श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना
सप्तसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
शक्तिपुत्र पराशरका जन्म और पिताकी मृत्युका हाल सुनकर कुपित हुए पराशरको शान्त करनेके लिये वसिष्ठजीका उन्हें और्वोपाख्यान सुनाना
मूलम् (वचनम्)
गन्धर्व उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
आश्रमस्था ततः पुत्रमदृश्यन्ती व्यजायत।
शक्तेः कुलकरं राजन् द्वितीयमिव शक्तिनम् ॥ १ ॥
मूलम्
आश्रमस्था ततः पुत्रमदृश्यन्ती व्यजायत।
शक्तेः कुलकरं राजन् द्वितीयमिव शक्तिनम् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गन्धर्व कहता है— अर्जुन! तदनन्तर (वसिष्ठजीके) आश्रममें रहती हुई अदृश्यन्तीने शक्तिके वंशको बढ़ानेवाले एक पुत्रको जन्म दिया, मानो उस बालकके रूपमें दूसरे शक्ति मुनि ही हों॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जातकर्मादिकास्तस्य क्रियाः स मुनिसत्तमः।
पौत्रस्य भरतश्रेष्ठ चकार भगवान् स्वयम् ॥ २ ॥
मूलम्
जातकर्मादिकास्तस्य क्रियाः स मुनिसत्तमः।
पौत्रस्य भरतश्रेष्ठ चकार भगवान् स्वयम् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! मुनिवर भगवान् वसिष्ठने स्वयं अपने पौत्रके जातकर्म आदि संस्कार किये॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
परासुः स यतस्तेन वसिष्ठः स्थापितो मुनिः।
गर्भस्थेन ततो लोके पराशर इति स्मृतः ॥ ३ ॥
मूलम्
परासुः स यतस्तेन वसिष्ठः स्थापितो मुनिः।
गर्भस्थेन ततो लोके पराशर इति स्मृतः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस बालकने गर्भमें आकर परासु (मरनेकी इच्छावाले) वसिष्ठ मुनिको पुनः जीवित रहनेके लिये उत्साहित किया था; इसलिये वह लोकमें ‘पराशर’ के नामसे विख्यात हुआ॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अमन्यत स धर्मात्मा वसिष्ठं पितरं मुनिः।
जन्मप्रभृति तस्मिंस्तु पितरीवान्ववर्तत ॥ ४ ॥
मूलम्
अमन्यत स धर्मात्मा वसिष्ठं पितरं मुनिः।
जन्मप्रभृति तस्मिंस्तु पितरीवान्ववर्तत ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्मात्मा पराशर मुनि वसिष्ठको ही अपना पिता मानते थे और जन्मसे ही उनके प्रति पितृभाव रखते थे॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तात इति विप्रर्षिर्वसिष्ठं प्रत्यभाषत।
मातुः समक्षं कौन्तेय अदृश्यन्त्याः परंतप ॥ ५ ॥
मूलम्
स तात इति विप्रर्षिर्वसिष्ठं प्रत्यभाषत।
मातुः समक्षं कौन्तेय अदृश्यन्त्याः परंतप ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परंतप कुन्तीकुमार! एक दिन ब्रह्मर्षि पराशरने अपनी माता अदृश्यन्तीके सामने ही वसिष्ठजीको ‘तात’ कहकर पुकारा॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तातेति परिपूर्णार्थं तस्य तन्मधुरं वचः।
अदृश्यन्त्यश्रुपूर्णाक्षी शृण्वती तमुवाच ह ॥ ६ ॥
मूलम्
तातेति परिपूर्णार्थं तस्य तन्मधुरं वचः।
अदृश्यन्त्यश्रुपूर्णाक्षी शृण्वती तमुवाच ह ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बेटेके मुखसे परिपूर्ण अर्थका बोधक ‘तात’ यह मधुर वचन सुनकर अदृश्यन्तीके नेत्रोंमें आँसू भर आये और वह उससे बोली—॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मा तात तात तातेति ब्रूह्येनं पितरं पितुः।
रक्षसा भक्षितस्तात तव तातो वनान्तरे ॥ ७ ॥
मूलम्
मा तात तात तातेति ब्रूह्येनं पितरं पितुः।
