१७६ वसिष्ठ-समाश्वासनम्

श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना

षट्‌सप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

कल्माषपादका शापसे उद्धार और वसिष्ठजीके द्वारा उन्हें अश्मक नामक पुत्रकी प्राप्ति

मूलम् (वचनम्)

गन्धर्व उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो दृष्ट्वाऽऽश्रमपदं रहितं तैः सुतैर्मुनिः।
निर्जगाम सुदुःखार्तः पुनरप्याश्रमात् ततः ॥ १ ॥

मूलम्

ततो दृष्ट्वाऽऽश्रमपदं रहितं तैः सुतैर्मुनिः।
निर्जगाम सुदुःखार्तः पुनरप्याश्रमात् ततः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गन्धर्व कहता है— अर्जुन! तदनन्तर मुनिवर वसिष्ठ आश्रमको अपने पुत्रोंसे सूना देख अत्यन्त दुःखसे पीड़ित हो गये और पुनः आश्रम छोड़कर चल दिये॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽपश्यत् सरितं पूर्णां प्रावृट्काले नवाम्भसा।
वृक्षान् बहुविधान् पार्थ हरन्तीं तीरजान् बहून् ॥ २ ॥

मूलम्

सोऽपश्यत् सरितं पूर्णां प्रावृट्काले नवाम्भसा।
वृक्षान् बहुविधान् पार्थ हरन्तीं तीरजान् बहून् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुन्तीनन्दन! वर्षाका समय था; उन्होंने देखा, एक नदी नूतन जलसे लबालब भरी है और तटवर्ती बहुत-से वृक्षोंको (अपने जलकी धारामें) बहाये लिये जाती है॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ चिन्तां समापेदे पुनः कौरवनन्दन।
अम्भस्यस्या निमज्जेयमिति दुःखसमन्वितः ॥ ३ ॥

मूलम्

अथ चिन्तां समापेदे पुनः कौरवनन्दन।
अम्भस्यस्या निमज्जेयमिति दुःखसमन्वितः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कौरवनन्दन! (उसे देखकर) दुःखसे युक्त वसिष्ठजीके मनमें फिर यह विचार आया कि मैं इसी नदीके जलमें डूब जाऊँ॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः पाशैस्तदाऽऽत्मानं गाढं बद्ध्वा महामुनिः।
तस्या जले महानद्या निममज्ज सुदुःखितः ॥ ४ ॥

मूलम्

ततः पाशैस्तदाऽऽत्मानं गाढं बद्ध्वा महामुनिः।
तस्या जले महानद्या निममज्ज सुदुःखितः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब अत्यन्त दुःखी हुए महामुनि वसिष्ठ अपने शरीरको पाशोंद्वारा अच्छी तरह बाँधकर उस महानदीके जलमें कूद पड़े॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ छित्त्वा नदी पाशांस्तस्यारिबलसूदन।
स्थलस्थं तमृषिं कृत्वा विपाशं समवासृजत् ॥ ५ ॥

मूलम्

अथ छित्त्वा नदी पाशांस्तस्यारिबलसूदन।
स्थलस्थं तमृषिं कृत्वा विपाशं समवासृजत् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुसेनाका संहार करनेवाले अर्जुन! उस नदीने वसिष्ठजीके बन्धन काटकर उन्हें स्थलमें पहुँचा दिया और उन्हें विपाश (बन्धनरहित) करके छोड़ दिया॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्ततार ततः पाशैर्विमुक्तः स महानृषिः।
विपाशेति च नामास्या नद्याश्चक्रे महानृषिः ॥ ६ ॥

मूलम्

उत्ततार ततः पाशैर्विमुक्तः स महानृषिः।
विपाशेति च नामास्या नद्याश्चक्रे महानृषिः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब पाशमुक्त हो महर्षि जलसे निकल आये और उन्होंने उस नदीका नाम ‘विपाशा’ (व्यास) रख दिया॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शोकबुद्धिं तदा चक्रे न चैकत्र व्यतिष्ठत।
सोऽगच्छत् पर्वतांश्चैव सरितश्च सरांसि च ॥ ७ ॥

