१९९ धार्तराष्ट्र-मन्त्रणम्

श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना

(विदुरागमनराज्यलम्भपर्व)
नवनवत्यधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

पाण्डवोंके विवाहसे दुर्योधन आदिकी चिन्ता, धृतराष्ट्रका पाण्डवोंके प्रति प्रेमका दिखावा और दुर्योधनकी कुमन्त्रणा

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो राज्ञां चरैराप्तैः प्रवृत्तिरुपनीयत।
पाण्डवैरुपसम्पन्ना द्रौपदी पतिभिः शुभा ॥ १ ॥

मूलम्

ततो राज्ञां चरैराप्तैः प्रवृत्तिरुपनीयत।
पाण्डवैरुपसम्पन्ना द्रौपदी पतिभिः शुभा ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! तदनन्तर सब राजाओंको अपने विश्वसनीय गुप्तचरोंद्वारा यह यथार्थ समाचार मिल गया कि शुभलक्षणा द्रौपदीका विवाह पाँचों पाण्डवोंके साथ हुआ है॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

येन तद् धनुरादाय लक्ष्यं विद्धं महात्मना।
सोऽर्जुनो जयतां श्रेष्ठो महाबाणधनुर्धरः ॥ २ ॥

मूलम्

येन तद् धनुरादाय लक्ष्यं विद्धं महात्मना।
सोऽर्जुनो जयतां श्रेष्ठो महाबाणधनुर्धरः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिन महात्मा पुरुषने वह धनुष लेकर लक्ष्यको वेधा था, वे विजयी वीरोंमें श्रेष्ठ तथा महान् धनुष-बाण धारण करनेवाले स्वयं अर्जुन थे॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यः शल्यं मद्रराजं वै प्रोत्क्षिप्यापातयद् बली।
त्रासयामास संक्रुद्धो वृक्षेण पुरुषान् रणे ॥ ३ ॥
न चास्य सम्भ्रमः कश्चिदासीत् तत्र महात्मनः।
स भीमो भीमसंस्पर्शः शत्रुसेनाङ्गपातनः ॥ ४ ॥

मूलम्

यः शल्यं मद्रराजं वै प्रोत्क्षिप्यापातयद् बली।
त्रासयामास संक्रुद्धो वृक्षेण पुरुषान् रणे ॥ ३ ॥
न चास्य सम्भ्रमः कश्चिदासीत् तत्र महात्मनः।
स भीमो भीमसंस्पर्शः शत्रुसेनाङ्गपातनः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस बलवान् वीरने अत्यन्त कुपित हो मद्रराज शल्यको उठाकर पृथ्वीपर पटक दिया था और हाथमें वृक्ष ले रणभूमिमें समस्त योद्धाओंको भयभीत कर डाला था तथा जिस महातेजस्वी शूरवीरको उस समय तनिक भी घबराहट नहीं हुई थी, वह शत्रुसेनाके हाथी, घोड़े आदि अंगोंको मार गिरानेवाला तथा स्पर्शमात्रसे भय उत्पन्न करनेवाला महाबली भीमसेन था॥३-४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्मरूपधराञ्छ्रुत्वा प्रशान्तान् पाण्डुनन्दनान् ।
कौन्तेयान् मनुजेन्द्राणां विस्मयः समजायत ॥ ५ ॥

मूलम्

ब्रह्मरूपधराञ्छ्रुत्वा प्रशान्तान् पाण्डुनन्दनान् ।
कौन्तेयान् मनुजेन्द्राणां विस्मयः समजायत ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मणका रूप धारण करके प्रशान्तभावसे बैठे हुए वे वीर पुरुष कुन्तीपुत्र पाण्डव ही थे, यह सुनकर वहाँ आये हुए राजाओंको बड़ा आश्चर्य हुआ॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सपुत्रा हि पुरा कुन्ती दग्धा जतुगृहे श्रुता।
पुनर्जातानिव च तांस्तेऽमन्यन्त नराधिपाः ॥ ६ ॥

मूलम्

सपुत्रा हि पुरा कुन्ती दग्धा जतुगृहे श्रुता।
पुनर्जातानिव च तांस्तेऽमन्यन्त नराधिपाः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने पहले सुन रखा था कि कुन्ती अपने पुत्रोंसहित लाक्षागृहमें जल गयी। अब उन्हें जीवित सुनकर वे राजालोग यह मानने लगे कि इन पाण्डवोंका फिर नया जन्म-सा हुआ है॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धिगकुर्वंस्तदा भीष्मं धृतराष्ट्रं च कौरवम्।
कर्मणातिनृशंसेन पुरोचनकृतेन वै ॥ ७ ॥

मूलम्

धिगकुर्वंस्तदा भीष्मं धृतराष्ट्रं च कौरवम्।
कर्मणातिनृशंसेन पुरोचनकृतेन वै ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुरोचनके किये हुए अत्यन्त क्रूरतापूर्ण कर्मका स्मरण हो आनेसे उस समय सभी नरेश कुरुवंशी धृतराष्ट्र तथा भीष्मको धिक्कारने लगे॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(धार्मिकान् वृत्तसम्पन्नान्‌ मातुः प्रियहिते रतान्।
यदा तानीदृशान् पार्थानुत्सादयितुमिच्छति ॥

मूलम्

(धार्मिकान् वृत्तसम्पन्नान्‌ मातुः प्रियहिते रतान्।
यदा तानीदृशान् पार्थानुत्सादयितुमिच्छति ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘देखो न; धर्मात्मा, सदाचारी तथा माताके प्रिय एवं हितमें तत्पर रहनेवाले कुन्तीकुमारोंको भी यह धृतराष्ट्र नष्ट करना चाहता है (भला, इससे बढ़कर निन्दनीय कौन होगा)।’

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः स्वयंवरे वृत्ते धार्तराष्ट्राः स्म भारत।
मन्त्रयन्ते ततः सर्वे कर्णसौबलदूषिताः॥

