श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना
पञ्चनवत्यधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
व्यासजीके सामने द्रौपदीका पाँच पुरुषोंसे विवाह होनेके विषयमें द्रुपद, धृष्टद्युम्न और युधिष्ठिरका अपने-अपने विचार व्यक्त करना
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्ते पाण्डवाः सर्वे पाञ्चाल्यश्च महायशाः।
प्रत्युत्थाय महात्मानं कृष्णं सर्वेऽभ्यवादयन् ॥ १ ॥
मूलम्
ततस्ते पाण्डवाः सर्वे पाञ्चाल्यश्च महायशाः।
प्रत्युत्थाय महात्मानं कृष्णं सर्वेऽभ्यवादयन् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! तदनन्तर वे पाण्डव तथा महायशस्वी पांचालराज द्रुपद—सबने खड़े होकर महात्मा श्रीकृष्णद्वैपायन व्यासजीको प्रणाम किया॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रतिनन्द्य स तां पूजां पृष्ट्वा कुशलमन्ततः।
आसने काञ्चने शुद्धे निषसाद महामनाः ॥ २ ॥
मूलम्
प्रतिनन्द्य स तां पूजां पृष्ट्वा कुशलमन्ततः।
आसने काञ्चने शुद्धे निषसाद महामनाः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके द्वारा की हुई पूजाको प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार करके अन्तमें सबसे कुशल-मंगल पूछकर महामना व्यासजी शुद्ध सुवर्णमय आसनपर विराजमान हुए॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनुज्ञातास्तु ते सर्वे कृष्णेनामिततेजसा।
आसनेषु महार्हेषु निषेदुर्द्विपदां वराः ॥ ३ ॥
मूलम्
अनुज्ञातास्तु ते सर्वे कृष्णेनामिततेजसा।
आसनेषु महार्हेषु निषेदुर्द्विपदां वराः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर अमित-तेजस्वी व्यासजीकी आज्ञा पाकर वे सभी नरश्रेष्ठ बहुमूल्य आसनोंपर बैठे॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो मुहूर्तान्मधुरां वाणीमुच्चार्य पार्षतः।
पप्रच्छ तं महात्मानं द्रौपद्यर्थं विशाम्पते ॥ ४ ॥
कथमेका बहूनां स्याद् धर्मपत्नी न संकरः।
एतन्मे भगवान् सर्वं प्रब्रवीतु यथातथम् ॥ ५ ॥
मूलम्
ततो मुहूर्तान्मधुरां वाणीमुच्चार्य पार्षतः।
पप्रच्छ तं महात्मानं द्रौपद्यर्थं विशाम्पते ॥ ४ ॥
कथमेका बहूनां स्याद् धर्मपत्नी न संकरः।
एतन्मे भगवान् सर्वं प्रब्रवीतु यथातथम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! तदनन्तर दो घड़ीके बाद राजा द्रुपदने मीठी वाणी बोलकर महात्मा व्यासजीसे द्रौपदीके विषयमें पूछा—‘भगवन्! एक ही स्त्री बहुत-से पुरुषोंकी धर्मपत्नी कैसे हो सकती है? जिससे संकरताका दोष न लगे, यह सब आप ठीक-ठीक बतावें’॥४-५॥
मूलम् (वचनम्)
व्यास उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्मिन् धर्मे विप्रलब्धे लोकवेदविरोधके।
यस्य यस्य मतं यद् यच्छ्रोतुमिच्छामि तस्य तत् ॥ ६ ॥
मूलम्
अस्मिन् धर्मे विप्रलब्धे लोकवेदविरोधके।
यस्य यस्य मतं यद् यच्छ्रोतुमिच्छामि तस्य तत् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
व्यासजीने कहा— अत्यन्त गहन होनेके कारण शास्त्रीय आवरणके द्वारा ढके हुए अतएव इस लोक-वेद-विरुद्ध धर्मके सम्बन्धमें तुममेंसे जिसका-जिसका जो-जो मत हो, उसे मैं सुनना चाहता हूँ॥६॥
