१७४ वसिष्ठ-विश्वामित्र-स्पर्धा

श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना

चतुःसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

वसिष्ठजीके अद्भुत क्षमा-बलके आगे विश्वामित्रजीका पराभव

मूलम् (वचनम्)

अर्जुन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

किंनिमित्तमभूद् वैरं विश्वामित्रवसिष्ठयोः ।
वसतोराश्रमे दिव्ये शंस नः सर्वमेव तत् ॥ १ ॥

मूलम्

किंनिमित्तमभूद् वैरं विश्वामित्रवसिष्ठयोः ।
वसतोराश्रमे दिव्ये शंस नः सर्वमेव तत् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुनने पूछा— गन्धर्वराज! विश्वामित्र और वसिष्ठ मुनि तो अपने-अपने दिव्य आश्रममें निवास करते हैं, फिर उनमें वैर किस कारण हुआ? ये सब बातें मुझसे कहो॥१॥

मूलम् (वचनम्)

गन्धर्व उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इदं वासिष्ठमाख्यानं पुराणं परिचक्षते।
पार्थ सर्वेषु लोकेषु यथावत् तन्निबोध मे ॥ २ ॥

मूलम्

इदं वासिष्ठमाख्यानं पुराणं परिचक्षते।
पार्थ सर्वेषु लोकेषु यथावत् तन्निबोध मे ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गन्धर्वने कहा— पार्थ! वसिष्ठजीके इस उपाख्यानको सब लोकोंमें बहुत पुराना बतलाते हैं। उसे यथार्थरूपसे कहता हूँ, सुनिये॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कान्यकुब्जे महानासीत् पार्थिवो भरतर्षभ।
गाधीति विश्रुतो लोके कुशिकस्यात्मसम्भवः ॥ ३ ॥

मूलम्

कान्यकुब्जे महानासीत् पार्थिवो भरतर्षभ।
गाधीति विश्रुतो लोके कुशिकस्यात्मसम्भवः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतवंशशिरोमणे! कान्यकुब्ज देशमें एक बहुत बड़े राजा थे, जो इस लोकमें गाधिके नामसे विख्यात थे। वे कुशिकके औरस पुत्र बताये जाते हैं॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य धर्मात्मनः पुत्रः समृद्धबलवाहनः।
विश्वामित्र इति ख्यातो बभूव रिपुमर्दनः ॥ ४ ॥

मूलम्

तस्य धर्मात्मनः पुत्रः समृद्धबलवाहनः।
विश्वामित्र इति ख्यातो बभूव रिपुमर्दनः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्हीं धर्मात्मा नरेशके पुत्र विश्वामित्रके नामसे प्रसिद्ध हैं, जो सेना और वाहनोंसे सम्पन्न होकर शत्रुओंका मानमर्दन किया करते थे॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स चचार सहामात्यो मृगयां गहने वने।
मृगान् विध्यन् वराहांश्च रम्येषु मरुधन्वसु ॥ ५ ॥
व्यायामकर्शितः सोऽथ मृगलिप्सुः पिपासितः।
आजगाम नरश्रेष्ठ वसिष्ठस्याश्रमं प्रति ॥ ६ ॥
तमागतमभिप्रेक्ष्य वसिष्ठः श्रेष्ठभागृषिः ।
विश्वामित्रं नरश्रेष्ठं प्रतिजग्राह पूजया ॥ ७ ॥

मूलम्

स चचार सहामात्यो मृगयां गहने वने।
मृगान् विध्यन् वराहांश्च रम्येषु मरुधन्वसु ॥ ५ ॥
व्यायामकर्शितः सोऽथ मृगलिप्सुः पिपासितः।
आजगाम नरश्रेष्ठ वसिष्ठस्याश्रमं प्रति ॥ ६ ॥
तमागतमभिप्रेक्ष्य वसिष्ठः श्रेष्ठभागृषिः ।
विश्वामित्रं नरश्रेष्ठं प्रतिजग्राह पूजया ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक दिन वे अपने मन्त्रियोंके साथ गहन वनमें आखेटके लिये गये। मरुप्रदेशके सुरम्य वनोंमें उन्होंने वराहों और अन्य हिंसक पशुओंको मारते हुए एक हिंसक पशुको पकड़नेके लिये उसका पीछा किया। अधिक परिश्रमके कारण उन्हें बड़ा कष्ट सहना पड़ा। नरश्रेष्ठ! वे प्याससे पीड़ित हो महर्षि वसिष्ठके आश्रममें आये। मनुष्योंमें श्रेष्ठ महाराज विश्वामित्रको आया देख पूजनीय पुरुषोंकी पूजा करनेवाले महर्षि वसिष्ठने उनका सत्कार करते हुए आतिथ्य ग्रहण करनेके लिये आमन्त्रित किया॥५—७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पाद्यार्घ्याचमनीयैस्तं स्वागतेन च भारत।
तथैव परिजग्राह वन्येन हविषा तदा ॥ ८ ॥

