श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना
पञ्चाधिकद्विशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
धृतराष्ट्रकी आज्ञासे विदुरका द्रुपदके यहाँ जाना और पाण्डवोंको हस्तिनापुर भेजनेका प्रस्ताव करना
मूलम् (वचनम्)
धृतराष्ट्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
भीष्मः शांतनवो विद्वान् द्रोणश्च भगवानृषिः।
हितं च परमं वाक्यं त्वं च सत्यं ब्रवीषि माम्॥१॥
मूलम्
भीष्मः शांतनवो विद्वान् द्रोणश्च भगवानृषिः।
हितं च परमं वाक्यं त्वं च सत्यं ब्रवीषि माम्॥१॥
अनुवाद (हिन्दी)
धृतराष्ट्र बोले— विदुर! शंतनुनन्दन भीष्म ज्ञानी हैं और भगवान् द्रोणाचार्य तो ऋषि ही ठहरे। अतः इनका वचन परम हितकारक है। तुम भी मुझसे जो कुछ कहते हो, वह सत्य ही है॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथैव पाण्डोस्ते वीराः कुन्तीपुत्रा महारथाः।
तथैव धर्मतः सर्वे मम पुत्रा न संशयः ॥ २ ॥
मूलम्
यथैव पाण्डोस्ते वीराः कुन्तीपुत्रा महारथाः।
तथैव धर्मतः सर्वे मम पुत्रा न संशयः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्तीके वीर महारथी पुत्र जैसे पाण्डुके लड़के हैं, उसी प्रकार धर्मकी दृष्टिसे वे सब मेरे भी पुत्र हैं—इसमें संशय नहीं है॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथैव मम पुत्राणामिदं राज्यं विधीयते।
तथैव पाण्डुपुत्राणामिदं राज्यं न संशयः ॥ ३ ॥
मूलम्
यथैव मम पुत्राणामिदं राज्यं विधीयते।
तथैव पाण्डुपुत्राणामिदं राज्यं न संशयः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे मेरे पुत्रोंका यह राज्य कहा जाता है, उसी प्रकार पाण्डुपुत्रोंका भी यह राज्य है—इसमें भी संशय नहीं है॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षत्तरानय गच्छैतान् सह मात्रा सुसत्कृतान्।
तया च देवरूपिण्या कृष्णया सह भारत ॥ ४ ॥
मूलम्
क्षत्तरानय गच्छैतान् सह मात्रा सुसत्कृतान्।
तया च देवरूपिण्या कृष्णया सह भारत ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतवंशी विदुर! अब तुम्हीं जाओ और उनकी माता कुन्ती तथा उस देवरूपिणी वधू कृष्णाके साथ इन पाण्डवोंको सत्कारपूर्वक ले आओ॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिष्ट्या जीवन्ति ते पार्था दिष्ट्या जीवति सा पृथा।
दिष्ट्या द्रुपदकन्यां च लब्धवन्तो महारथाः ॥ ५ ॥
मूलम्
दिष्ट्या जीवन्ति ते पार्था दिष्ट्या जीवति सा पृथा।
दिष्ट्या द्रुपदकन्यां च लब्धवन्तो महारथाः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सौभाग्यकी बात है कि वे कुन्तीपुत्र जीवित हैं। सौभाग्यसे ही कुन्ती भी जीवित है और यह भी बड़े सौभाग्यकी बात है कि उन महारथियोंने द्रुपदकन्याको प्राप्त कर लिया॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिष्ट्या वर्धामहे सर्वे दिष्ट्या शान्तः पुरोचनः।
दिष्ट्या मम परं दुःखमपनीतं महाद्युते ॥ ६ ॥
मूलम्
दिष्ट्या वर्धामहे सर्वे दिष्ट्या शान्तः पुरोचनः।
दिष्ट्या मम परं दुःखमपनीतं महाद्युते ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाद्युते! सौभाग्यसे हम सबकी वृद्धि हो रही है। भाग्यकी बात है कि पापी पुरोचन शान्त हो गया और सौभाग्यसे ही मेरा महान् दुःख मिट गया॥६॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो जगाम विदुरो धृतराष्ट्रस्य शासनात्।
