य कुरूणां च समक्षतः॥

मूलम्

इत्येवमुक्त्वा वार्ष्णेयस्त्वरयामास तं तदा।
यथोक्तं धृतराष्ट्रस्य कारयामास कौरवः॥
तस्मिन् क्षणे महाराज कृष्णद्वैपायनस्तदा।
आगत्य कुरुभिः सर्वैः पूजितः स सुहृद्‌गणैः॥
मूर्धावसिक्तैः सहितो ब्राह्मणैर्वेदपारगैः ।
कारयामास विधिवत् केशवानुमते तदा॥
कृपो द्रोणश्च भीष्मश्च धौम्यश्च व्यासकेशवौ।
बाह्लीकः सोमदत्तश्च चातुर्वेद्यपुरस्कृताः ॥
अभिषेकं तदा चक्रुर्भद्रपीठे सुसंयतम्।
जित्वा तु पृथिवीं कृत्स्नां वशे कृत्वा नरर्षभान्॥
राजसूयादिभिर्यज्ञैः क्रतुभिर्भूरिदक्षिणैः ।
स्नात्वा ह्यवभृथस्नानं मोदतां बान्धवैः सह॥
एवमुक्त्वा तु ते सर्वे आशीर्भिरभिपूजयन्।
मूर्धाभिषिक्तः कौरव्य सर्वाभरणभूषितः ॥
जयेति संस्तुतो राजा प्रददौ धनमक्षयम्।
सर्वमूर्धावसिक्तैश्च पूजितः कुरुनन्दनः ॥
औपवाह्यमथारुह्य श्वेतच्छत्रेण शोभितः ।
रराजानुगतो राजा महेन्द्र इव दैवतैः॥
ततः प्रदक्षिणीकृत्य नगरं नागसाह्वयम्।
प्रविवेश ततो राजा नागरैः पूजितो भृशम्॥
मूर्धाभिषिक्तं कौन्तेयमभ्यनन्दन्त बान्धवाः ।
गान्धारिपुत्राः शोचन्तः सर्वे ते सह बान्धवैः॥
ज्ञात्वा शोकं तु पुत्राणां धृतराष्ट्रोऽब्रवीन्नृपम्।
समक्षं वासुदेवस्य कुरूणां च समक्षतः॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— इतना कहकर भगवान् श्रीकृष्णने उन्हें जल्दी करनेकी प्रेरणा दी। विदुरजीने धृतराष्ट्रके कथनानुसार सब कार्य पूर्ण कर दिया। उसी समय, राजन्! वहाँ महर्षि कृष्णद्वैपायन पधारे। समस्त कौरवोंने अपने सुहृदोंके साथ आकर उनकी पूजा की। तब वेदोंके पारंगत विद्वान् ब्राह्मणों तथा मूर्धाभिषिक्त नरेशोंके साथ मिलकर भगवान् श्रीकृष्णकी सम्मतिके अनुसार व्यासजीने विधिपूर्वक अभिषेक-कार्य सम्पन्न किया। कृपाचार्य, द्रोणाचार्य, भीष्म, धौम्य, व्यास, श्रीकृष्ण, बाह्लीक और सोमदत्तने चारों वेदोंके विद्वानोंको आगे रखकर भद्रपीठपर संयमपूर्वक बैठे हुए युधिष्ठिरका उस समय अभिषेक किया और सबने यह आशीर्वाद दिया कि ‘राजन्! तुम सारी पृथ्वीको जीतकर सम्पूर्ण नरेशोंको अपने अधीन करके प्रचुर दक्षिणासे युक्त राजसूय आदि यज्ञ-याग पूर्ण करनेके पश्चात् अवभृथ-स्नान करके बन्धु-बान्धवोंके साथ सुखी रहो।’ जनमेजय! यों कहकर उन सबने अपने आशीर्वादोंद्वारा युधिष्ठिरका सम्मान किया। समस्त आभूषणोंसे विभूषित, मूर्धाभिषिक्त राजा युधिष्ठिरने अक्षय धनका दान किया। उस समय सब लोगोंने जय-जयकारपूर्वक उनकी स्तुति की। समस्त मूर्धाभिषिक्त राजाओंने भी कुरुनन्दन युधिष्ठिरका पूजन किया। फिर वे राजोचित गजराजपर आरूढ़ हो श्वेत छत्रसे सुशोभित हुए। उनके पीछे-पीछे बहुत-से मनुष्य चल रहे थे। उस समय देवताओंसे घिरे हुए इन्द्रकी भाँति उनकी बड़ी शोभा हो रही थी। समस्त हस्तिनापुर नगरकी परिक्रमा करके राजाने पुनः राजधानीमें प्रवेश किया। उस समय नागरिकोंने उनका विशेष समादर किया। बन्धु-बान्धवोंने भी मूर्धाभिषिक्त राजा युधिष्ठिरका सादर अभिनन्दन किया। यह सब देखकर वे गान्धारीके दुर्योधन आदि सभी पुत्र अपने भाइयोंके साथ शोकातुर हो रहे थे। अपने पुत्रोंको शोक हुआ जानकर धृतराष्ट्रने भगवान् श्रीकृष्ण तथा कौरवोंके समक्ष राजा युधिष्ठिरसे (इस प्रकार) कहा।

मूलम् (वचनम्)