रक्षसा भक्षितस्तात तव तातो वनान्तरे ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘बेटा! ये तुम्हारे पिताके भी पिता हैं। तुम इन्हें ‘तात तात!’ कहकर न पुकारो। वत्स! तुम्हारे पिताको तो वनके भीतर राक्षस खा गया॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन्यसे यं तु तातेति नैष तातस्तवानघ।
आर्य एष पिता तस्य पितुस्तव यशस्विनः ॥ ८ ॥
मूलम्
मन्यसे यं तु तातेति नैष तातस्तवानघ।
आर्य एष पिता तस्य पितुस्तव यशस्विनः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अनघ! तुम जिन्हें तात मानते हो, ये तुम्हारे तात नहीं हैं। ये तो तुम्हारे यशस्वी पिताके भी पूजनीय पिता हैं’॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स एवमुक्तो दुःखार्तः सत्यवागृषिसत्तमः।
सर्वलोकविनाशाय मतिं चक्रे महामनाः ॥ ९ ॥
मूलम्
स एवमुक्तो दुःखार्तः सत्यवागृषिसत्तमः।
सर्वलोकविनाशाय मतिं चक्रे महामनाः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
माताके यों कहनेपर सत्यवादी मुनिश्रेष्ठ महामना पराशर दुःखसे आतुर हो उठे। उन्होंने उसी समय सब लोकोंको नष्ट कर डालनेका विचार किया॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं तथा निश्चितात्मानं स महात्मा महातपाः।
ऋषिर्ब्रह्मविदां श्रेष्ठो मैत्रावरुणिरन्त्यधीः ॥ १० ॥
वसिष्ठो वारयामास हेतुना येन तच्छृणु।
मूलम्
तं तथा निश्चितात्मानं स महात्मा महातपाः।
ऋषिर्ब्रह्मविदां श्रेष्ठो मैत्रावरुणिरन्त्यधीः ॥ १० ॥
वसिष्ठो वारयामास हेतुना येन तच्छृणु।
अनुवाद (हिन्दी)
उनके मनका ऐसा निश्चय जान ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ महातपस्वी, महात्मा एवं तात्त्विक बुद्धिवाले मित्रावरुणनन्दन वसिष्ठजीने पराशरको ऐसा करनेसे रोक दिया। जिस हेतु और युक्तिसे वे उन्हें रोकनेमें सफल हुए, वह (बताता हूँ,) सुनिये॥१०॥
मूलम् (वचनम्)
वसिष्ठ उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृतवीर्य इति ख्यातो बभूव पृथिवीपतिः ॥ ११ ॥
याज्यो वेदविदां लोके भृगूणां पार्थिवर्षभः।
स तानग्रभुजस्तात धान्येन च धनेन च ॥ १२ ॥
सोमान्ते तर्पयामास विपुलेन विशाम्पतिः।
तस्मिन् नृपतिशार्दूले स्वर्यातेऽथ कथंचन ॥ १३ ॥
बभूव तत्कुलेयानां द्रव्यकार्यमुपस्थितम् ।
भृगूणां तु धनं ज्ञात्वा राजानः सर्व एव ते॥१४॥
याचिष्णवोऽभिजग्मुस्तांस्ततो भार्गवसत्तमान् ।
भूमौ तु निदधुः केचिद् भृगवो धनमक्षयम् ॥ १५ ॥
मूलम्
कृतवीर्य इति ख्यातो बभूव पृथिवीपतिः ॥ ११ ॥
याज्यो वेदविदां लोके भृगूणां पार्थिवर्षभः।
स तानग्रभुजस्तात धान्येन च धनेन च ॥ १२ ॥
सोमान्ते तर्पयामास विपुलेन विशाम्पतिः।
तस्मिन् नृपतिशार्दूले स्वर्यातेऽथ कथंचन ॥ १३ ॥
बभूव तत्कुलेयानां द्रव्यकार्यमुपस्थितम् ।
भृगूणां तु धनं ज्ञात्वा राजानः सर्व एव ते॥१४॥
याचिष्णवोऽभिजग्मुस्तांस्ततो भार्गवसत्तमान् ।
भूमौ तु निदधुः केचिद् भृगवो धनमक्षयम् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वसिष्ठजीने (पराशरसे) कहा— वत्स! इस पृथ्वीपर कृतवीर्य नामसे प्रसिद्ध एक राजा थे। वे नृपश्रेष्ठ वेदज्ञ भृगुवंशी ब्राह्मणोंके यजमान थे। तात! उन महाराजने सोमयज्ञ करके उसके अन्तमें उन अग्रभोजी भार्गवोंको विपुल धन और धान्य देकर उसके द्वारा पूर्ण संतुष्ट किया। राजाओंमें श्रेष्ठ कृतवीर्यके स्वर्गवासी हो जानेपर उनके वंशजोंको किसी तरह द्रव्यकी आवश्यकता आ पड़ी। भृगुवंशी ब्राह्मणोंके यहाँ धन है, यह जानकर वे सभी राजपुत्र उन श्रेष्ठ भार्गवोंके पास याचक बनकर गये। उस समय कुछ भार्गवोंने अपनी अक्षय धनराशिको धरतीमें गाड़ दिया॥११—१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ददुः केचिद् द्विजातिभ्यो ज्ञात्वा क्षत्रियतो भयम्।