मूलम्

शोकबुद्धिं तदा चक्रे न चैकत्र व्यतिष्ठत।
सोऽगच्छत् पर्वतांश्चैव सरितश्च सरांसि च ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय (पुत्रवधुओंके संतोषके लिये) उन्होंने शोकबुद्धि कर ली थी, इसलिये वे किसी एक स्थानमें नहीं ठहरते थे; पर्वतों, नदियों और सरोवरोंके तटपर चक्कर लगाते रहते थे॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दृष्ट्वा स पुनरेवर्षिर्नदीं हैमवतीं तदा।
चण्डग्राहवतीं भीमां तस्याः स्रोतस्यपातयत् ॥ ८ ॥

मूलम्

दृष्ट्वा स पुनरेवर्षिर्नदीं हैमवतीं तदा।
चण्डग्राहवतीं भीमां तस्याः स्रोतस्यपातयत् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

(इस तरह घूमते-घूमते) महर्षिने पुनः हिमालय पर्वतसे निकली हुई एक भयंकर नदीको देखा, जिसमें बड़े प्रचण्ड ग्राह रहते थे। उन्होंने फिर उसीकी प्रखर धारामें अपने-आपको डाल दिया॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा तमग्निसमं विप्रमनुचिन्त्य सरिद्वरा।
शतधा विद्रुता यस्माच्छतद्रुरिति विश्रुता ॥ ९ ॥

मूलम्

सा तमग्निसमं विप्रमनुचिन्त्य सरिद्वरा।
शतधा विद्रुता यस्माच्छतद्रुरिति विश्रुता ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह श्रेष्ठ नदी ब्रह्मर्षि वसिष्ठको अग्निके समान तेजस्वी जान सैकड़ों धाराओंमें फूटकर इधर-उधर भाग चली। इसीलिये वह ‘शतद्रु’ नामसे विख्यात हुई॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः स्थलगतं दृष्ट्वा तत्राप्यात्मानमात्मना।
मर्तुं न शक्यमित्युक्त्वा पुनरेवाश्रमं ययौ ॥ १० ॥

मूलम्

ततः स्थलगतं दृष्ट्वा तत्राप्यात्मानमात्मना।
मर्तुं न शक्यमित्युक्त्वा पुनरेवाश्रमं ययौ ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ भी अपनेको स्वयं ही स्थलमें पड़ा देख ‘मैं मर नहीं सकता’ यों कहकर वे फिर अपने आश्रमपर ही चले गये॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स गत्वा विविधाञ्छैलान्‌ देशान् बहुविधांस्तथा।
अदृश्यन्त्याख्यया वध्वाथाश्रमेऽनुसृतोऽभवत् ॥ ११ ॥

मूलम्

स गत्वा विविधाञ्छैलान्‌ देशान् बहुविधांस्तथा।
अदृश्यन्त्याख्यया वध्वाथाश्रमेऽनुसृतोऽभवत् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस तरह नाना प्रकारके पर्वतों और बहुसंख्यक देशोंमें भ्रमण करके वे पुनः जब अपने आश्रमके समीप आये, उस समय उनकी पुत्रवधू अदृश्यन्ती उनके पीछे हो ली॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ शुश्राव संगत्या वेदाध्ययननिःस्वनम्।
पृष्ठतः परिपूर्णार्थं षड्भिरङ्गैरलंकृतम् ॥ १२ ॥

मूलम्

अथ शुश्राव संगत्या वेदाध्ययननिःस्वनम्।
पृष्ठतः परिपूर्णार्थं षड्भिरङ्गैरलंकृतम् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुनिको पीछेकी ओरसे संगतिपूर्वक छहों अंगोंसे अलंकृत तथा स्फुट अर्थोंसे युक्त वेदमन्त्रोंके अध्ययनका शब्द सुन पड़ा॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनुव्रजति को न्वेष मामित्येवाथ सोऽब्रवीत्।
अहमित्यदृश्यन्तीमं सा स्नुषा प्रत्यभाषत।
शक्तेर्भार्या महाभाग तपोयुक्ता तपस्विनी ॥ १३ ॥

