श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना
एकाधिकद्विशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
पाण्डवोंको पराक्रमसे दबानेके लिये कर्णकी सम्मति
मूलम् (वचनम्)
कर्ण उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुर्योधन तव प्रज्ञा न सम्यगिति मे मतिः।
न ह्युपायेन ते शक्याः पाण्डवाः कुरुवर्धन ॥ १ ॥
मूलम्
दुर्योधन तव प्रज्ञा न सम्यगिति मे मतिः।
न ह्युपायेन ते शक्याः पाण्डवाः कुरुवर्धन ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कर्णने कहा— दुर्योधन! मेरे विचारसे तुम्हारी यह सलाह ठीक नहीं है। कुरुवर्धन! ऐसे किसी भी उपायसे पाण्डवोंको वशमें नहीं किया जा सकता॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूर्वमेव हि ते सूक्ष्मैरुपायैर्यतितास्त्वया।
निग्रहीतुं तदा वीर न चैव शकितास्त्वया ॥ २ ॥
इहैव वर्तमानास्ते समीपे तव पार्थिव।
अजातपक्षाः शिशवः शकिता नैव बाधितुम् ॥ ३ ॥
मूलम्
पूर्वमेव हि ते सूक्ष्मैरुपायैर्यतितास्त्वया।
निग्रहीतुं तदा वीर न चैव शकितास्त्वया ॥ २ ॥
इहैव वर्तमानास्ते समीपे तव पार्थिव।
अजातपक्षाः शिशवः शकिता नैव बाधितुम् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वीर! पहले भी तुमने अनेक गुप्त उपायोंद्वारा पाण्डवोंको दबानेकी चेष्टा की है, परंतु उनपर तुम्हारा वश नहीं चल सका। भूपाल! वे जब बच्चे थे और यहीं तुम्हारे पास रहते थे, उस समय उनके पक्षमें कोई नहीं था, तब भी तुम उन्हें बाधा पहुँचानेमें सफल न हो सके॥२-३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जातपक्षा विदेशस्था विवृद्धाः सर्वशोऽद्य ते।
नोपायसाध्याः कौन्तेया ममैषा मतिरच्युत ॥ ४ ॥
मूलम्
जातपक्षा विदेशस्था विवृद्धाः सर्वशोऽद्य ते।
नोपायसाध्याः कौन्तेया ममैषा मतिरच्युत ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अब तो वे विदेशमें हैं, उनके पक्षमें बहुत-से लोग हो गये हैं और सब प्रकारसे उनकी बढ़ती हो गयी है। अतः अब वे कुन्तीकुमार तुम्हारे बताये हुए उपायोंद्वारा वशमें आनेवाले नहीं हैं। पुरुषार्थसे कभी च्युत न होनेवाले वीर! मेरा तो यही विचार है॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न च ते व्यसनैर्योक्तुं शक्या दिष्टकृतेन च।
शकिताश्चेप्सवश्चैव पितृपैतामहं पदम् ॥ ५ ॥
मूलम्
न च ते व्यसनैर्योक्तुं शक्या दिष्टकृतेन च।
शकिताश्चेप्सवश्चैव पितृपैतामहं पदम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अब वे संकटमें नहीं डाले जा सकते। भाग्यने उन्हें शक्तिशाली बना दिया है और उनमें अपने बाप-दादोंके राज्यको प्राप्त करनेकी अभिलाषा जाग उठी है॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
परस्परेण भेदश्च नाधातुं तेषु शक्यते।
एकस्यां ये रताः पत्न्यां न भिद्यन्ते परस्परम् ॥ ६ ॥
मूलम्
परस्परेण भेदश्च नाधातुं तेषु शक्यते।
एकस्यां ये रताः पत्न्यां न भिद्यन्ते परस्परम् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनमें आपसमें भी फूट डालना सम्भव नहीं है। जो (एकराय होकर) एक ही पत्नीमें अनुरक्त हैं, उनमें परस्पर विरोध नहीं हो सकता॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न चापि कृष्णा शक्येत तेभ्यो भेदयितुं परः।