मूलम्

पाद्यार्घ्याचमनीयैस्तं स्वागतेन च भारत।
तथैव परिजग्राह वन्येन हविषा तदा ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! पाद्य, अर्घ्य, आचमनीय, स्वागत-भाषण तथा वन्य हविष्य आदिसे उन्होंने विश्वामित्रजीका सत्कार किया॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्याथ कामधुग् धेनुर्वसिष्ठस्य महात्मनः।
उक्ता कामान् प्रयच्छेति सा कामान् दुह्यते सदा ॥ ९ ॥

मूलम्

तस्याथ कामधुग् धेनुर्वसिष्ठस्य महात्मनः।
उक्ता कामान् प्रयच्छेति सा कामान् दुह्यते सदा ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महात्मा वसिष्ठजीके यहाँ एक कामधेनु थी, जो ‘अमुक-अमुक मनोरथोंको पूर्ण करो’ यह कहने-पर सदा उन-उन कामनाओंको पूर्ण कर दिया करती थी॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ग्राम्यारण्याश्चौषधीश्च दुदुहे पय एव च।
षड्रसं चामृतनिभं रसायनमनुत्तमम् ॥ १० ॥
भोजनीयानि पेयानि भक्ष्याणि विविधानि च।
लेह्यान्यमृतकल्पानि चोष्याणि च तथार्जुन ॥ ११ ॥
रत्नानि च महार्हाणि वासांसि विविधानि च।
तैः कामैः सर्वसम्पूर्णैः पूजितश्च महीपतिः ॥ १२ ॥

मूलम्

ग्राम्यारण्याश्चौषधीश्च दुदुहे पय एव च।
षड्रसं चामृतनिभं रसायनमनुत्तमम् ॥ १० ॥
भोजनीयानि पेयानि भक्ष्याणि विविधानि च।
लेह्यान्यमृतकल्पानि चोष्याणि च तथार्जुन ॥ ११ ॥
रत्नानि च महार्हाणि वासांसि विविधानि च।
तैः कामैः सर्वसम्पूर्णैः पूजितश्च महीपतिः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ग्रामीण तथा जंगली अन्न, फल-मूल, दूध, षड्‌रस भोजन, अमृतके समान मधुर परम उत्तम रसायन, खाने, पीने और चबानेयोग्य भाँति-भाँतिके पदार्थ, अमृतके समान स्वादिष्ठ चटनी आदि तथा चूसनेयोग्य ईख आदि वस्तुएँ तथा भाँति-भाँतिके बहुमूल्य रत्न एवं वस्त्र आदि सब सामग्रियोंको उस कामधेनुने प्रस्तुत कर दिया। सब प्रकारसे उन सम्पूर्ण मनोवांछित वस्तुओंके द्वारा हे अर्जुन! राजा विश्वामित्र भलीभाँति पूजित हुए॥१०—१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सामात्यः सबलश्चैव तुतोष स भृशं तदा।
षडुन्नतां सुपार्श्वोरुं पृथुपञ्चसमावृताम् ॥ १३ ॥