मूलम्

अनुव्रजति को न्वेष मामित्येवाथ सोऽब्रवीत्।
अहमित्यदृश्यन्तीमं सा स्नुषा प्रत्यभाषत।
शक्तेर्भार्या महाभाग तपोयुक्ता तपस्विनी ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब उन्होंने पूछा—‘मेरे पीछे-पीछे कौन आ रहा है?’ उक्त पुत्रवधूने उत्तर दिया, ‘महाभाग! मैं तपमें ही संलग्न रहनेवाली महर्षि शक्तिकी अनाथ पत्नी अदृश्यन्ती हूँ’॥१३॥

मूलम् (वचनम्)

वसिष्ठ उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुत्रि कस्यैष साङ्गस्य वेदस्याध्ययनस्वनः।
पुरा साङ्गस्य वेदस्य शक्तेरिव मया श्रुतः ॥ १४ ॥

मूलम्

पुत्रि कस्यैष साङ्गस्य वेदस्याध्ययनस्वनः।
पुरा साङ्गस्य वेदस्य शक्तेरिव मया श्रुतः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वसिष्ठजीने पूछा— बेटी! पहले शक्तिके मुँहसे मैं अंगोंसहित वेदका जैसा पाठ सुना करता था, ठीक उसी प्रकार यह किसके द्वारा किये हुए सांग वेदके अध्ययनकी ध्वनि मेरे कानोंमें आ रही है?॥१४॥

मूलम् (वचनम्)

अदृश्यन्त्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अयं कुक्षौ समुत्पन्नः शक्तेर्गर्भः सुतस्य ते।
समा द्वादश तस्येह वेदानभ्यस्यतो मुने ॥ १५ ॥

मूलम्

अयं कुक्षौ समुत्पन्नः शक्तेर्गर्भः सुतस्य ते।
समा द्वादश तस्येह वेदानभ्यस्यतो मुने ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अदृश्यन्ती बोली— भगवन्! यह मेरे उदरमें उत्पन्न हुआ आपके पुत्र शक्तिका बालक है। मुने! उसे मेरे गर्भमें ही वेदाभ्यास करते बारह वर्ष हो गये हैं॥१५॥

मूलम् (वचनम्)

गन्धर्व उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तस्तया हृष्टो वसिष्ठः श्रेष्ठभागृषिः।
अस्ति संतानमित्युक्त्वा मृत्योः पार्थ न्यवर्तत ॥ १६ ॥

मूलम्

एवमुक्तस्तया हृष्टो वसिष्ठः श्रेष्ठभागृषिः।
अस्ति संतानमित्युक्त्वा मृत्योः पार्थ न्यवर्तत ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गन्धर्व कहता है— अर्जुन! अदृश्यन्तीके यों कहनेपर भगवान् पुरुषोत्तमका भजन करनेवाले महर्षि वसिष्ठ बड़े प्रसन्न हुए और ‘मेरी वंशपरम्पराका लोप नहीं हुआ है,’ यों कहकर मरनेके संकल्पसे विरत हो गये॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः प्रतिनिवृत्तः स तया वध्वा सहानघ।
कल्माषपादमासीनं ददर्श विजने वने ॥ १७ ॥

मूलम्

ततः प्रतिनिवृत्तः स तया वध्वा सहानघ।
कल्माषपादमासीनं ददर्श विजने वने ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अनघ! तब वे अपनी पुत्रवधूके साथ आश्रमकी ओर लौटने लगे। इतनेमें ही मुनिने निर्जन वनमें बैठे हुए राजा कल्माषपादको देखा॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तु दृष्ट्वैव तं राजा क्रुद्ध उत्थाय भारत।
आविष्टो रक्षसोग्रेण इयेषात्तुं तदा मुनिम् ॥ १८ ॥