धृतराष्ट्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभिषेकं त्वया प्राप्तं दुष्प्रापमकृतात्मभिः।
गच्छ त्वमद्यैव नृप कृतकृत्योऽसि कौरव॥
आयुः पुरूरवा राजन् नहुषश्च ययातिना।
तत्रैव निवसन्ति स्म खाण्डवाह्वे नृपोत्तम॥
राजधानी तु सर्वेषां पौरवाणां महाभुज।
विनाशितं मुनिगणैर्लोभाद् बुधसुतस्य च॥
तस्मात् त्वं खाण्डवप्रस्थं पुरं राष्ट्रं च वर्धय।
ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्राश्च कृतनिश्चयाः॥
त्वद्‌भक्त्या जन्तवश्चान्ये भजन्त्वेव पुरं शुभम्।
पुरं राष्ट्रं समृद्धं वै धनधान्यैः समावृतम्॥
तस्माद् गच्छस्व कौन्तेय भ्रातृभिः सहितोऽनघ।)

मूलम्

अभिषेकं त्वया प्राप्तं दुष्प्रापमकृतात्मभिः।
गच्छ त्वमद्यैव नृप कृतकृत्योऽसि कौरव॥
आयुः पुरूरवा राजन् नहुषश्च ययातिना।
तत्रैव निवसन्ति स्म खाण्डवाह्वे नृपोत्तम॥
राजधानी तु सर्वेषां पौरवाणां महाभुज।
विनाशितं मुनिगणैर्लोभाद् बुधसुतस्य च॥
तस्मात् त्वं खाण्डवप्रस्थं पुरं राष्ट्रं च वर्धय।
ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्याः शूद्राश्च कृतनिश्चयाः॥
त्वद्‌भक्त्या जन्तवश्चान्ये भजन्त्वेव पुरं शुभम्।
पुरं राष्ट्रं समृद्धं वै धनधान्यैः समावृतम्॥
तस्माद् गच्छस्व कौन्तेय भ्रातृभिः सहितोऽनघ।)

अनुवाद (हिन्दी)

धृतराष्ट्र बोले— कुरुनन्दन! तुमने वह राज्याभिषेक प्राप्त किया है, जो अजितात्मा पुरुषोंके लिये दुर्लभ है। राजन्! तुम राज्य पाकर कृतार्थ हो गये। अतः आज ही खाण्डवप्रस्थ चले जाओ। नृपश्रेष्ठ! पुरूरवा, आयु, नहुष तथा ययाति खाण्डवप्रस्थमें ही निवास करते थे। महाबाहो! वहीं समस्त पौरव नरेशोंकी राजधानी थी। आगे चलकर मुनियोंने बुधपुत्रके लोभसे खाण्डवप्रस्थको नष्ट कर दिया था। इसलिये तुम खाण्डवप्रस्थ नगरको पुनः बसाओ और अपने राष्ट्रकी वृद्धि करो। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र सबने तुम्हारे साथ वहाँ जानेका निश्चय किया है। तुममें भक्ति रखनेके कारण दूसरे लोग भी उस सुन्दर नगरका आश्रय लेंगे। निष्पाप कुन्तीकुमार! वह नगर तथा राष्ट्र समृद्धिशाली और धन-धान्यसे सम्पन्न है। अतः तुम भाइयोंसहित वहीं जाओ।

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रतिगृह्य तु तद् वाक्यं नृपं सर्वे प्रणम्य च॥२६॥
प्रतस्थिरे ततो घोरं वनं तन्मनुजर्षभाः।
अर्धं राज्यस्य सम्प्राप्य खाण्डवप्रस्थमाविशन् ॥ २७ ॥

मूलम्

प्रतिगृह्य तु तद् वाक्यं नृपं सर्वे प्रणम्य च॥२६॥
प्रतस्थिरे ततो घोरं वनं तन्मनुजर्षभाः।
अर्धं राज्यस्य सम्प्राप्य खाण्डवप्रस्थमाविशन् ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! राजा धृतराष्ट्रकी बात मानकर पाण्डवोंने उन्हें प्रणाम किया और आधा राज्य पाकर वे खाण्डवप्रस्थकी ओर चल दिये, जो भयंकर वनके रूपमें था। धीरे-धीरे वे खाण्डवप्रस्थमें जा पहुँचे॥२६-२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्ते पाण्डवास्तत्र गत्वा कृष्णपुरोगमाः।
मण्डयांचक्रिरे तद् वै परं स्वर्गवदच्युताः ॥ २८ ॥

मूलम्

ततस्ते पाण्डवास्तत्र गत्वा कृष्णपुरोगमाः।
मण्डयांचक्रिरे तद् वै परं स्वर्गवदच्युताः ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर अपनी मर्यादासे कभी च्युत न होनेवाले पाण्डवोंने श्रीकृष्णसहित वहाँ जाकर उस स्थानको उत्तम स्वर्गलोककी भाँति शोभायमान कर दिया॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(वासुदेवो जगन्नाथश्चिन्तयामास वासवम् ।
महेन्द्रश्चिन्तितो राजन् विश्वकर्माणमादिशत् ॥

मूलम्

(वासुदेवो जगन्नाथश्चिन्तयामास वासवम् ।
महेन्द्रश्चिन्तितो राजन् विश्वकर्माणमादिशत् ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर जगदीश्वर भगवान् वासुदेवने देवराज इन्द्रका चिन्तन किया। राजन्! उनके चिन्तन करनेपर इन्द्रदेवने (उनके मनकी बात जानकर) विश्वकर्माको इस प्रकार आज्ञा दी।

मूलम् (वचनम्)

महेन्द्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

विश्वकर्मन् महाप्राज्ञ अद्यप्रभृति तत् पुरम्।
इन्द्रप्रस्थमिति ख्यातं दिव्यं रम्यं भविष्यति॥