मूलम्

सामात्यः सबलश्चैव तुतोष स भृशं तदा।
षडुन्नतां सुपार्श्वोरुं पृथुपञ्चसमावृताम् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय वे अपनी सेना और मन्त्रियोंके साथ बहुत संतुष्ट हुए। महर्षिकी धेनुका मस्तक, ग्रीवा, जाँघें, गलकम्बल, पूँछ और थन—ये छः अंग बड़े एवं विस्तृत थे।1 उसके पार्श्वभाग तथा ऊरु बड़े सुन्दर थे। वह पाँच पृथुल अंगोंसे सुशोभित थी2॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मण्डूकनेत्रां स्वाकारां पीनोधसमनिन्दिताम् ।
सुवालधिं शङ्‌कुकर्णां चारुशृङ्गां मनोरमाम् ॥ १४ ॥

मूलम्

मण्डूकनेत्रां स्वाकारां पीनोधसमनिन्दिताम् ।
सुवालधिं शङ्‌कुकर्णां चारुशृङ्गां मनोरमाम् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसकी आँखें मेढक-जैसी थीं। आकृति बड़ी सुन्दर थी। चारों थन मोटे और फैले हुए थे। वह सर्वथा प्रशंसाके योग्य थी। सुन्दर पूँछ, नुकीले कान और मनोहर सींगोंके कारण वह बड़ी मनोरम जान पड़ती थी॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुष्टायतशिरोग्रीवां विस्मितः सोऽभिवीक्ष्य ताम्।
अभिनन्द्य स तां राजा नन्दिनीं गाधिनन्दनः ॥ १५ ॥

मूलम्

पुष्टायतशिरोग्रीवां विस्मितः सोऽभिवीक्ष्य ताम्।
अभिनन्द्य स तां राजा नन्दिनीं गाधिनन्दनः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसके सिर और गर्दन विस्तृत एवं पुष्ट थे। उसका नाम नन्दिनी था। उसे देखकर विस्मित हुए गाधिनन्दन विश्वामित्रने उसका अभिनन्दन किया॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अब्रवीच्च भृशं तुष्टः स राजा तमृषिं तदा।
अर्बुदेन गवां ब्रह्मन् मम राज्येन वा पुनः ॥ १६ ॥
नन्दिनीं सम्प्रयच्छस्व भुङ्‌क्ष्व राज्यं महामुने।

मूलम्

अब्रवीच्च भृशं तुष्टः स राजा तमृषिं तदा।
अर्बुदेन गवां ब्रह्मन् मम राज्येन वा पुनः ॥ १६ ॥
नन्दिनीं सम्प्रयच्छस्व भुङ्‌क्ष्व राज्यं महामुने।

अनुवाद (हिन्दी)

और अत्यन्त संतुष्ट होकर राजा विश्वामित्रने उस समय उन महर्षिसे कहा—‘ब्रह्मन्! आप दस करोड़ गायें अथवा मेरा सारा राज्य लेकर इस नन्दिनी-को मुझे दे दें। महामुने! इसे देकर आप राज्य भोग करें’॥१६॥

मूलम् (वचनम्)

वसिष्ठ उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवतातिथिपित्रर्थं याज्यार्थं च पयस्विनी ॥ १७ ॥
अदेया नन्दिनीयं वै राज्येनापि तवानघ।

मूलम्

देवतातिथिपित्रर्थं याज्यार्थं च पयस्विनी ॥ १७ ॥
अदेया नन्दिनीयं वै राज्येनापि तवानघ।

अनुवाद (हिन्दी)

वसिष्ठजीने कहा— अनघ! देवता, अतिथि और पितरोंकी पूजा एवं यज्ञके हविष्य आदिके लिये यह दुधारू गाय नन्दिनी अपने यहाँ रहती है, इसे तुम्हारा राज्य लेकर भी नहीं दिया जा सकता॥१७॥

मूलम् (वचनम्)

विश्वामित्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षत्रियोऽहं भवान् विप्रस्तपस्स्वाध्यायसाधनः ॥ १८ ॥

मूलम्

क्षत्रियोऽहं भवान् विप्रस्तपस्स्वाध्यायसाधनः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विश्वामित्रजी बोले— मैं क्षत्रिय राजा हूँ और आप तपस्या तथा स्वाध्यायका साधन करनेवाले ब्राह्मण हैं॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्राह्मणेषु कुतो वीर्यं प्रशान्तेषु धृतात्मसु।
अर्बुदेन गवां यस्त्वं न ददासि ममेप्सितम् ॥ १९ ॥
स्वधर्मं न प्रहास्यामि नेष्यामि च बलेन गाम्।
(क्षत्रियोऽस्मि न विप्रोऽहं बाहुवीर्योऽस्मि धर्मतः।
तस्माद् भुजबलेनेमां हरिष्यामीह पश्यतः॥)