मूलम्

स तु दृष्ट्वैव तं राजा क्रुद्ध उत्थाय भारत।
आविष्टो रक्षसोग्रेण इयेषात्तुं तदा मुनिम् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! भयानक राक्षससे आविष्ट हुए राजा कल्माषपाद मुनिको देखते ही क्रोधमें भरकर उठे और उसी समय उन्हें खा जानेकी इच्छा करने लगे॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अदृश्यन्ती तु तं दृष्ट्वा क्रूरकर्माणमग्रतः।
भयसंविग्नया वाचा वसिष्ठमिदमब्रवीत् ॥ १९ ॥

मूलम्

अदृश्यन्ती तु तं दृष्ट्वा क्रूरकर्माणमग्रतः।
भयसंविग्नया वाचा वसिष्ठमिदमब्रवीत् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस क्रूरकर्मी राक्षसको सामने देख अदृश्यन्तीने भयाकुल वाणीमें वसिष्ठजीसे यह कहा—॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

असौ मृत्युरिवोग्रेण दण्डेन भगवन्नितः।
प्रगृहीतेन काष्ठेन राक्षसोऽभ्येति दारुणः ॥ २० ॥

मूलम्

असौ मृत्युरिवोग्रेण दण्डेन भगवन्नितः।
प्रगृहीतेन काष्ठेन राक्षसोऽभ्येति दारुणः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भगवन्! वह भयंकर राक्षस एक बहुत बड़ा काठ लेकर इधर ही आ रहा है, मानो साक्षात् यमराज भयानक दण्ड लिये आ रहे हैं॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं निवारयितुं शक्तो नान्योऽस्ति भुवि कश्चन।
त्वदृतेऽद्य महाभाग सर्ववेदविदां वर ॥ २१ ॥

मूलम्

तं निवारयितुं शक्तो नान्योऽस्ति भुवि कश्चन।
त्वदृतेऽद्य महाभाग सर्ववेदविदां वर ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाभाग! आप सम्पूर्ण वेदवेत्ताओंमें श्रेष्ठ हैं। (इस समय) इस भूतलपर आपके सिवा दूसरा कोई नहीं है, जो उस राक्षसका वेग रोक सके॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पाहि मां भगवन् पापादस्माद् दारुणदर्शनात्।
राक्षसोऽयमिहात्तुं वै नूनमावां समीहते ॥ २२ ॥

मूलम्

पाहि मां भगवन् पापादस्माद् दारुणदर्शनात्।
राक्षसोऽयमिहात्तुं वै नूनमावां समीहते ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भगवन्! देखनेमें अत्यन्त भयंकर इस पापीसे मेरी रक्षा कीजिये। निश्चय ही यह राक्षस यहाँ हम दोनोंको खा जानेकी घातमें लगा है’॥२२॥

मूलम् (वचनम्)

वसिष्ठ उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

मा भैः पुत्रि न भेतव्यं राक्षसात् तु कथंचन।
नैतद् रक्षो भयं यस्मात् पश्यसि त्वमुपस्थितम् ॥ २३ ॥

मूलम्

मा भैः पुत्रि न भेतव्यं राक्षसात् तु कथंचन।
नैतद् रक्षो भयं यस्मात् पश्यसि त्वमुपस्थितम् ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वसिष्ठजीने कहा— बेटी! भयभीत न हो। इस राक्षससे तो किसी प्रकार न डरो। जिससे तुम्हें भय उपस्थित दिखायी देता है, यह वास्तवमें राक्षस नहीं है॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजा कल्माषपादोऽयं वीर्यवान् प्रथितो भुवि।
स एषोऽस्मिन् वनोद्देशे निवसत्यतिभीषणः ॥ २४ ॥