मूलम्

विश्वकर्मन् महाप्राज्ञ अद्यप्रभृति तत् पुरम्।
इन्द्रप्रस्थमिति ख्यातं दिव्यं रम्यं भविष्यति॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्र बोले— विश्वकर्मन्! महामते! (आप जाकर खाण्डवप्रस्थ नगरका निर्माण करें।) आजसे वह दिव्य और रमणीय नगर इन्द्रप्रस्थके नामसे विख्यात होगा।

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

महेन्द्रशासनाद् गत्वा विश्वकर्मा तु केशवम्।
प्रणम्य प्रणिपातर्हं किं करोमीत्यभाषत॥
वासुदेवस्तु तच्छ्रुत्वा विश्वकर्माणमूचिवान् ।

मूलम्

महेन्द्रशासनाद् गत्वा विश्वकर्मा तु केशवम्।
प्रणम्य प्रणिपातर्हं किं करोमीत्यभाषत॥
वासुदेवस्तु तच्छ्रुत्वा विश्वकर्माणमूचिवान् ।

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! महेन्द्रकी आज्ञासे विश्वकर्माने खाण्डवप्रस्थमें जाकर वन्दनीय भगवान् श्रीकृष्णको प्रणाम करके कहा—मेरे लिये क्या आज्ञा है? उनकी बात सुनकर भगवान् श्रीकृष्णने उनसे कहा।

मूलम् (वचनम्)

वासुदेव उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुरुष्व कुरुराजाय महेन्द्रपुरसंनिभम् ।
इन्द्रेण कृतनामानमिन्द्रप्रस्थं महापुरम् ॥)

मूलम्

कुरुष्व कुरुराजाय महेन्द्रपुरसंनिभम् ।
इन्द्रेण कृतनामानमिन्द्रप्रस्थं महापुरम् ॥)

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीकृष्ण बोले— विश्वकर्मन्! तुम कुरुराज युधिष्ठिरके लिये महेन्द्रपुरीके समान एक महानगरका निर्माण करो। इन्द्रके निश्चय किये हुए नामके अनुसार वह इन्द्रप्रस्थ कहलायेगा।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः पुण्ये शिवे देशो शान्तिं कृत्वा महारथाः।
नगरं मापयामासुर्दैपायनपुरोगमाः ॥ २९ ॥

मूलम्

ततः पुण्ये शिवे देशो शान्तिं कृत्वा महारथाः।
नगरं मापयामासुर्दैपायनपुरोगमाः ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् पवित्र एवं कल्याणमय प्रदेशमें शान्तिकर्म कराके महारथी पाण्डवोंने वेदव्यासजीको अगुआ बनाकर नगर बसानेके लिये जमीनका नाप करवाया॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सागरप्रतिरूपाभिः परिखाभिरलंकृतम् ।
प्राकारेण च सम्पन्नं दिवमावृत्य तिष्ठता ॥ ३० ॥
पाण्डुराभ्रप्रकाशेन हिमरश्मिनिभेन च ।
शुशुभे तत् पुरश्रेष्ठं नागैर्भोगवती यथा ॥ ३१ ॥

मूलम्

सागरप्रतिरूपाभिः परिखाभिरलंकृतम् ।
प्राकारेण च सम्पन्नं दिवमावृत्य तिष्ठता ॥ ३० ॥
पाण्डुराभ्रप्रकाशेन हिमरश्मिनिभेन च ।
शुशुभे तत् पुरश्रेष्ठं नागैर्भोगवती यथा ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसके चारों ओर समुद्रकी भाँति विस्तृत एवं अगाध जलसे भरी हुई खाइयाँ बनी थीं, जो उस नगरकी शोभा बढ़ा रही थीं। श्वेत बादलों तथा चन्द्रमाके समान उज्ज्वल चहारदीवारी शोभा दे रही थी, जो अपनी ऊँचाईसे आकाशमण्डलको व्याप्त करके खड़ी थी। जैसे नागोंसे भोगवती सुशोभित होती है, उसी प्रकार उस चहारदीवारीसे खाईसहित वह श्रेष्ठ नगर सुशोभित हो रहा था॥३०-३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्विपक्षगरुडप्रख्यैर्द्वारैः सौधैश्च शोभितम् ।
गुप्तमभ्रचयप्रख्यैर्गोपुरैर्मन्दरोपमैः ॥ ३२ ॥

मूलम्

द्विपक्षगरुडप्रख्यैर्द्वारैः सौधैश्च शोभितम् ।
गुप्तमभ्रचयप्रख्यैर्गोपुरैर्मन्दरोपमैः ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस नगरके दरवाजे ऐसे जान पड़ते थे, मानो दो पाँख फैलाये गरुड़ हों। ऐसे अनेक बड़े-बड़े फाटक और अट्टालिकाएँ उस नगरकी श्रीवृद्धि कर रही थीं। मेघोंकी घटाके समान सुशोभित तथा मन्दराचलके समान ऊँचे गोपुरोंद्वारा वह नगर सब ओरसे सुरक्षित था॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विविधैरपि निर्विद्धैः शस्त्रोपेतैः सुसंवृतैः।
शक्तिभिश्चावृतं तद्धि द्विजिह्वैरिव पन्नगैः ॥ ३३ ॥

