२०४ विदुरानुमोदनम्

श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना

चतुरधिकद्विशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

विदुरजीकी सम्मति—द्रोण और भीष्मके वचनोंका ही समर्थन

मूलम् (वचनम्)

विदुर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजन् निःसंशयं श्रेयो वाच्यस्त्वमसि बान्धवैः।
न त्वशुश्रूषमाणे वै वाक्यं सम्प्रतितिष्ठति ॥ १ ॥

मूलम्

राजन् निःसंशयं श्रेयो वाच्यस्त्वमसि बान्धवैः।
न त्वशुश्रूषमाणे वै वाक्यं सम्प्रतितिष्ठति ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विदुरजी बोले— राजन्! आपके (हितैषी) बान्धवोंका यह कर्तव्य है कि वे आपको संदेहरहित हितकी बात बतायें। परंतु आप सुनना नहीं चाहते, इसलिये आपके भीतर उनकी कही हुई हितकी बात भी ठहर नहीं पा रही है॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रियं हितं च तद् वाक्यमुक्तवान् कुरुसत्तमः।
भीष्मः शांतनवो राजन् प्रतिगृह्णासि तन्न च ॥ २ ॥
तथा द्रोणेन बहुधा भाषितं हितमुत्तमम्।
तच्च राधासुतः कर्णो मन्यते न हितं तव ॥ ३ ॥

मूलम्

प्रियं हितं च तद् वाक्यमुक्तवान् कुरुसत्तमः।
भीष्मः शांतनवो राजन् प्रतिगृह्णासि तन्न च ॥ २ ॥
तथा द्रोणेन बहुधा भाषितं हितमुत्तमम्।
तच्च राधासुतः कर्णो मन्यते न हितं तव ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! कुरुश्रेष्ठ शंतनुनन्दन भीष्मने आपसे प्रिय और हितकी बात कही है; परंतु आप उसे ग्रहण नहीं कर रहे हैं। इसी प्रकार आचार्य द्रोणने अनेक प्रकारसे आपके लिये उत्तम हितकी बात बतायी है; किंतु राधानन्दन कर्ण उसे आपके लिये हितकर नहीं मानते॥२-३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चिन्तयंश्च न पश्यामि राजंस्तव सुहृत्तमम्।
आभ्यां पुरुषसिंहाभ्यां यो वा स्यात् प्रज्ञयाधिकः ॥ ४ ॥

मूलम्

चिन्तयंश्च न पश्यामि राजंस्तव सुहृत्तमम्।
आभ्यां पुरुषसिंहाभ्यां यो वा स्यात् प्रज्ञयाधिकः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! मैं बहुत सोचने-विचारनेपर भी आपके किसी ऐसे परम सुहृद् व्यक्तिको नहीं देखता, जो इन दोनों वीर महापुरुषोंसे बुद्धि या विचारशक्तिमें अधिक हो॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इमौ हि वृद्धौ वयसा प्रज्ञया च श्रुतेन च।
समौ च त्वयि राजेन्द्र तथा पाण्डुसुतेषु च ॥ ५ ॥

मूलम्

इमौ हि वृद्धौ वयसा प्रज्ञया च श्रुतेन च।
समौ च त्वयि राजेन्द्र तथा पाण्डुसुतेषु च ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजेन्द्र! अवस्था, बुद्धि और शास्त्रज्ञान—सभी बातोंमें ये दोनों बढ़े-चढ़े हैं और आपमें तथा पाण्डवोंमें समानभाव रखते हैं॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मे चानवरौ राजन् सत्यतायां च भारत।
रामाद् दाशरथेश्चैव गयाच्चैव न संशयः ॥ ६ ॥

मूलम्

धर्मे चानवरौ राजन् सत्यतायां च भारत।
रामाद् दाशरथेश्चैव गयाच्चैव न संशयः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतवंशी नरेश! ये दोनों धर्म और सत्यवादितामें दशरथनन्दन श्रीराम तथा राजा गयसे कम नहीं हैं। मेरा यह कथन सर्वथा संशयरहित है॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न चोक्तवन्तावश्रेयः पुरस्तादपि किंचन।
न चाप्यपकृतं किंचिदनयोर्लक्ष्यते त्वयि ॥ ७ ॥

