श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना
अष्टसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
पितरोंद्वारा और्वके क्रोधका निवारण
मूलम् (वचनम्)
ब्राह्मण्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाहं गृह्णामि वस्ताता दृष्टीर्नास्मि रुषान्विता।
अयं तु भार्गवो नूनमूरुजः कुपितोऽद्य वः ॥ १ ॥
मूलम्
नाहं गृह्णामि वस्ताता दृष्टीर्नास्मि रुषान्विता।
अयं तु भार्गवो नूनमूरुजः कुपितोऽद्य वः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मणीने कहा— पुत्रो! मैंने तुम्हारी दृष्टि नहीं ली है; मुझे तुमपर क्रोध भी नहीं है। परंतु मेरी जाँघसे पैदा हुआ यह भृगुवंशी बालक निश्चय ही तुम्हारे ऊपर आज कुपित हुआ है॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेन चक्षूंषि वस्ताता व्यक्तं कोपान्महात्मना।
स्मरता निहतान् बन्धूनादत्तानि न संशयः ॥ २ ॥
मूलम्
तेन चक्षूंषि वस्ताता व्यक्तं कोपान्महात्मना।
स्मरता निहतान् बन्धूनादत्तानि न संशयः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुत्रो! यह स्पष्ट जान पड़ता है कि इस महात्मा शिशुने तुमलोगोंद्वारा मारे गये अपने बन्धु-बान्धवोंका स्मरण करके क्रोधवश तुम्हारी आँखें ले ली हैं, इसमें संशय नहीं है॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गर्भानपि यदा यूयं भृगूणां घ्नत पुत्रकाः।
तदायमूरुणा गर्भो मया वर्षशतं धृतः ॥ ३ ॥
मूलम्
गर्भानपि यदा यूयं भृगूणां घ्नत पुत्रकाः।
तदायमूरुणा गर्भो मया वर्षशतं धृतः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बच्चो! जबसे तुमलोग भृगुवंशियोंके गर्भस्थ बालकोंकी भी हत्या करने लगे, तबसे मैंने अपने इस गर्भको सौ वर्षोंतक एक जाँघमें छिपाकर रखा था॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
षडङ्गश्चाखिलो वेद इमं गर्भस्थमेव ह।
विवेश भृगुवंशस्य भूयः प्रियचिकीर्षया ॥ ४ ॥
मूलम्
षडङ्गश्चाखिलो वेद इमं गर्भस्थमेव ह।
विवेश भृगुवंशस्य भूयः प्रियचिकीर्षया ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भृगुकुलका पुनः प्रिय करनेकी इच्छासे छहों अंगोंसहित सम्पूर्ण वेद इस बालकको गर्भमें ही प्राप्त हो गये थे॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽयं पितृवधाद् व्यक्तं क्रोधाद् वो हन्तुमिच्छति।
तेजसा तस्य दिव्येन चक्षूंषि मुषितानि वः ॥ ५ ॥
मूलम्
सोऽयं पितृवधाद् व्यक्तं क्रोधाद् वो हन्तुमिच्छति।
तेजसा तस्य दिव्येन चक्षूंषि मुषितानि वः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः यह बालक अपने पिताके वधसे कुपित हो निश्चय ही तुमलोगोंको मार डालना चाहता है। इसीके दिव्य तेजसे तुम्हारी नेत्र-ज्योति छिन गयी है॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमेव यूयं याचध्वमौर्वं मम सुतोत्तमम्।
अयं वः प्रणिपातेन तुष्टो दृष्टीः प्रमोक्ष्यति ॥ ६ ॥
मूलम्
तमेव यूयं याचध्वमौर्वं मम सुतोत्तमम्।
अयं वः प्रणिपातेन तुष्टो दृष्टीः प्रमोक्ष्यति ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसलिये तुमलोग मेरे इस उत्तम पुत्र और्वसे ही याचना करो। यह तुमलोगोंके नतमस्तक होनेसे संतुष्ट होकर पुनः तुम्हारी खोयी हुई नेत्रोंकी ज्योति दे देगा॥६॥
मूलम् (वचनम्)
वसिष्ठ उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्तास्ततः सर्वे राजानस्ते तमूरुजम्।
ऊचुः प्रसीदेति तदा प्रसादं च चकार सः ॥ ७ ॥
मूलम्
एवमुक्तास्ततः सर्वे राजानस्ते तमूरुजम्।
ऊचुः प्रसीदेति तदा प्रसादं च चकार सः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वसिष्ठजी कहते हैं— पराशर! ब्राह्मणीके यों कहनेपर उन सब क्षत्रियोंने तब और्वको (प्रणाम करके) कहा—‘आप प्रसन्न होइये।’ तब (उनके विनययुक्त वचन सुनकर) और्वने प्रसन्न हो (अपने तपके प्रभावसे) उनको नेत्रोंकी ज्योति दे दी॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनेनैव च विख्यातो नाम्ना लोकेषु सत्तमः।
