१९६ इन्द्रसेना-कथा

श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना

षण्णवत्यधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

व्यासजीका द्रुपदको पाण्डवों तथा द्रौपदीके पूर्वजन्मकी कथा सुनाकर दिव्य दृष्टि देना और द्रुपदका उनके दिव्य रूपोंकी झाँकी करना

मूलम् (वचनम्)

व्यास उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुरा वै नैमिषारण्ये देवाः सत्रमुपासते।
तत्र वैवस्वतो राजञ्शामित्रमकरोत् तदा ॥ १ ॥

मूलम्

पुरा वै नैमिषारण्ये देवाः सत्रमुपासते।
तत्र वैवस्वतो राजञ्शामित्रमकरोत् तदा ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

व्यासजीने कहा— पांचालनरेश! पूर्व कालकी बात है, नैमिषारण्य क्षेत्रमें देवता लोग एक यज्ञ कर रहे थे। उस समय वहाँ सूर्यपुत्र यम शामित्र (यज्ञ)-कार्य करते थे॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो यमो दीक्षितस्तत्र राजन्
नामारयत् कंचिदपि प्रजानाम् ।
ततः प्रजास्ता बहुला बभूवुः
कालातिपातान्मरणप्रहीणाः ॥ २ ॥

मूलम्

ततो यमो दीक्षितस्तत्र राजन्
नामारयत् कंचिदपि प्रजानाम् ।
ततः प्रजास्ता बहुला बभूवुः
कालातिपातान्मरणप्रहीणाः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! उस यज्ञकी दीक्षा लेनेके कारण यमराजने मानवप्रजाकी मृत्युका काम बंद कर रखा था। इस प्रकार मृत्युका नियत समय बीत जानेसे सारी प्रजा अमर होकर दिनों-दिन बढ़ने लगी। धीरे-धीरे उसकी संख्या बहुत बढ़ गयी॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोमश्च शक्रो वरुणः कुबेरः
साध्या रुद्रा वसवोऽथाश्विनौ च।
प्रजापतिर्भुवनस्य प्रणेता
समाजग्मुस्तत्र देवास्तथान्ये ॥ ३ ॥
ततोऽब्रुवन् लोकगुरुं समेता
भयात् तीव्रान्मानुषाणां च वृद्ध्या।
तस्माद् भयादुद्विजन्तः सुखेप्सवः
प्रयाम सर्वे शरणं भवन्तम् ॥ ४ ॥

मूलम्

सोमश्च शक्रो वरुणः कुबेरः
साध्या रुद्रा वसवोऽथाश्विनौ च।
प्रजापतिर्भुवनस्य प्रणेता
समाजग्मुस्तत्र देवास्तथान्ये ॥ ३ ॥
ततोऽब्रुवन् लोकगुरुं समेता
भयात् तीव्रान्मानुषाणां च वृद्ध्या।
तस्माद् भयादुद्विजन्तः सुखेप्सवः
प्रयाम सर्वे शरणं भवन्तम् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

चन्द्रमा, इन्द्र, वरुण, कुबेर, साध्यगण, रुद्रगण, वसुगण, दोनों अश्विनीकुमार तथा अन्य सब देवता मिलकर जहाँ सृष्टिकर्ता प्रजापति ब्रह्माजी रहते थे, वहाँ गये। वहाँ जाकर वे सब देवता लोकगुरु ब्रह्माजीसे बोले—‘भगवन्! मनुष्योंकी संख्या बहुत बढ़ रही है। इससे हमें बड़ा भय लगता है। उस भयसे हम सबलोग व्याकुल हो उठे हैं और सुख पानेकी इच्छासे आपकी शरणमें आये हैं’॥३-४॥

मूलम् (वचनम्)

पितामह उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

किं वो भयं मानुषेभ्यो यूयं सर्वे यदामराः।
मा वो मर्त्यसकाशाद् वै भयं भवितुमर्हति ॥ ५ ॥

मूलम्

किं वो भयं मानुषेभ्यो यूयं सर्वे यदामराः।
मा वो मर्त्यसकाशाद् वै भयं भवितुमर्हति ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्माजीने कहा— तुम्हें मनुष्योंसे क्यों भय लगता है? जबकि तुम सभी लोग अमर हो, तब तुम्हें मरणधर्मा मनुष्योंसे कभी भयभीत नहीं होना चाहिये॥५॥

मूलम् (वचनम्)

देवा ऊचुः

विश्वास-प्रस्तुतिः

मर्त्या अमर्त्याः संवृत्ता न विशेषोऽस्ति कश्चन।
अविशेषादुद्विजन्तो विशेषार्थमिहागताः ॥ ६ ॥

मूलम्

मर्त्या अमर्त्याः संवृत्ता न विशेषोऽस्ति कश्चन।
अविशेषादुद्विजन्तो विशेषार्थमिहागताः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवता बोले— जो मरणशील थे, वे अमर हो गये। अब हममें और उनमें कोई अन्तर नहीं रह गया। यह अन्तर मिट जानेसे ही हमें अधिक घबराहट हो रही है। हमारी विशेषता बनी रहे, इसीलिये हम यहाँ आये हैं॥६॥

मूलम् (वचनम्)

श्रीभगवानुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

वैवस्वतो व्यापृतः सत्रहेतो-
स्तेन त्विमे न म्रियन्ते मनुष्याः।
तस्मिन्नेकाग्रे कृतसर्वकार्ये
तत एषां भवितैवान्तकालः ॥ ७ ॥
वैवस्वतस्यैव तनुर्विभक्ता
वीर्येण युष्माकमुत प्रयुक्ता ।
सैषामन्तो भविता ह्यन्तकाले
न तत्र वीर्यं भविता नरेषु ॥ ८ ॥