मूलम्

न चोक्तवन्तावश्रेयः पुरस्तादपि किंचन।
न चाप्यपकृतं किंचिदनयोर्लक्ष्यते त्वयि ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने आपके सामने भी (कभी) कोई ऐसी बात नहीं कही होगी, जो आपके लिये अनिष्टकारक सिद्ध हुई हो तथा इनके द्वारा आपका कुछ अपकार हुआ हो, ऐसा भी देखनेमें नहीं आता॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तावुभौ पुरुषव्याघ्रावनागसि नृपे त्वयि।
न मन्त्रयेतां त्वच्छ्रेयः कथं सत्यपराक्रमौ ॥ ८ ॥

मूलम्

तावुभौ पुरुषव्याघ्रावनागसि नृपे त्वयि।
न मन्त्रयेतां त्वच्छ्रेयः कथं सत्यपराक्रमौ ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! आपने भी इनका कोई अपराध नहीं किया है; फिर ये दोनों सत्यपराक्रमी पुरुषसिंह आपको हितकारक सलाह न दें, यह कैसे हो सकता है?॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रज्ञावन्तौ नरश्रेष्ठावस्मिल्ँलोके नराधिप ।
त्वन्निमित्तमतो नेमौ किंचिज्जिह्मं वदिष्यतः ॥ ९ ॥

मूलम्

प्रज्ञावन्तौ नरश्रेष्ठावस्मिल्ँलोके नराधिप ।
त्वन्निमित्तमतो नेमौ किंचिज्जिह्मं वदिष्यतः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! ये दोनों इस लोकमें नरश्रेष्ठ और बुद्धिमान् हैं, अतः आपके लिये ये कोई कुटिलतापूर्ण बात नहीं कहेंगे॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति मे नैष्ठिकी बुद्धिर्वर्तते कुरुनन्दन।
न चार्थहेतोर्धर्मज्ञौ वक्ष्यतः पक्षसंश्रितम् ॥ १० ॥

मूलम्

इति मे नैष्ठिकी बुद्धिर्वर्तते कुरुनन्दन।
न चार्थहेतोर्धर्मज्ञौ वक्ष्यतः पक्षसंश्रितम् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुनन्दन! इनके विषयमें मेरा यह निश्चित विचार है कि ये दोनों धर्मके ज्ञाता महापुरुष हैं, अतः स्वार्थके लिये किसी एक ही पक्षको लाभ पहुँचाने-वाली बात नहीं कहेंगे॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतद्धि परमं श्रेयो मन्येऽहं तव भारत।
दुर्योधनप्रभृतयः पुत्रा राजन् यथा तव ॥ ११ ॥
तथैव पाण्डवेयास्ते पुत्रा राजन् न संशयः।
तेषु चेदहितं किंचिन्मन्त्रयेयुरतद्विदः ॥ १२ ॥
मन्त्रिणस्ते न च श्रेयः प्रपश्यन्ति विशेषतः।
अथ ते हृदये राजन् विशेषः स्वेषु वर्तते।
अन्तरस्थं विवृण्वानाः श्रेयः कुर्युर्न ते ध्रुवम् ॥ १३ ॥