मूलम् (वचनम्)
द्रुपद उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अधर्मोऽयं मम मतो विरुद्धो लोकवेदयोः।
न ह्येका विद्यते पत्नी बहूनां द्विजसत्तम ॥ ७ ॥
मूलम्
अधर्मोऽयं मम मतो विरुद्धो लोकवेदयोः।
न ह्येका विद्यते पत्नी बहूनां द्विजसत्तम ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
द्रुपद बोले— द्विजश्रेष्ठ! मेरी रायमें तो यह अधर्म ही है; क्योंकि यह लोक और वेद दोनोंके विरुद्ध है। बहुत-से पुरुषोंकी एक ही पत्नी हो, ऐसा व्यवहार कहीं भी नहीं है॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न चाप्याचरितः पूर्वैरयं धर्मो महात्मभिः।
न चाप्यधर्मो विद्वद्भिश्चरितव्यः कथंचन ॥ ८ ॥
मूलम्
न चाप्याचरितः पूर्वैरयं धर्मो महात्मभिः।
न चाप्यधर्मो विद्वद्भिश्चरितव्यः कथंचन ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पूर्ववर्ती महात्मा पुरुषोंने भी ऐसे धर्मका आचरण नहीं किया है और विद्वान् पुरुषोंको किसी प्रकार भी अधर्मका आचरण नहीं करना चाहिये॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽहं न करोम्येनं व्यवसायं क्रियां प्रति।
धर्मः सदैव संदिग्धः प्रतिभाति हि मे त्वयम् ॥ ९ ॥
मूलम्
ततोऽहं न करोम्येनं व्यवसायं क्रियां प्रति।
धर्मः सदैव संदिग्धः प्रतिभाति हि मे त्वयम् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसलिये मैं इस धर्मविरोधी आचारको काममें नहीं लाना चाहता। मुझे तो इस कार्यके धर्मसंगत होनेमें सदा ही संदेह जान पड़ता है॥९॥
मूलम् (वचनम्)
धृष्टद्युम्न उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यवीयसः कथं भार्यां ज्येष्ठो भ्राता द्विजर्षभ।
ब्रह्मन् समभिवर्तेत सवृत्तः संस्तपोधन ॥ १० ॥
मूलम्
यवीयसः कथं भार्यां ज्येष्ठो भ्राता द्विजर्षभ।
ब्रह्मन् समभिवर्तेत सवृत्तः संस्तपोधन ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धृष्टद्युम्न बोले— द्विजश्रेष्ठ! आप ब्राह्मण हैं, तपोधन हैं; आप ही बताइये, बड़ा भाई सदाचारी होते हुए भी अपने छोटे भाईकी स्त्रीके साथ समागम कैसे कर सकता है?॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न तु धर्मस्य सूक्ष्मत्वाद् गतिं विद्म कथंचन।
अधर्मो धर्म इति वा व्यवसायो न शक्यते ॥ ११ ॥
कर्तुमस्मद्विधैर्ब्रह्मंस्ततोऽयं न व्यवस्यते ।
पञ्चानां महिषी कृष्णा भवत्विति कथंचन ॥ १२ ॥
मूलम्
न तु धर्मस्य सूक्ष्मत्वाद् गतिं विद्म कथंचन।
अधर्मो धर्म इति वा व्यवसायो न शक्यते ॥ ११ ॥
कर्तुमस्मद्विधैर्ब्रह्मंस्ततोऽयं न व्यवस्यते ।
पञ्चानां महिषी कृष्णा भवत्विति कथंचन ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्मका स्वरूप अत्यन्त सूक्ष्म होनेके कारण हम उसकी गतिको सर्वथा नहीं जानते; अतः यह कार्य अधर्म है या धर्म, इसका निश्चय करना हम-जैसे लोगोंके लिये असम्भव है। ब्रह्मन्! इसीलिये हम किसी तरह भी ऐसी सम्मति नहीं दे सकते कि राजकुमारी कृष्णा पाँच पुरुषोंकी धर्मपत्नी हो॥११-१२॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