मूलम्

वैवस्वतो व्यापृतः सत्रहेतो-
स्तेन त्विमे न म्रियन्ते मनुष्याः।
तस्मिन्नेकाग्रे कृतसर्वकार्ये
तत एषां भवितैवान्तकालः ॥ ७ ॥
वैवस्वतस्यैव तनुर्विभक्ता
वीर्येण युष्माकमुत प्रयुक्ता ।
सैषामन्तो भविता ह्यन्तकाले
न तत्र वीर्यं भविता नरेषु ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् ब्रह्माजीने कहा— सूर्यपुत्र यमराज यज्ञके कार्यमें लगे हैं, इसीलिये ये मनुष्य मर नहीं रहे हैं। जब वे यज्ञका सारा काम पूरा करके इधर ध्यान देंगे, तब इन मनुष्योंका अन्तकाल उपस्थित होगा। तुमलोगोंके बलके प्रभावसे जब सूर्यनन्दन यमराजका शरीर यज्ञकार्यसे अलग होकर अपने कार्यमें प्रयुक्त होगा, तब वही अन्तकाल आनेपर मनुष्योंकी मृत्युका कारण बनेगा। उस समय मनुष्योंमें इतनी शक्ति नहीं होगी कि वे मृत्युसे अपनेको बचा सकें॥७-८॥

मूलम् (वचनम्)

व्यास उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तु ते पूर्वजदेववाक्यं
श्रुत्वा जग्मुर्यत्र देवा यजन्ते।
समासीनास्ते समेता महाबला
भागीरथ्यां ददृशुः पुण्डरीकम् ॥ ९ ॥

मूलम्

ततस्तु ते पूर्वजदेववाक्यं
श्रुत्वा जग्मुर्यत्र देवा यजन्ते।
समासीनास्ते समेता महाबला
भागीरथ्यां ददृशुः पुण्डरीकम् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

व्यासजी कहते हैं— राजन्! तब वे अपने पूर्वज देवता ब्रह्माजीका वचन सुनकर फिर वहीं चले गये, जहाँ सब देवता यज्ञ कर रहे थे। एक दिन वे सभी महाबली देवगण गंगाजीमें स्नान करनेके लिये गये और वहाँ तटपर बैठे। उसी समय उन्हें भागीरथीके जलमें बहता हुआ एक कमल दिखायी दिया॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दृष्ट्‌वा च तद् विस्मितास्ते बभूवु-
स्तेषामिन्द्रस्तत्र शूरो जगाम ।
सोऽपश्यद् योषामथ पावकप्रभां
यत्र देवी गङ्गा सततं प्रसूता ॥ १० ॥

मूलम्

दृष्ट्‌वा च तद् विस्मितास्ते बभूवु-
स्तेषामिन्द्रस्तत्र शूरो जगाम ।
सोऽपश्यद् योषामथ पावकप्रभां
यत्र देवी गङ्गा सततं प्रसूता ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसे देखकर वे सब देवता चकित हो गये। उनमें सबसे प्रधान और शूरवीर इन्द्र उस कमलका पता लगानेके लिये गंगाजीके मूल-स्थानकी ओर गये। गंगोत्तरीके पास, जहाँ गंगादेवीका जल सदा अविच्छिन्नरूपसे झरता रहता है, पहुँचकर इन्द्रने एक अग्निके समान तेजस्विनी युवती देखी॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा तत्र योषा रुदती जलार्थिनी
गङ्गां देवीं व्यवगाह्य व्यतिष्ठत्।
तस्याश्रुबिन्दुः पतितो जले य-
स्तत् पद्ममासीदथ तत्र काञ्चनम् ॥ ११ ॥

मूलम्

सा तत्र योषा रुदती जलार्थिनी
गङ्गां देवीं व्यवगाह्य व्यतिष्ठत्।
तस्याश्रुबिन्दुः पतितो जले य-
स्तत् पद्ममासीदथ तत्र काञ्चनम् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह युवती वहाँ जलके लिये आयी थी और भगवती गंगाकी धारामें प्रवेश करके रोती हुई खड़ी थी। उसके आँसुओंका एक-एक बिन्दु, जो जलमें गिरता था, वहाँ सुवर्णमय कमल बन जाता था॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदद्भुतं प्रेक्ष्य वज्री तदानी-
मपृच्छत् तां योषितमन्तिकाद् वै।
का त्वं भद्रे रोदिषि कस्य हेतो-
र्वाक्यं तथ्यं कामयेऽहं ब्रवीहि ॥ १२ ॥

मूलम्

तदद्भुतं प्रेक्ष्य वज्री तदानी-
मपृच्छत् तां योषितमन्तिकाद् वै।
का त्वं भद्रे रोदिषि कस्य हेतो-
र्वाक्यं तथ्यं कामयेऽहं ब्रवीहि ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह अद्भुत दृश्य देखकर वज्रधारी इन्द्रने उस समय उस युवतीके निकट जाकर पूछा—‘भद्रे! तुम कौन हो और किसलिये रोती हो? बताओ, मैं तुमसे सच्ची बात जानना चाहता हूँ’॥१२॥

मूलम् (वचनम्)

स्त्र्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वं वेत्स्यसे मामिह यास्मि शक्र
यदर्थं चाहं रोदिमि मन्दभाग्या।
आगच्छ राजन् पुरतो गमिष्ये
द्रष्टासि तद् रोदिमि यत्कृतेऽहम् ॥ १३ ॥

मूलम्

त्वं वेत्स्यसे मामिह यास्मि शक्र
यदर्थं चाहं रोदिमि मन्दभाग्या।
आगच्छ राजन् पुरतो गमिष्ये
द्रष्टासि तद् रोदिमि यत्कृतेऽहम् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युवती बोली— देवराज इन्द्र! मैं एक भाग्यहीन अबला हूँ; कौन हूँ और किसलिये रो रही हूँ, यह सब तुम्हें ज्ञात हो जायगा। तुम मेरे पीछे-पीछे आओ, मैं आगे-आगे चल रही हूँ। वहाँ चलकर स्वयं ही देख लोगे कि मैं किसलिये रोती हूँ॥१३॥

मूलम् (वचनम्)

व्यास उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तां गच्छन्तीमन्वगच्छत् तदानीं
सोऽपश्यदारात् तरुणं दर्शनीयम् ।
सिद्धासनस्थं युवतीसहायं
क्रीडन्तमैक्षद् गिरिराजमूर्ध्नि ॥ १४ ॥