मूलम्

ततः स्वयंवरे वृत्ते धार्तराष्ट्राः स्म भारत।
मन्त्रयन्ते ततः सर्वे कर्णसौबलदूषिताः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनमेजय! उधर स्वयंवर समाप्त होनेपर धृतराष्ट्रके सभी पुत्र, जिन्हें कर्ण और शकुनिने बिगाड़ रखा था, इस प्रकार सलाह करने लगे।

मूलम् (वचनम्)

शकुनिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कश्चिच्छत्रुः कर्शनीयः पीडनीयस्तथापरः ।
उत्सादनीयाः कौन्तेयाः सर्वे क्षत्रस्य मे मताः॥

मूलम्

कश्चिच्छत्रुः कर्शनीयः पीडनीयस्तथापरः ।
उत्सादनीयाः कौन्तेयाः सर्वे क्षत्रस्य मे मताः॥

अनुवाद (हिन्दी)

शकुनि बोला— संसारमें कोई शत्रु तो ऐसा होता है, जिसे सब प्रकारसे दुर्बल कर देना उचित है; दूसरा ऐसा होता है, जिसे सदा पीड़ा दी जाय। परंतु कुन्तीके ये सभी पुत्र तो समस्त क्षत्रियोंके लिये समूल नष्ट कर देनेयोग्य हैं। इनके विषयमें मेरा यही मत है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं पराजिताः सर्वे यदि यूयं गमिष्यथ।
अकृत्वा संविदं कांचित् तद् वस्तप्स्यत्यसंशयम्॥

मूलम्

एवं पराजिताः सर्वे यदि यूयं गमिष्यथ।
अकृत्वा संविदं कांचित् तद् वस्तप्स्यत्यसंशयम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि इस प्रकार पराजित होकर आप सब लोग इन (पाण्डवोंके विनाशकी) युक्ति निश्चित किये बिना ही चले जायँगे, तो अवश्य ही यह भूल आपलोगोंको सदा संतप्त करती रहेगी।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अयं देशश्च कालश्च पाण्डवोद्धरणाय नः।
न चेदेवं करिष्यध्वं लोके हास्या भविष्यथ॥

मूलम्

अयं देशश्च कालश्च पाण्डवोद्धरणाय नः।
न चेदेवं करिष्यध्वं लोके हास्या भविष्यथ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाण्डवोंको जड़मूलसहित विनष्ट करनेके लिये हमारे सामने यही उपयुक्त देश और काल उपस्थित है। यदि आपलोग ऐसा नहीं करेंगे तो संसारमें उपहासके पात्र होंगे।

विश्वास-प्रस्तुतिः

यमेते संश्रिता वस्तुं कामयन्ते च भूमिपम्।
सोऽल्पवीर्यबलो राजा द्रुपदो वै मतो मम॥

मूलम्

यमेते संश्रिता वस्तुं कामयन्ते च भूमिपम्।
सोऽल्पवीर्यबलो राजा द्रुपदो वै मतो मम॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये पाण्डव जिस राजाके आश्रयमें रहनेकी इच्छा रखते हैं, उस द्रुपदका बल और पराक्रम मेरी रायमें बहुत थोड़ा है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

यावदेतान् न जानन्ति जीवतो वृष्णिपुङ्गवाः।
चैद्यश्च पुरुषव्याघ्रः शिशुपालः प्रतापवान्॥

मूलम्

यावदेतान् न जानन्ति जीवतो वृष्णिपुङ्गवाः।
चैद्यश्च पुरुषव्याघ्रः शिशुपालः प्रतापवान्॥

अनुवाद (हिन्दी)

जबतक वृष्णिवंशके श्रेष्ठ वीर यह नहीं जानते कि पाण्डव जीवित हैं, पुरुषसिंह चेदिराज प्रतापी शिशुपाल भी जबतक इस बातसे अनभिज्ञ है, तभीतक पाण्डवोंको मार डालना चाहिये।

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकीभावं गता राज्ञा द्रुपदेन महात्मना।
दुराधर्षतरा राजन् भविष्यन्ति न संशयः॥

मूलम्

एकीभावं गता राज्ञा द्रुपदेन महात्मना।
दुराधर्षतरा राजन् भविष्यन्ति न संशयः॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! जब ये महात्मा राजा द्रुपदके साथ मिलकर एक हो जायँगे, तब इन्हें परास्त करना अत्यन्त कठिन हो जायगा, इसमें संशय नहीं है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

यावदत्वरतां सर्वे प्राप्नुवन्ति नराधिपाः।
तावदेव व्यवस्यामः पाण्डवानां वधं प्रति॥

मूलम्

यावदत्वरतां सर्वे प्राप्नुवन्ति नराधिपाः।
तावदेव व्यवस्यामः पाण्डवानां वधं प्रति॥

अनुवाद (हिन्दी)

जबतक सब राजा ढीले पड़े हैं, तभीतक हमें पाण्डवोंके वधके लिये पूरा प्रयत्न कर लेना चाहिये।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुक्ता जतुगृहाद् भीमाद् आशीविषमुखादिव।
पुनर्यदीह मुच्यन्ते महन्नो भयमाविशेत्॥

मूलम्

मुक्ता जतुगृहाद् भीमाद् आशीविषमुखादिव।
पुनर्यदीह मुच्यन्ते महन्नो भयमाविशेत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

विषधर सर्पके मुख-सदृश भयंकर लाक्षागृहसे तो वे बच ही गये हैं। यदि फिर यहाँ हमारे हाथसे छूट जाते हैं तो उनसे हमलोगोंको महान् भय प्राप्त हो सकता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेषामिहोपयातानामेषां च पुरवासिनाम् ।
अन्तरे दुष्करं स्थातुं मेषयोर्महतोरिव॥

