श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना
द्व्यशीत्यधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
पाण्डवोंका धौम्यको अपना पुरोहित बनाना
मूलम् (वचनम्)
अर्जुन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्माकमनुरूपो वै यः स्याद् गन्धर्व वेदवित्।
पुरोहितस्तमाचक्ष्व सर्वं हि विदितं तव ॥ १ ॥
मूलम्
अस्माकमनुरूपो वै यः स्याद् गन्धर्व वेदवित्।
पुरोहितस्तमाचक्ष्व सर्वं हि विदितं तव ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुनने कहा— गन्धर्वराज! हमारे अनुरूप जो कोई वेदवेत्ता पुरोहित हों, उनका नाम बताओ; क्योंकि तुम्हें सब कुछ ज्ञात है॥१॥
मूलम् (वचनम्)
गन्धर्व उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यवीयान् देवलस्यैष वने भ्राता तपस्यति।
धौम्य उत्कोचके तीर्थे तं वृणुध्वं यदीच्छथ ॥ २ ॥
मूलम्
यवीयान् देवलस्यैष वने भ्राता तपस्यति।
धौम्य उत्कोचके तीर्थे तं वृणुध्वं यदीच्छथ ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गन्धर्व बोला— कुन्तीनन्दन! इसी वनके उत्कोचक तीर्थमें महर्षि देवलके छोटे भाई धौम्य मुनि तपस्या करते हैं। यदि आपलोग चाहें तो उन्हींका पुरोहितके पदपर वरण करें॥२॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽर्जुनोऽस्त्रमाग्नेयं प्रददौ तद् यथाविधि।
गन्धर्वाय तदा प्रीतो वचनं चेदमब्रवीत् ॥ ३ ॥
मूलम्
ततोऽर्जुनोऽस्त्रमाग्नेयं प्रददौ तद् यथाविधि।
गन्धर्वाय तदा प्रीतो वचनं चेदमब्रवीत् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— तब अर्जुनने (बहुत) प्रसन्न होकर गन्धर्वको विधिपूर्वक आग्नेयास्त्र प्रदान किया और यह बात कही—॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वय्येव तावत् तिष्ठन्तु हया गन्धर्वसत्तम।
कार्यकाले ग्रहीष्यामः स्वस्ति तेऽस्त्विति चाब्रवीत् ॥ ४ ॥
तेऽन्योन्यमभिसम्पूज्य गन्धर्वः पाण्डवाश्च ह।
रम्याद् भागीरथीतीराद् यथाकामं प्रतस्थिरे ॥ ५ ॥
मूलम्
त्वय्येव तावत् तिष्ठन्तु हया गन्धर्वसत्तम।
कार्यकाले ग्रहीष्यामः स्वस्ति तेऽस्त्विति चाब्रवीत् ॥ ४ ॥
तेऽन्योन्यमभिसम्पूज्य गन्धर्वः पाण्डवाश्च ह।
रम्याद् भागीरथीतीराद् यथाकामं प्रतस्थिरे ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘गन्धर्वप्रवर! तुमने जो घोड़े दिये हैं, वे अभी तुम्हारे ही पास रहें। आवश्यकताके समय हम तुमसे ले लेंगे, तुम्हारा कल्याण हो।’ अर्जुनकी यह बात पूरी होनेपर गन्धर्वराज और पाण्डवोंने एक-दूसरेका बड़ा सत्कार किया। फिर पाण्डवगण गंगाके रमणीय तटसे अपनी इच्छाके अनुसार चल दिये॥४-५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत उत्कोचकं तीर्थं गत्वा धौम्याश्रमं तु ते।
तं वव्रुः पाण्डवा धौम्यं पौरोहित्याय भारत ॥ ६ ॥
मूलम्
तत उत्कोचकं तीर्थं गत्वा धौम्याश्रमं तु ते।
तं वव्रुः पाण्डवा धौम्यं पौरोहित्याय भारत ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जनमेजय! तदनन्तर उत्कोचक तीर्थमें धौम्यके आश्रमपर जाकर पाण्डवोंने धौम्यका पौरोहित्य-कर्मके लिये वरण किया॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तान् धौम्यः प्रतिजग्राह सर्ववेदविदां वरः।
वन्येन फलमूलेन पौरोहित्येन चैव ह ॥ ७ ॥
मूलम्