मूलम्

तां गच्छन्तीमन्वगच्छत् तदानीं
सोऽपश्यदारात् तरुणं दर्शनीयम् ।
सिद्धासनस्थं युवतीसहायं
क्रीडन्तमैक्षद् गिरिराजमूर्ध्नि ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

व्यासजी कहते हैं— राजन्! यों कहकर आगे-आगे जाती हुई उस स्त्रीके पीछे-पीछे उस समय इन्द्र भी गये। गिरिराज हिमालयके शिखरपर पहुँचकर उन्होंने देखा—पास ही एक परम सुन्दर तरुण पुरुष सिद्धासनसे बैठे हैं, उनके साथ एक युवती भी है। इन्द्रने उस युवतीके साथ उन्हें क्रीड़ा-विनोद करते देखा॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमब्रवीद् देवराजो ममेदं
त्वं विद्धि विद्वन् भुवनं वशे स्थितम्।
ईशोऽहमस्मीति समन्युरब्रवीद्
दृष्ट्‌वा तमक्षैः सुभृशं प्रमत्तम् ॥ १५ ॥

मूलम्

तमब्रवीद् देवराजो ममेदं
त्वं विद्धि विद्वन् भुवनं वशे स्थितम्।
ईशोऽहमस्मीति समन्युरब्रवीद्
दृष्ट्‌वा तमक्षैः सुभृशं प्रमत्तम् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे अपनी सम्पूर्ण इन्द्रियोंसे क्रीड़ामें अत्यन्त तन्मय हो रहे थे, अतः इधर-उधर उनका ध्यान नहीं जाता था। उन्हें इस प्रकार असावधान देख देवराज इन्द्रने कुपित होकर कहा—‘महानुभाव! यह सारा जगत् मेरे अधिकारमें है, मेरी आज्ञाके अधीन है; मैं इस जगत्‌का ईश्वर हूँ’॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्रुद्धं च शक्रं प्रसमीक्ष्य देवो
जहास शक्रं च शनैरुदैक्षत।
संस्तम्भितोऽभूदथ देवराज-
स्तेनेक्षितः स्थाणुरिवावतस्थे ॥ १६ ॥

मूलम्

क्रुद्धं च शक्रं प्रसमीक्ष्य देवो
जहास शक्रं च शनैरुदैक्षत।
संस्तम्भितोऽभूदथ देवराज-
स्तेनेक्षितः स्थाणुरिवावतस्थे ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्रको क्रोधमें भरा देख वे देवपुरुष हँस पड़े। उन्होंने धीरेसे आँख उठाकर उनकी ओर देखा। उनकी दृष्टि पड़ते ही देवराज इन्द्रका शरीर स्तम्भित हो गया (अकड़ गया)। वे ठूँठे काठकी भाँति निश्चेष्ट हो गये॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदा तु पर्याप्तमिहास्य क्रीडया
तदा देवीं रुदतीं तामुवाच।
आनीयतामेष यतोऽहमारा-
न्नैनं दर्पः पुनरप्याविशेत ॥ १७ ॥

मूलम्

यदा तु पर्याप्तमिहास्य क्रीडया
तदा देवीं रुदतीं तामुवाच।
आनीयतामेष यतोऽहमारा-
न्नैनं दर्पः पुनरप्याविशेत ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब उनकी वह क्रीड़ा समाप्त हुई, तब वे उस रोती हुई देवीसे बोले—‘इस इन्द्रको जहाँ मैं हूँ, यहीं—मेरे समीप ले आओ, जिससे फिर इसके भीतर अभिमानका प्रवेश न हो’॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः शक्रः स्पृष्टमात्रस्तया तु
स्रस्तैरङ्गैः पतितोऽभूद् धरण्याम् ।
तमब्रवीद् भगवानुग्रतेजा
मैवं पुनः शक्र कृथाः कथंचित् ॥ १८ ॥

मूलम्

ततः शक्रः स्पृष्टमात्रस्तया तु
स्रस्तैरङ्गैः पतितोऽभूद् धरण्याम् ।
तमब्रवीद् भगवानुग्रतेजा
मैवं पुनः शक्र कृथाः कथंचित् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर उस स्त्रीने ज्यों ही इन्द्रका स्पर्श किया, उनके सारे अंग शिथिल हो गये और वे धरतीपर गिर पड़े। तब उग्र तेजस्वी भगवान् रुद्रने उनसे कहा—‘इन्द्र! फिर किसी प्रकार भी ऐसा घमंड न करना॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निवर्तयैनं च महाद्रिराजं
बलं च वीर्यं च तवाप्रमेयम्।
छिद्रस्य चैवाविश मध्यमस्य
यत्रासते त्वद्विधाः सूर्यभासः ॥ १९ ॥

मूलम्

निवर्तयैनं च महाद्रिराजं
बलं च वीर्यं च तवाप्रमेयम्।
छिद्रस्य चैवाविश मध्यमस्य
यत्रासते त्वद्विधाः सूर्यभासः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुममें अनन्त बल और पराक्रम है, अतः इस गुफाके दरवाजेपर लगे हुए इस महान् पर्वतराजको हटा दो और इसी गुफाके भीतर घुस जाओ, जहाँ सूर्यके समान तेजस्वी तुम्हारे-जैसे और भी इन्द्र रहते हैं’॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तद् विवृत्य विवरं महागिरे-
स्तुल्यद्युतींश्चतुरोऽन्यान् ददर्श ।
स तानभिप्रेक्ष्य बभूव दुःखितः
कच्चिन्नाहं भविता वै यथेमे ॥ २० ॥