परिद्यूनान् वृतवती किमुताद्य मृजावतः ॥ ७ ॥
मूलम्
न चापि कृष्णा शक्येत तेभ्यो भेदयितुं परः।
परिद्यूनान् वृतवती किमुताद्य मृजावतः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कृष्णाको भी उनकी ओरसे फूट डालकर विलग करना असम्भव है; क्योंकि जब पाण्डवलोग भिक्षाभोजी होनेके कारण दीन-हीन थे, उस अवस्थामें कृष्णाने उनका वरण किया है; अब तो वे सम्पत्तिशाली होकर स्वच्छ एवं सुन्दर वेषमें रहते हैं, अब वह क्यों उनकी ओरसे विरक्त होगी?॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ईप्सितश्च गुणः स्त्रीणामेकस्या बहुभर्तृता।
तं च प्राप्तवती कृष्णा न सा भेदयितुं क्षमा॥८॥
मूलम्
ईप्सितश्च गुणः स्त्रीणामेकस्या बहुभर्तृता।
तं च प्राप्तवती कृष्णा न सा भेदयितुं क्षमा॥८॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रायः स्त्रियोंका यह अभीष्ट गुण है कि एक स्त्रीमें अनेक पुरुषोंसे सम्बन्ध स्थापित करनेकी रुचि हो। पाण्डवोंके साथ रहनेमें कृष्णाको यह लाभ स्वतः प्राप्त है; अतः उसके मनमें भेद नहीं उत्पन्न किया जा सकता॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आर्यव्रतश्च पाञ्चाल्यो न स राजा धनप्रियः।
न संत्यक्ष्यति कौन्तेयान् राज्यदानैरपि ध्रुवम् ॥ ९ ॥
मूलम्
आर्यव्रतश्च पाञ्चाल्यो न स राजा धनप्रियः।
न संत्यक्ष्यति कौन्तेयान् राज्यदानैरपि ध्रुवम् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पांचालराज द्रुपद श्रेष्ठ व्रतका पालन करनेवाले हैं। वे धनके लोभी नहीं हैं। अतः तुम अपना सारा राज्य दे दो, तो भी यह निश्चय है कि वे कुन्ती-पुत्रोंका परित्याग नहीं करेंगे॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथास्य पुत्रो गुणवाननुरक्तश्च पाण्डवान्।
तस्मान्नोपायसाध्यांस्तानहं मन्ये कथंचन ॥ १० ॥
मूलम्
यथास्य पुत्रो गुणवाननुरक्तश्च पाण्डवान्।
तस्मान्नोपायसाध्यांस्तानहं मन्ये कथंचन ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी प्रकार उनका पुत्र धृष्टद्युम्न भी गुणवान् तथा पाण्डवोंका प्रेमी है। अतः मैं उन्हें पूर्वोक्त उपायोंसे वशमें करनेयोग्य कदापि नहीं मान सकता॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इदं त्वद्य क्षमं कर्तुमस्माकं पुरुषर्षभ।
यावन्न कृतमूलास्ते पाण्डवेया विशाम्पते ॥ ११ ॥
तावत् प्रहरणीयास्ते तत् तुभ्यं तात रोचताम्।
अस्मत्पक्षो महान् यावद् यावत् पाञ्चालको लघुः।
तावत् प्रहरणं तेषां क्रियतां मा विचारय ॥ १२ ॥
मूलम्
इदं त्वद्य क्षमं कर्तुमस्माकं पुरुषर्षभ।
यावन्न कृतमूलास्ते पाण्डवेया विशाम्पते ॥ ११ ॥
तावत् प्रहरणीयास्ते तत् तुभ्यं तात रोचताम्।
अस्मत्पक्षो महान् यावद् यावत् पाञ्चालको लघुः।
तावत् प्रहरणं तेषां क्रियतां मा विचारय ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजन्! इस समय हमारे लिये एक ही उपाय काममें लानेयोग्य है; वे पुरुषश्रेष्ठ पाण्डव जबतक अपनी जड़ नहीं जमा लेते, तभीतक उनपर प्रहार करना चाहिये। इसीसे वे काबूमें आ सकते हैं।’ तात! मैं समझता हूँ, तुम्हें भी यह राय पसंद होगी। जबतक हमारा पक्ष बढ़ा-चढ़ा है और जबतक पांचालराजका बल हमसे कम है, तभीतक उनपर आक्रमण कर दिया जाय। इसमें दूसरा कुछ विचार न करो॥११-१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वाहनानि प्रभूतानि मित्राणि च कुलानि च।