तान् धौम्यः प्रतिजग्राह सर्ववेदविदां वरः।
वन्येन फलमूलेन पौरोहित्येन चैव ह ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सम्पूर्ण वेदोंके विद्वानोंमें श्रेष्ठ धौम्यने जंगली फल-मूल अर्पण करके तथा पुरोहितीके लिये स्वीकृति देकर उन सबका सत्कार किया॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते समाशंसिरे लब्धां श्रियं राज्यं च पाण्डवाः।
ब्राह्मणं तै पुरस्कृत्य पाञ्चालीं च स्वयंवरे ॥ ८ ॥
मूलम्
ते समाशंसिरे लब्धां श्रियं राज्यं च पाण्डवाः।
ब्राह्मणं तै पुरस्कृत्य पाञ्चालीं च स्वयंवरे ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पाण्डवोंने उन ब्राह्मणदेवताको पुरोहित बनाकर यह भलीभाँति विश्वास कर लिया कि ‘हमें अपना राज्य और धन अब मिले हुएके ही समान है।’ साथ ही उन्हें यह भी भरोसा हो गया कि ‘स्वयंवरमें द्रौपदी हमें मिल जायगी’॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुरोहितेन तेनाथ गुरुणा संगतास्तदा।
नाथवन्तमिवात्मानं मेनिरे भरतर्षभाः ॥ ९ ॥
मूलम्
पुरोहितेन तेनाथ गुरुणा संगतास्तदा।
नाथवन्तमिवात्मानं मेनिरे भरतर्षभाः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन गुरु एवं पुरोहितके साथ हो जानेसे उस समय भरतवंशियोंमें श्रेष्ठ पाण्डवोंने अपने-आपको सनाथ-सा समझा॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स हि वेदार्थतत्त्वज्ञस्तेषां गुरुरुदारधीः।
तेन धर्मविदा पार्था याज्या धर्मविदः कृताः ॥ १० ॥
मूलम्
स हि वेदार्थतत्त्वज्ञस्तेषां गुरुरुदारधीः।
तेन धर्मविदा पार्था याज्या धर्मविदः कृताः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उदारबुद्धि धौम्य वेदार्थके तत्त्वज्ञ थे, वे पाण्डवोंके गुरु हुए। उन धर्मज्ञ मुनिने धर्मज्ञ कुन्तीकुमारोंको अपना यजमान बना लिया॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वीरांस्तु सहितान् मेने प्राप्तराज्यान् स्वधर्मतः।
बुद्धिवीर्यबलोत्साहैर्युक्तान् देवानिव द्विजः ॥ ११ ॥
मूलम्
वीरांस्तु सहितान् मेने प्राप्तराज्यान् स्वधर्मतः।
बुद्धिवीर्यबलोत्साहैर्युक्तान् देवानिव द्विजः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धौम्यको भी यह विश्वास हो गया कि ये बुद्धि, वीर्य, बल और उत्साहसे युक्त देवोपम वीर संगठित होकर स्वधर्मके अनुसार अपना राज्य अवश्य प्राप्त कर लेंगे॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृतस्वस्त्ययनास्तेन ततस्ते मनुजाधिपाः ।
मेनिरे सहिता गन्तुं पाञ्चाल्यास्तं स्वयंवरम् ॥ १२ ॥
मूलम्
कृतस्वस्त्ययनास्तेन ततस्ते मनुजाधिपाः ।
मेनिरे सहिता गन्तुं पाञ्चाल्यास्तं स्वयंवरम् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धौम्यने पाण्डवोंके लिये स्वस्तिवाचन किया। तदनन्तर उन नरश्रेष्ठ पाण्डवोंने एक साथ द्रौपदीके स्वयंवरमें जानेका निश्चय किया॥१२॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि चैत्ररथपर्वणि धौम्यपुरोहितकरणे द्व्यशीत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १८२ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत चैत्ररथपर्वमें धौम्यको पुरोहित बनानेसे सम्बन्ध रखनेवाला एक सौ बयासीवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१८२॥