मूलम्

स तद् विवृत्य विवरं महागिरे-
स्तुल्यद्युतींश्चतुरोऽन्यान् ददर्श ।
स तानभिप्रेक्ष्य बभूव दुःखितः
कच्चिन्नाहं भविता वै यथेमे ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने उस महान् पर्वतकी कन्दराका द्वार खोलकर उसमें अपने ही समान तेजस्वी अन्य चार इन्द्रोंको भी देखा। उन्हें देखकर वे बहुत दुखी हुए और सोचने लगे—‘कहीं ऐसा तो नहीं होगा कि मैं भी इन्हींके समान दुर्दशामें पड़ जाऊँ’॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो देवो गिरिशो वज्रपाणिं
विवृत्य नेत्रे कुपितोऽभ्युवाच ।
दरीमेतां प्रविश त्वं शतक्रतो
यन्मां बाल्यादवमंस्थाः पुरस्तात् ॥ २१ ॥

मूलम्

ततो देवो गिरिशो वज्रपाणिं
विवृत्य नेत्रे कुपितोऽभ्युवाच ।
दरीमेतां प्रविश त्वं शतक्रतो
यन्मां बाल्यादवमंस्थाः पुरस्तात् ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब पर्वतपर शयन करनेवाले महादेवजीने आँखें तरेरकर कुपित हो वज्रधारी इन्द्रसे कहा—‘शतक्रतो! तुमने मूर्खतावश पहले मेरा अपमान किया है, इसलिये अब इस कन्दरामें प्रवेश करो’॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उक्तस्त्वेवं विभुना देवराजः
प्रावेपतार्तो भृशमेवाभिषङ्गात् ।
स्रस्तैरङ्गैरनिलेनेव नुन्न-
मश्वत्थपत्रं गिरिराजमूर्ध्नि ॥ २२ ॥

मूलम्

उक्तस्त्वेवं विभुना देवराजः
प्रावेपतार्तो भृशमेवाभिषङ्गात् ।
स्रस्तैरङ्गैरनिलेनेव नुन्न-
मश्वत्थपत्रं गिरिराजमूर्ध्नि ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस पर्वत-शिखरपर भगवान् रुद्रके यों कहनेपर देवराज इन्द्र पराभवकी आशंकासे अत्यन्त दुःखी हो गये, उनके सारे अंग शिथिल पड़ गये और हवासे हिलनेवाले पीपलके पत्तेकी तरह वे थर-थर काँपने लगे॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स प्राञ्जलिर्वै वृषवाहनेन
प्रवेपमानः सहसैवमुक्तः ।
उवाच देवं बहुरूपमुग्र-
स्रष्टाशेषस्य भुवनस्य त्वं भवाद्यः ॥ २३ ॥

मूलम्

स प्राञ्जलिर्वै वृषवाहनेन
प्रवेपमानः सहसैवमुक्तः ।
उवाच देवं बहुरूपमुग्र-
स्रष्टाशेषस्य भुवनस्य त्वं भवाद्यः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वृषभवाहन भगवान् शंकरके द्वारा इस प्रकार सहसा गुहाप्रवेशकी आज्ञा मिलनेपर काँपते हुए इन्द्रने हाथ जोड़कर उन अनेक रूपधारी उग्रस्वरूप रुद्रदेवसे कहा—‘जगद्योने! आप ही समस्त जगत्‌की उत्पत्ति करनेवाले आदिपुरुष हैं’॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमब्रवीदुग्रवर्चाः प्रहस्य
नैवंशीलाः शेषमिहाप्नुवन्ति ।
एतेऽप्येवं भवितारः पुरस्तात्
तस्मादेतां दरीमाविश्य शेष्व ॥ २४ ॥

मूलम्

तमब्रवीदुग्रवर्चाः प्रहस्य
नैवंशीलाः शेषमिहाप्नुवन्ति ।
एतेऽप्येवं भवितारः पुरस्तात्
तस्मादेतां दरीमाविश्य शेष्व ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब भयंकर तेजवाले रुद्रने हँसकर कहा—‘तुम्हारे-जैसे शील-स्वभाववाले लोगोंको यहाँ प्रसादकी प्राप्ति नहीं होती। ये लोग भी पहले तुम्हारेही-जैसे थे, अतः तुम भी इस कन्दरामें घुसकर शयन करो॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र ह्येवं भवितारो न संशयो
योनिं सर्वे मानुषीमाविशध्वम् ।
तत्र यूयं कर्म कृत्वाविषह्यं
बहूनन्यान् निधनं प्रापयित्वा ॥ २५ ॥
आगन्तारः पुनरेवेन्द्रलोकं
स्वकर्मणा पूर्वजितं महार्हम् ।
सर्वं मया भाषितमेतदेवं
कर्तव्यमन्यद् विविधार्थयुक्तम् ॥ २६ ॥

मूलम्

तत्र ह्येवं भवितारो न संशयो
योनिं सर्वे मानुषीमाविशध्वम् ।
तत्र यूयं कर्म कृत्वाविषह्यं
बहूनन्यान् निधनं प्रापयित्वा ॥ २५ ॥
आगन्तारः पुनरेवेन्द्रलोकं
स्वकर्मणा पूर्वजितं महार्हम् ।
सर्वं मया भाषितमेतदेवं
कर्तव्यमन्यद् विविधार्थयुक्तम् ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वहाँ भविष्यमें निश्चय ही तुमलोग ऐसे ही होनेवाले हो—तुम सबको मनुष्ययोनिमें प्रवेश करना पड़ेगा। उस जन्ममें तुम अनेक दुःसह कर्म करके बहुतोंको मौतके घाट उतारकर पुनः अपने शुभ कर्मोंद्वारा पहलेसे ही उपार्जित पुण्यात्माओंके निवासयोग्य इन्द्रलोकमें आ जाओगे। मैंने जो कुछ कहा है, वह सब कुछ तुम्हें करना होगा। इसके सिवा और भी नाना प्रकारके प्रयोजनोंसे युक्त कार्य तुम्हारे द्वारा सम्पन्न होंगे’॥२५-२६॥

मूलम् (वचनम्)

पूर्वेन्द्रा ऊचुः

विश्वास-प्रस्तुतिः

गमिष्यामो मानुषं देवलोकाद्
दुराधरो विहितो यत्र मोक्षः।

मूलम्

गमिष्यामो मानुषं देवलोकाद्
दुराधरो विहितो यत्र मोक्षः।

सूचना (हिन्दी)