सकाशं यज्ञसेनस्य पाण्डवानां च भारत ॥ ७ ॥
समुपादाय रत्नानि वसूनि विविधानि च।
द्रौपद्याः पाण्डवानां च यज्ञसेनस्य चैव ह ॥ ८ ॥
मूलम्
ततो जगाम विदुरो धृतराष्ट्रस्य शासनात्।
सकाशं यज्ञसेनस्य पाण्डवानां च भारत ॥ ७ ॥
समुपादाय रत्नानि वसूनि विविधानि च।
द्रौपद्याः पाण्डवानां च यज्ञसेनस्य चैव ह ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! तदनन्तर धृतराष्ट्रकी आज्ञासे विदुरजी द्रौपदी, पाण्डव तथा महाराज यज्ञसेनके लिये नाना प्रकारके धन-रत्नोंकी भेंट लेकर राजा द्रुपद और पाण्डवोंके समीप गये॥७-८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र गत्वा स धर्मज्ञः सर्वशास्त्रविशारदः।
द्रुपदं न्यायतो राजन् संयुक्तमुपतस्थिवान् ॥ ९ ॥
मूलम्
तत्र गत्वा स धर्मज्ञः सर्वशास्त्रविशारदः।
द्रुपदं न्यायतो राजन् संयुक्तमुपतस्थिवान् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! वहाँ पहुँचकर सम्पूर्ण शास्त्रोंके विद्वान् एवं धर्मज्ञ विदुर न्यायके अनुसार बड़े-छोटेके क्रमसे द्रुपद और अन्य लोगोंके साथ हृदयसे लगकर नमस्कार आदिपूर्वक मिले॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स चापि प्रतिजग्राह धर्मेण विदुरं ततः।
चक्रतुश्च यथान्यायं कुशलप्रश्नसंविदम् ॥ १० ॥
मूलम्
स चापि प्रतिजग्राह धर्मेण विदुरं ततः।
चक्रतुश्च यथान्यायं कुशलप्रश्नसंविदम् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा द्रुपदने भी धर्मके अनुसार विदुरजीका आदर-सत्कार किया। फिर वे दोनों यथोचित रीतिसे एक-दूसरेके कुशल-समाचार पूछने और कहने लगे॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ददर्श पाण्डवांस्तत्र वासुदेवं च भारत।
स्नेहात् परिष्वज्य स तान् पप्रच्छानामयं ततः ॥ ११ ॥
मूलम्
ददर्श पाण्डवांस्तत्र वासुदेवं च भारत।
स्नेहात् परिष्वज्य स तान् पप्रच्छानामयं ततः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! विदुरजीने वहाँ पाण्डवों तथा वसुदेवनन्दन भगवान् श्रीकृष्णको भी देखा और स्नेहपूर्वक उन्हें हृदयसे लगाकर उन सबकी कुशल पूछी॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तैश्चाप्यमितबुद्धिः स पूजितो हि यथाक्रमम्।
वचनाद् धृतराष्ट्रस्य स्नेहयुक्तं पुनः पुनः ॥ १२ ॥
पप्रच्छानामयं राजंस्ततस्तान् पाण्डुनन्दनान् ।
प्रददौ चापि रत्नानि विविधानि वसूनि च ॥ १३ ॥
पाण्डवानां च कुन्त्याश्च द्रौपद्याश्च विशाम्पते।
द्रुपदस्य च पुत्राणां यथा दत्तानि कौरवैः ॥ १४ ॥
मूलम्
तैश्चाप्यमितबुद्धिः स पूजितो हि यथाक्रमम्।
वचनाद् धृतराष्ट्रस्य स्नेहयुक्तं पुनः पुनः ॥ १२ ॥
पप्रच्छानामयं राजंस्ततस्तान् पाण्डुनन्दनान् ।
प्रददौ चापि रत्नानि विविधानि वसूनि च ॥ १३ ॥
पाण्डवानां च कुन्त्याश्च द्रौपद्याश्च विशाम्पते।
द्रुपदस्य च पुत्राणां यथा दत्तानि कौरवैः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने भी अमित-बुद्धिमान् विदुरजीका क्रमशः आदर-सत्कार किया। तदनन्तर विदुरजीने राजा धृतराष्ट्रकी आज्ञाके अनुसार बारंबार स्नेहपूर्वक युधिष्ठिर आदि पाण्डुपुत्रोंसे कुशल-मंगल एवं स्वास्थ्यविषयक प्रश्न किया। जनमेजय! फिर विदुरजीने कौरवोंकी ओरसे जैसे दिये गये थे, उसीके अनुसार पाण्डवों, कुन्ती, द्रौपदी तथा द्रुपदके पुत्रोंके लिये नाना प्रकारके रत्न और धन भेंट किये॥१२—१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रोवाच चामितमतिः प्रश्रितं विनयान्वितः।
