श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना
चतुर्नवत्यधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
द्रुपद और युधिष्ठिरकी बातचीत तथा व्यासजीका आगमन
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत आहूय पाञ्चाल्यो राजपुत्रं युधिष्ठिरम्।
परिग्रहेण ब्राह्मेण परिगृह्य महाद्युतिः ॥ १ ॥
पर्यपृच्छददीनात्मा कुन्तीपुत्रं सुवर्चसम् ।
कथं जानीम भवतः क्षत्रियान् ब्राह्मणानुत ॥ २ ॥
वैश्यान् वा गुणसम्पन्नानथवा शूद्रयोनिजान्।
मायामास्थाय वा विप्रांश्चरतः सर्वतोदिशम् ॥ ३ ॥
मूलम्
तत आहूय पाञ्चाल्यो राजपुत्रं युधिष्ठिरम्।
परिग्रहेण ब्राह्मेण परिगृह्य महाद्युतिः ॥ १ ॥
पर्यपृच्छददीनात्मा कुन्तीपुत्रं सुवर्चसम् ।
कथं जानीम भवतः क्षत्रियान् ब्राह्मणानुत ॥ २ ॥
वैश्यान् वा गुणसम्पन्नानथवा शूद्रयोनिजान्।
मायामास्थाय वा विप्रांश्चरतः सर्वतोदिशम् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! तदनन्तर महातेजस्वी, उदारचित्त, पांचालराज द्रुपदने अत्यन्त कान्तिमान् कुन्तीपुत्र राजकुमार युधिष्ठिरको (अपने पास) बुलाकर ब्राह्मणोचित आतिथ्य-सत्कारके द्वारा उन्हें अपनाकर पूछा—‘हमें कैसे ज्ञात हो कि आपलोग किस वर्णके हैं? हम आपको क्षत्रिय, ब्राह्मण, गुणसम्पन्न वैश्य अथवा शूद्र क्या समझें? अथवा मायाका आश्रय लेकर ब्राह्मणरूपसे सब दिशाओंमें विचरनेवाले आपलोगोंको हम कोई देवता मानें?॥१—३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृष्णाहेतोरनुप्राप्ता देवाः संदर्शनार्थिनः ।
ब्रवीतु नो भवान् सत्यं संदेहो ह्यत्र नो महान्॥४॥
मूलम्
कृष्णाहेतोरनुप्राप्ता देवाः संदर्शनार्थिनः ।
ब्रवीतु नो भवान् सत्यं संदेहो ह्यत्र नो महान्॥४॥
अनुवाद (हिन्दी)
जान पड़ता है, आप कृष्णाको पानेके लिये यहाँ दर्शक बनकर आये हुए देवता ही हैं। आप सच्ची बात हमें बता दें; क्योंकि आपके विषयमें हमको बड़ा संदेह हो रहा है॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपि नः संशयस्यान्ते मनः संतुष्टिमावहेत्।
अपि नो भागधेयानि शुभानि स्युः परंतप ॥ ५ ॥
मूलम्
अपि नः संशयस्यान्ते मनः संतुष्टिमावहेत्।
अपि नो भागधेयानि शुभानि स्युः परंतप ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परंतप! आपसे रहस्यकी बात सुनकर क्या हमारे इस संशयका नाश और मनको संतोष होगा और क्या हमारा भाग्य उदय होगा?॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इच्छया ब्रूहि तत् सत्यं सत्यं राजसु शोभते।
इष्टापूर्तेन च तथा वक्तव्यमनृतं न तु ॥ ६ ॥
मूलम्
इच्छया ब्रूहि तत् सत्यं सत्यं राजसु शोभते।
इष्टापूर्तेन च तथा वक्तव्यमनृतं न तु ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप स्वेच्छासे ही सच्ची बात बतायें, राजाओंमें इष्ट1 और पूर्तकी अपेक्षा सत्यकी ही अधिक महिमा है; अतः असत्य नहीं बोलना चाहिये॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुत्वा ह्यमरसंकाश तव वाक्यमरिंदम।
ध्रुवं विवाहकरणमास्थास्यामि विधानतः ॥ ७ ॥
मूलम्
श्रुत्वा ह्यमरसंकाश तव वाक्यमरिंदम।
ध्रुवं विवाहकरणमास्थास्यामि विधानतः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवताओंके समान तेजस्वी शत्रुसूदन! मैं आपकी बात सुनकर निश्चय ही विधिपूर्वक विवाहकी तैयारी करूँगा॥७॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
मा राजन् विमना भूस्त्वं पाञ्चाल्य प्रीतिरस्तु ते।