यावन्न तेषां गान्धारे तावद् विक्रम पार्थिव ॥ १३ ॥
मूलम्
वाहनानि प्रभूतानि मित्राणि च कुलानि च।
यावन्न तेषां गान्धारे तावद् विक्रम पार्थिव ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! गान्धारीनन्दन! जबतक पाण्डवोंके पास बहुत-से वाहन, मित्र और कुटुम्बी नहीं हो जाते, तभीतक तुम उनके ऊपर पराक्रम कर लो॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यावच्च राजा पाञ्चाल्यो नोद्यमे कुरुते मनः।
सह पुत्रैर्महावीर्यैस्तावद् विक्रम पार्थिव ॥ १४ ॥
मूलम्
यावच्च राजा पाञ्चाल्यो नोद्यमे कुरुते मनः।
सह पुत्रैर्महावीर्यैस्तावद् विक्रम पार्थिव ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पृथ्वीपते! जबतक पांचालनरेश अपने महा-पराक्रमी पुत्रोंके साथ हमारे ऊपर चढ़ाई करनेका विचार नहीं कर रहे हैं, तभीतक तुम अपना बल-विक्रम प्रकट कर लो॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यावन्नायाति वार्ष्णेयः कर्षन् यादववाहिनीम्।
राज्यार्थे पाण्डवेयानां पाञ्चाल्यसदनं प्रति ॥ १५ ॥
मूलम्
यावन्नायाति वार्ष्णेयः कर्षन् यादववाहिनीम्।
राज्यार्थे पाण्डवेयानां पाञ्चाल्यसदनं प्रति ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके लिये तुम्हें तभीतक अवसर है, जबतक कि वृष्णिकुलनन्दन श्रीकृष्ण यदुवंशियोंकी सेना साथ लिये पाण्डवोंको राज्य दिलानेके उद्देश्यसे पांचालराजके घरपर नहीं आ जाते॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वसूनि विविधान् भोगान् राज्यमेव च केवलम्।
नात्याज्यमस्ति कृष्णस्य पाण्डवार्थे कथंचन ॥ १६ ॥
मूलम्
वसूनि विविधान् भोगान् राज्यमेव च केवलम्।
नात्याज्यमस्ति कृष्णस्य पाण्डवार्थे कथंचन ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पाण्डवोंके लिये श्रीकृष्णकी ओरसे धन-रत्न, भाँति-भाँतिके भोग तथा सारा राज्य—कुछ भी अदेय नहीं है॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विक्रमेण मही प्राप्ता भरतेन महात्मना।
विक्रमेण च लोकांस्त्रीञ्जितवान् पाकशासनः ॥ १७ ॥
मूलम्
विक्रमेण मही प्राप्ता भरतेन महात्मना।
विक्रमेण च लोकांस्त्रीञ्जितवान् पाकशासनः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महात्मा भरतने पराक्रमसे ही यह पृथ्वी प्राप्त की। इन्द्रने पराक्रमसे ही तीनों लोकोंपर विजय पायी॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विक्रमं च प्रशंसन्ति क्षत्रियस्य विशाम्पते।
स्वको हि धर्मः शूराणां विक्रमः पार्थिवर्षभ ॥ १८ ॥
मूलम्
विक्रमं च प्रशंसन्ति क्षत्रियस्य विशाम्पते।
स्वको हि धर्मः शूराणां विक्रमः पार्थिवर्षभ ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! क्षत्रियके लिये पराक्रमकी ही प्रशंसा की जाती है। नृपश्रेष्ठ! पराक्रम करना ही शूरवीरोंका स्वधर्म है॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते बलेन वयं राजन् महता चतुरङ्गिणा।
प्रमथ्य द्रुपदं शीघ्रमानयामेह पाण्डवान् ॥ १९ ॥
मूलम्
ते बलेन वयं राजन् महता चतुरङ्गिणा।
प्रमथ्य द्रुपदं शीघ्रमानयामेह पाण्डवान् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! हमलोग विशाल चतुरंगिणी सेनाके द्वारा राजा द्रुपदको कुचलकर शीघ्र ही यहाँ पाण्डवोंको कैद कर लायें॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न हि साम्ना न दानेन न भेदेन च पाण्डवाः।
