१९७ विवाहः

श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना

सप्तनवत्यधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

द्रौपदीका पाँचों पाण्डवोंके साथ विवाह

मूलम् (वचनम्)

द्रुपद उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अश्रुत्वैवं वचनं ते महर्षे
मया पूर्वं यतितं संविधातुम्।
न वै शक्यं विहितस्यापयानं
तदेवेदमुपपन्नं विधानम् ॥ १ ॥

मूलम्

अश्रुत्वैवं वचनं ते महर्षे
मया पूर्वं यतितं संविधातुम्।
न वै शक्यं विहितस्यापयानं
तदेवेदमुपपन्नं विधानम् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्रुपद बोले— ‘ब्रह्मर्षे! आपके इस वचनको न सुननेके कारण ही पहले मैंने वैसा करने (कृष्णाको एक ही योग्य पतिसे ब्याहने)-का प्रयत्न किया था; परंतु विधाताने जो रच रखा है, उसे टाल देना असम्भव है; अतः उसी पूर्वनिश्चित विधानका पालन करना उचित है॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिष्टस्य ग्रन्थिरनिवर्तनीयः
स्वकर्मणा विहितं नेह किंचित्।
कृतं निमित्तं हि वरैकहेतो-
स्तदेवेदमुपपन्नं विधानम् ॥ २ ॥

मूलम्

दिष्टस्य ग्रन्थिरनिवर्तनीयः
स्वकर्मणा विहितं नेह किंचित्।
कृतं निमित्तं हि वरैकहेतो-
स्तदेवेदमुपपन्नं विधानम् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भाग्यमें जो लिख दिया है, उसे कोई भी बदल नहीं सकता। अपने प्रयत्नसे यहाँ कुछ नहीं हो सकता। एक वरकी प्राप्तिके लिये जो साधन (तप) किया गया, वही पाँच पतियोंकी प्राप्तिका कारण बन गया; अतः दैवके द्वारा पूर्वनिश्चित विधानका ही पालन करना उचित है॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथैव कृष्णोक्तवती पुरस्ता-
न्नैकं पतिं मे भगवान् ददातु।
स चाप्येवं वरमित्यब्रवीत् तां
देवो हि वेत्ता परमं यदत्र ॥ ३ ॥

मूलम्

यथैव कृष्णोक्तवती पुरस्ता-
न्नैकं पतिं मे भगवान् ददातु।
स चाप्येवं वरमित्यब्रवीत् तां
देवो हि वेत्ता परमं यदत्र ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पूर्वजन्ममें कृष्णाने अनेक बार भगवान् शंकरसे कहा—‘प्रभो! मुझे पति दें।’ जैसा उसने कहा, वैसा ही वर उन्होंने भी उसे दे दिया। अतः इसमें कौन-सा उत्तम रहस्य छिपा है, उसे वे भगवान् ही जानते हैं॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि चैवं विहितः शंकरेण
धर्मोऽधर्मो वा नात्र ममापराधः।
गृह्णन्त्विमे विधिवत् पाणिमस्या
यथोपजोषं विहितैषां हि कृष्णा ॥ ४ ॥

मूलम्

यदि चैवं विहितः शंकरेण
धर्मोऽधर्मो वा नात्र ममापराधः।
गृह्णन्त्विमे विधिवत् पाणिमस्या
यथोपजोषं विहितैषां हि कृष्णा ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि साक्षात् शंकरने ऐसा विधान किया है तो यह धर्म हो या अधर्म, इसमें मेरा कोई अपराध नहीं है। ये पाण्डवलोग विधिपूर्वक प्रसन्नतासे इसका पाणिग्रहण करें; विधाताने ही कृष्णाको इन पाण्डवोंकी पत्नी बनाया है॥४॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽब्रवीद् भगवान् धर्मराज-
मद्यैव पुण्याहमुत वः पाण्डवेय।
अद्य पौष्यं योगमुपैति चन्द्रमाः
पाणिं कृष्णायास्त्वं गृहाणाद्य पूर्वम् ॥ ५ ॥