न मे वागनृतं प्राह नाधर्मे धीयते मतिः।
वर्तते हि मनो मेऽत्र नैषोऽधर्मः कथंचन ॥ १३ ॥
श्रूयते हि पुराणेऽपि जटिला नाम गौतमी।
ऋषीनध्यासितवती सप्त धर्मभृतां वरा ॥ १४ ॥
मूलम्
न मे वागनृतं प्राह नाधर्मे धीयते मतिः।
वर्तते हि मनो मेऽत्र नैषोऽधर्मः कथंचन ॥ १३ ॥
श्रूयते हि पुराणेऽपि जटिला नाम गौतमी।
ऋषीनध्यासितवती सप्त धर्मभृतां वरा ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने कहा— मेरी वाणी कभी झूठ नहीं बोलती और मेरी बुद्धि भी कभी अधर्ममें नहीं लगती; परंतु इस विवाहमें मेरे मनकी प्रवृत्ति हो रही है, इसलिये यह किसी प्रकार भी अधर्म नहीं है। पुराणोंमें भी सुना जाता है कि धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ जटिला नामवाली गौतम गोत्रकी कन्याने सात ऋषियोंके साथ विवाह किया था॥१३-१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथैव मुनिजा वार्क्षी तपोभिर्भावितात्मनः।
संगताभूद् दश भ्रातॄनेकनाम्नः प्रचेतसः ॥ १५ ॥
मूलम्
तथैव मुनिजा वार्क्षी तपोभिर्भावितात्मनः।
संगताभूद् दश भ्रातॄनेकनाम्नः प्रचेतसः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी प्रकार कण्डु मुनिकी पुत्री वार्क्षीने तपस्यासे पवित्र अन्तःकरणवाले दस प्रचेताओंके साथ, जिनका एक ही नाम था और जो आपसमें भाई-भाई थे, विवाहसम्बन्ध स्थापित किया था॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरोर्हि वचनं प्राहुर्धर्म्यं धर्मज्ञसत्तम।
गुरूणां चैव सर्वेषां माता परमको गुरुः ॥ १६ ॥
मूलम्
गुरोर्हि वचनं प्राहुर्धर्म्यं धर्मज्ञसत्तम।
गुरूणां चैव सर्वेषां माता परमको गुरुः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्मज्ञोंमें श्रेष्ठ व्यासजी! गुरुजनोंकी आज्ञाको धर्मसंगत बताया गया है और समस्त गुरुओंमें माता परम गुरु मानी गयी है॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा चाप्युक्तवती वाचं भैक्षवद् भुज्यतामिति।
तस्मादेतदहं मन्ये परं धर्मं द्विजोत्तम ॥ १७ ॥
मूलम्
सा चाप्युक्तवती वाचं भैक्षवद् भुज्यतामिति।
तस्मादेतदहं मन्ये परं धर्मं द्विजोत्तम ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हमारी माताने भी यही बात कही है कि तुम सब लोग भिक्षाकी भाँति इसका उपभोग करो; अतः द्विजश्रेष्ठ! हम पाँचों भाइयोंके साथ होनेवाले इस विवाहसम्बन्धको परम धर्म मानते हैं॥१७॥
मूलम् (वचनम्)
कुन्त्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमेतद् यथा प्राह धर्मचारी युधिष्ठिरः।
अनृतान्मे भयं तीव्रं मुच्येऽहमनृतात् कथम् ॥ १८ ॥
मूलम्
एवमेतद् यथा प्राह धर्मचारी युधिष्ठिरः।
अनृतान्मे भयं तीव्रं मुच्येऽहमनृतात् कथम् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्तीने कहा— धर्मका आचरण करनेवाले युधिष्ठिरने जैसा कहा है, वह ठीक है। (अवश्य मैंने द्रौपदीके साथ पाँचों भाइयोंके विवाहसम्बन्धकी आज्ञा दे दी है।) मुझे झूठसे बहुत भय लगता है; बताइये, मैं झूठके पापसे कैसे बच सकूँगी?॥१८॥
मूलम् (वचनम्)
व्यास उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनृतान्मोक्ष्यसे भद्रे धर्मश्चैष सनातनः।