मूलम्

विविधैरपि निर्विद्धैः शस्त्रोपेतैः सुसंवृतैः।
शक्तिभिश्चावृतं तद्धि द्विजिह्वैरिव पन्नगैः ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नाना प्रकारके अभेद्य तथा सब ओरसे घिरे हुए शस्त्रागारोंमें शस्त्र संग्रह करके रखे गये थे। नगरके चारों ओर हाथसे चलायी जानेवाली लोहेकी शक्तियाँ तैयार करके रखी गयी थीं, जो दो जीभोंवाले साँपोंके समान जान पड़ती थीं। इन सबके द्वारा उस नगरकी सुरक्षा की गयी थी॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तल्पैश्चाभ्यासिकैर्युक्तं शुशुभे योधरक्षितम् ।
तीक्ष्णाङ्‌कुशशतघ्नीभिर्यन्त्रजालैश्च शोभितम् ॥ ३४ ॥

मूलम्

तल्पैश्चाभ्यासिकैर्युक्तं शुशुभे योधरक्षितम् ।
तीक्ष्णाङ्‌कुशशतघ्नीभिर्यन्त्रजालैश्च शोभितम् ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनमें अस्त्र-शस्त्रोंका अभ्यास किया जाता था, ऐसी अनेक अट्‌टालिकाओंसे युक्त और योद्धाओंसे सुरक्षित उस नगरकी शोभा देखते ही बनती थी। तीखे अंकुशों (बर्छों), शतघ्नियों (तोपों) और अन्यान्य युद्धसम्बन्धी यन्त्रोंके जालसे वह नगर शोभा पा रहा था॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आयसैश्च महाचक्रैः शुशुभे तत् पुरोत्तमम्।
सुविभक्तमहारथ्यं देवताबाधवर्जितम् ॥ ३५ ॥

मूलम्

आयसैश्च महाचक्रैः शुशुभे तत् पुरोत्तमम्।
सुविभक्तमहारथ्यं देवताबाधवर्जितम् ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

लोहेके बने हुए महान् चक्रोंद्वारा उस उत्तम नगरकी अवर्णनीय शोभा हो रही थी। वहाँ विभागपूर्वक विभिन्न स्थानोंमें जानेके लिये विशाल एवं चौड़ी सड़कें बनी हुई थीं। उस नगरमें दैवी आपत्तिका नाम नहीं था॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विरोचमानं विविधैः पाण्डुरैर्भवनोत्तमैः ।
तत् त्रिविष्टपसंकाशमिन्द्रप्रस्थं व्यरोचत ॥ ३६ ॥

मूलम्

विरोचमानं विविधैः पाण्डुरैर्भवनोत्तमैः ।
तत् त्रिविष्टपसंकाशमिन्द्रप्रस्थं व्यरोचत ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अनेक प्रकारके श्रेष्ठ एवं शुभ्र सदनोंसे शोभित वह नगर स्वर्गलोकके समान प्रकाशित हो रहा था। उसका नाम था इन्द्रप्रस्थ॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेघवृन्दमिवाकाशे विद्धं विद्युत्समावृतम् ।
तत्र रम्ये शिवे देशो कौरव्यस्य निवेशनम् ॥ ३७ ॥

मूलम्

मेघवृन्दमिवाकाशे विद्धं विद्युत्समावृतम् ।
तत्र रम्ये शिवे देशो कौरव्यस्य निवेशनम् ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्रप्रस्थके रमणीय एवं शुभ प्रदेशमें कुरुराज युधिष्ठिरका सुन्दर राजभवन बना हुआ था, जो आकाशमें विद्युत्‌की प्रभासे व्याप्त मेघमण्डलकी भाँति देदीप्यमान था॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शुशुभे धनसम्पूर्णं धनाध्यक्षक्षयोपमम् ।
तत्रागच्छन् द्विजा राजन् सर्ववेदविदां वराः ॥ ३८ ॥
निवासं रोचयन्ति स्म सर्वभाषाविदस्तथा।
वणिजश्चाययुस्तत्र नानादिग्भ्यो धनार्थिनः ॥ ३९ ॥

मूलम्

शुशुभे धनसम्पूर्णं धनाध्यक्षक्षयोपमम् ।
तत्रागच्छन् द्विजा राजन् सर्ववेदविदां वराः ॥ ३८ ॥
निवासं रोचयन्ति स्म सर्वभाषाविदस्तथा।
वणिजश्चाययुस्तत्र नानादिग्भ्यो धनार्थिनः ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अनन्त धनराशिसे परिपूर्ण होनेके कारण वह भवन धनाध्यक्ष कुबेरके निवासस्थानकी समानता करता था। राजन्! सम्पूर्ण वेदवेत्ताओंमें श्रेष्ठ ब्राह्मण उस नगरमें निवास करनेके लिये आये, जो सम्पूर्ण भाषाओंके जानकार थे। उन सबको वहाँका रहना बहुत पसंद आया। अनेक दिशाओंसे धनोपार्जनकी इच्छावाले वणिक् भी उस नगरमें आये॥३८-३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वशिल्पविदस्तत्र वासायाभ्यागमंस्तदा ।
उद्यानानि च रम्याणि नगरस्य समन्ततः ॥ ४० ॥

मूलम्

सर्वशिल्पविदस्तत्र वासायाभ्यागमंस्तदा ।
उद्यानानि च रम्याणि नगरस्य समन्ततः ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सब प्रकारकी शिल्पकलाके जानकार मनुष्य भी उन दिनों इन्द्रप्रस्थमें निवास करनेके लिये आ गये थे। नगरके चारों ओर रमणीय उद्यान थे॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आम्रैराम्रातकैर्नीपैरशोकैश्चम्पकैस्तथा ।
पुन्नागैर्नागपुष्पैश्च लकुचैः पनसैस्तथा ॥ ४१ ॥
शालतालतमालैश्च बकुलैश्च सकेतकैः ।
मनोहरः सुपुष्पैश्च फलभारावनामितैः ॥ ४२ ॥