द्रुपदं पाण्डुपुत्राणां संनिधौ केशवस्य च ॥ १५ ॥
मूलम्
प्रोवाच चामितमतिः प्रश्रितं विनयान्वितः।
द्रुपदं पाण्डुपुत्राणां संनिधौ केशवस्य च ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अगाध बुद्धिवाले विदुरजी पाण्डवों तथा भगवान् श्रीकृष्णके समीप विनीतभावसे नम्रतापूर्वक बोले—॥१५॥
मूलम् (वचनम्)
विदुर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजञ्छृणु सहामात्यः सपुत्रश्च वचो मम।
धृतराष्ट्रः सपुत्रस्त्वां सहामात्यः सबान्धवः ॥ १६ ॥
अब्रवीत् कुशलं राजन् प्रीयमाणः पुनः पुनः।
प्रीतिमांस्ते दृढं चापि सम्बन्धेन नराधिप ॥ १७ ॥
मूलम्
राजञ्छृणु सहामात्यः सपुत्रश्च वचो मम।
धृतराष्ट्रः सपुत्रस्त्वां सहामात्यः सबान्धवः ॥ १६ ॥
अब्रवीत् कुशलं राजन् प्रीयमाणः पुनः पुनः।
प्रीतिमांस्ते दृढं चापि सम्बन्धेन नराधिप ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विदुरने कहा— राजन्! आप अपने मन्त्रियों और पुत्रोंके साथ मेरी बात सुनें। महाराज धृतराष्ट्रने अपने पुत्र, मन्त्री और बन्धुओंके साथ अत्यन्त प्रसन्न होकर बारंबार आपकी कुशल पूछी है। महाराज! आपके साथ यह जो सम्बन्ध हुआ है, इससे उनको बड़ी प्रसन्नता हुई है॥१६-१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा भीष्मः शांतनवः कौरवैः सह सर्वशः।
कुशलं त्वां महाप्राज्ञः सर्वतः परिपृच्छति ॥ १८ ॥
मूलम्
तथा भीष्मः शांतनवः कौरवैः सह सर्वशः।
कुशलं त्वां महाप्राज्ञः सर्वतः परिपृच्छति ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी प्रकार शंतनुनन्दन महाप्राज्ञ भीष्मजी भी समस्त कौरवोंके साथ सब तरहसे आपकी कुशल पूछते हैं॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भारद्वाजो महाप्राज्ञो द्रोणः प्रियसखस्तव।
समाश्लेषमुपेत्य त्वां कुशलं परिपृच्छति ॥ १९ ॥
मूलम्
भारद्वाजो महाप्राज्ञो द्रोणः प्रियसखस्तव।
समाश्लेषमुपेत्य त्वां कुशलं परिपृच्छति ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आपके प्रिय मित्र महाबुद्धिमान् भरद्वाजनन्दन द्रोणाचार्य भी (मन-ही-मन) आपको हृदयसे लगाकर कुशल पूछ रहे हैं॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धृतराष्ट्रश्च पाञ्चाल्य त्वया सम्बन्धमीयिवान्।
कृतार्थं मन्यतेऽऽत्मानं तथा सर्वेऽपि कौरवाः ॥ २० ॥
मूलम्
धृतराष्ट्रश्च पाञ्चाल्य त्वया सम्बन्धमीयिवान्।
कृतार्थं मन्यतेऽऽत्मानं तथा सर्वेऽपि कौरवाः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पांचालनरेश! राजा धृतराष्ट्र आपके सम्बन्धी होकर अपने-आपको कृतार्थ मानते हैं। यही दशा समस्त कौरवोंकी है॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न तथा राज्यसम्प्राप्तिस्तेषां प्रीतिकरी मता।
यथा सम्बन्धकं प्राप्य यज्ञसेन त्वया सह ॥ २१ ॥
मूलम्
न तथा राज्यसम्प्राप्तिस्तेषां प्रीतिकरी मता।