पाण्डव, द्रुपद और व्यासजीमें बातचीत

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवास्त्वस्मानादधीरञ्जनन्यां
धर्मो वायुर्मघवानश्विनौ च ।
अस्त्रैर्दिव्यैर्मानुषान् योधयित्वा
आगन्तारः पुनरेवेन्द्रलोकम् ॥ २७ ॥

मूलम्

देवास्त्वस्मानादधीरञ्जनन्यां
धर्मो वायुर्मघवानश्विनौ च ।
अस्त्रैर्दिव्यैर्मानुषान् योधयित्वा
आगन्तारः पुनरेवेन्द्रलोकम् ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पहलेके चारों इन्द्र बोले— भगवन्! हम आपकी आज्ञाके अनुसार देवलोकसे मनुष्यलोकमें जायँगे, जहाँ दुर्लभ मोक्षका साधन भी सुलभ होता है। परंतु वहाँ हमें धर्म, वायु, इन्द्र और दोनों अश्विनीकुमार—ये ही देवता माताके गर्भमें स्थापित करें। तदनन्तर हम दिव्यास्त्रोंद्वारा मानव-वीरोंसे युद्ध करके पुनः इन्द्रलोकमें चले आयेंगे॥२७॥

मूलम् (वचनम्)

व्यास उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतच्छ्रुत्वा वज्रपाणिर्वचस्तु
देवश्रेष्ठं पुनरेवेदमाह ।
वीर्येणाहं पुरुषं कार्यहेतो-
र्दद्यामेषां पञ्चमं मत्प्रसूतम् ॥ २८ ॥
विश्वभुग् भूतधामा च शिबिरिन्द्रः प्रतापवान्।
शान्तिश्चतुर्थस्तेषां वै तेजस्वी पञ्चमः स्मृतः ॥ २९ ॥

मूलम्

एतच्छ्रुत्वा वज्रपाणिर्वचस्तु
देवश्रेष्ठं पुनरेवेदमाह ।
वीर्येणाहं पुरुषं कार्यहेतो-
र्दद्यामेषां पञ्चमं मत्प्रसूतम् ॥ २८ ॥
विश्वभुग् भूतधामा च शिबिरिन्द्रः प्रतापवान्।
शान्तिश्चतुर्थस्तेषां वै तेजस्वी पञ्चमः स्मृतः ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

व्यासजी कहते हैं— राजन्! पूर्ववर्ती इन्द्रोंका यह वचन सुनकर वज्रधारी इन्द्रने पुनः देवश्रेष्ठ महादेवजीसे इस प्रकार कहा—‘भगवन्! मैं अपने वीर्यसे अपने ही अंशभूत पुरुषको देवताओंके कार्यके लिये समर्पित करूँगा, जो इन चारोंके साथ पाँचवाँ होगा। उसे मैं स्वयं ही उत्पन्न करूँगा। विश्वभुक्, भूतधामा, प्रतापी इन्द्र शिबि, चौथे शान्ति और पाँचवें तेजस्वी—ये ही उन पाँचोंके नाम हैं॥२८-२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेषां कामं भगवानुग्रधन्वा
प्रादादिष्टं संनिसर्गाद् यथोक्तम् ।
तां चाप्येषां योषितं लोककान्तां
श्रियं भार्यां व्यदधान्मानुषेषु ॥ ३० ॥

मूलम्

तेषां कामं भगवानुग्रधन्वा
प्रादादिष्टं संनिसर्गाद् यथोक्तम् ।
तां चाप्येषां योषितं लोककान्तां
श्रियं भार्यां व्यदधान्मानुषेषु ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उग्र धनुष धारण करनेवाले भगवान् रुद्रने उन सबको उनकी अभीष्ट कामना पूर्ण होनेका वरदान दिया, जिसे वे अपने साधुस्वभावके कारण भगवान्‌के सामने प्रकट कर चुके थे। साथ ही उस लोककमनीया युवती स्त्रीको, जो स्वर्गलोककी लक्ष्मी थी, मनुष्यलोकमें उनकी पत्नी निश्चित की॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तैरेव सार्धं तु ततः स देवो
जगाम नारायणमप्रमेयम् ।
अनन्तमव्यक्तमजं पुराणं
सनातनं विश्वमनन्तरूपम् ॥ ३१ ॥

मूलम्

तैरेव सार्धं तु ततः स देवो
जगाम नारायणमप्रमेयम् ।
अनन्तमव्यक्तमजं पुराणं
सनातनं विश्वमनन्तरूपम् ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर उन्हींके साथ महादेवजी अनन्त, अप्रमेय, अव्यक्त, अजन्मा, पुराणपुरुष, सनातन, विश्वरूप एवं अनन्तमूर्ति भगवान् नारायणके पास गये॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स चापि तद् व्यदधात् सर्वमेव
ततः सर्वे सम्बभूवुर्धरण्याम् ।
स चापि केशौ हरिरुद्बबर्ह
शुक्लमेकमपरं चापि कृष्णम् ॥ ३२ ॥

मूलम्

स चापि तद् व्यदधात् सर्वमेव
ततः सर्वे सम्बभूवुर्धरण्याम् ।
स चापि केशौ हरिरुद्बबर्ह
शुक्लमेकमपरं चापि कृष्णम् ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने भी उन्हीं सब बातोंके लिये आज्ञा दी। तत्पश्चात् वे सब लोग पृथ्वीपर प्रकट हुए। उस समय भगवान् नारायणने अपने मस्तकसे दो केश निकाले, जिनमें एक श्वेत था और दूसरा श्याम॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तौ चापि केशौ निविशेतां यदूनां
कुले स्त्रियौ देवकीं रोहिणीं च।
तयोरेको बलदेवो बभूव
योऽसौ श्वेतस्तस्य देवस्य केशः।
कृष्णो द्वितीयः केशवः सम्बभूव
केशो योऽसौ वर्णतः कृष्ण उक्तः ॥ ३३ ॥