ईप्सितस्ते ध्रुवः कामः संवृत्तोऽयमसंशयम् ॥ ८ ॥
मूलम्
मा राजन् विमना भूस्त्वं पाञ्चाल्य प्रीतिरस्तु ते।
ईप्सितस्ते ध्रुवः कामः संवृत्तोऽयमसंशयम् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर बोले— पांचालराज! आप उदास न हों, आपको प्रसन्न होना चाहिये। आपके मनमें जो अभीष्ट कामना थी, वह निश्चय ही आज पूरी हुई है, इसमें संशय नहीं है॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वयं हि क्षत्रिया राजन् पाण्डोः पुत्रा महात्मनः।
ज्येष्ठ मां विद्धि कौन्तेयं भीमसेनार्जुनाविमौ ॥ ९ ॥
मूलम्
वयं हि क्षत्रिया राजन् पाण्डोः पुत्रा महात्मनः।
ज्येष्ठ मां विद्धि कौन्तेयं भीमसेनार्जुनाविमौ ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! हमलोग क्षत्रिय ही हैं, महात्मा पाण्डुके पुत्र हैं। मुझे कुन्तीका ज्येष्ठ पुत्र समझिये, ये दोनों भीमसेन और अर्जुन हैं॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आभ्यां तव सुता राजन् निर्जिता राजसंसदि।
यमौ च तत्र कुन्ती च यत्र कृष्णा व्यवस्थिता॥१०॥
मूलम्
आभ्यां तव सुता राजन् निर्जिता राजसंसदि।
यमौ च तत्र कुन्ती च यत्र कृष्णा व्यवस्थिता॥१०॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! इन्हीं दोनोंने समस्त राजाओंके समूहमें आपकी पुत्रीको जीता है। उधर वे दोनों नकुल और सहदेव हैं। माता कुन्ती वहीं गयी हैं, जहाँ राजकुमारी कृष्णा है॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
व्येतु ते मानसं दुःखं क्षत्रियाः स्मो नरर्षभ।
पद्मिनीव सुतेयं ते ह्रदादन्यह्रदं गता ॥ ११ ॥
मूलम्
व्येतु ते मानसं दुःखं क्षत्रियाः स्मो नरर्षभ।
पद्मिनीव सुतेयं ते ह्रदादन्यह्रदं गता ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरश्रेष्ठ! अब आपकी मानसिक चिन्ता निकल जानी चाहिये। हम सब लोग क्षत्रिय ही हैं। आपकी यह पुत्री कृष्णा कमलिनीकी भाँति एक सरोवरसे दूसरे सरोवरको प्राप्त हुई है॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति तथ्यं महाराज सर्वमेतद् ब्रवीमि ते।
भवान् हि गुरुरस्माकं परमं च परायणम् ॥ १२ ॥
मूलम्
इति तथ्यं महाराज सर्वमेतद् ब्रवीमि ते।
भवान् हि गुरुरस्माकं परमं च परायणम् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! यह सब मैं आपसे सच्ची बात कह रहा हूँ। आप हमारे बड़े तथा परम आश्रय हैं॥१२॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः स द्रुपदो राजा हर्षव्याकुललोचनः।
प्रतिवक्तुं मुदा युक्तो नाशकत् तं युधिष्ठिरम् ॥ १३ ॥
मूलम्
ततः स द्रुपदो राजा हर्षव्याकुललोचनः।
प्रतिवक्तुं मुदा युक्तो नाशकत् तं युधिष्ठिरम् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! राजा युधिष्ठिरकी ये बातें सुनकर महाराज द्रुपदकी आँखोंमें हर्षके आँसू छलक आये। वे आनन्दमें मग्न हो गये और (गला भर आनेके कारण) उन युधिष्ठिरको तत्काल (कुछ) उत्तर न दे सके॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत्नेन तु स तं हर्षं संनिगृह्य परंतपः।
अनुरूपं तदा वाचा प्रत्युवाच युधिष्ठिरम् ॥ १४ ॥
मूलम्
यत्नेन तु स तं हर्षं संनिगृह्य परंतपः।
अनुरूपं तदा वाचा प्रत्युवाच युधिष्ठिरम् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुसूदन द्रुपदने (बड़े) यत्नसे अपने (हर्षके आवेश)-को रोका और युधिष्ठिरको उनके कथनके अनुरूप ही उत्तर दिया॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पप्रच्छ चैनं धर्मात्मा यथा ते प्रद्रुताः पुरात्।