मूलम्

राजा कल्माषपादोऽयं वीर्यवान् प्रथितो भुवि।
स एषोऽस्मिन् वनोद्देशे निवसत्यतिभीषणः ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये भूमण्डलमें विख्यात पराक्रमी राजा कल्माषपाद हैं। ये ही इस वनमें अत्यन्त भीषण रूप धारण करके रहते हैं॥२४॥

मूलम् (वचनम्)

गन्धर्व उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमापतन्तं सम्प्रेक्ष्य वसिष्ठो भगवानृषिः।
वारयामास तेजस्वी हुंकारेणैव भारत ॥ २५ ॥

मूलम्

तमापतन्तं सम्प्रेक्ष्य वसिष्ठो भगवानृषिः।
वारयामास तेजस्वी हुंकारेणैव भारत ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गन्धर्व कहता है— भारत! उस राक्षसको आते देख तेजस्वी भगवान् वसिष्ठ मुनिने हुंकारमात्रसे ही रोक दिया॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन्त्रपूतेन च पुनः स तमभ्युक्ष्य वारिणा।
मोक्षयामास वै शापात्‌ तस्माद्‌ योगान्नराधिपम् ॥ २६ ॥

मूलम्

मन्त्रपूतेन च पुनः स तमभ्युक्ष्य वारिणा।
मोक्षयामास वै शापात्‌ तस्माद्‌ योगान्नराधिपम् ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

और मन्त्रपूत जलसे उसके छींटे देकर अपने योगके प्रभावसे राजाको उस शापसे मुक्त कर दिया॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स हि द्वादश वर्षाणि वासिष्ठस्यैव तेजसा।
ग्रस्त आसीद् ग्रहेणेव पर्वकाले दिवाकरः ॥ २७ ॥

मूलम्

स हि द्वादश वर्षाणि वासिष्ठस्यैव तेजसा।
ग्रस्त आसीद् ग्रहेणेव पर्वकाले दिवाकरः ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे पर्वकालमें सूर्य राहुद्वारा ग्रस्त हो जाता है, उसी प्रकार राजा कल्माषपाद बारह वर्षोंतक वसिष्ठजीके पुत्र शक्तिके ही तेज (शापके प्रभाव)-से ग्रस्त रहे॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रक्षसा विप्रमुक्तोऽथ स नृपस्तद् वनं महत्।
तेजसा रञ्जयामास संध्याभ्रमिव भास्करः ॥ २८ ॥

मूलम्

रक्षसा विप्रमुक्तोऽथ स नृपस्तद् वनं महत्।
तेजसा रञ्जयामास संध्याभ्रमिव भास्करः ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस (मन्त्रपूत जलके प्रभावसे) राक्षसने भी राजाको छोड़ दिया। फिर तो भगवान् भास्कर जैसे संध्याकालीन बादलोंको अपनी (अरुण) किरणोंसे रँग देते हैं, उसी प्रकार राजाने अपने (सहज) तेजसे उस महान् वनको अनुरंजित कर दिया॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रतिलभ्य ततः संज्ञामभिवाद्य कृताञ्जलिः।
उवाच नृपतिः काले वसिष्ठमृषिसत्तमम् ॥ २९ ॥

मूलम्

प्रतिलभ्य ततः संज्ञामभिवाद्य कृताञ्जलिः।
उवाच नृपतिः काले वसिष्ठमृषिसत्तमम् ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर सचेत होनेपर राजा कल्माषपादने तत्काल ही मुनिश्रेष्ठ वसिष्ठको प्रणाम किया और हाथ जोड़कर कहा—॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सौदासोऽहं महाभाग याज्यस्ते मुनिसत्तम।
अस्मिन् काले यदिष्टं ते ब्रूहि किं करवाणि ते॥३०॥

मूलम्

सौदासोऽहं महाभाग याज्यस्ते मुनिसत्तम।
अस्मिन् काले यदिष्टं ते ब्रूहि किं करवाणि ते॥३०॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाभाग मुनिश्रेष्ठ! मैं आपका यजमान सौदास हूँ। इस समय आपकी जो अभिलाषा हो, कहिये—मैं आपकी क्या सेवा करूँ?’॥३०॥