मूलम्

एतद्धि परमं श्रेयो मन्येऽहं तव भारत।
दुर्योधनप्रभृतयः पुत्रा राजन् यथा तव ॥ ११ ॥
तथैव पाण्डवेयास्ते पुत्रा राजन् न संशयः।
तेषु चेदहितं किंचिन्मन्त्रयेयुरतद्विदः ॥ १२ ॥
मन्त्रिणस्ते न च श्रेयः प्रपश्यन्ति विशेषतः।
अथ ते हृदये राजन् विशेषः स्वेषु वर्तते।
अन्तरस्थं विवृण्वानाः श्रेयः कुर्युर्न ते ध्रुवम् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! इन्होंने जो सम्मति दी है, इसीको मैं आपके लिये परम कल्याणकारक मानता हूँ। महाराज! जैसे दुर्योधन आदि आपके पुत्र हैं, वैसे ही पाण्डव भी आपके पुत्र हैं—इसमें संशय नहीं है। इस बातको न जाननेवाले कुछ मन्त्री यदि आपको पाण्डवोंके अहितकी सलाह दें तो यह कहना पड़ेगा कि वे मन्त्रीलोग, आपका कल्याण किस बातमें है, यह विशेषरूपमें नहीं देख पा रहे हैं। राजन्! यदि आपके हृदयमें अपने पुत्रोंपर विशेष पक्षपात है तो आपके भीतरके छिपे हुए भावको बाहर सबके सामने प्रकट करनेवाले लोग निश्चय ही आपका भला नहीं कर सकते॥११—१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतदर्थमिमौ राजन् महात्मानौ महाद्युती।
नोचतुर्विवृतं किंचिन्न ह्येष तव निश्चयः ॥ १४ ॥

मूलम्

एतदर्थमिमौ राजन् महात्मानौ महाद्युती।
नोचतुर्विवृतं किंचिन्न ह्येष तव निश्चयः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! इसीलिये ये दोनों महातेजस्वी महात्मा आपके सामने कुछ खोलकर नहीं कह सके हैं। इन्होंने आपको ठीक ही सलाह दी है; परंतु आप उसे निश्चितरूपसे स्वीकार नहीं करते हैं॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यच्चाप्यशक्यतां तेषामाहतुः पुरुषर्षभौ ।
तत् तथा पुरुषव्याघ्र तव तद् भद्रमस्तु ते ॥ १५ ॥

मूलम्

यच्चाप्यशक्यतां तेषामाहतुः पुरुषर्षभौ ।
तत् तथा पुरुषव्याघ्र तव तद् भद्रमस्तु ते ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन पुरुषशिरोमणियोंने जो पाण्डवोंके अजेय होनेकी बात बतायी है, वह बिलकुल ठीक है। पुरुषसिंह! आपका कल्याण हो॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथं हि पाण्डवः श्रीमान् सव्यसाची धनंजयः।
शक्यो विजेतुं संग्रामे राजन् मघवतापि हि ॥ १६ ॥

मूलम्

कथं हि पाण्डवः श्रीमान् सव्यसाची धनंजयः।
शक्यो विजेतुं संग्रामे राजन् मघवतापि हि ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! दायें-बायें दोनों हाथोंसे बाण चलानेवाले श्रीमान् पाण्डुकुमार धनंजयको साक्षात् इन्द्र भी युद्धमें कैसे जीत सकते हैं?॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भीमसेनो महाबाहुर्नागायुतबलो महान् ।
कथं स्म युधि शक्येत विजेतुममरैरपि ॥ १७ ॥

मूलम्

भीमसेनो महाबाहुर्नागायुतबलो महान् ।
कथं स्म युधि शक्येत विजेतुममरैरपि ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दस हजार हाथियोंके समान महान् बलवान् महाबाहु भीमसेनको युद्धमें देवता भी कैसे जीत सकते हैं?॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथैव कृतिनौ युद्धे यमौ यमसुताविव।
कथं विजेतुं शक्यौ तौ रणे जीवितुमिच्छता ॥ १८ ॥

मूलम्

तथैव कृतिनौ युद्धे यमौ यमसुताविव।
कथं विजेतुं शक्यौ तौ रणे जीवितुमिच्छता ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी प्रकार जो जीवित रहना चाहता है, उसके द्वारा युद्धमें निपुण तथा यमराजके पुत्रोंकी भाँति भयंकर दोनों भाई नकुल-सहदेव कैसे जीते जा सकते हैं?॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्मिन् धृतिरनुक्रोशः क्षमा सत्यं पराक्रमः।
नित्यानि पाण्डवे ज्येष्ठे स जीयेत रणे कथम् ॥ १९ ॥