यथा सम्बन्धकं प्राप्य यज्ञसेन त्वया सह ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यज्ञसेन! उन्हें राज्यकी प्राप्ति भी उतनी प्रसन्नता देनेवाली नहीं जान पड़ी, जितनी प्रसन्नता आपके साथ सम्बन्धका सौभाग्य पाकर हुई है॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतद् विदित्वा तु भवान् प्रस्थापयतु पाण्डवान्।
द्रष्टुं हि पाण्डुपुत्रांश्च त्वरन्ति कुरवो भृशम् ॥ २२ ॥
मूलम्
एतद् विदित्वा तु भवान् प्रस्थापयतु पाण्डवान्।
द्रष्टुं हि पाण्डुपुत्रांश्च त्वरन्ति कुरवो भृशम् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह जानकर आप पाण्डवोंको हस्तिनापुर भेज दें। समस्त कुरुवंशी पाण्डवोंको देखने और मिलनेके लिये अत्यन्त उतावले हो रहे हैं॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विप्रोषिता दीर्घकालमेते चापि नरर्षभाः।
उत्सुका नगरं द्रष्टुं भविष्यन्ति तथा पृथा ॥ २३ ॥
मूलम्
विप्रोषिता दीर्घकालमेते चापि नरर्षभाः।
उत्सुका नगरं द्रष्टुं भविष्यन्ति तथा पृथा ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दीर्घकालसे ये परदेशमें रह रहे हैं, अतः नरश्रेष्ठ पाण्डव तथा कुन्ती—सभी लोग अपना नगर देखनेके लिये उत्सुक हो रहे होंगे॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृष्णामपि च पाञ्चालीं सर्वाः कुरुवरस्त्रियः।
द्रष्टुकामाः प्रतीक्षन्ते पुरं च विषयाश्च नः ॥ २४ ॥
मूलम्
कृष्णामपि च पाञ्चालीं सर्वाः कुरुवरस्त्रियः।
द्रष्टुकामाः प्रतीक्षन्ते पुरं च विषयाश्च नः ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कौरवकुलकी सभी श्रेष्ठ स्त्रियाँ, हमारे हस्तिनापुर नगर तथा राष्ट्रके सभी लोग पांचालराजकुमारी कृष्णाको देखनेकी इच्छा रखकर उसके शुभागमनकी प्रतीक्षा कर रहे हैं॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स भवान् पाण्डुपुत्राणामाज्ञापयतु मा चिरम्।
गमनं सहदाराणामेतदत्र मतं मम ॥ २५ ॥
मूलम्
स भवान् पाण्डुपुत्राणामाज्ञापयतु मा चिरम्।
गमनं सहदाराणामेतदत्र मतं मम ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः आप पत्नीसहित पाण्डवोंको हस्तिनापुर चलनेके लिये शीघ्र आज्ञा दीजिये। इस विषयमें मेरी सम्मति यही है॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निसृष्टेषु त्वया राजन् पाण्डवेषु महात्मसु।
ततोऽहं प्रेषयिष्यामि धृतराष्ट्रस्य शीघ्रगान्।
आगमिष्यन्ति कौन्तेयाः कुन्ती च सह कृष्णया ॥ २६ ॥
मूलम्
निसृष्टेषु त्वया राजन् पाण्डवेषु महात्मसु।
ततोऽहं प्रेषयिष्यामि धृतराष्ट्रस्य शीघ्रगान्।
आगमिष्यन्ति कौन्तेयाः कुन्ती च सह कृष्णया ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! जब आप महामना पाण्डवोंको जानेकी आज्ञा दे देंगे, तब मैं यहाँसे राजा धृतराष्ट्रके पास शीघ्रगामी दूत भेजूँगा और यह संदेश कहला दूँगा कि कुन्ती तथा कृष्णाके साथ समस्त पाण्डव हस्तिनापुरमें आयेंगे॥२६॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि विदुरागमनराज्यलम्भपर्वणि विदुरद्रुपदसंवादे पञ्चाधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २०५ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत विदुरागमनराज्यलम्भपर्वमें विदुर-द्रुपदसंवादविषयक दो सौ पाँचवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२०५॥