न तु वक्ष्यामि सर्वेषां पाञ्चाल शृणु मे स्वयम्॥१९॥
मूलम्
अनृतान्मोक्ष्यसे भद्रे धर्मश्चैष सनातनः।
न तु वक्ष्यामि सर्वेषां पाञ्चाल शृणु मे स्वयम्॥१९॥
अनुवाद (हिन्दी)
व्यासजी बोले— भद्रे! तुम झूठसे बच जाओगी। (पाण्डवोंके लिये) यह सनातन धर्म है। (कुन्तीसे यों कहकर वे द्रुपदसे बोले) पांचालराज! (इस विवाहमें एक रहस्य है, जिसे) मैं सबके सामने नहीं कहूँगा। तुम स्वयं एकान्तमें चलकर मुझसे सुन लो॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथायं विहितो धर्मो यतश्चायं सनातनः।
यथा च प्राह कौन्तेयस्तथा धर्मो न संशयः ॥ २० ॥
मूलम्
यथायं विहितो धर्मो यतश्चायं सनातनः।
यथा च प्राह कौन्तेयस्तथा धर्मो न संशयः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस प्रकार और जिस कारणसे यह सनातन धर्मके अनुकूल कहा गया है और कुन्तीनन्दन युधिष्ठिरने जिस प्रकार इसकी धर्मानुकूलताका प्रतिपादन किया है, उसपर विचार करनेसे निस्संदेह यही सिद्ध होता है कि यह विवाह धर्मसम्मत है॥२०॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत उत्थाय भगवान् व्यासो द्वैपायनः प्रभुः।
करे गृहीत्वा राजानं राजवेश्म समाविशत् ॥ २१ ॥
मूलम्
तत उत्थाय भगवान् व्यासो द्वैपायनः प्रभुः।
करे गृहीत्वा राजानं राजवेश्म समाविशत् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! तदनन्तर शक्तिशाली द्वैपायन भगवान् व्यासजी अपने आसनसे उठे और राजा द्रुपदका हाथ पकड़कर राजभवनके भीतर चले गये॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पाण्डवाश्चापि कुन्ती च धृष्टद्युम्नश्च पार्षतः।
विविशुर्यत्र तत्रैव प्रतीक्षन्ते स्म तावुभौ ॥ २२ ॥
मूलम्
पाण्डवाश्चापि कुन्ती च धृष्टद्युम्नश्च पार्षतः।
विविशुर्यत्र तत्रैव प्रतीक्षन्ते स्म तावुभौ ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पाँचों पाण्डव, कुन्तीदेवी तथा द्रुपदकुमार धृष्टद्युम्न—ये सब लोग जहाँ बैठे थे, वहीं उन दोनों (व्यास और द्रुपद)-की प्रतीक्षा करने लगे॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो द्वैपायनस्तस्मै नरेन्द्राय महात्मने।
आचख्यौ तद् यथा धर्मो बहूनामेकपत्निता ॥ २३ ॥
मूलम्
ततो द्वैपायनस्तस्मै नरेन्द्राय महात्मने।
आचख्यौ तद् यथा धर्मो बहूनामेकपत्निता ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर व्यासजीने उन महात्मा नरेशको वह कथा सुनायी, जिसके अनुसार यहाँ बहुत-से पुरुषोंका एक ही पत्नीसे विवाह करना धर्मसम्मत माना गया॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि वैवाहिकपर्वणि व्यासवाक्ये पञ्चनवत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १९५ ॥
मूलम्
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि वैवाहिकपर्वणि व्यासवाक्ये पञ्चनवत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १९५ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत वैवाहिकपर्वमें व्यास-वाक्यविषयक एक सौ पंचानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१९५॥