मूलम्

यस्मिन् धृतिरनुक्रोशः क्षमा सत्यं पराक्रमः।
नित्यानि पाण्डवे ज्येष्ठे स जीयेत रणे कथम् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिन ज्येष्ठ पाण्डव युधिष्ठिरमें धैर्य, दया, क्षमा, सत्य और पराक्रम आदि गुण नित्य निवास करते हैं, उन्हें रणभूमिमें कैसे हराया जा सकता है?॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

येषां पक्षधरो रामो येषां मन्त्री जनार्दनः।
किं नु तैरजितं संख्ये येषां पक्षे च सात्यकिः॥२०॥

मूलम्

येषां पक्षधरो रामो येषां मन्त्री जनार्दनः।
किं नु तैरजितं संख्ये येषां पक्षे च सात्यकिः॥२०॥

अनुवाद (हिन्दी)

बलरामजी जिनके पक्षपाती हैं, भगवान् श्रीकृष्ण जिनके सलाहकार हैं तथा जिनके पक्षमें सात्यकि-जैसा वीर है, वे पाण्डव युद्धमें किसे नहीं परास्त कर देंगे?॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्रुपदः श्वशुरो येषां येषां श्यालाश्च पार्षताः।
धृष्टद्युम्नमुखा वीरा भ्रातरो द्रुपदात्मजाः ॥ २१ ॥
सोऽशक्यतां च विज्ञाय तेषामग्रे च भारत।
दायाद्यतां च धर्मेण सम्यक् तेषु समाचर ॥ २२ ॥

मूलम्

द्रुपदः श्वशुरो येषां येषां श्यालाश्च पार्षताः।
धृष्टद्युम्नमुखा वीरा भ्रातरो द्रुपदात्मजाः ॥ २१ ॥
सोऽशक्यतां च विज्ञाय तेषामग्रे च भारत।
दायाद्यतां च धर्मेण सम्यक् तेषु समाचर ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्रुपद जिनके श्वशुर हैं और उनके पुत्र पृषतवंशी धृष्टद्युम्न आदि वीर भ्राता जिनके साले हैं, भारत! ऐसे पाण्डवोंको रणभूमिमें जीतना असम्भव है। इस बातको जानकर तथा पहले उनके पिताका राज्य होनेके कारण वे ही धर्मपूर्वक इस राज्यके उत्तराधिकारी हैं, इस बातकी ओर ध्यान देकर आप उनके साथ उत्तम बर्ताव कीजिये॥२१-२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इदं निर्दिष्टमयशः पुरोचनकृतं महत्।
तेषामनुग्रहेणाद्य राजन् प्रक्षालयात्मनः ॥ २३ ॥

मूलम्

इदं निर्दिष्टमयशः पुरोचनकृतं महत्।
तेषामनुग्रहेणाद्य राजन् प्रक्षालयात्मनः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! पुरोचनके हाथों जो कुछ कराया गया, उससे आपका बहुत बड़ा अपयश सब ओर फैल गया है। अपने उस कलंकको आज आप पाण्डवोंपर अनुग्रह करके धो डालिये॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेषामनुग्रहश्चायं सर्वेषां चैव नः कुले।
जीवितं च परं श्रेयः क्षत्रस्य च विवर्धनम् ॥ २४ ॥

मूलम्

तेषामनुग्रहश्चायं सर्वेषां चैव नः कुले।
जीवितं च परं श्रेयः क्षत्रस्य च विवर्धनम् ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाण्डवोंपर किया हुआ यह अनुग्रह हमारे कुलके सभी लोगोंके जीवनका रक्षक, परम हितकारक और सम्पूर्ण क्षत्रिय जातिका अभ्युदय करनेवाला होगा॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्रुपदोऽपि महान् राजा कृतवैरश्च नः पुरा।
तस्य संग्रहणं राजन् स्वपक्षस्य विवर्धनम् ॥ २५ ॥

