१८१ सौदास-शापः

श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना

एकाशीत्यधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

राजा कल्माषपादको ब्राह्मणी आंगिरसीका शाप

मूलम् (वचनम्)

अर्जुन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

राज्ञा कल्माषपादेन गुरौ ब्रह्मविदां वरे।
कारणं किं पुरस्कृत्य भार्या वै संनियोजिता ॥ १ ॥

मूलम्

राज्ञा कल्माषपादेन गुरौ ब्रह्मविदां वरे।
कारणं किं पुरस्कृत्य भार्या वै संनियोजिता ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुनने पूछा— गन्धर्वराज! किस कारणको सामने रखकर राजा कल्माषपादने ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ गुरु वसिष्ठजीके साथ अपनी पत्नीका नियोग कराया था?॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जानता वै परं धर्मं वसिष्ठेन महात्मना।
अगम्यागमनं कस्मात् कृतं तेन महर्षिणा ॥ २ ॥

मूलम्

जानता वै परं धर्मं वसिष्ठेन महात्मना।
अगम्यागमनं कस्मात् कृतं तेन महर्षिणा ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तथा उत्तम धर्मके ज्ञाता महात्मा महर्षि वसिष्ठने यह परस्त्रीगमनका पाप कैसे किया?॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अधर्मिष्ठं वसिष्ठेन कृतं चापि पुरा सखे।
एतन्मे संशयं सर्वं छेत्तुमर्हसि पृच्छतः ॥ ३ ॥

मूलम्

अधर्मिष्ठं वसिष्ठेन कृतं चापि पुरा सखे।
एतन्मे संशयं सर्वं छेत्तुमर्हसि पृच्छतः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सखे! पूर्वकालमें महर्षि वसिष्ठने जो यह अधर्म-कार्य किया, उसका क्या कारण है? यह मेरा संशय है, जिसे मैं पूछता हूँ। आप मेरे इन सारे संशयोंका निवारण कीजिये॥३॥

मूलम् (वचनम्)

गन्धर्व उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

धनंजय निबोधेदं यन्मां त्वं परिपृच्छसि।
वसिष्ठं प्रति दुर्धर्ष तथा मित्रसहं नृपम् ॥ ४ ॥

मूलम्

धनंजय निबोधेदं यन्मां त्वं परिपृच्छसि।
वसिष्ठं प्रति दुर्धर्ष तथा मित्रसहं नृपम् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गन्धर्वने कहा— दुर्धर्ष वीर धनंजय! आप महर्षि वसिष्ठ तथा राजा मित्रसहके विषयमें जो कुछ मुझसे पूछ रहे हैं, उसका समाधान सुनिये॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथितं ते मया सर्वं यथा शप्तः स पार्थिवः।
शक्तिना भरतश्रेष्ठ वासिष्ठेन महात्मना ॥ ५ ॥

मूलम्

कथितं ते मया सर्वं यथा शप्तः स पार्थिवः।
शक्तिना भरतश्रेष्ठ वासिष्ठेन महात्मना ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! वसिष्ठपुत्र महात्मा शक्तिसे राजा कल्माषपादको जिस प्रकार शाप प्राप्त हुआ, वह सब प्रसंग मैं आपसे कह चुका हूँ॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तु शापवशं प्राप्तः क्रोधपर्याकुलेक्षणः।
निर्जगाम पुराद् राजा सहदारः परंतपः ॥ ६ ॥

मूलम्

स तु शापवशं प्राप्तः क्रोधपर्याकुलेक्षणः।
निर्जगाम पुराद् राजा सहदारः परंतपः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुओंको संताप देनेवाले राजा कल्माषपाद शापके परवश हो अपनी पत्नीके साथ नगरसे बाहर निकल गये। उस समय उनकी आँखें क्रोधसे व्याप्त हो रही थीं॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अरण्यं निर्जनं गत्वा सदारः परिचक्रमे।
नानामृगगणाकीर्णं नानासत्त्वसमाकुलम् ॥ ७ ॥

मूलम्

अरण्यं निर्जनं गत्वा सदारः परिचक्रमे।
नानामृगगणाकीर्णं नानासत्त्वसमाकुलम् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपनी स्त्रीके साथ निर्जन वनमें जाकर वे चारों ओर चक्कर लगाने लगे। वह महान् वन भाँति-भाँतिके मृगोंसे भरा हुआ था। उसमें नाना प्रकारके जीव-जन्तु निवास करते थे॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नानागुल्मलताच्छन्नं नानाद्रुमसमावृतम् ।
अरण्यं घोरसंनादं शापग्रस्तः परिभ्रमन् ॥ ८ ॥