भृगवस्तु ददुः केचित् तेषां वित्तं यथेप्सितम् ॥ १६ ॥
मूलम्
ददुः केचिद् द्विजातिभ्यो ज्ञात्वा क्षत्रियतो भयम्।
भृगवस्तु ददुः केचित् तेषां वित्तं यथेप्सितम् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुछने क्षत्रियोंसे भय समझकर अपना धन ब्राह्मणोंको दे दिया और कुछ भृगुवंशियोंने उन क्षत्रियोंको यथेष्ट धन दे भी दिया॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षत्रियाणां तदा तात कारणान्तरदर्शनात्।
ततो महीतलं तात क्षत्रियेण यदृच्छया ॥ १७ ॥
खनताधिगतं वित्तं केनचिद् भृगुवेश्मनि।
तद् वित्तं ददृशुः सर्वे समेताः क्षत्रियर्षभाः ॥ १८ ॥
मूलम्
क्षत्रियाणां तदा तात कारणान्तरदर्शनात्।
ततो महीतलं तात क्षत्रियेण यदृच्छया ॥ १७ ॥
खनताधिगतं वित्तं केनचिद् भृगुवेश्मनि।
तद् वित्तं ददृशुः सर्वे समेताः क्षत्रियर्षभाः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तात! कुछ दूसरे-दूसरे कारणोंका विचार करके उस समय उन्होंने क्षत्रियोंको धन प्रदान किया था। वत्स! तदनन्तर किसी क्षत्रियने अकस्मात् धरती खोदते-खोदते किसी भृगुवंशीके घरमें गड़ा हुआ धन पा लिया। तब सभी श्रेष्ठ क्षत्रियोंने एकत्र होकर उस धनको देखा॥१७-१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवमन्य ततः क्रोधाद् भृगूंस्ताञ्छरणागतान्।
निजघ्नुः परमेष्वासाः सर्वांस्तान् निशितैः शरैः ॥ १९ ॥
मूलम्
अवमन्य ततः क्रोधाद् भृगूंस्ताञ्छरणागतान्।
निजघ्नुः परमेष्वासाः सर्वांस्तान् निशितैः शरैः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर तो उन्होंने क्रोधमें भरकर शरणमें आये हुए भृगुवंशियोंका भी अपमान किया। उन महान् धनुर्धर वीरोंने (वहाँ आये हुए) समस्त भार्गवोंको तीखे बाणोंसे मारकर यमलोक पहुँचा दिया॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आगर्भादवकृन्तन्तश्चेरुः सर्वां वसुन्धराम् ।
तत उच्छिद्यमानेषु भृगुष्वेवं भयात् तदा ॥ २० ॥
भृगुपत्न्यो गिरिं दुर्गं हिमवन्तं प्रपेदिरे।
तासामन्यतमा गर्भं भयाद् दध्रे महौजसम् ॥ २१ ॥
ऊरुणैकेन वामोरुर्भर्तुः कुलविवृद्धये ।
तद् गर्भमुपलभ्याशु ब्राह्मणी या भयार्दिता ॥ २२ ॥
गत्वैका कथयामास क्षत्रियाणामुपह्वरे ।
ततस्ते क्षत्रिया जग्मुस्तं गर्भं हन्तुमुद्यताः ॥ २३ ॥
मूलम्
आगर्भादवकृन्तन्तश्चेरुः सर्वां वसुन्धराम् ।
तत उच्छिद्यमानेषु भृगुष्वेवं भयात् तदा ॥ २० ॥
भृगुपत्न्यो गिरिं दुर्गं हिमवन्तं प्रपेदिरे।
तासामन्यतमा गर्भं भयाद् दध्रे महौजसम् ॥ २१ ॥
ऊरुणैकेन वामोरुर्भर्तुः कुलविवृद्धये ।
तद् गर्भमुपलभ्याशु ब्राह्मणी या भयार्दिता ॥ २२ ॥
गत्वैका कथयामास क्षत्रियाणामुपह्वरे ।
ततस्ते क्षत्रिया जग्मुस्तं गर्भं हन्तुमुद्यताः ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर भृगुवंशियोंके गर्भस्थ बालकोंकी भी हत्या करते हुए वे क्रोधान्ध क्षत्रिय सारी पृथ्वीपर विचरने लगे। इस प्रकार भृगुवंशका उच्छेद आरम्भ होनेपर भृगुवंशियोंकी पत्नियाँ उस समय भयके मारे हिमालयकी दुर्गम कन्दरामें जा छिपीं। उनमेंसे एक स्त्रीने अपने महान् तेजस्वी गर्भको भयके मारे एक ओरकी जाँघको चीरकर उसमें रख लिया। उस वामोरुने अपने पतिके वंशकी वृद्धिके लिये ऐसा साहस किया था। उस गर्भका समाचार जानकर कोई ब्राह्मणी बहुत डर गयी और उसने शीघ्र ही अकेली जाकर क्षत्रियोंके समीप उसकी खबर पहुँचा दी। फिर तो वे क्षत्रियलोग उस गर्भकी हत्या करनेके लिये उद्यत हो वहाँ गये॥२०—२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ददृशुर्ब्राह्मणीं तेऽथ दीप्यमानां स्वतेजसा।