स और्व इति विप्रर्षिरूरुं भित्त्वा व्यजायत ॥ ८ ॥
मूलम्
अनेनैव च विख्यातो नाम्ना लोकेषु सत्तमः।
स और्व इति विप्रर्षिरूरुं भित्त्वा व्यजायत ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे साधुशिरोमणि ब्रह्मर्षि अपनी माताका ऊरु भेदन करके उत्पन्न हुए थे, इसी कारण लोकमें ‘और्व’ नामसे उनकी ख्याति हुई॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चक्षूंषि प्रतिलब्ध्वा च प्रतिजग्मुस्ततो नृपाः।
भार्गवस्तु मुनिर्मेने सर्वलोकपराभवम् ॥ ९ ॥
मूलम्
चक्षूंषि प्रतिलब्ध्वा च प्रतिजग्मुस्ततो नृपाः।
भार्गवस्तु मुनिर्मेने सर्वलोकपराभवम् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर अपनी खोयी हुई आँखें पाकर वे क्षत्रियलोग लौट गये; इधर भृगुवंशी और्व मुनिने सम्पूर्ण लोकोंके पराभवका विचार किया॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स चक्रे तात लोकानां विनाशाय महामनाः।
सर्वेषामेव कार्त्स्न्येन मनः प्रवणमात्मनः ॥ १० ॥
मूलम्
स चक्रे तात लोकानां विनाशाय महामनाः।
सर्वेषामेव कार्त्स्न्येन मनः प्रवणमात्मनः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वत्स पराशर! उन महामना मुनिने समस्त लोकोंका पूर्णरूपसे विनाश करनेकी ओर अपना मन लगाया॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इच्छन्नपचितिं कर्तुं भृगूणां भृगुनन्दनः।
सर्वलोकविनाशाय तपसा महतैधितः ॥ ११ ॥
मूलम्
इच्छन्नपचितिं कर्तुं भृगूणां भृगुनन्दनः।
सर्वलोकविनाशाय तपसा महतैधितः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भृगुकुलको आनन्दित करनेवाले उस कुमारने (क्षत्रियोंद्वारा मारे गये) अपने भृगुवंशी पूर्वजोंका सम्मान करने (अथवा उनके वधका बदला लेने)-के लिये सब लोकोंके विनाशका निश्चय किया और बहुत बड़ी तपस्याद्वारा अपनी शक्तिको बढ़ाया॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तापयामास ताल्ँलोकान् सदेवासुरमानुषान् ।
तपसोग्रेण महता नन्दयिष्यन् पितामहान् ॥ १२ ॥
मूलम्
तापयामास ताल्ँलोकान् सदेवासुरमानुषान् ।
तपसोग्रेण महता नन्दयिष्यन् पितामहान् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसने अपने पितरोंको आनन्दित करनेके लिये अत्यन्त उग्र तपस्याद्वारा देवता, असुर और मनुष्योंसहित उन सभी लोकोंको संतप्त कर दिया॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तं पितरस्तात विज्ञाय कुलनन्दनम्।
पितृलोकादुपागम्य सर्व ऊचुरिदं वचः ॥ १३ ॥
मूलम्
ततस्तं पितरस्तात विज्ञाय कुलनन्दनम्।
पितृलोकादुपागम्य सर्व ऊचुरिदं वचः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तात! तदनन्तर सभी पितरोंने अपने कुलका आनन्द बढ़ानेवाले और्व मुनिका वह निश्चय जानकर पितृलोकसे आकर यह बात कही॥१३॥
मूलम् (वचनम्)
पितर ऊचुः
विश्वास-प्रस्तुतिः
और्व दृष्टः प्रभावस्ते तपसोग्रस्य पुत्रक।
प्रसादं कुरु लोकानां नियच्छ क्रोधमात्मनः ॥ १४ ॥
मूलम्
और्व दृष्टः प्रभावस्ते तपसोग्रस्य पुत्रक।
प्रसादं कुरु लोकानां नियच्छ क्रोधमात्मनः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पितर बोले— बेटा और्व! तुम्हारी उग्र तपस्याका प्रभाव हमने देख लिया। अब अपना क्रोध रोको और सम्पूर्ण लोकोंपर प्रसन्न हो जाओ॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नानीशैर्हि तदा तात भृगुभिर्भावितात्मभिः।
वधो ह्युपेक्षितः सर्वैः क्षत्रियाणां विहिंसताम् ॥ १५ ॥
मूलम्
नानीशैर्हि तदा तात भृगुभिर्भावितात्मभिः।
वधो ह्युपेक्षितः सर्वैः क्षत्रियाणां विहिंसताम् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तात! यह न समझना कि जिस समय क्षत्रियलोग हमारी हिंसा कर रहे थे, उस समय शुद्ध अन्तःकरणवाले हम भृगुवंशी ब्राह्मणोंने असमर्थ होनेके कारण अपने कुलके वधको चुपचाप सह लिया॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आयुषा विप्रकृष्टेन यदा नः खेद आविशत्।
