२०३ द्रोणानुमोदनम्

श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना

त्र्यधिकद्विशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

द्रोणाचार्यकी पाण्डवोंको उपहार भेजने और बुलानेकी सम्मति तथा कर्णके द्वारा उनकी सम्मतिका विरोध करनेपर द्रोणाचार्यकी फटकार

मूलम् (वचनम्)

द्रोण उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन्त्राय समुपानीतैर्धृतराष्ट्र हितैर्नृप ।
धर्म्यमर्थ्यं यशस्यं च वाच्यमित्यनुशुश्रुम ॥ १ ॥

मूलम्

मन्त्राय समुपानीतैर्धृतराष्ट्र हितैर्नृप ।
धर्म्यमर्थ्यं यशस्यं च वाच्यमित्यनुशुश्रुम ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्रोणाचार्यने कहा— राजा धृतराष्ट्र! सलाह लेनेके लिये बुलाये हुए हितैषियोंको उचित है कि वे ऐसी बात कहें, जो धर्म, अर्थ और यशकी प्राप्ति करानेवाली हो—यह हम परम्परासे सुनते आये हैं॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ममाप्येषा मतिस्तात या भीष्मस्य महात्मनः।
संविभज्यास्तु कौन्तेया धर्म एष सनातनः ॥ २ ॥

मूलम्

ममाप्येषा मतिस्तात या भीष्मस्य महात्मनः।
संविभज्यास्तु कौन्तेया धर्म एष सनातनः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तात! मेरी भी वही सम्मति है, जो महात्मा भीष्मकी है। कुन्तीके पुत्रोंको आधा राज्य बाँट देना चाहिये, यही परम्परासे चला आनेवाला धर्म है॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रेष्यतां द्रुपदायाशु नरः कश्चित् प्रियंवदः।
बहुलं रत्नमादाय तेषामर्थाय भारत ॥ ३ ॥

मूलम्

प्रेष्यतां द्रुपदायाशु नरः कश्चित् प्रियंवदः।
बहुलं रत्नमादाय तेषामर्थाय भारत ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! द्रुपदके पास शीघ्र ही कोई प्रिय वचन बोलनेवाला मनुष्य भेजा जाय और वह पाण्डवोंके लिये बहुत-से रत्नोंकी भेंट लेकर जाय॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मिथः कृत्यं च तस्मै स आदाय वसु गच्छतु।
वृद्धिं च परमां ब्रूयात् त्वत्संयोगोद्भवां तथा ॥ ४ ॥
सम्प्रीयमाणं त्वां ब्रूयाद राजन् दुर्योधनं तथा।
असकृद् द्रुपदे चैव धृष्टद्युम्ने च भारत ॥ ५ ॥

मूलम्

मिथः कृत्यं च तस्मै स आदाय वसु गच्छतु।
वृद्धिं च परमां ब्रूयात् त्वत्संयोगोद्भवां तथा ॥ ४ ॥
सम्प्रीयमाणं त्वां ब्रूयाद राजन् दुर्योधनं तथा।
असकृद् द्रुपदे चैव धृष्टद्युम्ने च भारत ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा द्रुपदके पास बहूके लिये वरपक्षकी ओरसे उसे धन और रत्न लेकर जाना चाहिये। भारत! उस पुरुषको राजा द्रुपद और धृष्टद्युम्नके सामने बार-बार यह कहना चाहिये कि आपके साथ सम्बन्ध हो जानेसे राजा धृतराष्ट्र और दुर्योधन अपना बड़ा अभ्युदय मान रहे हैं और उन्हें इस वैवाहिक सम्बन्धसे बड़ी प्रसन्नता हुई है॥४-५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उचितत्वं प्रियत्वं च योगस्यापि च वर्णयेत्।
पुनः पुनश्च कौन्तेयान् माद्रीपुत्रौ च सान्त्वयन् ॥ ६ ॥

मूलम्

उचितत्वं प्रियत्वं च योगस्यापि च वर्णयेत्।
पुनः पुनश्च कौन्तेयान् माद्रीपुत्रौ च सान्त्वयन् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी प्रकार वह कुन्ती और माद्रीके पुत्रोंको सान्त्वना देते हुए बार-बार इस सम्बन्धके उचित और प्रिय होनेकी चर्चा करे॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हिरण्मयानि शुभ्राणि बहून्याभरणानि च।
वचनात् तव राजेन्द्र द्रौपद्याः सम्प्रयच्छतु ॥ ७ ॥

मूलम्

हिरण्मयानि शुभ्राणि बहून्याभरणानि च।
वचनात् तव राजेन्द्र द्रौपद्याः सम्प्रयच्छतु ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजेन्द्र! वह आपकी आज्ञासे द्रौपदीके लिये बहुत-से सुन्दर सुवर्णमय आभूषण अर्पित करे॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा द्रुपदपुत्राणां सर्वेषां भरतर्षभ।
पाण्डवानां च सर्वेषां कुन्त्या युक्तानि यानि च ॥ ८ ॥