मूलम्

द्रुपदोऽपि महान् राजा कृतवैरश्च नः पुरा।
तस्य संग्रहणं राजन् स्वपक्षस्य विवर्धनम् ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! द्रुपद भी बहुत बड़े राजा हैं और पहले हमारे साथ उनका वैर भी हो चुका है। अतः मित्रके रूपमें उनका संग्रह हमारे अपने पक्षकी वृद्धिका कारण होगा॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बलवन्तश्च दाशार्हा बहवश्च विशाम्पते।
यतः कृष्णस्ततः सर्वे यतः कृष्णस्ततो जयः ॥ २६ ॥

मूलम्

बलवन्तश्च दाशार्हा बहवश्च विशाम्पते।
यतः कृष्णस्ततः सर्वे यतः कृष्णस्ततो जयः ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पृथ्वीपते! यदुवंशियोंकी संख्या बहुत है और वे बलवान् भी हैं। जिस ओर श्रीकृष्ण रहेंगे, उधर ही वे सभी रहेंगे। इसलिये जिस पक्षमें श्रीकृष्ण होंगे, उस पक्षकी विजय अवश्य होगी॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यच्च साम्नैव शक्येत कार्यं साधयितुं नृप।
को दैवशप्तस्तत् कार्यं विग्रहेण समाचरेत् ॥ २७ ॥

मूलम्

यच्च साम्नैव शक्येत कार्यं साधयितुं नृप।
को दैवशप्तस्तत् कार्यं विग्रहेण समाचरेत् ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! जो कार्य शान्तिपूर्वक समझाने-बुझानेसे ही सिद्ध हो जा सकता है, उसीको कौन दैवका मारा हुआ मनुष्य युद्धके द्वारा सिद्ध करेगा॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुत्वा च जीवतः पार्थान् पौरजानपदा जनाः।
बलवद् दर्शने हृष्टास्तेषां राजन् प्रियं कुरु ॥ २८ ॥

मूलम्

श्रुत्वा च जीवतः पार्थान् पौरजानपदा जनाः।
बलवद् दर्शने हृष्टास्तेषां राजन् प्रियं कुरु ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुन्तीके पुत्रोंको जीवित सुनकर नगर और जनपदके सभी लोग उन्हें देखनेके लिये अत्यन्त उत्सुक हो रहे हैं। राजन्! उन सबका प्रिय कीजिये॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुर्योधनश्च कर्णश्च शकुनिश्चापि सौबलः।
अधर्मयुक्ता दुष्प्रज्ञा बाला मैषां वचः कृथाः ॥ २९ ॥

मूलम्

दुर्योधनश्च कर्णश्च शकुनिश्चापि सौबलः।
अधर्मयुक्ता दुष्प्रज्ञा बाला मैषां वचः कृथाः ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दुर्योधन, कर्ण और सुबलपुत्र शकुनि—ये अधर्मपरायण, खोटी बुद्धिवाले और मूर्ख हैं; अतः इनका कहना न मानिये॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उक्तमेतत् पुरा राजन् मया गुणवतस्तव।
दुर्योधनापराधेन प्रजेयं वै विनङ्‌क्ष्यति ॥ ३० ॥

मूलम्

उक्तमेतत् पुरा राजन् मया गुणवतस्तव।
दुर्योधनापराधेन प्रजेयं वै विनङ्‌क्ष्यति ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भूपाल! आप गुणवान् हैं। आपसे तो मैंने पहले ही यह कह दिया था कि दुर्योधनके अपराधसे निश्चय ही यह समस्त प्रजा नष्ट हो जायगी॥३०॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि विदुरागमनराज्यलम्भपर्वणि विदुरवाक्ये चतुरधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २०४ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत विदुरागमन-राज्यलम्भपर्वमें विदुरवाक्यविषयक दो सौ चौथा अध्याय पूरा हुआ॥२०४॥