१८० राक्षस-नाश-यागः

श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना

अशीत्यधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

पुलस्त्य आदि महर्षियोंके समझानेसे पराशरजीके द्वारा राक्षससत्रकी समाप्ति

मूलम् (वचनम्)

गन्धर्व उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तः स विप्रर्षिर्वसिष्ठेन महात्मना।
न्ययच्छदात्मनः क्रोधं सर्वलोकपराभवात् ॥ १ ॥

मूलम्

एवमुक्तः स विप्रर्षिर्वसिष्ठेन महात्मना।
न्ययच्छदात्मनः क्रोधं सर्वलोकपराभवात् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गन्धर्व कहता है— अर्जुन! महात्मा वसिष्ठके यों कहनेपर उन ब्रह्मर्षि पराशरने अपने क्रोधको समस्त लोकोंके पराभवसे रोक लिया॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ईजे च स महातेजाः सर्ववेदविदां वरः।
ऋषी राक्षससत्रेण शाक्तेयोऽथ पराशरः ॥ २ ॥

मूलम्

ईजे च स महातेजाः सर्ववेदविदां वरः।
ऋषी राक्षससत्रेण शाक्तेयोऽथ पराशरः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब सम्पूर्ण वेदवेत्ताओंमें श्रेष्ठ महातेजस्वी शक्ति-नन्दन पराशरने राक्षससत्रका अनुष्ठान किया॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो वृद्धांश्च बालांश्च राक्षसान् स महामुनिः।
ददाह वितते यज्ञे शक्तेर्वधमनुस्मरन् ॥ ३ ॥

मूलम्

ततो वृद्धांश्च बालांश्च राक्षसान् स महामुनिः।
ददाह वितते यज्ञे शक्तेर्वधमनुस्मरन् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस विस्तृत यज्ञमें अपने पिता शक्तिके वधका बार-बार चिन्तन करते हुए महामुनि पराशरने राक्षसजातिके बूढ़ों तथा बालकोंको भी जलाना आरम्भ किया॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न हि तं वारयामास वसिष्ठो रक्षसां वधात्।
द्वितीयामस्य मा भाङ्क्षं प्रतिज्ञामिति निश्चयात् ॥ ४ ॥

मूलम्

न हि तं वारयामास वसिष्ठो रक्षसां वधात्।
द्वितीयामस्य मा भाङ्क्षं प्रतिज्ञामिति निश्चयात् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय महर्षि वसिष्ठने यह सोचकर कि इसकी दूसरी प्रतिज्ञाको न तोड़ूँ, उन्हें राक्षसोंके वधसे नहीं रोका॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रयाणां पावकानां च सत्रे तस्मिन् महामुनिः।
आसीत् पुरस्ताद् दीप्तानां चतुर्थ इव पावकः ॥ ५ ॥

मूलम्

त्रयाणां पावकानां च सत्रे तस्मिन् महामुनिः।
आसीत् पुरस्ताद् दीप्तानां चतुर्थ इव पावकः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस सत्रमें तीन प्रज्वलित अग्नियोंके समक्ष महामुनि पराशर चौथे अग्निके समान प्रकाशित हो रहे थे॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेन यज्ञेन शुभ्रेण हूयमानेन शक्तिजः।
तद्विदीपितमाकाशं सूर्येणेव घनात्यये ॥ ६ ॥

मूलम्

तेन यज्ञेन शुभ्रेण हूयमानेन शक्तिजः।
तद्विदीपितमाकाशं सूर्येणेव घनात्यये ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

(पापी राक्षसोंका संहार करनेके कारण) वह यज्ञ अत्यन्त निर्मल एवं शुद्ध समझा जाता था। शक्तिनन्दन पराशरद्वारा उसमें यज्ञसामग्रीका हवन आरम्भ होते ही (वह इतना प्रज्वलित हो उठा कि) उसके तेजसे सम्पूर्ण आकाश ठीक उसी तरह उद्भासित होने लगा, जैसे वर्षा बीतनेपर सूर्यकी प्रभासे उद्दीप्त हो उठता है॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं वसिष्ठादयः सर्वे मुनयस्तत्र मेनिरे।
तेजसा दीप्यमानं वै द्वितीयमिव भास्करम् ॥ ७ ॥

मूलम्

तं वसिष्ठादयः सर्वे मुनयस्तत्र मेनिरे।
तेजसा दीप्यमानं वै द्वितीयमिव भास्करम् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय वसिष्ठ आदि सभी मुनियोंको वहाँ तेजसे प्रकाशमान महर्षि पराशर दूसरे सूर्यके समान जान पड़ते थे॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः परमदुष्प्रापमन्यैर्ऋषिरुदारधीः ।
समापिपयिषुः सत्रं तमत्रिः समुपागमत् ॥ ८ ॥