मूलम्

तथा द्रुपदपुत्राणां सर्वेषां भरतर्षभ।
पाण्डवानां च सर्वेषां कुन्त्या युक्तानि यानि च ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! द्रुपदके सभी पुत्रों, समस्त पाण्डवों और कुन्तीके लिये भी जो उपयुक्त आभूषण आदि हों, उन्हें भी वह अर्पित करे॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं सान्त्वसमायुक्तं द्रुपदं पाण्डवैः सह।
उक्त्वा सोऽनन्तरं ब्रूयात् तेषामागमनं प्रति ॥ ९ ॥

मूलम्

एवं सान्त्वसमायुक्तं द्रुपदं पाण्डवैः सह।
उक्त्वा सोऽनन्तरं ब्रूयात् तेषामागमनं प्रति ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार (उपहार देनेके पश्चात्) पाण्डवोंसहित द्रुपदसे सान्त्वनापूर्ण वचन कहकर अन्तमें वह पाण्डवोंके हस्तिनापुरमें आनेके विषयमें प्रस्ताव करे॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनुज्ञातेषु वीरेषु बलं गच्छतु शोभनम्।
दुःशासनों विकर्णश्चाप्यानेतुं पाण्डवानिह ॥ १० ॥

मूलम्

अनुज्ञातेषु वीरेषु बलं गच्छतु शोभनम्।
दुःशासनों विकर्णश्चाप्यानेतुं पाण्डवानिह ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब द्रुपदकी ओरसे पाण्डववीरोंको यहाँ आनेकी अनुमति मिल जाय, तब एक अच्छी-सी सेना साथ ले दुःशासन और विकर्ण पाण्डवोंको यहाँ ले आनेके लिये जायँ॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्ते पाण्डवाः श्रेष्ठाः पूज्यमानाः सदा त्वया।
प्रकृतीनामनुमते पदे स्थास्यन्ति पैतृके ॥ ११ ॥

मूलम्

ततस्ते पाण्डवाः श्रेष्ठाः पूज्यमानाः सदा त्वया।
प्रकृतीनामनुमते पदे स्थास्यन्ति पैतृके ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यहाँ आनेके पश्चात् वे श्रेष्ठ पाण्डव आपके द्वारा सदा आदर-सत्कार प्राप्त करते हुए प्रजाकी इच्छाके अनुसार वे अपने पैतृक राज्यपर प्रतिष्ठित होंगे॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतत् तव महाराज पुत्रेषु तेषु चैव हि।
वृत्तमौपयिकं मन्ये भीष्मेण सह भारत ॥ १२ ॥

मूलम्

एतत् तव महाराज पुत्रेषु तेषु चैव हि।
वृत्तमौपयिकं मन्ये भीष्मेण सह भारत ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतवंशी महाराज! आपको अपने पुत्रों और पाण्डवोंके प्रति उपर्युक्त व्यवहार ही करना चाहिये—भीष्मजीके साथ मैं भी यही उचित समझता हूँ॥१२॥

मूलम् (वचनम्)

कर्ण उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

योजितावर्थमानाभ्यां सर्वकार्येष्वनन्तरौ ।
न मन्त्रयेतां त्वच्छ्रेयः किमद्भुततरं ततः ॥ १३ ॥

मूलम्

योजितावर्थमानाभ्यां सर्वकार्येष्वनन्तरौ ।
न मन्त्रयेतां त्वच्छ्रेयः किमद्भुततरं ततः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कर्ण बोला— महाराज! भीष्मजी और द्रोणाचार्यको आपकी ओरसे सदा धन और सम्मान प्राप्त होता रहता है। इन्हें आप अपना अन्तरंग सुहृद् समझकर सभी कार्योंमें इनकी सलाह लेते हैं। फिर भी यदि ये आपके भलेकी सलाह न दें तो इससे बढ़कर आश्चर्यकी बात और क्या हो सकती है?॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुष्टेन मनसा यो वै प्रच्छन्नेनान्तरात्मना।
ब्रूयान्निःश्रेयसं नाम कथं कुर्यात् सतां मतम् ॥ १४ ॥

मूलम्

दुष्टेन मनसा यो वै प्रच्छन्नेनान्तरात्मना।
ब्रूयान्निःश्रेयसं नाम कथं कुर्यात् सतां मतम् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो अपने अन्तःकरणके दुर्भावको छिपाकर, दोषयुक्त हृदयसे कोई सलाह देता है, वह अपने ऊपर विश्वास करनेवाले साधुपुरुषोंके अभीष्ट कल्याणकी सिद्धि कैसे कर सकता है?॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न मित्राण्यर्थकृच्छ्रेषु श्रेयसे चेतराय वा।
विधिपूर्वं हि सर्वस्य दुःखं वा यदि वा सुखम्॥१५॥