स तस्मै सर्वमाचख्यावानुपूर्व्येण पाण्डवः ॥ १५ ॥
मूलम्
पप्रच्छ चैनं धर्मात्मा यथा ते प्रद्रुताः पुरात्।
स तस्मै सर्वमाचख्यावानुपूर्व्येण पाण्डवः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर उन धर्मात्मा पांचाल-नरेशने यह पूछा कि ‘आपलोग वारणावत नगरसे किस प्रकार भाग निकले?’ पाण्डुनन्दन युधिष्ठिरने वे सारी बातें उन्हें क्रमशः कह सुनायीं॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तच्छ्रुत्वा द्रुपदो राजा कुन्तीपुत्रस्य भाषितम्।
विगर्हयमास तदा धृतराष्ट्रं नरेश्वरम् ॥ १६ ॥
आश्वासयामास च तं कुन्तीपुत्रं युधिष्ठिरम्।
प्रतिजज्ञे च राज्याय द्रुपदो वदतां वरः ॥ १७ ॥
मूलम्
तच्छ्रुत्वा द्रुपदो राजा कुन्तीपुत्रस्य भाषितम्।
विगर्हयमास तदा धृतराष्ट्रं नरेश्वरम् ॥ १६ ॥
आश्वासयामास च तं कुन्तीपुत्रं युधिष्ठिरम्।
प्रतिजज्ञे च राज्याय द्रुपदो वदतां वरः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्तीकुमारके मुखसे वह सारा समाचार सुनकर वक्ताओंमें श्रेष्ठ महाराज द्रुपदने उस समय राजा धृतराष्ट्रकी बड़ी निन्दा की और कुन्तीनन्दन युधिष्ठिरको आश्वासन दिया। साथ ही उन्होंने यह प्रतिज्ञा भी की कि ‘हम तुम्हें तुम्हारा राज्य दिलवाकर रहेंगे’॥१६-१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः कुन्ती च कृष्णा च भीमसेनार्जुनावपि।
यमौ च राज्ञा संदिष्टं विविशुर्भवनं महत् ॥ १८ ॥
तत्र ते न्यवसन् राजन् यज्ञसेनेन पूजिताः।
प्रत्याश्वस्तस्ततो राजा सह पुत्रैरुवाच तम् ॥ १९ ॥
मूलम्
ततः कुन्ती च कृष्णा च भीमसेनार्जुनावपि।
यमौ च राज्ञा संदिष्टं विविशुर्भवनं महत् ॥ १८ ॥
तत्र ते न्यवसन् राजन् यज्ञसेनेन पूजिताः।
प्रत्याश्वस्तस्ततो राजा सह पुत्रैरुवाच तम् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! तत्पश्चात् कुन्ती, कृष्णा, युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन, नकुल और सहदेव राजा द्रुपदके द्वारा निर्दिष्ट किये हुए विशाल भवनमें गये और यज्ञसेन (द्रुपद)-से सम्मानित हो वहीं रहने लगे। इस प्रकार विश्वास जम जानेपर महाराज द्रुपदने अपने पुत्रोंके साथ जाकर युधिष्ठिरसे कहा—॥१८-१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गृह्णातु विधिवत् पाणिमद्यायं कुरुनन्दनः।
पुण्येऽहनि महाबाहुरर्जुनः कुरुतां क्षणम् ॥ २० ॥
मूलम्
गृह्णातु विधिवत् पाणिमद्यायं कुरुनन्दनः।
पुण्येऽहनि महाबाहुरर्जुनः कुरुतां क्षणम् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘ये कुरुकुलको आनन्दित करनेवाले महाबाहु अर्जुन आजके पुण्यमय दिवसमें मेरी पुत्रीका विधिपूर्वक पाणिग्रहण करें और (अपने कुलोचित) मंगलाचारका पालन प्रारम्भ कर दें’॥२०॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमब्रवीत् ततो राजा धर्मात्मा च युधिष्ठिरः।
ममापि दारसम्बन्धः कार्यस्तावद् विशाम्पते ॥ २१ ॥
मूलम्
तमब्रवीत् ततो राजा धर्मात्मा च युधिष्ठिरः।
ममापि दारसम्बन्धः कार्यस्तावद् विशाम्पते ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— तब धर्मात्मा राजा युधिष्ठिरने उनसे कहा—‘राजन्! विवाह तो मेरा भी करना होगा’॥२१॥
मूलम् (वचनम्)
द्रुपद उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
भवान् वा विधिवत् पाणिं गृह्णातु दुहितुर्मम।
यस्य वा मन्यसे वीर तस्य कृष्णामुपादिश ॥ २२ ॥
मूलम्