मूलम्

नानागुल्मलताच्छन्नं नानाद्रुमसमावृतम् ।
अरण्यं घोरसंनादं शापग्रस्तः परिभ्रमन् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अनेक प्रकारकी लताओं तथा गुल्मोंसे आच्छादित और विविध प्रकारके वृक्षोंसे आवृत वह (गहन) वन भयंकर शब्दोंसे गूँजता रहता था। शापग्रस्त राजा कल्माषपाद उसीमें भ्रमण करने लगे॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स कदाचित् क्षुधाविष्टो मृगयन् भक्ष्यमात्मनः।
ददर्श सुपरिक्लिष्टः कस्मिंश्चिन्निर्जने वने ॥ ९ ॥
ब्राह्मणं ब्राह्मणीं चैव मिथुनायोपसंगतौ।
तौ तं वीक्ष्य सुवित्रस्तावकृतार्थौ प्रधावितौ ॥ १० ॥

मूलम्

स कदाचित् क्षुधाविष्टो मृगयन् भक्ष्यमात्मनः।
ददर्श सुपरिक्लिष्टः कस्मिंश्चिन्निर्जने वने ॥ ९ ॥
ब्राह्मणं ब्राह्मणीं चैव मिथुनायोपसंगतौ।
तौ तं वीक्ष्य सुवित्रस्तावकृतार्थौ प्रधावितौ ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक दिन भूखसे व्याकुल हो वे अपने लिये भोजनकी तलाश करने लगे। बहुत क्लेश उठानेके बाद उन्होंने देखा कि उस वनके किसी निर्जन प्रदेशमें एक ब्राह्मण और ब्राह्मणी मैथुनके लिये एकत्र हुए हैं। वे दोनों अभी अपनी इच्छा पूर्ण नहीं कर पाये थे, इतनेहीमें उन राक्षसाविष्ट कल्माषपादको देखकर अत्यन्त भयभीत हो (वहाँसे) भाग चले॥९-१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तयोः प्रद्रवतोर्विप्रं जग्राह नृपतिर्बलात्।
दृष्ट्वा गृहीतं भर्तारमथ ब्राह्मण्यभाषत ॥ ११ ॥

मूलम्

तयोः प्रद्रवतोर्विप्रं जग्राह नृपतिर्बलात्।
दृष्ट्वा गृहीतं भर्तारमथ ब्राह्मण्यभाषत ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन भागते हुए दम्पतिमेंसे ब्राह्मणको राजाने बलपूर्वक पकड़ लिया। पतिको राक्षसके हाथमें पड़ा देख ब्राह्मणी बोली—॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शृणु राजन् मम वचो यत् त्वां वक्ष्यामि सुव्रत।
आदित्यवंशप्रभवस्त्वं हि लोके परिश्रुतः ॥ १२ ॥

मूलम्

शृणु राजन् मम वचो यत् त्वां वक्ष्यामि सुव्रत।
आदित्यवंशप्रभवस्त्वं हि लोके परिश्रुतः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजन्! मैं आपसे जो बात कहती हूँ, उसे सुनिये। उत्तम व्रतका पालन करनेवाले नरेश! आपका जन्म सूर्यवंशमें हुआ है। आप सम्पूर्ण जगत्‌में विख्यात हैं॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अप्रमत्तः स्थितो धर्मे गुरुशुश्रूषणे रतः।
शापोपहत दुर्धर्ष न पापं कर्तुमर्हसि ॥ १३ ॥

मूलम्

अप्रमत्तः स्थितो धर्मे गुरुशुश्रूषणे रतः।
शापोपहत दुर्धर्ष न पापं कर्तुमर्हसि ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आप सदा प्रमादशून्य होकर धर्ममें स्थित रहनेवाले हैं। गुरुजनोंकी सेवामें सदा संलग्न रहते हैं। दुर्धर्ष वीर! यद्यपि आप इस समय शापसे ग्रस्त हैं, तो भी आपको पापकर्म नहीं करना चाहिये॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऋतुकाले तु सम्प्राप्ते भर्तृव्यसनकर्शिता।
अकृतार्था ह्यहं भर्त्रा प्रसवार्थं समागता ॥ १४ ॥
प्रसीद नृपतिश्रेष्ठ भर्तायं मे विसृज्यताम्।