मूलम्

तेषामिहोपयातानामेषां च पुरवासिनाम् ।
अन्तरे दुष्करं स्थातुं मेषयोर्महतोरिव॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि वे वृष्णिवंशी और चेदिवंशी वीर यहाँ आ जायँ और यहाँके नागरिक भी अस्त्र-शस्त्र लेकर खड़े हो जायँ तो इनके बीचमें खड़ा होना उतना ही कठिन होगा, जितना आपसमें लड़ते हुए दो विशाल मेढोंके बीचमें ठहरना।

विश्वास-प्रस्तुतिः

हलधृक्‌प्रगृहीतानि बलानि बलिनां स्वयम्।
यावन्न कुरुसेनायां पतन्ति पतगा इव॥
तावत् सर्वाभिसारेण पुरमेतद् विनाश्यताम्।
एतदत्र परं मन्ये प्राप्तकालं नरर्षभाः॥

मूलम्

हलधृक्‌प्रगृहीतानि बलानि बलिनां स्वयम्।
यावन्न कुरुसेनायां पतन्ति पतगा इव॥
तावत् सर्वाभिसारेण पुरमेतद् विनाश्यताम्।
एतदत्र परं मन्ये प्राप्तकालं नरर्षभाः॥

अनुवाद (हिन्दी)

जबतक हल धारण करनेवाले बलरामजीके द्वारा संचालित बलवान् योद्धाओंकी सेनाएँ स्वयं ही आकर कौरवसेनारूपी खेतीपर टिड्डियोंकी भाँति न टूट पड़ें, तबतक हम सब लोग एक साथ आक्रमण करके इस नगरको नष्ट कर दें। नरश्रेष्ठ वीरो! मैं इस अवसरपर यही सर्वोत्तम कर्तव्य मानता हूँ!

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

शकुनेर्वचनं श्रुत्वा भाषमाणस्य दुर्मतेः।
सौमदत्तिरिदं वाक्यं जगाद परमं ततः॥

मूलम्

शकुनेर्वचनं श्रुत्वा भाषमाणस्य दुर्मतेः।
सौमदत्तिरिदं वाक्यं जगाद परमं ततः॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— दुर्बुद्धि शकुनिका यह प्रस्ताव सुनकर सोमदतकुमार भूरिश्रवाने यह उत्तम बात कही।

मूलम् (वचनम्)

सौमदत्तिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रकृतीः सप्त वै ज्ञात्वा आत्मनश्च परस्य च।
तथा देशं च कालं च षड्‌विधांश्च नयेद्‌ गुणान्॥

मूलम्

प्रकृतीः सप्त वै ज्ञात्वा आत्मनश्च परस्य च।
तथा देशं च कालं च षड्‌विधांश्च नयेद्‌ गुणान्॥

अनुवाद (हिन्दी)

भूरिश्रवा बोले— अपने पक्षकी और शत्रुपक्षकी भी सातों1 प्रकृतियोंको ठीक-ठीक जानकर ही देश और कालका ज्ञान रखते हुए छः2 प्रकारके गुणोंका यथावसर प्रयोग करना चाहिये।

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्थानं वृद्धिं क्षयं चैव भूमिं मित्राणि विक्रमम्।
समीक्ष्याथाभियुञ्जीत परं व्यसनपीडितम् ॥

मूलम्

स्थानं वृद्धिं क्षयं चैव भूमिं मित्राणि विक्रमम्।
समीक्ष्याथाभियुञ्जीत परं व्यसनपीडितम् ॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्थान, वृद्धि, क्षय, भूमि, मित्र तथा पराक्रम—इन सबकी ओर दृष्टि रखते हुए यदि शत्रु संकटसे पीड़ित हो तभी उसपर आक्रमण करना चाहिये।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽहं पाण्डवान् मन्ये मित्रकोशसमन्वितान्।
बलस्थान् विक्रमस्थांश्च स्वकृतैः प्रकृतिप्रियान्॥

मूलम्

ततोऽहं पाण्डवान् मन्ये मित्रकोशसमन्वितान्।
बलस्थान् विक्रमस्थांश्च स्वकृतैः प्रकृतिप्रियान्॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस दृष्टिसे देखनेपर मैं पाण्डवोंको मित्र और खजाना दोनोंसे सम्पन्न समझता हूँ। वे बलवान् तो हैं ही, पराक्रमी भी हैं और अपने सत्कर्मोंद्वारा समस्त प्रजाके प्रिय हो रहे हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

वपुषा हि तु भूतानां नेत्राणि हृदयानि च।
श्रोत्रं मधुरया वाचा रमयत्यर्जुनो नृणाम्॥

मूलम्

वपुषा हि तु भूतानां नेत्राणि हृदयानि च।
श्रोत्रं मधुरया वाचा रमयत्यर्जुनो नृणाम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुन अपने शरीरकी गठनसे (सभी) मनुष्योंके नेत्रों तथा हृदयको आनन्द प्रदान करते हैं और मीठी-मीठी वाणीद्वारा सबके कानोंको सुख पहुँचाते हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

न तु केवलदैवेन प्रजा भावेन भेजिरे।
यद् बभूव मनःकान्तं कर्मणा च चकार तत्॥

मूलम्

न तु केवलदैवेन प्रजा भावेन भेजिरे।
यद् बभूव मनःकान्तं कर्मणा च चकार तत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

केवल प्रारब्धसे ही प्रजा उनकी सेवा नहीं करती। प्रजाके मनको जो प्रिय लगता है, उसकी पूर्ति अर्जुन अपने प्रयत्नोंद्वारा करते रहते हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

न ह्ययुक्तं न चासक्तं नानृतं न च विप्रियम्।
भाषितं चारुभाषस्य जज्ञे पार्थस्य भारती॥

मूलम्

न ह्ययुक्तं न चासक्तं नानृतं न च विप्रियम्।
भाषितं चारुभाषस्य जज्ञे पार्थस्य भारती॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनोहर वचन बोलनेवाले अर्जुनकी वाणी कभी ऐसा वचन नहीं बोलती, जो अयुक्त, आसक्तिपूर्ण, मिथ्या तथा अप्रिय हो।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तानेवंगुणसम्पन्नान् सम्पन्नान् राजलक्षणैः ।
न तान् पश्यामि ये शक्ताः समुच्छेत्तुं यथा बलात्॥

