२०० दुर्योधनोपायः

श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना

द्विशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

धृतराष्ट्र और दुर्योधनकी बातचीत, शत्रुओंको वशमें करनेके उपाय

मूलम् (वचनम्)

धृतराष्ट्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहमप्येवमेवैतच्चिकीर्षामि यथा युवाम् ।
विवेक्तुं नाहमिच्छामि त्वाकारं विदुरं प्रति ॥ १ ॥

मूलम्

अहमप्येवमेवैतच्चिकीर्षामि यथा युवाम् ।
विवेक्तुं नाहमिच्छामि त्वाकारं विदुरं प्रति ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धृतराष्ट्रने कहा— बेटा! मैं भी तो वही करना चाहता हूँ, जैसा तुम दोनों चाहते हो; परंतु मैं अपनी आकृतिसे भी विदुरपर अपने मनका भाव प्रकट होने देना नहीं चाहता॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तेषां गुणानेव कीर्तयामि विशेषतः।
नावबुध्येत विदुरो ममाभिप्रायमिङ्गितैः ॥ २ ॥

मूलम्

ततस्तेषां गुणानेव कीर्तयामि विशेषतः।
नावबुध्येत विदुरो ममाभिप्रायमिङ्गितैः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसीलिये विदुरके सामने विशेषतः पाण्डवोंके गुणोंका ही बखान करता हूँ, जिससे वह इशारेसे भी मेरे मनोभावको न ताड़ सके॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यच्च त्वं मन्यसे प्राप्तं तद् ब्रवीहि सुयोधन।
राधेय मन्यसे यच्च प्राप्तकालं वदाशु मे ॥ ३ ॥

मूलम्

यच्च त्वं मन्यसे प्राप्तं तद् ब्रवीहि सुयोधन।
राधेय मन्यसे यच्च प्राप्तकालं वदाशु मे ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुयोधन और कर्ण! तुम दोनों समयके अनुसार जो कार्य करना आवश्यक समझते हो वह शीघ्र मुझे बताओ॥३॥

मूलम् (वचनम्)

दुर्योधन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अद्य तान् कुशलैर्विप्रैः सुगुप्तैराप्तकारिभिः।
कुन्तीपुत्रान् भेदयामो माद्रीपुत्रौ च पाण्डवौ ॥ ४ ॥

मूलम्

अद्य तान् कुशलैर्विप्रैः सुगुप्तैराप्तकारिभिः।
कुन्तीपुत्रान् भेदयामो माद्रीपुत्रौ च पाण्डवौ ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दुर्योधन बोला— पिताजी! आज अत्यन्त गुप्तरूपसे कुछ ऐसे चतुर ब्राह्मणोंको नियुक्त करना चाहिये, जिनके कार्योंपर हमारा पूर्ण विश्वास हो। हमें उनके द्वारा पाण्डवोंमेंसे कुन्ती और माद्रीके पुत्रोंमें फूट डालनेकी चेष्टा करनी चाहिये॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथवा द्रुपदो राजा महद्भिर्वित्तसंचयैः।
पुत्राश्चास्य प्रलोभ्यन्ताममात्याश्चैव सर्वशः ॥ ५ ॥
परित्यजेद् यथा राजा कुन्तीपुत्रं युधिष्ठिरम्।
अथ तत्रैव वा तेषां निवासं रोचयन्तु ते ॥ ६ ॥

मूलम्

अथवा द्रुपदो राजा महद्भिर्वित्तसंचयैः।
पुत्राश्चास्य प्रलोभ्यन्ताममात्याश्चैव सर्वशः ॥ ५ ॥
परित्यजेद् यथा राजा कुन्तीपुत्रं युधिष्ठिरम्।
अथ तत्रैव वा तेषां निवासं रोचयन्तु ते ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अथवा धनकी बहुत बड़ी राशि देकर राजा द्रुपद, उनके पुत्र तथा मन्त्रियोंको सर्वथा प्रलोभनमें डालना चाहिये, जिससे पंचालनरेश कुन्तीनन्दन युधिष्ठिरको त्याग दें—उन्हें अपने घर और नगरसे निकाल दें, अथवा वे ब्राह्मनणलोग पाण्डवोंके मनमें वहीं रहनेकी रुचि उत्पन्न करें॥५-६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इहैषां दोषवद्वासं वर्णयन्तु पृथक् पृथक्।
ते भिद्यमानास्तत्रैव मनः कुर्वन्तु पाण्डवाः ॥ ७ ॥