मूलम्

तौ चापि केशौ निविशेतां यदूनां
कुले स्त्रियौ देवकीं रोहिणीं च।
तयोरेको बलदेवो बभूव
योऽसौ श्वेतस्तस्य देवस्य केशः।
कृष्णो द्वितीयः केशवः सम्बभूव
केशो योऽसौ वर्णतः कृष्ण उक्तः ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे दोनों केश यदुवंशकी दो स्त्रियों—देवकी तथा रोहिणीके भीतर प्रविष्ट हुए। उनमेंसे रोहिणीके बलदेव प्रकट हुए, जो भगवान् नारायणका श्वेत केश थे; दूसरा केश, जिसे श्यामवर्णका बताया गया है, वही देवकीके गर्भसे भगवान् श्रीकृष्णके रूपमें प्रकट हुआ1॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ये ते पूर्वं शक्ररूपा निबद्धा-
स्तस्यां दर्यां पर्वतस्योत्तरस्य ।
इहैव ते पाण्डवा वीर्यवन्तः
शक्रस्यांशः पाण्डवः सव्यसाची ॥ ३४ ॥

मूलम्

ये ते पूर्वं शक्ररूपा निबद्धा-
स्तस्यां दर्यां पर्वतस्योत्तरस्य ।
इहैव ते पाण्डवा वीर्यवन्तः
शक्रस्यांशः पाण्डवः सव्यसाची ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उत्तरवर्ती हिमालयकी कन्दरामें पहले जो इन्द्रस्वरूप पुरुष बंदी बनाकर रखे गये थे, वे ही चारों पराक्रमी पाण्डव यहाँ विद्यमान हैं और साक्षात् इन्द्रका अंशभूत जो पाँचवाँ पुरुष प्रकट होनेवाला था, वही पाण्डुकुमार सव्यसाची अर्जुन है॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमेते पाण्डवाः सम्बभूवु-
र्ये ते राजन् पूर्वमिन्द्रा बभूवुः।
लक्ष्मीश्चैषां पूर्वमेवोपदिष्टा
भार्या यैषा द्रौपदी दिव्यरूपा ॥ ३५ ॥
कथं हि स्त्री कर्मणा ते महीतलात्
समुत्तिष्ठेदन्यतो दैवयोगात् ।
यस्या रूपं सोमसूर्यप्रकाशं
गन्धश्चास्याः क्रोशमात्रात् प्रवाति ॥ ३६ ॥

मूलम्

एवमेते पाण्डवाः सम्बभूवु-
र्ये ते राजन् पूर्वमिन्द्रा बभूवुः।
लक्ष्मीश्चैषां पूर्वमेवोपदिष्टा
भार्या यैषा द्रौपदी दिव्यरूपा ॥ ३५ ॥
कथं हि स्त्री कर्मणा ते महीतलात्
समुत्तिष्ठेदन्यतो दैवयोगात् ।
यस्या रूपं सोमसूर्यप्रकाशं
गन्धश्चास्याः क्रोशमात्रात् प्रवाति ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! इस प्रकार ये पाण्डव प्रकट हुए हैं, जो पहले इन्द्र रह चुके हैं। यह दिव्यरूपा द्रौपदी वही स्वर्गलोककी लक्ष्मी है, जो पहलेसे ही इनकी पत्नी नियत हो चुकी है। महाराज! यदि इस कार्यमें देवताओंका सहयोग न होता तो तुम्हारे इस यज्ञकर्मद्वारा यज्ञवेदीकी भूमिसे ऐसी दिव्य नारी कैसे प्रकट हो सकती थी, जिसका रूप सूर्य और चन्द्रमाके समान प्रकाश बिखेर रहा है और जिसकी सुगन्ध एक कोसतक फैलती रहती है॥३५-३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इदं चान्यत् प्रीतिपूर्वं नरेन्द्र
ददानि ते वरमत्यद्भुतं च।
दिव्यं चक्षुः पश्य कुन्तीसुतांस्त्वं
पुण्यैर्दिव्यैः पूर्वदेहैरुपेतान् ॥ ३७ ॥

मूलम्

इदं चान्यत् प्रीतिपूर्वं नरेन्द्र
ददानि ते वरमत्यद्भुतं च।
दिव्यं चक्षुः पश्य कुन्तीसुतांस्त्वं
पुण्यैर्दिव्यैः पूर्वदेहैरुपेतान् ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेन्द्र! मैं तुम्हें प्रसन्नतापूर्वक एक और अद्भुत वरके रूपमें यह दिव्य दृष्टि देता हूँ; इससे सम्पन्न होकर तुम कुन्तीके पुत्रोंको उनके पूर्वकालिक पुण्यमय दिव्य शरीरोंसे सम्पन्न देखो॥३७॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो व्यासः परमोदारकर्मा
शुचिर्विप्रस्तपसा तस्य राज्ञः ।
चक्षुर्दिव्यं प्रददौ तांश्च सर्वान्
राजापश्यत् पूर्वदेहैर्यथावत् ॥ ३८ ॥

मूलम्

ततो व्यासः परमोदारकर्मा
शुचिर्विप्रस्तपसा तस्य राज्ञः ।
चक्षुर्दिव्यं प्रददौ तांश्च सर्वान्
राजापश्यत् पूर्वदेहैर्यथावत् ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! तदनन्तर परम उदारकर्मवाले पवित्र ब्रह्मर्षि व्यासजीने अपनी तपस्याके प्रभावसे राजा द्रुपदको दिव्य दृष्टि प्रदान की, जिससे उन्होंने समस्त पाण्डवोंको पूर्वशरीरोंसे सम्पन्न वास्तविक रूपमें देखा॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो दिव्यान् हेमकिरीटमालिनः
शक्रप्रख्यान् पावकादित्यवर्णान् ।
बद्धापीडांश्चारुरूपांश्च यूनो
व्यूढोरस्कांस्तालमात्रान् ददर्श ॥ ३९ ॥