मूलम्

ब्राह्मणेषु कुतो वीर्यं प्रशान्तेषु धृतात्मसु।
अर्बुदेन गवां यस्त्वं न ददासि ममेप्सितम् ॥ १९ ॥
स्वधर्मं न प्रहास्यामि नेष्यामि च बलेन गाम्।
(क्षत्रियोऽस्मि न विप्रोऽहं बाहुवीर्योऽस्मि धर्मतः।
तस्माद् भुजबलेनेमां हरिष्यामीह पश्यतः॥)

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मण अत्यधिक शान्त और जितात्मा होते हैं। उनमें बल और पराक्रम कहाँसे आ सकता है; फिर क्या बात है जो आप मेरी अभीष्ट वस्तुको एक अर्बुद गाय लेकर भी नहीं दे रहे हैं। मैं अपना धर्म नहीं छोड़ूँगा, इस गायको बलपूर्वक ले जाऊँगा। मैं क्षत्रिय हूँ, ब्राह्मण नहीं हूँ। मुझे धर्मतः अपना बाहुबल प्रकट करनेका अधिकार है; अतः बाहुबलसे ही आपके देखते-देखते इस गायको हर ले जाऊँगा॥१९॥

मूलम् (वचनम्)

वसिष्ठ उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

बलस्थश्चासि राजा च बाहुवीर्यश्च क्षत्रियः ॥ २० ॥
यथेच्छसि तथा क्षिप्रं कुरु मा त्वं विचारय।

मूलम्

बलस्थश्चासि राजा च बाहुवीर्यश्च क्षत्रियः ॥ २० ॥
यथेच्छसि तथा क्षिप्रं कुरु मा त्वं विचारय।

अनुवाद (हिन्दी)

वसिष्ठजीने कहा— तुम सेनाके साथ हो, राजा हो और अपने बाहुबलका भरोसा रखनेवाले क्षत्रिय हो। जैसी तुम्हारी इच्छा हो वैसा शीघ्र कर डालो, विचार न करो॥२०॥

मूलम् (वचनम्)

गन्धर्व उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तस्तथा पार्थ विश्वामित्रो बलादिव ॥ २१ ॥
हंसचन्द्रप्रतीकाशां नन्दिनीं तां जहार गाम्।
कशादण्डप्रणुदितां काल्यमानामितस्ततः ॥ २२ ॥

मूलम्

एवमुक्तस्तथा पार्थ विश्वामित्रो बलादिव ॥ २१ ॥
हंसचन्द्रप्रतीकाशां नन्दिनीं तां जहार गाम्।
कशादण्डप्रणुदितां काल्यमानामितस्ततः ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गन्धर्व कहता है— अर्जुन! वसिष्ठजीके यों कहनेपर विश्वामित्रने मानो बलपूर्वक ही हंस और चन्द्रमाके समान श्वेत रंगवाली उस नन्दिनी गायका अपहरण कर लिया। उसे कोड़ों और डंडोंसे मार-मारकर इधर-उधर हाँका जा रहा था॥२१-२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हम्भायमाना कल्याणी वसिष्ठस्याथ नन्दिनी।
आगम्याभिमुखी पार्थ तस्थौ भगवदुन्मुखी ॥ २३ ॥
भृशं च ताड्यमाना वै न जगामाश्रमात् ततः।

मूलम्

हम्भायमाना कल्याणी वसिष्ठस्याथ नन्दिनी।
आगम्याभिमुखी पार्थ तस्थौ भगवदुन्मुखी ॥ २३ ॥
भृशं च ताड्यमाना वै न जगामाश्रमात् ततः।

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुन! उस समय कल्याणमयी नन्दिनी डकराती हुई महर्षि वसिष्ठके सामने आकर खड़ी हो गयी और उन्हींकी ओर मुँह करके देखने लगी। उसके ऊपर जोर-जोरसे मार पड़ रही थी, तो भी वह आश्रमसे अन्यत्र नहीं गयी॥२३॥