मूलम्

न मित्राण्यर्थकृच्छ्रेषु श्रेयसे चेतराय वा।
विधिपूर्वं हि सर्वस्य दुःखं वा यदि वा सुखम्॥१५॥

अनुवाद (हिन्दी)

मित्र भी अर्थसंकटके समय अथवा किसी कामकी कठिनाई आ पड़नेपर न तो कल्याण कर सकते हैं और न अकल्याण ही। सभीके लिये दुःख या सुखकी प्राप्ति भाग्यके अनुसार ही होती है॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृतप्रज्ञोऽकृतप्रज्ञो बालो वृद्धश्च मानवः।
ससहायोऽसहायश्च सर्वं सर्वत्र विन्दति ॥ १६ ॥

मूलम्

कृतप्रज्ञोऽकृतप्रज्ञो बालो वृद्धश्च मानवः।
ससहायोऽसहायश्च सर्वं सर्वत्र विन्दति ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनुष्य बुद्धिमान् हो या मूर्ख, बालक हो या वृद्ध तथा सहायकोंके साथ हो या असहाय, वह दैवयोगसे सर्वत्र सब कुछ पा लेता है॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रूयते हि पुरा कश्चिदम्बुवीच इतीश्वरः।
आसीद् राजगृहे राजा मागधानां महीक्षिताम् ॥ १७ ॥

मूलम्

श्रूयते हि पुरा कश्चिदम्बुवीच इतीश्वरः।
आसीद् राजगृहे राजा मागधानां महीक्षिताम् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुना है, पहले राजगृहमें अम्बुवीच नामसे प्रसिद्ध एक राजा राज्य करते थे। वे मागध राजाओंमेंसे एक थे॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स हीनः करणैः सर्वैरुच्छ्‌वासपरमो नृपः।
अमात्यसंस्थः सर्वेषु कार्येष्वेवाभवत् तदा ॥ १८ ॥

मूलम्

स हीनः करणैः सर्वैरुच्छ्‌वासपरमो नृपः।
अमात्यसंस्थः सर्वेषु कार्येष्वेवाभवत् तदा ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनकी कोई भी इन्द्रिय कार्य करनेमें समर्थ नहीं थी, वे (श्वासके रोगसे पीड़ित हो) एक स्थानपर पड़े-पड़े लंबी साँसें खींचा करते थे; अतः प्रत्येक कार्यमें उन्हें मन्त्रीके ही अधीन रहना पड़ता था॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्यामात्यो महाकर्णिर्बभूवैकेश्वरस्तदा ।
स लब्धबलमात्मानं मन्यमानोऽवमन्यते ॥ १९ ॥

मूलम्

तस्यामात्यो महाकर्णिर्बभूवैकेश्वरस्तदा ।
स लब्धबलमात्मानं मन्यमानोऽवमन्यते ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके मन्त्रीका नाम था महाकर्णि। उन दिनों वही वहाँका एकमात्र राजा बन बैठा था। उसे सैनिक बल प्राप्त था, अतः अपनेको सबल मानकर राजाकी अवहेलना करता था॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स राज्ञ उपभोग्यानि स्त्रियो रत्नधनानि च।
आददे सर्वशो मूढ ऐश्वर्यं च स्वयं तदा ॥ २० ॥

मूलम्

स राज्ञ उपभोग्यानि स्त्रियो रत्नधनानि च।
आददे सर्वशो मूढ ऐश्वर्यं च स्वयं तदा ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह मूढ मन्त्री राजाके उपभोगमें आनेयोग्य स्त्री, रत्न, धन तथा ऐश्वर्यको भी स्वयं ही भोगता था॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदादाय च लुब्धस्य लोभाल्लोभोऽप्यवर्धत।
तथा हि सर्वमादाय राज्यमस्य जिहीर्षति ॥ २१ ॥

मूलम्

तदादाय च लुब्धस्य लोभाल्लोभोऽप्यवर्धत।
तथा हि सर्वमादाय राज्यमस्य जिहीर्षति ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह सब पाकर उस लोभीका लोभ उत्तरोत्तर बढ़ता गया। इस प्रकार सारी चीजें लेकर वह उनके राज्यको भी हड़प लेनेकी इच्छा करने लगा॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हीनस्य करणैः सर्वैरुच्छ्‌वासपरमस्य च।
यतमानोऽपि तद् राज्यं न शशाकेति नः श्रुतम् ॥ २२ ॥