भवान् वा विधिवत् पाणिं गृह्णातु दुहितुर्मम।
यस्य वा मन्यसे वीर तस्य कृष्णामुपादिश ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
द्रुपद बोले— वीर! तब आप ही विधिपूर्वक मेरी पुत्रीका पाणिग्रहण करें अथवा आप अपने भाइयोंमेंसे जिसके साथ चाहें, उसीके साथ कृष्णाको विवाहकी आज्ञा दे दें॥२२॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वेषां महिषी राजन् द्रौपदी नो भविष्यति।
एवं प्रव्याहृतं पूर्वं मम मात्रा विशाम्पते ॥ २३ ॥
मूलम्
सर्वेषां महिषी राजन् द्रौपदी नो भविष्यति।
एवं प्रव्याहृतं पूर्वं मम मात्रा विशाम्पते ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने कहा— राजन्! द्रौपदी तो हम सभी भाइयोंकी पटरानी होगी। मेरी माताने पहले हम सब लोगोंको ऐसी ही आज्ञा दे रखी है॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं चाप्यनिविष्टो वै भीमसेनश्च पाण्डवः।
पार्थेन विजिता चैषा रत्नभूता सुता तव ॥ २४ ॥
मूलम्
अहं चाप्यनिविष्टो वै भीमसेनश्च पाण्डवः।
पार्थेन विजिता चैषा रत्नभूता सुता तव ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं तथा पाण्डव भीमसेन भी अभीतक अविवाहित हैं और आपकी इस रत्नस्वरूपा कन्याको अर्जुनने जीता है॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एष नः समयो राजन् रत्नस्य सह भोजनम्।
न च तं हातुमिच्छामः समयं राजसत्तम ॥ २५ ॥
मूलम्
एष नः समयो राजन् रत्नस्य सह भोजनम्।
न च तं हातुमिच्छामः समयं राजसत्तम ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! हम लोगोंमें यह शर्त हो चुकी है कि रत्नको हम सब लोग बाँटकर एक साथ उपभोग करेंगे। नृपशिरोमणे! हम अपनी उस (पुरानी) शर्तको छोड़ना या तोड़ना नहीं चाहते॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वेषां धर्मतः कृष्णा महिषी नो भविष्यति।
आनुपूर्व्येण सर्वेषां गृह्णातु ज्वलने करान् ॥ २६ ॥
मूलम्
सर्वेषां धर्मतः कृष्णा महिषी नो भविष्यति।
आनुपूर्व्येण सर्वेषां गृह्णातु ज्वलने करान् ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः कृष्णा धर्मके अनुसार हम सभीकी महारानी होगी। इसलिये वह प्रज्वलित अग्निके सामने क्रमशः हम सबका पाणिग्रहण करे॥२६॥
मूलम् (वचनम्)
द्रुपद उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकस्य बह्व्यो विहिता महिष्यः कुरुनन्दन।
नैकस्या बहवः पुंसः श्रूयन्ते पतयः क्वचित् ॥ २७ ॥
मूलम्
एकस्य बह्व्यो विहिता महिष्यः कुरुनन्दन।
नैकस्या बहवः पुंसः श्रूयन्ते पतयः क्वचित् ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
द्रुपद बोले— ‘कुरुनन्दन! एक राजा बहुत-सी रानियाँ (अथवा एक पुरुषकी अनेक स्त्रियाँ) हों, ऐसा विधान तो वेदोंमें देखा गया है; परंतु एक स्त्रीके अनेक पुरुष पति हों, ऐसा कहीं सुननेमें नहीं आया है1॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लोकवेदविरुद्धं त्वं नाधर्मं धर्मविच्छुचिः।
कर्तुमर्हसि कौन्तेय कस्मात् ते बुद्धिरीदृशी ॥ २८ ॥
मूलम्
लोकवेदविरुद्धं त्वं नाधर्मं धर्मविच्छुचिः।
कर्तुमर्हसि कौन्तेय कस्मात् ते बुद्धिरीदृशी ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तुम धर्मके ज्ञाता और पवित्र हो, अतः तुम्हें लोक और वेदके विरुद्ध यह अधर्म नहीं करना चाहिये। तुम कुन्तीके पुत्र हो; तुम्हारी बुद्धि ऐसी क्यों हो रही है?॥२८॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सूक्ष्मो धर्मो महाराज नास्य विद्मो वयं गतिम्।