मूलम्

तानेवंगुणसम्पन्नान् सम्पन्नान् राजलक्षणैः ।
न तान् पश्यामि ये शक्ताः समुच्छेत्तुं यथा बलात्॥

अनुवाद (हिन्दी)

समस्त पाण्डव राजोचित लक्षणोंसे सम्पन्न तथा उपर्युक्त गुणोंसे विभूषित हैं। मैं ऐसे किन्हीं वीरोंको नहीं देखता, जो अपने बलसे पाण्डवोंका वास्तवमें उच्छेद कर सकें।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभावशक्तिर्विपुला मन्त्रशक्तिश्च पुष्कला ।
तथैवोत्साहशक्तिश्च पार्थेष्वभ्यधिका सदा ॥

मूलम्

प्रभावशक्तिर्विपुला मन्त्रशक्तिश्च पुष्कला ।
तथैवोत्साहशक्तिश्च पार्थेष्वभ्यधिका सदा ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनकी प्रभावशक्ति विपुल है, मन्त्रशक्ति भी प्रचुर है तथा उत्साहशक्ति भी पाण्डवोंमें सबसे अधिक है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

मौलमित्रबलानां च कालज्ञो वै युधिष्ठिरः।
साम्ना दानेन भेदेन दण्डेनेति युधिष्ठिरः॥
अमित्रं यतते जेतुं न रोषेणेति मे मतिः॥

मूलम्

मौलमित्रबलानां च कालज्ञो वै युधिष्ठिरः।
साम्ना दानेन भेदेन दण्डेनेति युधिष्ठिरः॥
अमित्रं यतते जेतुं न रोषेणेति मे मतिः॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर इस बातको अच्छी तरह जानते हैं कि कब स्वाभाविक बलका प्रयोग करना चाहिये तथा कब मित्र और सैन्यबलका। राजा युधिष्ठिर साम, दान, भेद और दण्डनीतिके द्वारा ही यथासमय शत्रुको जीतनेका प्रयत्न करते हैं, क्रोधके द्वारा नहीं—ऐसा मेरा विश्वास है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

परिक्रीय धनैः शत्रून् मित्राणि च बलानि च।
मूलं च सुदृढं कृत्वा हन्त्यरीन् पाण्डवस्तदा॥

मूलम्

परिक्रीय धनैः शत्रून् मित्राणि च बलानि च।
मूलं च सुदृढं कृत्वा हन्त्यरीन् पाण्डवस्तदा॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर प्रचुर धन देकर शत्रुओंको, मित्रोंको तथा सेनाओंको भी खरीद लेते हैं और अपनी नींवको सुदृढ़ करके शत्रुओंका नाश करते हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अशक्यान् पाण्डवान् मन्ये देवैरपि सवासवैः।
येषामर्थे सदा युक्तौ कृष्णसंकर्षणावुभौ॥

मूलम्

अशक्यान् पाण्डवान् मन्ये देवैरपि सवासवैः।
येषामर्थे सदा युक्तौ कृष्णसंकर्षणावुभौ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं ऐसा मानता हूँ कि इन्द्र आदि देवता भी उन पाण्डवोंका कुछ नहीं बिगाड़ सकते, जिनकी सहायताके लिये कृष्ण और बलराम दोनों सदा कमर कसे रहते हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रेयश्च यदि मन्यध्वं मन्मतं यदि वो मतम्।
संविदं पाण्डवैः सार्धं कृत्वा याम यथागतम्॥

मूलम्

श्रेयश्च यदि मन्यध्वं मन्मतं यदि वो मतम्।
संविदं पाण्डवैः सार्धं कृत्वा याम यथागतम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि आपलोग मेरी बातको हितकर मानते हों, यदि मेरे मतके अनुकूल ही आपलोगोंका मत हो, तो हमलोग पाण्डवोंसे मेल करके जैसे आये हैं, वैसे ही लौट चलें।

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोपुराट्टालकैरुच्चैरुपतल्पशतैरपि ।
गुप्तं पुरवरश्रेष्ठमेतदद्भिश्च संवृतम् ॥
तृणधान्येन्धनरसैस्तथा यन्त्रायुधौषधैः ।
युक्तं बहुकपाटैश्च द्रव्यागारतुषादिकैः ॥

मूलम्

गोपुराट्टालकैरुच्चैरुपतल्पशतैरपि ।
गुप्तं पुरवरश्रेष्ठमेतदद्भिश्च संवृतम् ॥
तृणधान्येन्धनरसैस्तथा यन्त्रायुधौषधैः ।
युक्तं बहुकपाटैश्च द्रव्यागारतुषादिकैः ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह श्रेष्ठ नगर गोपुरों, ऊँची-ऊँची अट्टालिकाओं तथा सैकड़ों उपतल्पोंसे सुरक्षित है। इसके चारों ओर जलसे भरी खाई है। घास-चारा, अनाज, ईंधन, रस, यन्त्र, आयुध तथा औषध आदिकी यहाँ बहुतायत है। बहुत-से कपाट, द्रव्यागार और भूसा आदिसे भी यह नगर भरपूर है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

भीमोच्छ्रितमहाचक्रं बृहदट्टालसंवृतम् ।
दृढप्राकारनिर्यूहं शतघ्नीजालसंवृतम् ॥

मूलम्

भीमोच्छ्रितमहाचक्रं बृहदट्टालसंवृतम् ।
दृढप्राकारनिर्यूहं शतघ्नीजालसंवृतम् ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यहाँ बड़े भयंकर और ऊँचे विशाल चक्र हैं। बड़ी-बड़ी अट्‌टालिकाओंकी पंक्ति इस नगरको घेरे हुए है। इसकी चहारदीवारी और छज्जे सुदृढ़ हैं। शतघ्नी (तोप) नामक अस्त्रोंके समुदायसे यह नगरी घिरी हुई है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऐष्टको दारवो वप्रो मानुषश्चेति यः स्मृतः।
प्राकारकर्तृभिर्वीरैर्नॄगर्भस्तत्र पूजितः ॥