मूलम्

आम्रैराम्रातकैर्नीपैरशोकैश्चम्पकैस्तथा ।
पुन्नागैर्नागपुष्पैश्च लकुचैः पनसैस्तथा ॥ ४१ ॥
शालतालतमालैश्च बकुलैश्च सकेतकैः ।
मनोहरः सुपुष्पैश्च फलभारावनामितैः ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो आम, आमड़ा, कदम्ब, अशोक, चम्पा, पुन्नाग, नागपुष्प, लकुच, कटहल, साल, ताल, तमाल, मौलसिरी और केवड़ा आदि सुन्दर फूलोंसे भरे और फलोंके भारसे झुके हुए मनोहर वृक्षोंसे सुशोभित थे॥४१-४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्राचीनामलकैर्लोध्रैरङ्कोलैश्च सुपुष्पितैः ।
जम्बूभिः पाटलाभिश्च कुब्जकैरतिमुक्तकैः ॥ ४३ ॥
करवीरैः पारिजातैरन्यैश्च विविधैर्द्रुमैः ।
नित्यपुष्पफलोपेतैर्नानाद्विजगणायुतैः ॥ ४४ ॥

मूलम्

प्राचीनामलकैर्लोध्रैरङ्कोलैश्च सुपुष्पितैः ।
जम्बूभिः पाटलाभिश्च कुब्जकैरतिमुक्तकैः ॥ ४३ ॥
करवीरैः पारिजातैरन्यैश्च विविधैर्द्रुमैः ।
नित्यपुष्पफलोपेतैर्नानाद्विजगणायुतैः ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्राचीन आँवले, लोध्र, खिले हुए अंकोल, जामुन, पाटल, कुब्जक, अतिमुक्तक लता, करवीर, पारिजात तथा अन्य नाना प्रकारके वृक्ष, जिनमें सदा फल और फूल लगे रहते थे और जिनके ऊपर भाँति-भाँतिके सहस्रों पक्षी कलरव करते थे, उन उद्यानोंकी शोभा बढ़ा रहे थे॥४३-४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मत्तबर्हिणसंघुष्टकोकिलैश्च सदामदैः ।
गृहैरादर्शविमलैर्विविधैश्च लतागृहैः ॥ ४५ ॥

मूलम्

मत्तबर्हिणसंघुष्टकोकिलैश्च सदामदैः ।
गृहैरादर्शविमलैर्विविधैश्च लतागृहैः ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मतवाले मयूरोंके केकारव तथा सदा उन्मत्त रहनेवाली कोकिलोंकी काकली वहाँ गूँजती रहती थी। उन उद्यानोंमें दर्पणके समान स्वच्छ क्रीड़ाभवन तथा नाना प्रकारके लतामण्डप बनाये गये थे॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनोहरैश्चित्रगृहैस्तथाजगतिपर्वतैः ।
वापीभिर्विविधाभिश्च पूर्णाभिः परमाम्भसा ॥ ४६ ॥
सरोभिरतिरम्यैश्च पद्मोत्पलसुगन्धिभिः ।
हंसकारण्डवयुतैश्चक्रवाकोपशोभितैः ॥ ४७ ॥

मूलम्

मनोहरैश्चित्रगृहैस्तथाजगतिपर्वतैः ।
वापीभिर्विविधाभिश्च पूर्णाभिः परमाम्भसा ॥ ४६ ॥
सरोभिरतिरम्यैश्च पद्मोत्पलसुगन्धिभिः ।
हंसकारण्डवयुतैश्चक्रवाकोपशोभितैः ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनोहर चित्रशालाओं तथा राजाओंकी विहारयात्राके लिये निर्मित हुए कृत्रिम पर्वतोंसे भी वे उद्यान बड़ी शोभा पा रहे थे। उत्तम जलसे भरी हुई अनेक प्रकारकी बावलियाँ तथा कमल और उत्पलकी सुगन्धसे वासित अत्यन्त रमणीय सरोवर जहाँ हंस, कारण्डव तथा चक्रवाक आदि पक्षी निवास करते थे, उन उद्यानोंकी शोभा बढ़ा रहे थे॥४६-४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रम्याश्च विविधास्तत्र पुष्करिण्यो वनावृताः।
तडागानि च रम्याणि बृहन्ति सुबहूनि च ॥ ४८ ॥