मूलम्

ततो दिव्यान् हेमकिरीटमालिनः
शक्रप्रख्यान् पावकादित्यवर्णान् ।
बद्धापीडांश्चारुरूपांश्च यूनो
व्यूढोरस्कांस्तालमात्रान् ददर्श ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे दिव्य शरीरसे सुशोभित थे। उनके मस्तकपर सुवर्णमय किरीट और गलेमें सुन्दर सोनेकी माला शोभा पा रही थी। उनकी छबि इन्द्रके ही समान थी। वे अग्नि और सूर्यके समान कान्तिमान् थे। उन्होंने अपने अंगोंमें सब तरहके दिव्य अलंकार धारण कर रखे थे। उनकी युवावस्था थी तथा रूप अत्यन्त मनोहर था। उन सबकी छाती चौड़ी थी और वे तालवृक्षके समान लंबे थे। इस रूपमें राजा द्रुपदने उनका दर्शन किया॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिव्यैर्वस्त्रैररजोभिः सुगन्धै-
र्माल्यैश्चाग्र्यैः शोभमानानतीव ।
साक्षात् त्र्यक्षान् वा वसूंश्चापि रुद्रा-
नादित्यान् वा सर्वगुणोपपन्नान् ॥ ४० ॥

मूलम्

दिव्यैर्वस्त्रैररजोभिः सुगन्धै-
र्माल्यैश्चाग्र्यैः शोभमानानतीव ।
साक्षात् त्र्यक्षान् वा वसूंश्चापि रुद्रा-
नादित्यान् वा सर्वगुणोपपन्नान् ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे दिव्य निर्मल वस्त्रों, उत्तम गन्धों और सुन्दर मालाओंसे अत्यन्त सुशोभित हो रहे थे तथा साक्षात् त्रिनेत्र महादेव, वसुगण, रुद्रगण अथवा आदित्यगणोंके समान तेजस्वी एवं सर्वगुणसम्पन्न दिखायी देते थे॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तान् पूर्वेन्द्रानभिवीक्ष्याभिरूपान्
शक्रात्मजं चेन्द्ररूपं निशम्य ।
प्रीतो राजा द्रुपदो विस्मितश्च
दिव्यां मायां तामवेक्ष्याप्रमेयाम् ॥ ४१ ॥

मूलम्

तान् पूर्वेन्द्रानभिवीक्ष्याभिरूपान्
शक्रात्मजं चेन्द्ररूपं निशम्य ।
प्रीतो राजा द्रुपदो विस्मितश्च
दिव्यां मायां तामवेक्ष्याप्रमेयाम् ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

चारों पाण्डवोंको परम सुन्दर पूर्वकालिक इन्द्रोंके रूपमें तथा इन्द्रपुत्र अर्जुनको भी इन्द्रके ही स्वरूपमें देखकर उस अप्रमेय दिव्य मायापर दृष्टिपात करके राजा द्रुपद अत्यन्त प्रसन्न एवं आश्चर्यचकित हो उठे॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तां चैवाग्र्यां स्त्रियमतिरूपयुक्तां
दिव्यां साक्षात् सोमवह्निप्रकाशाम् ।
योग्यां तेषां रूपतेजोयशोभिः
पत्नीं मत्वा हृष्टवान् पार्थिवेन्द्रः ॥ ४२ ॥

मूलम्

तां चैवाग्र्यां स्त्रियमतिरूपयुक्तां
दिव्यां साक्षात् सोमवह्निप्रकाशाम् ।
योग्यां तेषां रूपतेजोयशोभिः
पत्नीं मत्वा हृष्टवान् पार्थिवेन्द्रः ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन राजराजेश्वरने अपनी पुत्रीको भी सर्वश्रेष्ठ सुन्दरी, अत्यन्त रूपवती और साक्षात् चन्द्रमा तथा अग्निके समान प्रकाशित होनेवाली दिव्य नारीके रूपमें देखा। साथ ही यह मान लिया कि द्रौपदी रूप, तेज और यशकी दृष्टिसे अवश्य उन पाण्डवोंकी पत्नी होनेयोग्य है। इससे उन्हें महान् हर्ष हुआ॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तद् दृष्ट््वा महदाश्चर्यरूपं
जग्राह पादौ सत्यवत्याः सुतस्य।
नैतच्चित्रं परमर्षे त्वयीति
प्रसन्नचेताः स उवाच चैनम् ॥ ४३ ॥

मूलम्

स तद् दृष्ट््वा महदाश्चर्यरूपं
जग्राह पादौ सत्यवत्याः सुतस्य।
नैतच्चित्रं परमर्षे त्वयीति
प्रसन्नचेताः स उवाच चैनम् ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह महान् आश्चर्य देखकर द्रुपदने सत्यवतीनन्दन व्यासजीके चरण पकड़ लिये और प्रसन्नचित्त होकर उनसे कहा—‘महर्षे! आपमें ऐसी अद्भुत शक्तिका होना आश्चर्यकी बात नहीं है।’ तब व्यासजी प्रसन्नचित्त हो द्रुपदसे बोले॥४३॥

मूलम् (वचनम्)

व्यास उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसीत् तपोवने काचिदृषेः कन्या महात्मनः।
नाध्यगच्छत् पतिं सा तु कन्या रूपवती सती ॥ ४४ ॥

मूलम्

आसीत् तपोवने काचिदृषेः कन्या महात्मनः।
नाध्यगच्छत् पतिं सा तु कन्या रूपवती सती ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

व्यासजीने कहा— राजन्! (अपनी पुत्रीके एक और जन्मका वृत्तान्त भी सुनो—) एक तपोवनमें किसी महात्मा मुनिकी कोई कन्या रहती थी। सती-साध्वी एवं रूपवती होनेपर भी उसे योग्य पतिकी प्राप्ति नहीं हुई॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तोषयामास तपसा सा किलोग्रेण शंकरम्।
तामुवाचेश्वरः प्रीतो वृणु काममिति स्वयम् ॥ ४५ ॥

मूलम्

तोषयामास तपसा सा किलोग्रेण शंकरम्।
तामुवाचेश्वरः प्रीतो वृणु काममिति स्वयम् ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसने कठोर तपस्याद्वारा भगवान् शंकरको संतुष्ट किया; महादेवजी प्रसन्न हो साक्षात् प्रकट होकर उस मुनि-कन्यासे बोले—‘तुम मनोवांछित वर माँगो’॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सैवमुक्ताब्रवीत् कन्या देवं वरदमीश्वरम्।
पतिं सर्वगुणोपेतमिच्छामीति पुनः पुनः ॥ ४६ ॥