मूलम् (वचनम्)

वसिष्ठ उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

शृणोमि ते रवं भद्रे विनदन्त्याः पुनः पुनः ॥ २४ ॥
ह्रियसे त्वं बलाद् भद्रे विश्वामित्रेण नन्दिनि।
किं कर्तव्यं मया तत्र क्षमावान् ब्राह्मणो ह्यहम् ॥ २५ ॥

मूलम्

शृणोमि ते रवं भद्रे विनदन्त्याः पुनः पुनः ॥ २४ ॥
ह्रियसे त्वं बलाद् भद्रे विश्वामित्रेण नन्दिनि।
किं कर्तव्यं मया तत्र क्षमावान् ब्राह्मणो ह्यहम् ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वसिष्ठजी बोले— भद्रे! तुम बार-बार क्रन्दन कर रही हो। मैं तुम्हारा आर्तनाद सुनता हूँ, परंतु क्या करूँ? कल्याणमयी नन्दिनि! विश्वामित्र तुम्हें बलपूर्वक हर ले जा रहे हैं। इसमें मैं क्या कर सकता हूँ। मैं एक क्षमाशील ब्राह्मण हूँ॥२४-२५॥

मूलम् (वचनम्)

गन्धर्व उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा भयान्नन्दिनी तेषां बलानां भरतर्षभ।
विश्वामित्रभयोद्विग्ना वसिष्ठं समुपागमत् ॥ २६ ॥

मूलम्

सा भयान्नन्दिनी तेषां बलानां भरतर्षभ।
विश्वामित्रभयोद्विग्ना वसिष्ठं समुपागमत् ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गन्धर्व कहता है— भरतवंशशिरोमणे! नन्दिनी विश्वामित्रके भयसे उद्विग्न हो उठी थी। वह उनके सैनिकोंके भयसे मुनिवर वसिष्ठकी शरणमें गयी॥२६॥

मूलम् (वचनम्)

गौरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कशाग्रदण्डाभिहतां क्रोशन्तीं मामनाथवत् ।
विश्वामित्रबलैर्घोरैर्भगवन् किमुपेक्षसे ॥ २७ ॥

मूलम्

कशाग्रदण्डाभिहतां क्रोशन्तीं मामनाथवत् ।
विश्वामित्रबलैर्घोरैर्भगवन् किमुपेक्षसे ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गौने कहा— भगवन्! विश्वामित्रके निर्दय सैनिक मुझे कोड़ों और डंडोंसे पीट रहे हैं। मैं अनाथकी भाँति क्रन्दन कर रही हूँ। आप क्यों मेरी उपेक्षा कर रहे हैं?॥२७॥

मूलम् (वचनम्)

गन्धर्व उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नन्दिन्यामेवं क्रन्दन्त्यां धर्षितायां महामुनिः।
न चुक्षुभे तदा धैर्यान्न चचाल धृतव्रतः ॥ २८ ॥

मूलम्

नन्दिन्यामेवं क्रन्दन्त्यां धर्षितायां महामुनिः।
न चुक्षुभे तदा धैर्यान्न चचाल धृतव्रतः ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गन्धर्व कहता है— अर्जुन! नन्दिनी इस प्रकार अपमानित होकर करुण क्रन्दन कर रही थी, तो भी दृढ़तापूर्वक व्रतका पालन करनेवाले महामुनि वसिष्ठ न तो क्षुब्ध हुए और न धैर्यसे ही विचलित हुए॥२८॥

मूलम् (वचनम्)

वसिष्ठ उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षत्रियाणां बलं तेजो ब्राह्मणानां क्षमा बलम्।
क्षमा मां भजते यस्माद् गम्यतां यदि रोचते ॥ २९ ॥

मूलम्

क्षत्रियाणां बलं तेजो ब्राह्मणानां क्षमा बलम्।
क्षमा मां भजते यस्माद् गम्यतां यदि रोचते ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वसिष्ठजी बोले— भद्रे! क्षत्रियोंका बल उनका तेज है और ब्राह्मणोंका बल उनकी क्षमा है। चूँकि मुझे क्षमा अपनाये हुए है, अतः तुम्हारी रुचि हो, तो जा सकती हो॥२९॥