अथ गर्भः स भित्त्वोरुं ब्राह्मण्या निर्जगाम ह ॥ २४ ॥
मूलम्
ददृशुर्ब्राह्मणीं तेऽथ दीप्यमानां स्वतेजसा।
अथ गर्भः स भित्त्वोरुं ब्राह्मण्या निर्जगाम ह ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने देखा, वह ब्राह्मणी अपने तेजसे प्रकाशित हो रही है। उसी समय उस ब्राह्मणीका वह गर्भस्थ शिशु उसकी जाँघ फाड़कर बाहर निकल आया॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुष्णन् दृष्टीः क्षत्रियाणां मध्याह्न इव भास्करः।
ततश्चक्षुर्विहीनास्ते गिरिदुर्गेषु बभ्रमुः ॥ २५ ॥
मूलम्
मुष्णन् दृष्टीः क्षत्रियाणां मध्याह्न इव भास्करः।
ततश्चक्षुर्विहीनास्ते गिरिदुर्गेषु बभ्रमुः ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बाहर निकलते ही दोपहरके प्रचण्ड सूर्यकी भाँति उस तेजस्वी शिशुने (अपने तेजसे) उन क्षत्रियोंकी आँखोंकी ज्योति छीन ली। तब वे अंधे होकर उस पर्वतके बीहड़ स्थानोंमें भटकने लगे॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्ते मोहमापन्ना राजानो नष्टदृष्टयः।
ब्राह्मणीं शरणं जग्मुर्दृष्ट्यर्थं तामनिन्दिताम् ॥ २६ ॥
मूलम्
ततस्ते मोहमापन्ना राजानो नष्टदृष्टयः।
ब्राह्मणीं शरणं जग्मुर्दृष्ट्यर्थं तामनिन्दिताम् ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर मोहके वशीभूत हो अपनी दृष्टिको खो देनेवाले क्षत्रियोंने पुनः दृष्टि प्राप्त करनेके लिये उसी सती-साध्वी ब्राह्मणीकी शरण ली॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऊचुश्चैनां महाभागां क्षत्रियास्ते विचेतसः।
ज्योतिः प्रहीणा दुःखार्ताः शान्तार्चिष इवाग्नयः ॥ २७ ॥
भगवत्याः प्रसादेन गच्छेत् क्षत्रं सचक्षुषम्।
उपारम्य च गच्छेम सहिताः पापकर्मिणः ॥ २८ ॥
मूलम्
ऊचुश्चैनां महाभागां क्षत्रियास्ते विचेतसः।
ज्योतिः प्रहीणा दुःखार्ताः शान्तार्चिष इवाग्नयः ॥ २७ ॥
भगवत्याः प्रसादेन गच्छेत् क्षत्रं सचक्षुषम्।
उपारम्य च गच्छेम सहिताः पापकर्मिणः ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे क्षत्रिय उस समय आँखकी ज्योतिसे वंचित हो बुझी हुई लपटोंवाली आगके समान अत्यन्त दुःखसे आतुर एवं अचेत हो रहे थे। अतः वे उस महान् सौभाग्यशालिनी देवीसे इस प्रकार बोले—‘देवि! यदि आपकी कृपा हो तो नेत्र पाकर यह क्षत्रियोंका दल अब लौट जायगा, थोड़ी देर विश्राम करके हम सभी पापाचारी यहाँसे साथ ही चले जायँगे’॥२७-२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सपुत्रा त्वं प्रसादं नः कर्तुमर्हसि शोभने।
पुनर्दृष्टिप्रदानेन राज्ञः संत्रातुमर्हसि ॥ २९ ॥
मूलम्
सपुत्रा त्वं प्रसादं नः कर्तुमर्हसि शोभने।
पुनर्दृष्टिप्रदानेन राज्ञः संत्रातुमर्हसि ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘शोभने! तुम अपने पुत्रके साथ हम सबपर प्रसन्न हो जाओ और पुनः नूतन दृष्टि देकर हम सभी राजपुत्रोंकी रक्षा करो’॥२९॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि चैत्ररथपर्वण्यौर्वोपाख्याने सप्तसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १७७ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत चैत्ररथपर्वमें और्वोपाख्यानविषयक एक सौ सतहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१७७॥