मूलम्

ऋतुकाले तु सम्प्राप्ते भर्तृव्यसनकर्शिता।
अकृतार्था ह्यहं भर्त्रा प्रसवार्थं समागता ॥ १४ ॥
प्रसीद नृपतिश्रेष्ठ भर्तायं मे विसृज्यताम्।

अनुवाद (हिन्दी)

‘मेरा ऋतुकाल प्राप्त है, मैं पतिके कष्टसे दुःख पा रही हूँ। मैं संतानकी इच्छासे पतिके समीप आयी थी और उनसे मिलकर अभी अपनी इच्छा पूर्ण नहीं कर पायी हूँ। नृपश्रेष्ठ! ऐसी दशामें आप मुझपर प्रसन्न होइये और मेरे इन पतिदेवताको छोड़ दीजिये’॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं विक्रोशमानायास्तस्यास्तु स नृशंसवत् ॥ १५ ॥
भर्तारं भक्षयामास व्याघ्रो मृगमिवेप्सितम्।
तस्याः क्रोधाभिभूताया यान्यश्रूण्यपतन् भुवि ॥ १६ ॥
सोऽग्निः समभवद् दीप्तस्तं च देशं व्यदीपयत्।
ततः सा शोकसंतप्ता भर्तृव्यसनकर्शिता ॥ १७ ॥
कल्माषपादं राजर्षिमशपद् ब्राह्मणी रुषा।
यस्मान्ममाकृतार्थायास्त्वया क्षुद्र नृशंसवत् ॥ १८ ॥
प्रेक्षन्त्या भक्षितो मेऽद्य प्रियो भर्ता महायशाः।
तस्मात् त्वमपि दुर्बुद्धे मच्छापपरिविक्षतः ॥ १९ ॥
पत्नीमृतावनुप्राप्य सद्यस्त्यक्ष्यसि जीवितम् ।
यस्य चर्षेर्वसिष्ठस्य त्वया पुत्रा विनाशिताः ॥ २० ॥
तेन संगम्य ते भार्या तनयं जनयिष्यति।
स ते वंशकरः पुत्रो भविष्यति नृपाधम ॥ २१ ॥

मूलम्

एवं विक्रोशमानायास्तस्यास्तु स नृशंसवत् ॥ १५ ॥
भर्तारं भक्षयामास व्याघ्रो मृगमिवेप्सितम्।
तस्याः क्रोधाभिभूताया यान्यश्रूण्यपतन् भुवि ॥ १६ ॥
सोऽग्निः समभवद् दीप्तस्तं च देशं व्यदीपयत्।
ततः सा शोकसंतप्ता भर्तृव्यसनकर्शिता ॥ १७ ॥
कल्माषपादं राजर्षिमशपद् ब्राह्मणी रुषा।
यस्मान्ममाकृतार्थायास्त्वया क्षुद्र नृशंसवत् ॥ १८ ॥
प्रेक्षन्त्या भक्षितो मेऽद्य प्रियो भर्ता महायशाः।
तस्मात् त्वमपि दुर्बुद्धे मच्छापपरिविक्षतः ॥ १९ ॥
पत्नीमृतावनुप्राप्य सद्यस्त्यक्ष्यसि जीवितम् ।
यस्य चर्षेर्वसिष्ठस्य त्वया पुत्रा विनाशिताः ॥ २० ॥
तेन संगम्य ते भार्या तनयं जनयिष्यति।
स ते वंशकरः पुत्रो भविष्यति नृपाधम ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार ब्राह्मणी करुण विलाप करती हुई याचना कर रही थी, तो भी जैसे व्याघ्र मनचाहे मृगको मारकर खा जाता है, उसी प्रकार राजाने अत्यन्त निर्दयीकी भाँति ब्राह्मणीके पतिको खा लिया। उस समय क्रोधसे पीड़ित हुई ब्राह्मणीके नेत्रोंसे धरतीपर आँसुओंकी जो बूँदें गिरीं, वे सब प्रज्वलित अग्नि बन गयीं। उस अग्निने उस स्थानको जलाकर भस्म कर दिया। तदनन्तर पतिके वियोगसे व्यथित एवं शोकसंतप्त ब्राह्मणीने रोषमें भरकर राजर्षि कल्माषपादको शाप दिया—‘ओ नीच! मेरी पतिविषयक कामना अभी पूर्ण नहीं हो पायी थी, तभी तूने अत्यन्त क्रूरकी भाँति मेरे देखते-देखते आज मेरे महायशस्वी प्रियतम पतिको अपना ग्रास बना लिया है; अतः दुर्बुद्धे! तू भी मेरे शापसे पीड़ित हुआ ऋतुकालमें पत्नीके साथ समागम करते ही तत्काल प्राण त्याग देगा। जिन महर्षि वसिष्ठके पुत्रोंका तुमने संहार किया है, उन्हींसे समागम करके तेरी पत्नी पुत्र पैदा करेगी। नृपाधम! वही पुत्र तेरा वंश चलानेवाला होगा’॥१५—२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं शप्त्वा तु राजानं सा तमाङ्गिरसी शुभा।
तस्यैव संनिधौ दीप्तं प्रविवेश हुताशनम् ॥ २२ ॥