शक्याः साधयितुं तस्माद् विक्रमेणैव ताञ्जहि ॥ २० ॥
मूलम्
न हि साम्ना न दानेन न भेदेन च पाण्डवाः।
शक्याः साधयितुं तस्माद् विक्रमेणैव ताञ्जहि ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
न सामसे, न दानसे और न भेदकी नीतिसे पाण्डवोंको वशमें किया जा सकता है। अतः उन्हें पराक्रमसे ही नष्ट करो॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तान् विक्रमेण जित्वेमामखिलां भुङ्क्षव मेदिनीम्।
अतो नान्यं प्रपश्यामि कार्योपायं जनाधिप ॥ २१ ॥
मूलम्
तान् विक्रमेण जित्वेमामखिलां भुङ्क्षव मेदिनीम्।
अतो नान्यं प्रपश्यामि कार्योपायं जनाधिप ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पराक्रमसे पाण्डवोंको जीतकर इस सारी पृथ्वीका राज्य भोगो। नरेश्वर! इसके सिवा दूसरा कोई कार्यसिद्धिका उपाय मैं नहीं देखता॥२१॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुत्वा तु राधेयवचो धृतराष्ट्रः प्रतापवान्।
अभिपूज्य ततः पश्चादिदं वचनमब्रवीत् ॥ २२ ॥
मूलम्
श्रुत्वा तु राधेयवचो धृतराष्ट्रः प्रतापवान्।
अभिपूज्य ततः पश्चादिदं वचनमब्रवीत् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! कर्णकी बात सुनकर प्रतापी धृतराष्ट्रने उसकी बड़ी सराहना की और तदनन्तर इस प्रकार कहा—॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपपन्नं महाप्राज्ञे कृतास्त्रे सूतनन्दने।
त्वयि विक्रमसम्पन्नमिदं वचनमीदृशम् ॥ २३ ॥
मूलम्
उपपन्नं महाप्राज्ञे कृतास्त्रे सूतनन्दने।
त्वयि विक्रमसम्पन्नमिदं वचनमीदृशम् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कर्ण! तुम परम बुद्धिमान्, अस्त्र-शस्त्रोंके ज्ञाता और सूतकुलको आनन्दित करनेवाले हो। ऐसा पराक्रमयुक्त वचन तुम्हारे ही योग्य है॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भूय एव तु भीष्मश्च द्रोणो विदुर एव च।
युवां च कुरुतं बुद्धिं भवेद् या नः सुखोदया॥२४॥
मूलम्
भूय एव तु भीष्मश्च द्रोणो विदुर एव च।
युवां च कुरुतं बुद्धिं भवेद् या नः सुखोदया॥२४॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘परंतु मेरा विचार है कि भीष्म, द्रोण, विदुर और तुम दोनों एक साथ बैठकर पुनः विचार कर लो तथा कोई ऐसी बात सोच निकालो, जो भविष्यमें भी हमें सुख देनेवाली हो’॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत आनाय्य तान् सर्वान् मन्त्रिणः सुमहायशाः।
धृतराष्ट्रो महाराज मन्त्रयामास वै तदा ॥ २५ ॥
मूलम्
तत आनाय्य तान् सर्वान् मन्त्रिणः सुमहायशाः।
धृतराष्ट्रो महाराज मन्त्रयामास वै तदा ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! तदनन्तर महायशस्वी धृतराष्ट्रने भीष्म, द्रोण आदि सम्पूर्ण मन्त्रियोंको बुलवाकर उनके साथ उस समय विचार आरम्भ किया॥२५॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि विदुरागमनराज्यलम्भपर्वणि धृतराष्ट्रमन्त्रणे एकाधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २०१ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत विदुरागमन-राज्यलम्भपर्वमें धृतराष्ट्रमन्त्रणासम्बन्धी दो सौ पहला अध्याय पूरा हुआ॥२०१॥