मूलम्

रम्याश्च विविधास्तत्र पुष्करिण्यो वनावृताः।
तडागानि च रम्याणि बृहन्ति सुबहूनि च ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ वनसे घिरी हुई भाँति-भाँतिकी रमणीय पुष्करिणियाँ और सुरम्य एवं विशाल बहुसंख्यक तड़ाग बड़े सुन्दर जान पड़ते थे॥४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(चातुर्वर्ण्यसमाकीर्णं मान्यैः शिल्पिभिरावृतम् ।
उपयोगसमर्थैश्च सर्वद्रव्यैः समावृतम् ॥
नित्यमार्यजनोपेतं नरनारीगणैर्युतम् ।
मत्तवारणसम्पूर्णं गोभिरुष्ट्रैः खरैरजैः ॥
सर्वदाभिगतं सद्भिः कारितं विश्वकर्मणा।
तत् त्रिविष्टपसंकाशमिन्द्रप्रस्थं व्यरोचत ॥
पुरीं सर्वगुणोपेतां निर्मितां विश्वकर्मणा।
पौरवाणामधिपतिः कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः ॥
कृतमङ्गलसत्कारो ब्राह्मणैर्वेदपारगैः ।
द्वैपायनं पुरस्कृत्य धौम्यस्यानुमते स्थितः॥
भ्रातृभिः सहितो राजन् केशवेन सहाभिभूः।
तोरणद्वारसुमुखं द्वात्रिंशद्‌द्वारसंयुतम् ॥
वर्धमानपुरद्वारं प्रविवेश महाद्युतिः ।
शङ्खदुन्दुभिनिर्घोषाः श्रूयन्ते बहवो भृशम्॥
जयेति ब्राह्मणगिरः श्रूयन्ते च सहस्रशः।
संस्तूयमानो मुनिभिः सूतमागधवन्दिभिः ॥
औपवाह्यगतो राजा राजमार्गमतीत्य च।
कृतमङ्गलसत्कारं प्रविवेश गृहोत्तमम् ॥
प्रविश्य भवनं राजा सत्कारैरभिपूजितः।
पूजयामास विप्रेन्द्रान् केशवेन यथाक्रमम्॥
ततस्तु राष्ट्रं नगरं नरनारीगणायुतम्।
गोधनैश्च समाकीर्णं सस्यवृद्धिस्तदाभवत् ॥)

मूलम्

(चातुर्वर्ण्यसमाकीर्णं मान्यैः शिल्पिभिरावृतम् ।
उपयोगसमर्थैश्च सर्वद्रव्यैः समावृतम् ॥
नित्यमार्यजनोपेतं नरनारीगणैर्युतम् ।
मत्तवारणसम्पूर्णं गोभिरुष्ट्रैः खरैरजैः ॥
सर्वदाभिगतं सद्भिः कारितं विश्वकर्मणा।
तत् त्रिविष्टपसंकाशमिन्द्रप्रस्थं व्यरोचत ॥
पुरीं सर्वगुणोपेतां निर्मितां विश्वकर्मणा।
पौरवाणामधिपतिः कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः ॥
कृतमङ्गलसत्कारो ब्राह्मणैर्वेदपारगैः ।
द्वैपायनं पुरस्कृत्य धौम्यस्यानुमते स्थितः॥
भ्रातृभिः सहितो राजन् केशवेन सहाभिभूः।
तोरणद्वारसुमुखं द्वात्रिंशद्‌द्वारसंयुतम् ॥
वर्धमानपुरद्वारं प्रविवेश महाद्युतिः ।
शङ्खदुन्दुभिनिर्घोषाः श्रूयन्ते बहवो भृशम्॥
जयेति ब्राह्मणगिरः श्रूयन्ते च सहस्रशः।
संस्तूयमानो मुनिभिः सूतमागधवन्दिभिः ॥
औपवाह्यगतो राजा राजमार्गमतीत्य च।
कृतमङ्गलसत्कारं प्रविवेश गृहोत्तमम् ॥
प्रविश्य भवनं राजा सत्कारैरभिपूजितः।
पूजयामास विप्रेन्द्रान् केशवेन यथाक्रमम्॥
ततस्तु राष्ट्रं नगरं नरनारीगणायुतम्।
गोधनैश्च समाकीर्णं सस्यवृद्धिस्तदाभवत् ॥)

अनुवाद (हिन्दी)

वह नगर चारों वर्णोंके लोगोंसे ठसाठस भरा था। माननीय शिल्पी वहाँ निवास करते थे। वह पुरी उपभोगमें आनेवाली समस्त सामग्रियोंसे सम्पन्न थी। वहाँ सदा श्रेष्ठ पुरुष रहा करते थे। असंख्य नर-नारी उस नगरकी शोभा बढ़ाते थे। वहाँ मतवाले हाथी, ऊँट, गायें, बैल, गदहे और बकरे आदि पशु भी सदा मौजूद रहते थे। विश्वकर्माद्वारा बनायी हुई उस पुरीमें सदा साधु-महात्माओंका समागम होता था। वह इन्द्रप्रस्थ नगर स्वर्गके समान शोभा पाता था। राजन्! कौरवराज महातेजस्वी कुन्तीनन्दन युधिष्ठिरने वेदोंके पारंगत विद्वान् ब्राह्मणोंद्वारा मंगल-कृत्य कराकर द्वैपायन व्यासको आगे करके धौम्य मुनिकी सम्मतिके अनुसार भाइयों तथा भगवान् श्रीकृष्णके साथ बत्तीस दरवाजोंसे युक्त तोरणद्वारके सामने आकर वर्धमान नामक नगरद्वारमें प्रवेश किया। उस समय शंख और नगारोंकी आवाज बड़े जोर-जोरसे सुनायी देती थी। सहस्रों ब्राह्मणोंके मुखसे निकले हुए जयघोषका श्रवण होता था। मुनि तथा सूत, मागध और बन्दीजन राजाकी स्तुति कर रहे थे। राजा युधिष्ठिर हाथीपर बैठे हुए थे। उन्होंने राजमार्गको पार करके एक उत्तम भवनमें प्रवेश किया, जहाँ मांगलिक कृत्य सम्पन्न किया गया था। उस भवनमें प्रवेश करके भाँति-भाँतिके सत्कारोंसे सम्मानित हो राजा युधिष्ठिरने भगवान् श्रीकृष्णके साथ क्रमशः सभी शेष ब्राह्मणोंका पूजन किया। तदनन्तर अगणित नर-नारियोंसे सुशोभित वह राष्ट्र और नगर गोधनसे सम्पन्न हो गया और दिनोंदिन खेतीकी वृद्धि होने लगी।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेषां पुण्यजनोपेतं राष्ट्रमाविशतां महत्।
पाण्डवानां महाराज शश्वत् प्रीतिरवर्धत ॥ ४९ ॥