मूलम्

हीनस्य करणैः सर्वैरुच्छ्‌वासपरमस्य च।
यतमानोऽपि तद् राज्यं न शशाकेति नः श्रुतम् ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यद्यपि राजा सम्पूर्ण इन्द्रियोंकी शक्तिसे रहित होनेके कारण केवल ऊपरको साँस ही खींचा करता था, तथापि अत्यन्त प्रयत्न करनेपर भी वह दुष्ट मन्त्री उनका राज्य न ले सका—यह बात हमने सुन रखी है॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किमन्यद् विहिता नूनं तस्य सा पुरुषेन्द्रता।
यदि ते विहितं राज्यं भविष्यति विशाम्पते ॥ २३ ॥
मिषतः सर्वलोकस्य स्थास्यते त्वयि तद् ध्रुवम्।
अतोऽन्यथा चेद् विहितं यतमानो न लप्स्यसे ॥ २४ ॥

मूलम्

किमन्यद् विहिता नूनं तस्य सा पुरुषेन्द्रता।
यदि ते विहितं राज्यं भविष्यति विशाम्पते ॥ २३ ॥
मिषतः सर्वलोकस्य स्थास्यते त्वयि तद् ध्रुवम्।
अतोऽन्यथा चेद् विहितं यतमानो न लप्स्यसे ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाका राजत्व भाग्यसे ही सुरक्षित था (उनके प्रयत्नसे नहीं;) (अतः) भाग्यसे बढ़कर दूसरा सहारा क्या हो सकता है? महाराज! यदि आपके भाग्यमें राज्य बदा होगा तो सब लोगोंके देखते-देखते वह निश्चय ही आपके पास रहेगा और यदि भाग्यमें राज्यका विधान नहीं है, तो आप यत्न करके भी उसे नहीं पा सकेंगे॥२३-२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं विद्वन्नुपादत्स्व मन्त्रिणां साध्वसाधुताम्।
दुष्टानां चैव बोद्धव्यमदुष्टानां च भाषितम् ॥ २५ ॥

मूलम्

एवं विद्वन्नुपादत्स्व मन्त्रिणां साध्वसाधुताम्।
दुष्टानां चैव बोद्धव्यमदुष्टानां च भाषितम् ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! आप समझदार हैं, अतः इसी प्रकार विचार करके अपने मन्त्रियोंकी साधुता और असाधुताको समझ लीजिये। किसने दूषित हृदयसे सलाह दी है और किसने दोषशून्य हृदयसे, इसे भी जान लेना चाहिये॥२५॥

मूलम् (वचनम्)

द्रोण उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

विद्म ते भावदोषेण यदर्थमिदमुच्यते।
दुष्ट पाण्डवहेतोस्त्वं दोषमाख्यापयस्युत ॥ २६ ॥

मूलम्

विद्म ते भावदोषेण यदर्थमिदमुच्यते।
दुष्ट पाण्डवहेतोस्त्वं दोषमाख्यापयस्युत ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्रोणाचार्यने कहा— ओ दुष्ट! तू क्यों ऐसी बात कहता है, यह हम जानते हैं। पाण्डवोंके लिये तेरे हृदयमें जो द्वेष संचित है, उसीसे प्रेरित होकर तू मेरी बातोंमें दोष बता रहा है॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हितं तु परमं कर्ण ब्रवीमि कुलवर्धनम्।
अथ त्वं मन्यसे दुष्टं ब्रूहि यत् परमं हितम्॥२७॥

मूलम्

हितं तु परमं कर्ण ब्रवीमि कुलवर्धनम्।
अथ त्वं मन्यसे दुष्टं ब्रूहि यत् परमं हितम्॥२७॥

अनुवाद (हिन्दी)

कर्ण! मैं अपनी समझसे कुरुकुलकी वृद्धि करनेवाली परम हितकी बात कहता हूँ। यदि तू इसे दोषयुक्त मानता है तो बता, क्या करनेसे कौरवोंका परम हित होगा?॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतोऽन्यथा चेत् क्रियते यद् ब्रवीमि परं हितम्।
कुरवो वै विनङ्‌क्ष्यक्ष्यन्ति नचिरेणैव मे मतिः ॥ २८ ॥

मूलम्

अतोऽन्यथा चेत् क्रियते यद् ब्रवीमि परं हितम्।
कुरवो वै विनङ्‌क्ष्यक्ष्यन्ति नचिरेणैव मे मतिः ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं अत्यन्त हितकी बात बता रहा हूँ। यदि उसके विपरीत कुछ किया जायगा तो कौरवोंका शीघ्र ही नाश हो जायगा—ऐसा मेरा मत है॥२८॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि विदुरागमनराज्यलम्भपर्वणि द्रोणवाक्ये त्र्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २०३ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत विदुरागमन-राज्यलम्भपर्वमें द्रोणवाक्यविषयक दो सौ तीसरा अध्याय पूरा हुआ॥२०३॥