मूलम्

सैवमुक्ताब्रवीत् कन्या देवं वरदमीश्वरम्।
पतिं सर्वगुणोपेतमिच्छामीति पुनः पुनः ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके यों कहनेपर उस मुनि-कन्याने वरदायक महेश्वरसे बार-बार कहा—‘मैं सर्वगुणसम्पन्न पति चाहती हूँ’॥४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ददौ तस्यै स देवेशस्तं वरं प्रीतमानसः।
पञ्च ते पतयो भद्रे भविष्यन्तीति शंकरः ॥ ४७ ॥

मूलम्

ददौ तस्यै स देवेशस्तं वरं प्रीतमानसः।
पञ्च ते पतयो भद्रे भविष्यन्तीति शंकरः ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवेश्वर भगवान् शंकर प्रसन्नचित्त होकर उसे वर देते हुए बोले—‘भद्रे! तुम्हारे पाँच पति होंगे’॥४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा प्रसादयती देवमिदं भूयोऽभ्यभाषत।
एकं पतिं गुणोपेतं त्वत्तोऽर्हामीति शंकर ॥ ४८ ॥

मूलम्

सा प्रसादयती देवमिदं भूयोऽभ्यभाषत।
एकं पतिं गुणोपेतं त्वत्तोऽर्हामीति शंकर ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह सुनकर उसने महादेवजीको प्रसन्न करते हुए पुनः यह बात कही—‘शंकरजी! मैं तो आपसे एक ही गुणवान् पति प्राप्त करना चाहती हूँ’॥४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तां देवदेवः प्रीतात्मा पुनः प्राह शुभं वचः।
पञ्चकृत्वस्त्वयोक्तोऽहं पतिं देहीति वै पुनः ॥ ४९ ॥
तत् तथा भविता भद्रे वचस्तद् भद्रमस्तु ते।
देहमन्यं गतायास्ते सर्वमेतद् भविष्यति ॥ ५० ॥

मूलम्

तां देवदेवः प्रीतात्मा पुनः प्राह शुभं वचः।
पञ्चकृत्वस्त्वयोक्तोऽहं पतिं देहीति वै पुनः ॥ ४९ ॥
तत् तथा भविता भद्रे वचस्तद् भद्रमस्तु ते।
देहमन्यं गतायास्ते सर्वमेतद् भविष्यति ॥ ५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब देवाधिदेव महादेवजीने मन-ही-मन अत्यन्त संतुष्ट होकर उससे यह शुभ वचन कहा—‘भद्रे! तुमने ‘पति दीजिये’ इस वाक्यको पाँच बार दुहराया है; इसलिये मैंने जो पहले कहा है, वैसा ही होगा, तुम्हारा कल्याण हो। किंतु तुम्हें दूसरे शरीरमें प्रवेश करनेपर यह सब होगा’॥४९-५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्रुपदैषा हि सा जज्ञे सुता वै देवरूपिणी।
पञ्चानां विहिता पत्नी कृष्णा पार्षत्यनिन्दिता ॥ ५१ ॥

मूलम्

द्रुपदैषा हि सा जज्ञे सुता वै देवरूपिणी।
पञ्चानां विहिता पत्नी कृष्णा पार्षत्यनिन्दिता ॥ ५१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्रुपद! वही मुनिकन्या तुम्हारी इस दिव्यरूपिणी पुत्रीके रूपमें फिर उत्पन्न हुई है। अतः यह पृषत-वंशकी सती कन्या कृष्णा पहलेसे ही पाँच पतियोंकी पत्नी नियत की गयी है॥५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वर्गश्रीः पाण्डवार्थं तु समुत्पन्ना महामखे।
सेह तप्त्वा तपो घोरं दुहितृत्वं तवागता ॥ ५२ ॥

मूलम्

स्वर्गश्रीः पाण्डवार्थं तु समुत्पन्ना महामखे।
सेह तप्त्वा तपो घोरं दुहितृत्वं तवागता ॥ ५२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह स्वर्गलोककी लक्ष्मी है, जो पाण्डवोंके लिये तुम्हारे महायज्ञमें प्रकट हुई है। इसने अत्यन्त घोर तपस्या करके इस जन्ममें तुम्हारी पुत्री होनेका सौभाग्य प्राप्त किया है॥५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सैषा देवी रुचिरा देवजुष्टा
पञ्चानामेका स्वकृतेनेह कर्मणा ।
सृष्टा स्वयं देवपत्नी स्वयम्भुवा
श्रुत्वा राजन् द्रुपदेष्टं कुरुष्व ॥ ५३ ॥

मूलम्

सैषा देवी रुचिरा देवजुष्टा
पञ्चानामेका स्वकृतेनेह कर्मणा ।
सृष्टा स्वयं देवपत्नी स्वयम्भुवा
श्रुत्वा राजन् द्रुपदेष्टं कुरुष्व ॥ ५३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज द्रुपद! वही यह देवसेवित सुन्दरी देवी अपने ही कर्मसे पाँच पुरुषोंकी एक ही पत्नी नियत की गयी है। स्वयं ब्रह्माजीने इसे देवस्वरूप पाण्डवोंकी पत्नी होनेके लिये रचा है। यह सब सुनकर तुम्हें जो अच्छा लगे, वह करो॥५३॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि वैवाहिकपर्वणि पञ्चेन्द्रोपाख्याने षण्णवत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १९६ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत वैवाहिकपर्वमें पाँच इन्द्रोंके उपाख्यानका वर्णन करनेवाला एक सौ छानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१९६॥


  1. भगवान् नारायण सच्चिदानन्दघन हैं; उनके नाम, रूप, लीला और धाम—सभी चिन्मय हैं। उन्होंने अपने श्याम और श्वेत केशोंको द्वारमात्र बनाकर स्वयं ही सम्पूर्णरूपसे अपनेको प्रकट किया था। ↩︎