मूलम् (वचनम्)

वसिष्ठ उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

वृत्तमेतद् यथाकालं गच्छ राज्यं प्रशाधि वै।
ब्राह्मणं तु मनुष्येन्द्र मावमंस्थाः कदाचन ॥ ३१ ॥

मूलम्

वृत्तमेतद् यथाकालं गच्छ राज्यं प्रशाधि वै।
ब्राह्मणं तु मनुष्येन्द्र मावमंस्थाः कदाचन ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वसिष्ठजीने कहा— नरेन्द्र! मेरी जो अभिलाषा थी, वह समयानुसार सिद्ध हो गयी। अब जाओ, अपना राज्य सँभालो। (आजसे फिर) कभी ब्राह्मणका अपमान न करना॥३१॥

मूलम् (वचनम्)

राजोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नावमंस्ये महाभाग कदाचिद् ब्राह्मणानहम्।
त्वन्निदेशे स्थितः सम्यक् पूजयिष्याम्यहं द्विजान् ॥ ३२ ॥

मूलम्

नावमंस्ये महाभाग कदाचिद् ब्राह्मणानहम्।
त्वन्निदेशे स्थितः सम्यक् पूजयिष्याम्यहं द्विजान् ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा बोले— महाभाग! मैं कभी ब्राह्मणोंका अपमान नहीं करूँगा। आपकी आज्ञाके पालनमें संलग्न हो (सदा) ब्राह्मणोंकी भलीभाँति पूजा करूँगा॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इक्ष्वाकूणां च येनाहमनृणः स्यां द्विजोत्तम।
तत् त्वत्तः प्राप्तुमिच्छामि सर्ववेदविदां वर ॥ ३३ ॥

मूलम्

इक्ष्वाकूणां च येनाहमनृणः स्यां द्विजोत्तम।
तत् त्वत्तः प्राप्तुमिच्छामि सर्ववेदविदां वर ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

समस्त वेदवेत्ताओंमें अग्रगण्य द्विजश्रेष्ठ! मैं आपसे एक पुत्र प्राप्त करना चाहता हूँ, जिसके द्वारा मैं अपने इक्ष्वाकुवंशी पितरोंके ऋणसे उऋण हो सकूँ॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपत्यमीप्सितं मह्यं दातुमर्हसि सत्तम।
शीलरूपगुणोपेतमिक्ष्वाकुकुलवृद्धये ॥ ३४ ॥

मूलम्

अपत्यमीप्सितं मह्यं दातुमर्हसि सत्तम।
शीलरूपगुणोपेतमिक्ष्वाकुकुलवृद्धये ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

साधुशिरोमणे! इक्ष्वाकुवंशकी वृद्धिके लिये आप मुझे ऐसी अभीष्ट संतान दीजिये, जो उत्तम स्वभाव, सुन्दर रूप और श्रेष्ठ गुणोंसे सम्पन्न हो॥३४॥

मूलम् (वचनम्)

गन्धर्व उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ददानीत्येव तं तत्र राजानं प्रत्युवाच ह।
वसिष्ठः परमेष्वासं सत्यसंधो द्विजोत्तमः ॥ ३५ ॥

मूलम्

ददानीत्येव तं तत्र राजानं प्रत्युवाच ह।
वसिष्ठः परमेष्वासं सत्यसंधो द्विजोत्तमः ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गन्धर्व कहता है— कुन्तीनन्दन! तब सत्यप्रतिज्ञ विप्रवर वसिष्ठने महान् धनुर्धर राजा कल्माषपादसे उत्तरमें कहा—‘मैं तुम्हें वैसा ही पुत्र दूँगा’॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः प्रतिययौ काले वसिष्ठः सह तेन वै।
ख्यातां पुरीमिमां लोकेष्वयोध्यां मनुजेश्वर ॥ ३६ ॥