मूलम्

ततः परमदुष्प्रापमन्यैर्ऋषिरुदारधीः ।
समापिपयिषुः सत्रं तमत्रिः समुपागमत् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर दूसरोंके लिये उस यज्ञको बंद करना अत्यन्त कठिन जानकर उदारबुद्धि महर्षि अत्रि स्वयं उस यज्ञको समाप्त करानेकी इच्छासे पराशरके पास आये॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा पुलस्त्यः पुलहः क्रतुश्चैव महाक्रतुः।
तत्राजग्मुरमित्रघ्न रक्षसां जीवितेप्सया ॥ ९ ॥

मूलम्

तथा पुलस्त्यः पुलहः क्रतुश्चैव महाक्रतुः।
तत्राजग्मुरमित्रघ्न रक्षसां जीवितेप्सया ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुओंका नाश करनेवाले अर्जुन! उसी प्रकार पुलस्त्य, पुलह, क्रतु और महाक्रतुने भी राक्षसोंके जीवनकी रक्षाके लिये वहाँ पदार्पण किया॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुलस्त्यस्तु वधात् तेषां रक्षसां भरतर्षभ।
उवाचेदं वचः पार्थ पराशरमरिंदमम् ॥ १० ॥

मूलम्

पुलस्त्यस्तु वधात् तेषां रक्षसां भरतर्षभ।
उवाचेदं वचः पार्थ पराशरमरिंदमम् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतकुलभूषण कुन्तीकुमार! उन राक्षसोंका विनाश होता देख महर्षि पुलस्त्यने शत्रुसूदन पराशरसे यह बात कही—॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कच्चित् तातापविघ्नं ते कच्चिन्नन्दसि पुत्रक।
अजानतामदोषाणां सर्वेषां रक्षसां वधात् ॥ ११ ॥

मूलम्

कच्चित् तातापविघ्नं ते कच्चिन्नन्दसि पुत्रक।
अजानतामदोषाणां सर्वेषां रक्षसां वधात् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तात! तुम्हारे इस यज्ञमें कोई विघ्न तो नहीं पड़ा? बेटा! तुम्हारे पिताकी हत्याके विषयमें कुछ भी न जाननेवाले इन सभी निर्दोष राक्षसोंका वध करके क्या तुम्हें प्रसन्नता होती है?॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रजोच्छेदमिमं मह्यं न हि कर्तुं त्वमर्हसि।
नैष तात द्विजातीनां धर्मो दृष्टस्तपस्विनाम् ॥ १२ ॥

मूलम्

प्रजोच्छेदमिमं मह्यं न हि कर्तुं त्वमर्हसि।
नैष तात द्विजातीनां धर्मो दृष्टस्तपस्विनाम् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वत्स! मेरी संततिका तुम्हें इस प्रकार उच्छेद नहीं करना चाहिये। तात! यह हिंसा तपस्वी ब्राह्मणोंका धर्म कभी नहीं मानी गयी॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शम एव परो धर्मस्तमाचर पराशर।
अधर्मिष्ठं वरिष्ठः सन् कुरुषे त्वं पराशर ॥ १३ ॥

मूलम्

शम एव परो धर्मस्तमाचर पराशर।
अधर्मिष्ठं वरिष्ठः सन् कुरुषे त्वं पराशर ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पराशर! शान्त रहना ही (ब्राह्मणोंका) श्रेष्ठ धर्म है, अतः उसीका आचरण करो। तुम श्रेष्ठ ब्राह्मण होकर भी यह पापकर्म करते हो?॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शक्तिं चापि हि धर्मज्ञं नातिक्रान्तुमिहार्हसि।
प्रजायाश्च ममोच्छेदं न चैवं कर्तुमर्हसि ॥ १४ ॥

मूलम्

शक्तिं चापि हि धर्मज्ञं नातिक्रान्तुमिहार्हसि।
प्रजायाश्च ममोच्छेदं न चैवं कर्तुमर्हसि ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुम्हारे पिता शक्ति धर्मके ज्ञाता थे, तुम्हें (इस अधर्मकृत्यद्वारा) उनकी मर्यादाका उल्लंघन नहीं करना चाहिये। फिर मेरी संतानोंका विनाश करना तुम्हारे लिये कदापि उचित नहीं है॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शापाद्धि शक्तेर्वासिष्ठ तदा तदुपपादितम्।
आत्मजेन स दोषेण शक्तिर्नीत इतो दिवम् ॥ १५ ॥

मूलम्

शापाद्धि शक्तेर्वासिष्ठ तदा तदुपपादितम्।
आत्मजेन स दोषेण शक्तिर्नीत इतो दिवम् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वसिष्ठकुलभूषण! शक्तिके शापसे ही उस समय वैसी दुर्घटना हो गयी थी। वे अपने ही अपराधसे इस लोकको छोड़कर स्वर्गवासी हुए हैं (इसमें राक्षसोंका कोई दोष नहीं है)॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न हि तं राक्षसः कश्चिच्छक्तो भक्षयितुं मुने।
आत्मनैवात्मनस्तेन दृष्टो मृत्युस्तदाभवत् ॥ १६ ॥