मूलम्

इहैषां दोषवद्वासं वर्णयन्तु पृथक् पृथक्।
ते भिद्यमानास्तत्रैव मनः कुर्वन्तु पाण्डवाः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे अलग-अलग इन सभी पाण्डवोंसे कहें कि हस्तिनापुरका निवास आपलोगोंके लिये अत्यन्त हानिकारक होगा। इस प्रकार ब्राह्मणोंद्वारा बुद्धिभेद उत्पन्न कर देनेपर सम्भव है, पाण्डवलोग अपने मनमें वहीं (पंचालदेशमें ही) रहनेका निश्चय कर लें॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथवा कुशलाः केचिदुपायनिपुणा नराः।
इतरेतरतः पार्थान् भेदयन्त्वनुरागतः ॥ ८ ॥

मूलम्

अथवा कुशलाः केचिदुपायनिपुणा नराः।
इतरेतरतः पार्थान् भेदयन्त्वनुरागतः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अथवा कुछ ऐसे मनुष्य भेजे जायँ, जो उपाय ढूँढ़ निकालनेमें चतुर तथा कार्यकुशल हों और प्रेमपूर्वक बातें करके कुन्तीपुत्रोंमें परस्पर फूट डाल दें॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्युत्थापयन्तु वा कृष्णां बहुत्वात् सुकरं हि तत्।
अथवा पाण्डवांस्तस्यां भेदयन्तु ततश्च ताम् ॥ ९ ॥

मूलम्

व्युत्थापयन्तु वा कृष्णां बहुत्वात् सुकरं हि तत्।
अथवा पाण्डवांस्तस्यां भेदयन्तु ततश्च ताम् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अथवा कृष्णाको ही इस प्रकार बहका दें कि वह अपने पतियोंका परित्याग कर दे। अनेक पति होनेके कारण (उसका किसीमें भी सुदृढ़ अनुराग नहीं हो सकता; अतः) उनका परित्याग कराना सरल है। अथवा वे लोग पाण्डवोंको ही द्रौपदीकी ओरसे विलग कर दें और ऐसा होनेपर द्रौपदीको उनकी ओरसे विरक्त बना दें॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भीमसेनस्य वा राजन्नुपायकुशलैर्नरैः ।
मृत्युर्विधीयतां छन्नैः स हि तेषां बलाधिकः ॥ १० ॥

मूलम्

भीमसेनस्य वा राजन्नुपायकुशलैर्नरैः ।
मृत्युर्विधीयतां छन्नैः स हि तेषां बलाधिकः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अथवा राजन्! उपायकुशल मनुष्य छिपे रहकर भीमसेनका ही वध कर डालें; क्योंकि वही पाण्डवोंमें सबसे अधिक बलवान् है॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमाश्रित्य हि कौन्तेयः पुरा चास्मान् न मन्यते।
स हि तीक्ष्णश्च शूरश्च तेषां चैव परायणम् ॥ ११ ॥

मूलम्

तमाश्रित्य हि कौन्तेयः पुरा चास्मान् न मन्यते।
स हि तीक्ष्णश्च शूरश्च तेषां चैव परायणम् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसीका आश्रय लेकर कुन्तीनन्दन युधिष्ठिर पहलेसे ही हमें कुछ नहीं समझते। वह बड़े तीखे स्वभावका और शूरवीर है। वही पाण्डवोंका सबसे बड़ा सहारा है॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मिंस्त्वभिहते राजन् हतोत्साहा हतौजसः।
यतिष्यन्ते न राज्याय स हि तेषां व्यपाश्रयः ॥ १२ ॥

मूलम्

तस्मिंस्त्वभिहते राजन् हतोत्साहा हतौजसः।
यतिष्यन्ते न राज्याय स हि तेषां व्यपाश्रयः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! उसके मारे जानेपर पाण्डवोंका बल और उत्साह नष्ट हो जायगा। फिर वे राज्य लेनेका प्रयत्न नहीं करेंगे। भीमसेन ही उनका सबसे बड़ा आश्रय है॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अजेयो ह्यर्जुनः संख्ये पृष्ठगोपे वृकोदरे।
तमृते फाल्गुनो युद्धे राधेयस्य न पादभाक् ॥ १३ ॥

मूलम्

अजेयो ह्यर्जुनः संख्ये पृष्ठगोपे वृकोदरे।
तमृते फाल्गुनो युद्धे राधेयस्य न पादभाक् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीमसेनको पृष्ठरक्षक पाकर ही अर्जुन युद्धमें अजेय बने हुए हैं। यदि भीम न हों तो वे रणभूमिमें कर्णकी एक चौथाईके बराबर भी नहीं हो सकेंगे॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते जानानास्तु दौर्बल्यं भीमसेनमृते महत्।
अस्मान् बलवतो ज्ञात्वा न यतिष्यन्ति दुर्बलाः ॥ १४ ॥