मूलम्

ततः प्रतिययौ काले वसिष्ठः सह तेन वै।
ख्यातां पुरीमिमां लोकेष्वयोध्यां मनुजेश्वर ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनुजेश्वर! तदनन्तर यथासमय राजाके साथ वसिष्ठजी उनकी राजधानीमें गये, जो लोकोंमें अयोध्या पुरीके नामसे प्रसिद्ध है॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं प्रजाः प्रतिमोदन्त्यः सर्वाः प्रत्युद्‌गतास्तदा।
विपाप्मानं महात्मानं दिवौकस इवेश्वरम् ॥ ३७ ॥

मूलम्

तं प्रजाः प्रतिमोदन्त्यः सर्वाः प्रत्युद्‌गतास्तदा।
विपाप्मानं महात्मानं दिवौकस इवेश्वरम् ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपने पापरहित महात्मा नरेशका आगमन सुनकर अयोध्याकी सारी प्रजा अत्यन्त प्रसन्न हो उनकी अगवानीके लिये ठीक उसी तरह बाहर निकल आयी, जैसे देवतालोग अपने स्वामी इन्द्रका स्वागत करते हैं॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुचिराय मनुष्येन्द्रो नगरीं पुण्यलक्षणाम्।
विवेश सहितस्तेन वसिष्ठेन महर्षिणा ॥ ३८ ॥
ददृशुस्तं महीपालमयोध्यावासिनो जनाः ।
पुरोहितेन सहितं दिवाकरमिवोदितम् ॥ ३९ ॥

मूलम्

सुचिराय मनुष्येन्द्रो नगरीं पुण्यलक्षणाम्।
विवेश सहितस्तेन वसिष्ठेन महर्षिणा ॥ ३८ ॥
ददृशुस्तं महीपालमयोध्यावासिनो जनाः ।
पुरोहितेन सहितं दिवाकरमिवोदितम् ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बहुत वर्षोंके बाद राजाने उस पुण्यमयी नगरीमें प्रसिद्ध महर्षि वसिष्ठके साथ प्रवेश किया। अयोध्या-वासी लोगोंने पुरोहितके साथ आये हुए राजा कल्माष-पादका उसी प्रकार दर्शन किया, जैसे (प्रातःकाल) प्रजा उदित हुए भगवान् सूर्यका दर्शन करती है॥३८-३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स च तां पूरयामास लक्ष्म्या लक्ष्मीवतां वरः।
अयोध्यां व्योम शीतांशुः शरत्काल इवोदितः ॥ ४० ॥

मूलम्

स च तां पूरयामास लक्ष्म्या लक्ष्मीवतां वरः।
अयोध्यां व्योम शीतांशुः शरत्काल इवोदितः ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे शीतल किरणोंवाले चन्द्रमा शरत्कालमें उदित हो आकाशको अपनी ज्योत्स्नासे जगमग कर देते हैं, उसी प्रकार लक्ष्मीवानोंमें श्रेष्ठ नरेशने उस अयोध्यापुरीको शोभासे परिपूर्ण कर दिया॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संसिक्तमृष्टपन्थानं पताकाध्वजशोभितम् ।
मनः प्रह्लादयामास तस्य तत् पुरमुत्तमम् ॥ ४१ ॥

मूलम्

संसिक्तमृष्टपन्थानं पताकाध्वजशोभितम् ।
मनः प्रह्लादयामास तस्य तत् पुरमुत्तमम् ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नगरकी सड़कोंको झाड़-बुहारकर उनपर छिड़काव किया गया था। सब ओर लगी हुई ध्वजा-पताकाएँ उस पुरीकी शोभा बढ़ा रही थीं। इस प्रकार राजाकी वह उत्तम नगरी दर्शकोंके मनको उत्तम आह्लाद प्रदान कर रही थी॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुष्टपुष्टजनाकीर्णा सा पुरी कुरुनन्दन।
अशोभत तदा तेन शक्रेणेवामरावती ॥ ४२ ॥