मूलम्

ऐष्टको दारवो वप्रो मानुषश्चेति यः स्मृतः।
प्राकारकर्तृभिर्वीरैर्नॄगर्भस्तत्र पूजितः ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसकी रक्षाके लिये तीन प्रकारका घेरा बना है—एक तो ईंटोंका, दूसरा काठका और तीसरा मानव-सैनिकोंका। चहारदीवारी बनानेवाले वीरोंने यहाँ नरगर्भकी पूजा की है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदेतन्नरगर्भेण पाण्डरेण विराजते ।
सालेनानेकतालेन सर्वतः संवृतं पुरम्॥
अनुरक्ताः प्रकृतयो द्रुपदस्य महात्मनः।
दानमानार्चिताः सर्वे बाह्याश्चाभ्यन्तराश्च ये॥

मूलम्

तदेतन्नरगर्भेण पाण्डरेण विराजते ।
सालेनानेकतालेन सर्वतः संवृतं पुरम्॥
अनुरक्ताः प्रकृतयो द्रुपदस्य महात्मनः।
दानमानार्चिताः सर्वे बाह्याश्चाभ्यन्तराश्च ये॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार यह नगर श्वेत नरगर्भसे शोभित है। अनेक ताड़के बराबर ऊँचे शालवृक्षोंकी पंक्तियोंद्वारा यह श्रेष्ठ नगरी सब ओरसे घिरी हुई है। महामना राजा द्रुपदकी सभी प्रजा और प्रकृतियाँ (मन्त्री आदि) उनमें अनुराग रखती हैं। बाहर और भीतरके सभी कर्मचारियोंका दान और मानद्वारा सत्कार किया जाता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रतिरुद्धानिमाञ्ज्ञात्वा राजभिर्भीमविक्रमैः ।
उपयास्यन्ति दाशार्हाः समुदग्रोच्छ्रितायुधाः ॥

मूलम्

प्रतिरुद्धानिमाञ्ज्ञात्वा राजभिर्भीमविक्रमैः ।
उपयास्यन्ति दाशार्हाः समुदग्रोच्छ्रितायुधाः ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भयानक पराक्रमी राजाओंद्वारा पाण्डवोंको सब ओरसे घिरा हुआ जानकर समस्त यदुवंशी वीर प्रचण्ड अस्त्र-शस्त्र लिये यहाँ उपस्थित हो जायँगे।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मात् संधिं वयं कृत्वा धार्तराष्ट्रस्य पापडवैः।
स्वराष्ट्रमेव गच्छामो यद्याप्तवचनं मम॥
एतन्मम मतं सर्वैः क्रियतां यदि रोचते।
एतद्धि सुकृतं मन्ये क्षेमं चापि महीक्षिताम्॥)

मूलम्

तस्मात् संधिं वयं कृत्वा धार्तराष्ट्रस्य पापडवैः।
स्वराष्ट्रमेव गच्छामो यद्याप्तवचनं मम॥
एतन्मम मतं सर्वैः क्रियतां यदि रोचते।
एतद्धि सुकृतं मन्ये क्षेमं चापि महीक्षिताम्॥)

अनुवाद (हिन्दी)

अतः हम धृतराष्ट्र-पुत्र दुर्योधनकी पाण्डवोंके साथ संधि कराकर अपने राज्यमें ही लौट चलें। यदि आपलोगोंको मेरी बातपर विश्वास हो और मेरा यह मत सबको ठीक जँचता हो तो आप सब लोग इसे काममें लायें। हमारा यही सर्वोत्तम कर्तव्य है और मैं इसीको राजाओंके लिये कल्याणकारी मानता हूँ।

विश्वास-प्रस्तुतिः

वृत्ते स्वयंवरे चैव राजानः सर्व एव ते।
यथागतं विप्रजग्मुर्विदित्वा पाण्डवान् वृतान् ॥ ८ ॥

मूलम्

वृत्ते स्वयंवरे चैव राजानः सर्व एव ते।
यथागतं विप्रजग्मुर्विदित्वा पाण्डवान् वृतान् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्वयंवर समाप्त हो जानेपर जब यह ज्ञात हो गया कि द्रौपदीने पाण्डवोंका वरण किया है, तब वे सभी राजा जैसे आये थे, वैसे ही (अपने-अपने) देशको लौट गये॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ दुर्योधनो राजा विमना भ्रातृभिः सह।
अश्वत्थाम्ना मातुलेन कर्णेन च कृपेण च ॥ ९ ॥
विनिवृत्तो वृतं दृष्ट्‌वा द्रौपद्या श्वेतवाहनम्।
तं तु दुःशासनो व्रीडन् मन्दं मन्दमिवाब्रवीत् ॥ १० ॥

मूलम्

अथ दुर्योधनो राजा विमना भ्रातृभिः सह।
अश्वत्थाम्ना मातुलेन कर्णेन च कृपेण च ॥ ९ ॥
विनिवृत्तो वृतं दृष्ट्‌वा द्रौपद्या श्वेतवाहनम्।
तं तु दुःशासनो व्रीडन् मन्दं मन्दमिवाब्रवीत् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्रुपदकुमारी कृष्णाने श्वेतवाहन अर्जुनको (जयमाला पहनाकर उनका) वरण किया है, यह अपनी आँखों देखकर राजा दुर्योधनके मनमें बड़ा दुःख हुआ। वह अश्वत्थामा, मामा शकुनि, कर्ण, कृपाचार्य तथा अपने भाइयोंके साथ (द्रुपदकी राजधानीसे) हस्तिनापुरके लिये लौट पड़ा। मार्गमें दुःशासनने लज्जित होकर दुर्योधनसे धीरे-धीरे (इस प्रकार) कहा—॥९-१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यद्यसौ ब्राह्मणो न स्याद् विन्देत द्रौपदीं न सः।
न हि तं तत्त्वतो राजन् वेद कश्चिद् धनंजयम्॥११॥