मूलम्

ततोऽब्रवीद् भगवान् धर्मराज-
मद्यैव पुण्याहमुत वः पाण्डवेय।
अद्य पौष्यं योगमुपैति चन्द्रमाः
पाणिं कृष्णायास्त्वं गृहाणाद्य पूर्वम् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! तदनन्तर भगवान् व्यासने धर्मराज युधिष्ठिरसे कहा—‘पाण्डुनन्दन! आज ही तुम लोगोंके लिये पुण्य-दिवस है। आज चन्द्रमा भरण-पोषणकारक पुष्य नक्षत्रपर जा रहे हैं; इसलिये आज पहले तुम्हीं कृष्णाका पाणिग्रहण करो’॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो राजा यज्ञसेनः सपुत्रो
जन्यार्थमुक्तं बहु तत् तदग्र्यम्।
समानयामास सुतां च कृष्णा-
माप्लाव्य रत्नैर्बहुभिर्विभूष्य ॥ ६ ॥

मूलम्

ततो राजा यज्ञसेनः सपुत्रो
जन्यार्थमुक्तं बहु तत् तदग्र्यम्।
समानयामास सुतां च कृष्णा-
माप्लाव्य रत्नैर्बहुभिर्विभूष्य ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

व्यासजीका यह आदेश सुनकर पुत्रोंसहित राजा द्रुपदने वर-वधूके लिये कथित समस्त उत्तम वस्तुओंको मँगवाया और अपनी पुत्री कृष्णाको स्नान कराकर बहुत-से रत्नमय आभूषणोंद्वारा विभूषित किया॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तु सर्वे सुहृदो नृपस्य
समाजग्मुः सहिता मन्त्रिणश्च ।
द्रष्टुं विवाहं परमप्रतीता
द्विजाश्च पौराश्च यथा प्रधानाः ॥ ७ ॥

मूलम्

ततस्तु सर्वे सुहृदो नृपस्य
समाजग्मुः सहिता मन्त्रिणश्च ।
द्रष्टुं विवाहं परमप्रतीता
द्विजाश्च पौराश्च यथा प्रधानाः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् राजाके सभी सुहृद्-सम्बन्धी, मन्त्री, ब्राह्मण और पुरवासी अत्यन्त प्रसन्न हो विवाह देखनेके लिये आये और बड़ोंको आगे करके बैठे॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽस्य वेश्माग्र्यजनोपशोभितं
विस्तीर्णपद्मोत्पलभूषिताजिरम् ।
बलौघरत्नौघविचित्रमाबभौ
नभो यथा निर्मलतारकान्वितम् ॥ ८ ॥

मूलम्

ततोऽस्य वेश्माग्र्यजनोपशोभितं
विस्तीर्णपद्मोत्पलभूषिताजिरम् ।
बलौघरत्नौघविचित्रमाबभौ
नभो यथा निर्मलतारकान्वितम् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर राजा द्रुपदका वह भवन श्रेष्ठ पुरुषोंसे सुशोभित होने लगा। उसके आँगनको विस्तृत कमल और उत्पल आदिसे सजाया गया था। वहाँ एक ओर सेनाएँ खड़ी थीं और दूसरी ओर रत्नोंका ढेर लगा था। इससे वह राजभवन निर्मल तारकाओंसे संयुक्त आकाशकी भाँति विचित्र शोभा धारण कर रहा था॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तु ते कौरवराजपुत्रा
विभूषिताः कुण्डलिनो युवानः ।
महार्हवस्त्राम्बरचन्दनोक्षिताः
कृताभिषेकाः कृतमङ्गलक्रियाः ॥ ९ ॥

मूलम्

ततस्तु ते कौरवराजपुत्रा
विभूषिताः कुण्डलिनो युवानः ।
महार्हवस्त्राम्बरचन्दनोक्षिताः
कृताभिषेकाः कृतमङ्गलक्रियाः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इधर युवावस्थासे सम्पन्न कौरव-राजकुमार पाण्डव वस्त्राभूषणोंसे विभूषित और कुण्डलोंसे अलंकृत हो अभिषेक और मंगलाचार करके बहुमूल्य कपड़ों एवं केसर, चन्दनसे सुशोभित हुए॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुरोहितेनाग्निसमानवर्चसा
सहैव धौम्येन यथाविधि प्रभो।
क्रमेण सर्वे विविशुस्ततः सदो
महर्षभा गोष्ठमिवाभिनन्दिनः ॥ १० ॥