मूलम्

एवं शप्त्वा तु राजानं सा तमाङ्गिरसी शुभा।
तस्यैव संनिधौ दीप्तं प्रविवेश हुताशनम् ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार राजाको शाप देकर वह सती साध्वी आंगिरसी राजा कल्माषपादके समीप ही प्रज्वलित अग्निमें प्रवेश कर गयी॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वसिष्ठश्च महाभागः सर्वमेतदवैक्षत ।
ज्ञानयोगेन महता तपसा च परंतप ॥ २३ ॥

मूलम्

वसिष्ठश्च महाभागः सर्वमेतदवैक्षत ।
ज्ञानयोगेन महता तपसा च परंतप ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुसूदन अर्जुन! महाभाग वसिष्ठजी अपनी बड़ी भारी तपस्या तथा ज्ञानयोगके प्रभावसे ये सब बातें जानते थे॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुक्तशापश्च राजर्षिः कालेन महता ततः।
ऋतुकालेऽभिपतितो मदयन्त्या निवारितः ॥ २४ ॥

मूलम्

मुक्तशापश्च राजर्षिः कालेन महता ततः।
ऋतुकालेऽभिपतितो मदयन्त्या निवारितः ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दीर्घकालके पश्चात् वे राजर्षि जब शापसे मुक्त हुए, तब ऋतुकालमें अपनी पत्नीके पास गये। परंतु उनकी रानी मदयन्तीने उन्हें (उक्त शापकी याद दिलाकर) रोक दिया॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न हि सस्मार स नृपस्तं शापं काममोहितः।
देव्याः सोऽथ वचः श्रुत्वा सम्भ्रान्तो नृपसत्तमः ॥ २५ ॥

मूलम्

न हि सस्मार स नृपस्तं शापं काममोहितः।
देव्याः सोऽथ वचः श्रुत्वा सम्भ्रान्तो नृपसत्तमः ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा कल्माषपाद कामसे मोहित हो रहे थे। इसलिये उन्हें शापका स्मरण नहीं रहा। महारानी मदयन्तीकी बात सुनकर वे नृपश्रेष्ठ बड़े सम्भ्रम (घबराहट)-में पड़ गये॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं शापमनुसंस्मृत्य पर्यतप्यद् भृशं तदा।
एतस्मात् कारणाद् राजा वसिष्ठं संन्ययोजयत्।
स्वदारेषु नरश्रेष्ठ शापदोषसमन्वितः ॥ २६ ॥

मूलम्

तं शापमनुसंस्मृत्य पर्यतप्यद् भृशं तदा।
एतस्मात् कारणाद् राजा वसिष्ठं संन्ययोजयत्।
स्वदारेषु नरश्रेष्ठ शापदोषसमन्वितः ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस शापको बार-बार याद करके उन्हें बड़ा संताप हुआ। नृपश्रेष्ठ! इसी कारण शापदोषसे युक्त राजा कल्माषपादने महर्षि वसिष्ठका अपनी पत्नीके साथ नियोग कराया॥२६॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि चैत्ररथपर्वणि वसिष्ठोपाख्याने एकाशीत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १८१ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत चैत्ररथपर्वमें वसिष्ठोपाख्यानविषयक एक सौ इक्यासीवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१८१॥