मूलम्

तेषां पुण्यजनोपेतं राष्ट्रमाविशतां महत्।
पाण्डवानां महाराज शश्वत् प्रीतिरवर्धत ॥ ४९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! पुण्यात्मा मनुष्योंसे भरे हुए उस महान् राष्ट्रमें प्रवेश करनेके बाद पाण्डवोंकी प्रसन्नता निरन्तर बढ़ती गयी॥४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र भीष्मेण राज्ञा च धर्मप्रणयने कृते।
पाण्डवाः समपद्यन्त खाण्डवप्रस्थवासिनः ॥ ५० ॥

मूलम्

तत्र भीष्मेण राज्ञा च धर्मप्रणयने कृते।
पाण्डवाः समपद्यन्त खाण्डवप्रस्थवासिनः ॥ ५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्म तथा राजा धृतराष्ट्रके द्वारा धर्मराज युधिष्ठिरको आधा राज्य देकर वहाँसे विदा कर देनेपर समस्त पाण्डव खाण्डवप्रस्थके निवासी हो गये॥५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पञ्चभिस्तैर्महेष्वासैरिन्द्रकल्पैः समन्वितम् ।
शुशुभे तत् पुरश्रेष्ठं नागैर्भोगवती यथा ॥ ५१ ॥

मूलम्

पञ्चभिस्तैर्महेष्वासैरिन्द्रकल्पैः समन्वितम् ।
शुशुभे तत् पुरश्रेष्ठं नागैर्भोगवती यथा ॥ ५१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्रके समान शक्तिशाली और महान् धनुर्धर पाँचों पाण्डवोंके द्वारा वह श्रेष्ठ इन्द्रप्रस्थ नगर नागोंसे युक्त भोगवतीपुरीकी भाँति सुशोभित होने लगा॥५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(ततस्तु विश्वकर्माणं पूजयित्वा विसृज्य च।
द्वैपायनं च सम्पूज्य विसृज्य च नराधिप।
वार्ष्णेयमब्रवीद् राजा गन्तुकामं कृतक्षणम्॥

मूलम्

(ततस्तु विश्वकर्माणं पूजयित्वा विसृज्य च।
द्वैपायनं च सम्पूज्य विसृज्य च नराधिप।
वार्ष्णेयमब्रवीद् राजा गन्तुकामं कृतक्षणम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर विश्वकर्माका पूजन करके राजाने उन्हें विदा कर दिया। फिर व्यासजीको सम्मानपूर्वक विदा देकर राजा युधिष्ठिरने जानेके लिये उद्यत हुए भगवान् श्रीकृष्णसे कहा।

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तव प्रसादाद् वार्ष्णेय राज्यं प्राप्तं मयानघ।
प्रसादादेव ते वीर शून्यं राष्ट्रं सुदुर्गमम्॥
तवैव तु प्रसादेन राज्यस्थाश्च महामते।
गतिस्त्वमन्तकाले च पाण्डवानां तु माधव॥
मातास्माकं पिता देवो न पाण्डुं विद्म वै वयम्।
ज्ञात्वा तु कृत्यं कर्तव्यं कारयस्व भवान् हि नः।
यदिष्टमनुमन्तव्यं पाण्डवानां त्वयानघ ॥

मूलम्

तव प्रसादाद् वार्ष्णेय राज्यं प्राप्तं मयानघ।
प्रसादादेव ते वीर शून्यं राष्ट्रं सुदुर्गमम्॥
तवैव तु प्रसादेन राज्यस्थाश्च महामते।
गतिस्त्वमन्तकाले च पाण्डवानां तु माधव॥
मातास्माकं पिता देवो न पाण्डुं विद्म वै वयम्।
ज्ञात्वा तु कृत्यं कर्तव्यं कारयस्व भवान् हि नः।
यदिष्टमनुमन्तव्यं पाण्डवानां त्वयानघ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर बोले— निष्पाप वृष्णिनन्दन! आपकी ही कृपासे मैंने राज्य प्राप्त किया है। वीर! आपके ही प्रसादसे यह अत्यन्त दुर्गम एवं निर्जन प्रदेश आज धन-धान्यसे सम्पन्न राष्ट्र बन गया। महामते! आपकी ही दयासे हमलोग राज्यसिंहासनपर आसीन हुए हैं। माधव! अन्तकालमें भी आप ही हम पाण्डवोंकी गति हैं। आप ही हमारे माता-पिता और इष्टदेव हैं। हम पाण्डुको नहीं जानते। अनघ! आप स्वयं समझकर जो करनेयोग्य कार्य हो, वह हमसे करायें। पाण्डवोंके लिये जो अभीष्ट हो, उसी कार्यको करनेके लिये आप हमें अनुमति दें।

मूलम् (वचनम्)

श्रीवासुदेव उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वत्प्रभावान्महाभाग राज्यं प्राप्तं स्वधर्मतः।
पितृपैतामहं राज्यं कथं न स्यात् तव प्रभो॥
धार्तराष्ट्रा दुराचाराः किं करिष्यन्ति पाण्डवान्।
यथेष्टं पालय महीं सदा धर्मधुरं वह॥
धर्मोपदेशं संक्षेपाद् ब्राह्मणान् भज कौरव।
अद्यैव नारदः श्रीमानागमिष्यति सत्वरः।
आदृत्य तस्य वाक्यानि शासनं कुरु तस्य वै॥