पूर्वेषामानुपूर्व्येण यातं वर्त्मानुयामहे ॥ २९ ॥
मूलम्
सूक्ष्मो धर्मो महाराज नास्य विद्मो वयं गतिम्।
पूर्वेषामानुपूर्व्येण यातं वर्त्मानुयामहे ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने कहा— महाराज! धर्मका स्वरूप अत्यन्त सूक्ष्म है, हम उसकी गतिको नहीं जानते। पूर्वकालके प्रचेता आदि जिस मार्गसे गये हैं, उसीका हमलोग क्रमशः अनुसरण करते हैं॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न मे वागनृतं प्राह नाधर्मे धीयते मतिः।
एवं चैव वदत्यम्बा मम चैतन्मनोगतम् ॥ ३० ॥
मूलम्
न मे वागनृतं प्राह नाधर्मे धीयते मतिः।
एवं चैव वदत्यम्बा मम चैतन्मनोगतम् ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरी वाणी कभी झूठ नहीं बोलती और मेरी बुद्धि भी कभी अधर्ममें नहीं लगती। हमारी माताने हमें ऐसा ही करनेकी आज्ञा दी है और मेरे मनमें भी यही ठीक जँचा है॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एष धर्मो ध्रुवो राजंश्चरैनमविचारयम्।
मा च शंका तत्र ते स्यात् कथंचिदपि पार्थिव॥३१॥
मूलम्
एष धर्मो ध्रुवो राजंश्चरैनमविचारयम्।
मा च शंका तत्र ते स्यात् कथंचिदपि पार्थिव॥३१॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! यह अटल धर्म है। आप बिना किसी सोच-विचारके इसका पालन करें। पृथ्वीपते! आपको इस विषयमें किसी प्रकारकी आशंका नहीं होनी चाहिये॥३१॥
मूलम् (वचनम्)
द्रुपद उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वं च कुन्ती च कौन्तेय धृष्टद्युम्नश्च मे सुतः।
कथयन्त्विति कर्तव्यं श्वः काले करवामहे ॥ ३२ ॥
मूलम्
त्वं च कुन्ती च कौन्तेय धृष्टद्युम्नश्च मे सुतः।
कथयन्त्विति कर्तव्यं श्वः काले करवामहे ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
द्रुपद बोले— कुन्तीनन्दन! तुम, कुन्तीदेवी और मेरा पुत्र धृष्टद्युम्न—ये सब लोग मिलकर यह निश्चय करके बतायें कि क्या करना चाहिये? उसे ही कल ठीक समयपर हमलोग करेंगे॥३२॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते समेत्य ततः सर्वे कथयन्ति स्म भारत।
अथ द्वैपायनो राजन्नभ्यागच्छद् यदृच्छया ॥ ३३ ॥
मूलम्
ते समेत्य ततः सर्वे कथयन्ति स्म भारत।
अथ द्वैपायनो राजन्नभ्यागच्छद् यदृच्छया ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— भारत! तदनन्तर वे सब लोग मिलकर इस विषयमें सलाह करने लगे। राजन्! इसी समय भगवान् वेदव्यास वहाँ अकस्मात् आ पहुँचे॥३३॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि वैवाहिकपर्वणि द्वैपायनागमने चतुर्नवत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १९४ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत वैवाहिकपर्वमें वेदव्यासके आगमनसे सम्बन्ध रखनेवाला एक सौ चौरानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१९४॥
-
स्मृतियोंमें इष्ट और पूर्तका परिचय इस प्रकार दिया गया है—अग्निहोत्रं तपः सत्यं वेदानां चानुपालनम्। आतिथ्यं वैश्वदेवं च इष्टमित्यभिधीयते॥वापीकूपतडागादि देवतायतनानि च । अन्नप्रदानमारामाः पूर्तमित्यभिधीयते ॥’’’‘अग्निहोत्र, तप, सत्यभाषण, वेदोंकी आज्ञाका निरन्तर पालन, अतिथियोंका सत्कार तथा बलिवैश्वदेव कर्म—ये ‘इष्ट’ कहलाते हैं। बावली, कुआँ, पोखरे आदि बनवाना, देवमन्दिर निर्माण कराना, अन्नदान देना और बगीचे लगाना—इनका नाम पूर्त है।’’'' ↩︎ ↩︎