मूलम्

ते जानानास्तु दौर्बल्यं भीमसेनमृते महत्।
अस्मान् बलवतो ज्ञात्वा न यतिष्यन्ति दुर्बलाः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीमसेनके बिना अपनी बहुत बड़ी दुर्बलताका अनुभव करके वे दुर्बल पाण्डव हमें अपनेसे बलवान् जानकर राज्य लेनेका प्रयत्न नहीं करेंगे॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इहागतेषु वा तेषु निदेशवशवर्तिषु।
प्रवर्तिष्यामहे राजन् यथाशास्त्रं निबर्हणम् ॥ १५ ॥

मूलम्

इहागतेषु वा तेषु निदेशवशवर्तिषु।
प्रवर्तिष्यामहे राजन् यथाशास्त्रं निबर्हणम् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! अथवा यदि वे यहाँ आकर हमारी आज्ञाके अधीन होकर रहेंगे, तब हम नीतिशास्त्रके अनुसार उनके विनाशके कार्यमें लग जायँगे॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथवा दर्शनीयाभिः प्रमदाभिर्विलोभ्यताम् ।
एकैकस्तत्र कौन्तेयस्ततः कृष्णा विरज्यताम् ॥ १६ ॥

मूलम्

अथवा दर्शनीयाभिः प्रमदाभिर्विलोभ्यताम् ।
एकैकस्तत्र कौन्तेयस्ततः कृष्णा विरज्यताम् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अथवा देखनेमें सुन्दर युवती स्त्रियोंद्वारा एक-एक पाण्डवको लुभाया जाय और इस प्रकार कृष्णाका मन उनकी ओरसे फेर दिया जाय॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रेष्यतां चैव राधेयस्तेषामागमनाय वै।
तैस्तैः प्रकारैः संनीय पात्यन्तामाप्तकारिभिः ॥ १७ ॥

मूलम्

प्रेष्यतां चैव राधेयस्तेषामागमनाय वै।
तैस्तैः प्रकारैः संनीय पात्यन्तामाप्तकारिभिः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अथवा पाण्डवोंको यहाँ बुला लानेके लिये राधानन्दन कर्णको भेजा जाय और यहाँ लाकर विश्वसनीय कार्यकर्ताओंद्वारा विभिन्न उपायोंसे उन सबको मार गिराया जाय॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतेषामप्युपायानां यस्ते निर्दोषवान् मतः।
तस्य प्रयोगमातिष्ठ पुरा कालोऽतिवर्तते ॥ १८ ॥
यावद्ध्यकृतविश्वासा द्रुपदे पार्थिवर्षभे ।
तावदेव हि ते शक्या न शक्यास्तु ततः परम्॥१९॥

मूलम्

एतेषामप्युपायानां यस्ते निर्दोषवान् मतः।
तस्य प्रयोगमातिष्ठ पुरा कालोऽतिवर्तते ॥ १८ ॥
यावद्ध्यकृतविश्वासा द्रुपदे पार्थिवर्षभे ।
तावदेव हि ते शक्या न शक्यास्तु ततः परम्॥१९॥

अनुवाद (हिन्दी)

पिताजी! इन उपायोंमेंसे जो भी आपको निर्दोष जान पड़े, उसीसे पहले काम लीजिये; क्योंकि समय बीता जा रहा है। जबतक वे राजाओंमें श्रेष्ठ द्रुपदपर उनका पूरा विश्वास नहीं जम जाता, तभीतक उन्हें मारा जा सकता है। पूरा विश्वास जम जानेपर तो उन्हें मारना असम्भव हो जायगा॥१८-१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एषा मम मतिस्तात निग्रहाय प्रवर्तते।
साध्वी वा यदि वासाध्वी किं वा राधेय मन्यसे॥२०॥

मूलम्

एषा मम मतिस्तात निग्रहाय प्रवर्तते।
साध्वी वा यदि वासाध्वी किं वा राधेय मन्यसे॥२०॥

अनुवाद (हिन्दी)

पिताजी! शत्रुओंको वशमें करनेके लिये ये ही उपाय मेरी बुद्धिमें आते हैं; मेरा यह विचार भला है या बुरा, यह आप जानें। अथवा कर्ण! तुम्हारी क्या राय है?॥२०॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि विदुरागमनराज्यलम्भपर्वणि दुर्योधनवाक्ये द्विशततमोऽध्यायः ॥ २०० ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत विदुरागमन-राज्यलम्भपर्वमें दुर्योधनवाक्यविषयक दो सौवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२००॥