मूलम्

पुरोहितेनाग्निसमानवर्चसा
सहैव धौम्येन यथाविधि प्रभो।
क्रमेण सर्वे विविशुस्ततः सदो
महर्षभा गोष्ठमिवाभिनन्दिनः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब अग्निके समान तेजस्वी अपने पुरोहित धौम्यजीके साथ विधिपूर्वक बड़े-छोटेके क्रमसे वे सभी प्रसन्नतापूर्वक विवाहमण्डपमें गये—ठीक उसी तरह, जैसे बड़े-बड़े साँड गोशालामें प्रवेश करें॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः समाधाय स वेदपारगो
जुहाव मन्त्रैर्ज्वलितं हुताशनम् ।
युधिष्ठिरं चाप्युपनीय मन्त्रवि-
न्नियोजयामास सहैव कृष्णया ॥ ११ ॥

मूलम्

ततः समाधाय स वेदपारगो
जुहाव मन्त्रैर्ज्वलितं हुताशनम् ।
युधिष्ठिरं चाप्युपनीय मन्त्रवि-
न्नियोजयामास सहैव कृष्णया ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् वेदके पारंगत विद्वान् मन्त्रज्ञ पुरोहित धौम्यने (वेदीपर) प्रज्वलित अग्निकी स्थापना करके उसमें मन्त्रोंद्वारा आहुति दी और युधिष्ठिरको बुलाकर कृष्णाके साथ उनका गँठबन्धन कर दिया॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रदक्षिणं तौ प्रगृहीतपाणी
समानयामास स वेदपारगः ।
ततोऽभ्यनुज्ञाय तमाजिशोभिनं
पुरोहितो राजगृहाद् विनिर्ययौ ॥ १२ ॥

मूलम्

प्रदक्षिणं तौ प्रगृहीतपाणी
समानयामास स वेदपारगः ।
ततोऽभ्यनुज्ञाय तमाजिशोभिनं
पुरोहितो राजगृहाद् विनिर्ययौ ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वेदोंके परिपूर्ण विद्वान् पुरोहितने उन दोनों दम्पतिका पाणिग्रहण कराकर उनसे अग्निकी परिक्रमा करवायी, फिर (अन्य शास्त्रोक्त विधियोंका अनुष्ठान करके) उनका विवाहकार्य सम्पन्न कर दिया। इसके बाद संग्राममें शोभा पानेवाले युधिष्ठिरको छुट्टी देकर पुरोहितजी भी उस राजभवनसे बाहर चले गये॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्रमेण चानेन नराधिपात्मजा
वरस्त्रियस्ते जगृहुस्तदा करम् ।
अहन्यहन्युत्तमरूपधारिणो
महारथाः कौरववंशवर्धनाः ॥ १३ ॥

मूलम्

क्रमेण चानेन नराधिपात्मजा
वरस्त्रियस्ते जगृहुस्तदा करम् ।
अहन्यहन्युत्तमरूपधारिणो
महारथाः कौरववंशवर्धनाः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी क्रमसे कौरव-कुलकी वृद्धि करनेवाले, उत्तम शोभा धारण करनेवाले महारथी राजकुमार पाण्डवोंने एक-एक दिन परम सुन्दरी द्रौपदीका पाणिग्रहण किया॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इदं च तत्राद्भुतरूपमुत्तमं
जगाद देवर्षिरतीतमानुषम् ।
महानुभावा किल सा सुमध्यमा
बभूव कन्यैव गते गतेऽहनि ॥ १४ ॥

मूलम्

इदं च तत्राद्भुतरूपमुत्तमं
जगाद देवर्षिरतीतमानुषम् ।
महानुभावा किल सा सुमध्यमा
बभूव कन्यैव गते गतेऽहनि ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवर्षिने वहाँ घटित हुई इस अद्भुत, उत्तम एवं अलौकिक घटनाका वर्णन किया है कि सुन्दर कटिप्रदेशवाली महानुभावा द्रौपदी प्रतिवार विवाहके दूसरे दिन कन्याभावको ही प्राप्त हो जाती थी॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृते विवाहे द्रुपदो धनं ददौ
महारथेभ्यो बहुरूपमुत्तमम् ।
शतं रथानां वरहेममालिनां
चतुर्युजां हेमखलीनमालिनाम् ॥ १५ ॥