मूलम्

त्वत्प्रभावान्महाभाग राज्यं प्राप्तं स्वधर्मतः।
पितृपैतामहं राज्यं कथं न स्यात् तव प्रभो॥
धार्तराष्ट्रा दुराचाराः किं करिष्यन्ति पाण्डवान्।
यथेष्टं पालय महीं सदा धर्मधुरं वह॥
धर्मोपदेशं संक्षेपाद् ब्राह्मणान् भज कौरव।
अद्यैव नारदः श्रीमानागमिष्यति सत्वरः।
आदृत्य तस्य वाक्यानि शासनं कुरु तस्य वै॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्णने कहा— महाभाग! आपको अपने ही प्रभावसे अपने ही धर्मके फलस्वरूप राज्य प्राप्त हुआ है। प्रभो! जो राज्य आपके बाप-दादोंका ही है, वह आपको कैसे नहीं मिलता। धृतराष्ट्रके पुत्र दुराचारी हैं। वे पाण्डवोंका क्या कर लेंगे? आप इच्छानुसार पृथ्वीका पालन कीजिये और सदा धर्ममर्यादाकी धुरी धारण करिये। कुरुनन्दन! संक्षेपमें आपके लिये धर्मका उपदेश इतना ही है कि ब्राह्मणोंकी सेवा करिये। आज ही बड़ी जल्दीमें आपके यहाँ श्रीनारदजी पधारेंगे, उनका आदर-सत्कार करके उनकी बातें सुनिये और उनकी आज्ञाका पालन कीजिये।

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्त्वा ततः कुन्तीमभिवाद्य जनार्दनः।
उवाच श्लक्ष्णया वाचा गमिष्यामि नमोऽस्तु ते॥

मूलम्

एवमुक्त्वा ततः कुन्तीमभिवाद्य जनार्दनः।
उवाच श्लक्ष्णया वाचा गमिष्यामि नमोऽस्तु ते॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! यों कहकर भगवान् श्रीकृष्ण कुन्तीदेवीके पास गये और उन्हें प्रणाम करके मधुर वाणीमें बोले—‘बुआजी! नमस्कार। अब मैं जाऊँगा (आज्ञा दीजिये)।’

मूलम् (वचनम्)

कुन्त्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

जातुषं गृहमासाद्य मया प्राप्तं च केशव।
आर्येण चापि न ज्ञातं कुन्तिभोजेन चानघ॥
त्वया नाथेन गोविन्द दुःखं तीर्णं महत्तरम्।
त्वं हि नाथस्त्वनाथानां दरिद्राणां विशेषतः॥
सर्वदुःखानि शाम्यन्ति तव संदर्शनान्मम।
स्मरस्वैनान् महाप्राज्ञ तेन जीवन्ति पाण्डवाः॥

मूलम्

जातुषं गृहमासाद्य मया प्राप्तं च केशव।
आर्येण चापि न ज्ञातं कुन्तिभोजेन चानघ॥
त्वया नाथेन गोविन्द दुःखं तीर्णं महत्तरम्।
त्वं हि नाथस्त्वनाथानां दरिद्राणां विशेषतः॥
सर्वदुःखानि शाम्यन्ति तव संदर्शनान्मम।
स्मरस्वैनान् महाप्राज्ञ तेन जीवन्ति पाण्डवाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुन्ती बोली— केशव! लाक्षागृहमें जाकर मैंने जो कष्ट भोगा है, उसे मेरे पूज्य पिता कुन्तिभोज भी नहीं जान सके हैं। गोविन्द! तुम्हारी सहायतासे ही मैं इस महान् दुःख-समुद्रसे पार हुई हूँ। प्रभो! तुम अनाथोंके, विशेषतः दीन-दुःखियोंके नाथ (रक्षक) हो। तुम्हारे दर्शनसे हमारे सारे दुःख दूर हो जाते हैं। महामते! इन पाण्डवोंको सदा याद रखना। ये तुम्हारे शुभ चिन्तनसे ही जीवन धारण करते हैं।

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

करिष्यामीति चामन्त्र्य अभिवाद्य पितृष्वसाम्।
गमनाय मतिं चक्रे वासुदेवः सहानुगः॥)

मूलम्

करिष्यामीति चामन्त्र्य अभिवाद्य पितृष्वसाम्।
गमनाय मतिं चक्रे वासुदेवः सहानुगः॥)

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! तदनन्तर भगवान् श्रीकृष्णने कुन्तीसे यह कहकर कि मैं आपकी आज्ञाका पालन करूँगा, प्रणाम करके, विदा ले सेवकोंसहित वहाँसे जानेका विचार किया।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तां निवेश्य ततो वीरो रामेण सह केशवः।
ययौ द्वारवतीं राजन् पाण्डवानुमते तदा ॥ ५२ ॥

मूलम्

तां निवेश्य ततो वीरो रामेण सह केशवः।
ययौ द्वारवतीं राजन् पाण्डवानुमते तदा ॥ ५२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! इस प्रकार उस पुरीको बसाकर बलरामजीके साथ वीरवर श्रीकृष्ण पाण्डवोंकी अनुमति ले उस समय द्वारकापुरीको चले गये॥५२॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि विदुरागमनराज्यलम्भपर्वणि पुरनिर्माणे षडधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २०६ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत विदुरागमनराज्यलम्भपर्वमें नगरनिर्माणविषयक दो सौ छठा अध्याय पूरा हुआ॥२०६॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ९९ श्लोक मिलाकर कुल १५१ श्लोक हैं)