मूलम्

यद्यसौ ब्राह्मणो न स्याद् विन्देत द्रौपदीं न सः।
न हि तं तत्त्वतो राजन् वेद कश्चिद् धनंजयम्॥११॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भाईजी! यदि अर्जुन ब्राह्मणके वेशमें न होता तो वह कदापि द्रौपदीको न पा सकता था। राजन्! वास्तवमें किसीको यह पता ही नहीं चला कि वह अर्जुन है॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दैवं च परमं मन्ये पौरुषं चाप्यनर्थकम्।
धिगस्तु पौरुषं तात ध्रियन्ते यत्र पाण्डवाः ॥ १२ ॥

मूलम्

दैवं च परमं मन्ये पौरुषं चाप्यनर्थकम्।
धिगस्तु पौरुषं तात ध्रियन्ते यत्र पाण्डवाः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैं तो भाग्यको ही प्रबल मानता हूँ, पुरुषका प्रयत्न निरर्थक है। तात! हमारे पुरुषार्थको धिक्कार है, जब कि पाण्डव अभीतक जी रहे हैं’॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं सम्भाषमाणास्ते निन्दन्तश्च पुरोचनम्।
विविशुर्हास्तिनपुरं दीना विगतचेतसः ॥ १३ ॥

मूलम्

एवं सम्भाषमाणास्ते निन्दन्तश्च पुरोचनम्।
विविशुर्हास्तिनपुरं दीना विगतचेतसः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार परस्पर बातें करते और पुरोचनको कोसते हुए वे सब कौरव दुःखी होकर हस्तिनापुरमें पहुँचे। (पाण्डवोंकी) सफलता देखकर, उनका चित्त ठिकाने न रहा॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रस्ता विगतसंकल्पा दृष्ट््वा पार्थान् महौजसः।
मुक्तान् हव्यभुजश्चैव संयुक्तान् द्रुपदेन च ॥ १४ ॥
धृष्टद्युम्नं तु संचिन्त्य तथैव च शिखण्डिनम्।
द्रुपदस्यात्मजांश्चान्यान् सर्वयुद्धविशारदान् ॥ १५ ॥

मूलम्

त्रस्ता विगतसंकल्पा दृष्ट््वा पार्थान् महौजसः।
मुक्तान् हव्यभुजश्चैव संयुक्तान् द्रुपदेन च ॥ १४ ॥
धृष्टद्युम्नं तु संचिन्त्य तथैव च शिखण्डिनम्।
द्रुपदस्यात्मजांश्चान्यान् सर्वयुद्धविशारदान् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महातेजस्वी कुन्तीकुमार लाक्षागृहकी आगसे जीवित बचकर राजा द्रुपदके सम्बन्धी हो गये, यह अपनी आँखों देखकर और धृष्टद्युम्न, शिखण्डी तथा द्रुपदके अन्य पुत्र युद्धकी सम्पूर्ण कलाओंमें दक्ष हैं, इस बातका विचार करके कौरव बहुत डर गये। उनकी आशा निराशामें परिणत हो गयी॥१४-१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विदुरस्त्वथ तां श्रुत्वा द्रौपदीं पाण्डवैर्वृतान्।
व्रीडितान् धार्तराष्ट्रांश्च भग्नदर्पानुपागतान् ॥ १६ ॥
ततः प्रीतमनाः क्षत्ता धृतराष्ट्रं विशाम्पते।
उवाच दिष्ट्या कुरवो वर्धन्त इति विस्मितः ॥ १७ ॥

मूलम्

विदुरस्त्वथ तां श्रुत्वा द्रौपदीं पाण्डवैर्वृतान्।
व्रीडितान् धार्तराष्ट्रांश्च भग्नदर्पानुपागतान् ॥ १६ ॥
ततः प्रीतमनाः क्षत्ता धृतराष्ट्रं विशाम्पते।
उवाच दिष्ट्या कुरवो वर्धन्त इति विस्मितः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विदुरजीने जब यह सुना कि पाण्डवोंने द्रौपदीको प्राप्त किया है और धृतराष्ट्रके पुत्र अपना अभिमान चूर्ण हो जानेसे लज्जित होकर लौट आये हैं, तब वे मन-ही-मन बड़े प्रसन्न हुए। राजन्! तब वे धृतराष्ट्रके पास जाकर विस्मयसूचक वाणीमें बोले—‘महाराज! हमारा अहोभाग्य है, जो कौरववंशकी वृद्धि हो रही है॥१६-१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वैचित्रवीर्यस्तु वचो निशम्य विदुरस्य तत्।
अब्रवीत् परमप्रीतो दिष्ट्या दिष्ट्येति भारत ॥ १८ ॥

मूलम्

वैचित्रवीर्यस्तु वचो निशम्य विदुरस्य तत्।
अब्रवीत् परमप्रीतो दिष्ट्या दिष्ट्येति भारत ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! विचित्रवीर्यनन्दन राजा धृतराष्ट्र विदुरकी यह बात सुनकर अत्यन्त प्रसन्न हो सहसा बोल उठे—‘अहोभाग्य, अहोभाग्य’॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन्यते स वृतं पुत्रं ज्येष्ठं द्रुपदकन्यया।
दुर्योधनमविज्ञानात् प्रज्ञाचक्षुर्नरेश्वरः ॥ १९ ॥