मूलम्

न हि तं राक्षसः कश्चिच्छक्तो भक्षयितुं मुने।
आत्मनैवात्मनस्तेन दृष्टो मृत्युस्तदाभवत् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मुने! कोई भी राक्षस उन्हें खा नहीं सकता था। अपने ही शापसे (राजाको नरभक्षी राक्षस बना देनेके कारण) उन्हें उस समय अपनी मृत्यु देखनी पड़ी॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निमित्तभूतस्तत्रासीद् विश्वामित्रः पराशर ।
राजा कल्माषपादश्च दिवमारुह्य मोदते ॥ १७ ॥

मूलम्

निमित्तभूतस्तत्रासीद् विश्वामित्रः पराशर ।
राजा कल्माषपादश्च दिवमारुह्य मोदते ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पराशर! विश्वामित्र तथा राजा कल्माषपाद भी इसमें निमित्तमात्र ही थे (तुम्हारे पूर्वजोंकी मृत्युमें तो प्रारब्ध ही प्रधान है)। इस समय तुम्हारे पिता शक्ति स्वर्गमें जाकर आनन्द भोगते हैं॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ये च शक्त्यवराः पुत्रा वसिष्ठस्य महामुने।
ते च सर्वे मुदा युक्ता मोदन्ते सहिताः सुरैः॥१८॥

मूलम्

ये च शक्त्यवराः पुत्रा वसिष्ठस्य महामुने।
ते च सर्वे मुदा युक्ता मोदन्ते सहिताः सुरैः॥१८॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महामुने! वसिष्ठजीके शक्तिसे छोटे जो पुत्र थे, वे सभी देवताओंके साथ प्रसन्नतापूर्वक सुख भोग रहे हैं॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वमेतद् वसिष्ठस्य विदितं वै महामुने।
रक्षसां च समुच्छेद एष तात तपस्विनाम् ॥ १९ ॥
निमित्तभूतस्त्वं चात्र क्रतौ वासिष्ठनन्दन।
तत् सत्रं मुञ्च भद्रं ते समाप्तमिदमस्तु ते ॥ २० ॥

मूलम्

सर्वमेतद् वसिष्ठस्य विदितं वै महामुने।
रक्षसां च समुच्छेद एष तात तपस्विनाम् ॥ १९ ॥
निमित्तभूतस्त्वं चात्र क्रतौ वासिष्ठनन्दन।
तत् सत्रं मुञ्च भद्रं ते समाप्तमिदमस्तु ते ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महर्षे! तुम्हारे पितामह वसिष्ठजीको ये सब बातें विदित हैं। तात शक्तिनन्दन! तेजस्वी राक्षसोंके विनाशके लिये आयोजित इस यज्ञमें तुम भी निमित्तमात्र ही बने हो (वास्तवमें यह सब उन्हींके पूर्वकर्मोंका फल है)। अतः अब इस यज्ञको छोड़ दो। तुम्हारा कल्याण हो, तुम्हारे इस सत्रकी समाप्ति हो जानी चाहिये’॥१९-२०॥

मूलम् (वचनम्)

गन्धर्व उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तः पुलस्त्येन वसिष्ठेन च धीमता।
तदा समापयामास सत्रं शाक्तो महामुनिः ॥ २१ ॥

मूलम्

एवमुक्तः पुलस्त्येन वसिष्ठेन च धीमता।
तदा समापयामास सत्रं शाक्तो महामुनिः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गन्धर्व कहता है— अर्जुन! पुलस्त्यजी तथा परम बुद्धिमान् वसिष्ठजीके यों कहनेपर महामुनि शक्तिपुत्र पराशरने उसी समय यज्ञको समाप्त कर दिया॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वराक्षससत्राय सम्भृतं पावकं तदा।
उत्तरे हिमवत्पार्श्वे उत्ससर्ज महावने ॥ २२ ॥

मूलम्

सर्वराक्षससत्राय सम्भृतं पावकं तदा।
उत्तरे हिमवत्पार्श्वे उत्ससर्ज महावने ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सम्पूर्ण राक्षसोंके विनाशके उद्देश्यसे किये जाने-वाले उस सत्रके लिये जो अग्नि संचित की गयी थी, उसे उन्होंने उत्तरदिशामें हिमालयके आस-पासके विशाल वनमें छोड़ दिया॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तत्राद्यापि रक्षांसि वृक्षानश्मन एव च।
भक्षयन् दृश्यते वह्निः सदा पर्वणि पर्वणि ॥ २३ ॥

मूलम्

स तत्राद्यापि रक्षांसि वृक्षानश्मन एव च।
भक्षयन् दृश्यते वह्निः सदा पर्वणि पर्वणि ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह अग्नि आज भी वहाँ सदा प्रत्येक पर्वके अवसरपर राक्षसों, वृक्षों और पत्थरोंको जलाती हुई देखी जाती है॥२३॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि चैत्ररथपर्वण्यौर्वोपाख्याने अशीत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १८० ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत चैत्ररथपर्वमें और्वोपाख्यानविषयक एक सौ अस्सीवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१८०॥