मूलम्

कृते विवाहे द्रुपदो धनं ददौ
महारथेभ्यो बहुरूपमुत्तमम् ।
शतं रथानां वरहेममालिनां
चतुर्युजां हेमखलीनमालिनाम् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विवाह-कार्य सम्पन्न हो जानेपर द्रुपदने महारथी पाण्डवोंको दहेजमें बहुत-सा धन और नाना प्रकारकी उत्तम वस्तुएँ समर्पित कीं। सुन्दर सुवर्णकी मालाओं और सुवर्णजटित जुओंसे सुशोभित सौ रथ प्रदान किये, जिनमें चार-चार घोड़े जुते हुए थे॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शतं गजानामपि पद्मिनां तथा
शतं गिरीणामिव हेमशृङ्गिणाम् ।
तथैव दासीशतमग्र्ययौवनं
महार्हवेषाभरणाम्बरस्रजम् ॥ १६ ॥

मूलम्

शतं गजानामपि पद्मिनां तथा
शतं गिरीणामिव हेमशृङ्गिणाम् ।
तथैव दासीशतमग्र्ययौवनं
महार्हवेषाभरणाम्बरस्रजम् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पद्म आदि उत्तम लक्षणोंसे युक्त सौ हाथी तथा पर्वतोंके समान ऊँचे और सुनहरे हौदोंसे सुशोभित सौ हाथी और (साथ ही) बहुमूल्य शृंगार-सामग्री, वस्त्राभूषण एवं हार धारण करनेवाली एक सौ नवयौवना दासियाँ भी भेंट कीं॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पृथक् पृथग् दिव्यदृशां पुनर्ददौ
तदा धनं सौमकिरग्निसाक्षिकम् ।
तथैव वस्त्राणि विभूषणानि
प्रभावयुक्तानि महानुभावः ॥ १७ ॥

मूलम्

पृथक् पृथग् दिव्यदृशां पुनर्ददौ
तदा धनं सौमकिरग्निसाक्षिकम् ।
तथैव वस्त्राणि विभूषणानि
प्रभावयुक्तानि महानुभावः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सोमकवंशमें उत्पन्न महानुभाव राजा द्रुपदने इस प्रकार अग्निको साक्षी बनाकर प्रत्येक सुन्दर दृष्टिवाले पाण्डवोंके लिये अलग-अलग प्रचुर धन तथा प्रभुत्व-सूचक बहुमूल्य वस्त्र और आभूषण अर्पित किये॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृते विवाहे च ततस्तु पाण्डवाः
प्रभूतरत्नामुपलभ्य तां श्रियम् ।
विजह्रुरिन्द्रप्रतिमा महाबलाः
पुरे तु पाञ्चालनृपस्य तस्य ह ॥ १८ ॥

मूलम्

कृते विवाहे च ततस्तु पाण्डवाः
प्रभूतरत्नामुपलभ्य तां श्रियम् ।
विजह्रुरिन्द्रप्रतिमा महाबलाः
पुरे तु पाञ्चालनृपस्य तस्य ह ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विवाहके पश्चात् इन्द्रके समान महाबली पाण्डव प्रचुर रत्नराशिके साथ लक्ष्मीस्वरूपा द्रौपदीको पाकर पांचालराज द्रुपदके ही नगरमें सुखपूर्वक विहार करने लगे॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(सर्वेऽप्यतुष्यन् नृप पाण्डवेया-
स्तस्याः शुभैः शीलसमाधिवृत्तैः ।
सा चाप्येषा याज्ञसेनी तदानीं
विवर्धयामास मुदं स्वसुव्रतैः ॥)

मूलम्

(सर्वेऽप्यतुष्यन् नृप पाण्डवेया-
स्तस्याः शुभैः शीलसमाधिवृत्तैः ।
सा चाप्येषा याज्ञसेनी तदानीं
विवर्धयामास मुदं स्वसुव्रतैः ॥)

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! सभी पाण्डव द्रौपदीकी सुशीलता, एकाग्रता और सद्व्यवहारसे बहुत संतुष्ट थे (और द्रौपदीको भी संतुष्ट रखनेका प्रयत्न करते थे)। इसी प्रकार द्रुपदकुमारी कृष्णा भी उस समय अपने उत्तम नियमोंद्वारा पाण्डवोंका आनन्द बढ़ाती थी।

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि वैवाहिकपर्वणि द्रौपदीविवाहे सप्तनवत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १९७ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत वैवाहिकपर्वमें द्रौपदीविवाहविषयक एक सौ सत्तानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१९७॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठका १ श्लोक मिलाकर कुल १९ श्लोक हैं)