मूलम्

मन्यते स वृतं पुत्रं ज्येष्ठं द्रुपदकन्यया।
दुर्योधनमविज्ञानात् प्रज्ञाचक्षुर्नरेश्वरः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस अंधे नरेशने अज्ञानवश यह समझ लिया कि ‘द्रुपदकन्याने मेरे ज्येष्ठ पुत्र दुर्योधनका वरण किया है’॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ त्वाज्ञापयामास द्रौपद्या भूषणं बहु।
आनीयतां वै कृष्णेति पुत्रं दुर्योधनं तदा ॥ २० ॥

मूलम्

अथ त्वाज्ञापयामास द्रौपद्या भूषणं बहु।
आनीयतां वै कृष्णेति पुत्रं दुर्योधनं तदा ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसलिये उन्होंने आज्ञा दी—‘द्रौपदीके लिये बहुत-से आभूषण मँगाओ और मेरे पुत्र दुर्योधन तथा द्रौपदीको बड़ी धूमधामसे नगरमें ले आओ’॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथास्य पश्चाद् विदुर आचख्यौ पाण्डवान् वृतान्।
सर्वान् कुशलिनो वीरान् पूजितान् द्रुपदेन ह ॥ २१ ॥

मूलम्

अथास्य पश्चाद् विदुर आचख्यौ पाण्डवान् वृतान्।
सर्वान् कुशलिनो वीरान् पूजितान् द्रुपदेन ह ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब पीछेसे विदुरने उन्हें बताया कि—‘द्रौपदीने पाण्डवोंका वरण किया है। वे सभी वीर राजा द्रुपदके द्वारा पूजित होकर वहाँ कुशलपूर्वक रह रहे हैं॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेषां सम्बन्धिनश्चान्यान्‌ बहून् बलसमन्वितान्।
समागतान् पाण्डवेयैस्तस्मिन्नेव स्वयंवरे ॥ २२ ॥

मूलम्

तेषां सम्बन्धिनश्चान्यान्‌ बहून् बलसमन्वितान्।
समागतान् पाण्डवेयैस्तस्मिन्नेव स्वयंवरे ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसी स्वयंवरमें उनके बहुत-से अन्य सम्बन्धी भी, जो भारी सैनिकशक्तिसे सम्पन्न हैं, पाण्डवोंसे प्रेमपूर्वक मिले हैं॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(एतच्छ्रुत्वा तु वचनं विदुरस्य नराधिपः।
आकारच्छादनार्थं तु दिष्ट्या दिष्ट्येति चाब्रवीत्॥

मूलम्

(एतच्छ्रुत्वा तु वचनं विदुरस्य नराधिपः।
आकारच्छादनार्थं तु दिष्ट्या दिष्ट्येति चाब्रवीत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

विदुरका यह कथन सुनकर राजा धृतराष्ट्रने अपनी बदली हुई आकृतिको छिपानेके लिये कहा—‘अहोभाग्य! अहोभाग्य!’

मूलम् (वचनम्)

धृतराष्ट्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं विदुर भद्रं ते यदि जीवन्ति पाण्डवाः।
साध्वाचारा तथा कुन्ती सम्बन्धो द्रुपदेन च॥
अन्ववाये वसोर्जातः प्रकृष्टे मान्यके कुले।
व्रतविद्यातपोवृद्धः पार्थिवानां धुरन्धरः ॥
पुत्राश्चास्य तथा पौत्राः सर्वे सुचरितव्रताः।
तेषां सम्बन्धिनश्चान्ये बहवः सुमहाबलाः॥)

मूलम्

एवं विदुर भद्रं ते यदि जीवन्ति पाण्डवाः।
साध्वाचारा तथा कुन्ती सम्बन्धो द्रुपदेन च॥
अन्ववाये वसोर्जातः प्रकृष्टे मान्यके कुले।
व्रतविद्यातपोवृद्धः पार्थिवानां धुरन्धरः ॥
पुत्राश्चास्य तथा पौत्राः सर्वे सुचरितव्रताः।
तेषां सम्बन्धिनश्चान्ये बहवः सुमहाबलाः॥)

अनुवाद (हिन्दी)

धृतराष्ट्र (फिर) बोले— विदुर! यदि ऐसी बात है, यदि (वास्तवमें) पाण्डव जीवित हैं, तो बड़े आनन्दकी बात है, तुम्हारा कल्याण हो। अवश्य ही कुन्ती बड़ी साध्वी हैं। द्रुपदके साथ जो सम्बन्ध हुआ है, वह हमारे लिये अत्यन्त स्पृहणीय है। विदुर! राजा द्रुपद वसुके श्रेष्ठ और सम्माननीय कुलमें उत्पन्न हुए हैं। व्रत, विद्या और तप—तीनोंमें वे बढ़े-चढ़े हैं। राजाओंमें तो वे अग्रगण्य हैं ही। उनके सभी पुत्र और पौत्र भी उत्तम व्रतका पालन करनेवाले हैं। द्रुपदके अन्य बहुत-से सम्बन्धी भी अत्यन्त बलवान् हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथैव पाण्डोः पुत्रास्तु तथैवाभ्यधिका मम।
यथा चाभ्यधिका बुद्धिर्मम तान् प्रति तच्छृणु ॥ २३ ॥

मूलम्

यथैव पाण्डोः पुत्रास्तु तथैवाभ्यधिका मम।
यथा चाभ्यधिका बुद्धिर्मम तान् प्रति तच्छृणु ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विदुर! युधिष्ठिर आदि जैसे पाण्डुके पुत्र हैं, वैसे ही या उससे भी अधिक मेरे हैं। उनके प्रति मेरे मनमें अधिक अपनापनका भाव क्यों है?, यह बताता हूँ; सुनो॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत् ते कुशलिनो वीरा मित्रवन्तश्च पाण्डवाः।
तेषां सम्बन्धिनश्चान्ये बहवश्च महाबलाः ॥ २४ ॥