तदास्माभिर्वधस्तात क्षत्रियैरीप्सितः स्वयम् ॥ १६ ॥
मूलम्
आयुषा विप्रकृष्टेन यदा नः खेद आविशत्।
तदास्माभिर्वधस्तात क्षत्रियैरीप्सितः स्वयम् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वत्स! जब हमारी आयु बहुत बड़ी हो गयी (और तब भी मौत नहीं आयी), उस दशामें हमलोगोंको (बड़ा) खेद हुआ और हमने (जान-बूझकर) क्षत्रियोंसे स्वयं अपना वध करानेकी इच्छा की॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निखातं यच्च वै वित्तं केनचिद् भृगुवेश्मनि।
वैरायैव तदा न्यस्तं क्षत्रियान् कोपयिष्णुभिः ॥ १७ ॥
मूलम्
निखातं यच्च वै वित्तं केनचिद् भृगुवेश्मनि।
वैरायैव तदा न्यस्तं क्षत्रियान् कोपयिष्णुभिः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
किसी भृगुवंशीने अपने घरमें जो धन गाड़ दिया था, वह भी वैर बढ़ानेके लिये ही किया गया था। हम चाहते थे कि क्षत्रियलोग हमारे ऊपर कुपित हो जायँ॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं हि वित्तेन नः कार्यं स्वर्गेप्सूनां द्विजोत्तम।
यदस्माकं धनाध्यक्षः प्रभूतं धनमाहरत् ॥ १८ ॥
मूलम्
किं हि वित्तेन नः कार्यं स्वर्गेप्सूनां द्विजोत्तम।
यदस्माकं धनाध्यक्षः प्रभूतं धनमाहरत् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
द्विजश्रेष्ठ! (यदि ऐसी बात न होती तो) स्वर्ग-लोककी इच्छावाले हम भार्गवोंको धनसे क्या काम था; क्योंकि साक्षात् कुबेरने हमें प्रचुर धनराशि लाकर दी थी॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदा तु मृत्युरादातुं न नः शक्नोति सर्वशः।
तदास्माभिरयं दृष्ट उपायस्तात सम्मतः ॥ १९ ॥
मूलम्
यदा तु मृत्युरादातुं न नः शक्नोति सर्वशः।
तदास्माभिरयं दृष्ट उपायस्तात सम्मतः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तात! जब मौत हमें अपने अंकमें न ले सकी, तब हमलोगोंने सर्वसम्मतिसे यह उपाय ढूँढ़ निकाला था॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आत्महा च पुमांस्तात न लोकाल्ँलभते शुभान्।
ततोऽस्माभिः समीक्ष्यैवं नात्मनाऽऽत्मा निपातितः ॥ २० ॥
मूलम्
आत्महा च पुमांस्तात न लोकाल्ँलभते शुभान्।
ततोऽस्माभिः समीक्ष्यैवं नात्मनाऽऽत्मा निपातितः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बेटा! आत्महत्या करनेवाला पुरुष शुभ लोकोंको नहीं पाता, इसीलिये हमने खूब सोच-विचारकर अपने ही हाथों अपना वध नहीं किया॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न चैतन्नः प्रियं तात यदिदं कर्तुमिच्छसि।
नियच्छेदं मनः पापात् सर्वलोकपराभवात् ॥ २१ ॥
मूलम्
न चैतन्नः प्रियं तात यदिदं कर्तुमिच्छसि।
नियच्छेदं मनः पापात् सर्वलोकपराभवात् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वत्स! तुम जो यह (सब) करना चाहते हो, वह भी हमें प्रिय नहीं है। सम्पूर्ण लोकोंका पराभव बहुत बड़ा पाप है, अतः उधरसे मनको रोको॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मा वधीः क्षत्रियांस्तात न लोकान् सप्त पुत्रक।
दूषयन्तं तपस्तेजः क्रोधमुत्पतितं जहि ॥ २२ ॥
मूलम्
मा वधीः क्षत्रियांस्तात न लोकान् सप्त पुत्रक।
दूषयन्तं तपस्तेजः क्रोधमुत्पतितं जहि ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तात! क्षत्रियोंको न मारो। बेटा! भू आदि सात लोकोंका भी संहार न करो। यह जो क्रोध उत्पन्न हुआ है, वह (तुम्हारे) तपस्याजनित तेजको दूषित करनेवाला है, अतः इसीको मारो॥२२॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि चैत्ररथपर्वण्यौर्ववारणे अष्टसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १७८ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत चैत्ररथपर्वमें और्वक्रोधनिवारण-विषयक एक सौ अठहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१७८॥