मूलम्

तुष्टपुष्टजनाकीर्णा सा पुरी कुरुनन्दन।
अशोभत तदा तेन शक्रेणेवामरावती ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुनन्दन! जैसे इन्द्रसे अमरावतीकी शोभा होती है, उसी प्रकार संतुष्ट एवं पुष्ट मनुष्योंसे भरी हुई अयोध्यापुरी उस समय महाराज कल्माषपादकी उपस्थितिसे बड़ी शोभा पा रही थी॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः प्रविष्टे राजर्षौ तस्मिंस्तत् पुरमुत्तमम्।
राज्ञस्तस्याज्ञया देवी वसिष्ठमुपचक्रमे ॥ ४३ ॥

मूलम्

ततः प्रविष्टे राजर्षौ तस्मिंस्तत् पुरमुत्तमम्।
राज्ञस्तस्याज्ञया देवी वसिष्ठमुपचक्रमे ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजर्षि कल्माषपादके उस उत्तम नगरीमें प्रवेश करनेके पश्चात् उक्त महाराजकी आज्ञाके अनुसार महारानी (मदयन्ती) महर्षि वसिष्ठजीके समीप गयीं॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऋतावथ महर्षिः स सम्बभूव तया सह।
देव्या दिव्येन विधिना वसिष्ठः श्रेष्ठभागृषिः ॥ ४४ ॥

मूलम्

ऋतावथ महर्षिः स सम्बभूव तया सह।
देव्या दिव्येन विधिना वसिष्ठः श्रेष्ठभागृषिः ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् भगवद्भक्त महर्षि वसिष्ठने ऋतुकालमें शास्त्रकी अलौकिक विधिके अनुसार महारानीके साथ नियोग किया॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तस्यां समुत्पन्ने गर्भे स मुनिसत्तमः।
राज्ञाभिवादितस्तेन जगाम मुनिराश्रमम् ॥ ४५ ॥

मूलम्

ततस्तस्यां समुत्पन्ने गर्भे स मुनिसत्तमः।
राज्ञाभिवादितस्तेन जगाम मुनिराश्रमम् ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर रानीकी कुक्षिमें गर्भ स्थापित हो जानेपर उक्त राजासे वन्दित हो (उनसे विदा लेकर) मुनिवर वसिष्ठ अपने आश्रमको लौट गये॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दीर्घकालेन सा गर्भं सुषुवे न तु तं यदा।
तदा देव्यश्मना कुक्षिं निर्बिभेद यशस्विनी ॥ ४६ ॥

मूलम्

दीर्घकालेन सा गर्भं सुषुवे न तु तं यदा।
तदा देव्यश्मना कुक्षिं निर्बिभेद यशस्विनी ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब बहुत समय बीतनेके बाद (भी) वह गर्भ बाहर न निकला, तब यशस्विनी रानी (मदयन्ती)-ने अश्म (पत्थर)-से अपने गर्भाशयपर प्रहार किया॥४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽपि द्वादशे वर्षे स जज्ञे पुरुषर्षभः।
अश्मको नाम राजर्षिः पौदन्यं यो न्यवेशयत् ॥ ४७ ॥

मूलम्

ततोऽपि द्वादशे वर्षे स जज्ञे पुरुषर्षभः।
अश्मको नाम राजर्षिः पौदन्यं यो न्यवेशयत् ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर बारहवें वर्षमें बालकका जन्म हुआ। वही पुरुषश्रेष्ठ राजर्षि अश्मकके नामसे प्रसिद्ध हुआ, जिन्होंने पौदन्य नामका नगर बसाया था॥४७॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि चैत्ररथपर्वणि वासिष्ठे सौदाससुतोत्पत्तौ षट्‌सप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १७६ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत चैत्ररथपर्वमें वसिष्ठचरित्रके प्रसंगमें सौदासको पुत्र-प्राप्तिविषयक एक सौ छिहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१७६॥