मूलम्

यत् ते कुशलिनो वीरा मित्रवन्तश्च पाण्डवाः।
तेषां सम्बन्धिनश्चान्ये बहवश्च महाबलाः ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे वीर पाण्डव कुशलपूर्वक जीवित बच गये हैं और उन्हें मित्रोंका सहयोग भी प्राप्त हो गया है। इतना ही नहीं और भी बहुत-से महाबली नरेश उनके सम्बन्धी होते जा रहे हैं॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

को हि द्रुपदमासाद्य मित्रं क्षत्तः सबान्धवम्।
न बुभूषेद् भवेनार्थी गतश्रीरपि पार्थिवः ॥ २५ ॥

मूलम्

को हि द्रुपदमासाद्य मित्रं क्षत्तः सबान्धवम्।
न बुभूषेद् भवेनार्थी गतश्रीरपि पार्थिवः ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विदुर! कौन ऐसा राजा है, जिसकी सम्पत्ति नष्ट हो जानेपर भी बन्धु-बान्धवोंसहित द्रुपदको मित्रके रूपमें पाकर जीना नहीं चाहेगा॥२५॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं तथा भाषमाणं तु विदुरः प्रत्यभाषत।
नित्यं भवतु ते बुद्धिरेषा राजञ्छतं समाः।
इत्युक्त्वा प्रययौ राजन् विदुरः स्वं निवेशनम् ॥ २६ ॥

मूलम्

तं तथा भाषमाणं तु विदुरः प्रत्यभाषत।
नित्यं भवतु ते बुद्धिरेषा राजञ्छतं समाः।
इत्युक्त्वा प्रययौ राजन् विदुरः स्वं निवेशनम् ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! ऐसी बातें कहनेवाले राजा धृतराष्ट्रसे विदुर (इस प्रकार) बोले—‘महाराज! सौ वर्षोंतक आपकी बुद्धि ऐसी ही बनी रहे।’ राजन्! इतना कहकर विदुरजी अपने घर चले गये॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो दुर्योधनश्चापि राधेयश्च विशाम्पते।
धृतराष्ट्रमुपागम्य वचोऽब्रूतामिदं तदा ॥ २७ ॥

मूलम्

ततो दुर्योधनश्चापि राधेयश्च विशाम्पते।
धृतराष्ट्रमुपागम्य वचोऽब्रूतामिदं तदा ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनमेजय! तदनन्तर दुर्योधन और कर्णने धृतराष्ट्रके पास आकर यह बात कही—॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संनिधौ विदुरस्य त्वां दोषं वक्तुं न शक्नुवः।
विविक्तमिति वक्ष्यावः किं तवेदं चिकीर्षितम् ॥ २८ ॥
सपत्नवृद्धिं यत् तात मन्यसे वृद्धिमात्मनः।
अभिष्टौषि च यत् क्षत्तुः समीपे द्विषतां वर ॥ २९ ॥

मूलम्

संनिधौ विदुरस्य त्वां दोषं वक्तुं न शक्नुवः।
विविक्तमिति वक्ष्यावः किं तवेदं चिकीर्षितम् ॥ २८ ॥
सपत्नवृद्धिं यत् तात मन्यसे वृद्धिमात्मनः।
अभिष्टौषि च यत् क्षत्तुः समीपे द्विषतां वर ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाराज! विदुरके समीप हम आपसे आपका कोई दोष नहीं बता सकते। इस समय एकान्त है, इसलिये कहते हैं। आप यह क्या करना चाहते हैं? पूज्य पिताजी! आप तो शत्रुओंकी उन्नतिको ही अपनी उन्नति मानने लगे हैं और विदुरजीके निकट हमारे वैरियोंकी ही भूरि-भूरि प्रशंसा करते हैं॥२८-२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्यस्मिन् नृप कर्तव्ये त्वमन्यत् कुरुषेऽनघ।
तेषां बलविघातो हि कर्तव्यस्तात नित्यशः ॥ ३० ॥

मूलम्

अन्यस्मिन् नृप कर्तव्ये त्वमन्यत् कुरुषेऽनघ।
तेषां बलविघातो हि कर्तव्यस्तात नित्यशः ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

निष्पाप नरेश! हमें करना तो कुछ और चाहिये, किंतु आप करते कुछ और (ही) हैं। तात! हमारे लिये तो यही उचित है कि हम सदा पाण्डवोंकी शक्तिका विनाश करते रहें॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते वयं प्राप्तकालस्य चिकीर्षां मन्त्रयामहे।
यथा नो न ग्रसेयुस्ते सपुत्रबलबान्धवान् ॥ ३१ ॥

मूलम्

ते वयं प्राप्तकालस्य चिकीर्षां मन्त्रयामहे।
यथा नो न ग्रसेयुस्ते सपुत्रबलबान्धवान् ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इस समय जैसा अवसर उपस्थित है, इसमें हमें क्या करना चाहिये—यही सोच-विचारकर निश्चय करना है, जिससे वे पाण्डव पुत्र, बान्धव तथा सेनासहित हमारा सर्वनाश न कर बैठें’॥३१॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि विदुरागमनराज्यलम्भपर्वणि दुर्योधनवाक्ये नवनवत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १९९ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत विदुरागमन-राज्यलम्भपर्वमें दुर्योधनवचनविषयक एक सौ निन्यानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१९९॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ३९ श्लोक मिलाकर कुल ७० श्लोक हैं)


  1. राज्यके स्वामी, अमात्य, सुहृद्, कोष, राष्ट्र, दुर्ग और सेना—इन सात अंगोंको सात प्रकृतियाँ कहते हैं। ↩︎

  2. संधि, विग्रह, यान, आसन, द्वैधीभाव और समाश्रय—ये छः गुण हैं। इनमें शत्रुसे मेल रखना संधि, उससे लड़ाई छेड़ना विग्रह, आक्रमण करना यान, अवसरकी प्रतीक्षामें बैठे रहना आसन, दुरंगी नीति बर्तना द्वैधीभाव और अपनेसे बलवान् राजाकी शरण लेना समाश्रय कहलाता। ↩︎