मूलम् (वचनम्)

नन्दिन्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

किं नु त्यक्तास्मि भगवन् यदेवं त्वं प्रभाषसे।
अत्यक्ताहं त्वया ब्रह्मन् नेतुं शक्या न वै बलात्॥३०॥

मूलम्

किं नु त्यक्तास्मि भगवन् यदेवं त्वं प्रभाषसे।
अत्यक्ताहं त्वया ब्रह्मन् नेतुं शक्या न वै बलात्॥३०॥

अनुवाद (हिन्दी)

नन्दिनीने कहा— भगवन्! क्या आपने मुझे त्याग दिया, जो ऐसी बात कहते हैं? ब्रह्मन्! आपने त्याग न दिया हो, तो कोई मुझे बलपूर्वक नहीं ले जा सकता॥३०॥

मूलम् (वचनम्)

वसिष्ठ उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

न त्वां त्यजामि कल्याणि स्थीयतां यदि शक्यते।
दृढेन दाम्ना बद्ध्वैष वत्सस्ते ह्रियते बलात् ॥ ३१ ॥

मूलम्

न त्वां त्यजामि कल्याणि स्थीयतां यदि शक्यते।
दृढेन दाम्ना बद्ध्वैष वत्सस्ते ह्रियते बलात् ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वसिष्ठजी बोले— कल्याणि! मैं तुम्हारा त्याग नहीं करता। तुम यदि रह सको तो यहीं रहो। यह तुम्हारा बछड़ा मजबूत रस्सीसे बाँधकर बलपूर्वक ले जाया जा रहा है॥३१॥

मूलम् (वचनम्)

गन्धर्व उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्थीयतामिति तच्छ्रुत्वा वसिष्ठस्य पयस्विनी।
ऊर्ध्वाञ्चितशिरोग्रीवा प्रबभौ रौद्रदर्शना ॥ ३२ ॥

मूलम्

स्थीयतामिति तच्छ्रुत्वा वसिष्ठस्य पयस्विनी।
ऊर्ध्वाञ्चितशिरोग्रीवा प्रबभौ रौद्रदर्शना ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गन्धर्व कहता है— अर्जुन! ‘यहीं रहो’ वसिष्ठजीका यह वचन सुनकर नन्दिनीने अपने सिर और गर्दनको ऊपरकी ओर उठाया। उस समय वह देखनेमें बड़ी भयानक जान पड़ती थी॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्रोधरक्तेक्षणा सा गौर्हम्भारवघनस्वना ।
विश्वामित्रस्य तत् सैन्यं व्यद्रावयत सर्वशः ॥ ३३ ॥

मूलम्

क्रोधरक्तेक्षणा सा गौर्हम्भारवघनस्वना ।
विश्वामित्रस्य तत् सैन्यं व्यद्रावयत सर्वशः ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्रोधसे उसकी आँखें लाल हो गयी थीं। उसके डकरानेकी आवाज जोर-जोरसे सुनायी देने लगी। उसने विश्वामित्रकी उस सेनाको चारों ओर खदेड़ना शुरू किया॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कशाग्रदण्डाभिहता काल्यमाना ततस्ततः ।
क्रोधरक्तेक्षणा क्रोधं भूय एव समाददे ॥ ३४ ॥

मूलम्

कशाग्रदण्डाभिहता काल्यमाना ततस्ततः ।
क्रोधरक्तेक्षणा क्रोधं भूय एव समाददे ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कोड़ोंके अग्रभाग और डंडोंसे मार-मारकर इधर-उधर हाँके जानेके कारण उसके नेत्र पहलेसे ही क्रोधके कारण रक्तवर्णके हो गये थे। फिर उसने और भी क्रोध धारण किया॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आदित्य इव मध्याह्ने क्रोधदीप्तवपुर्बभौ।
अङ्गारवर्षं मुञ्चन्ती मुहुर्वालधितो महत् ॥ ३५ ॥
असृजत् पह्लवान् पुच्छात् प्रस्रवाद् द्रविडाञ्छकान्।
योनिदेशाच्च यवनान् शकृतः शबरान् बहुन् ॥ ३६ ॥

मूलम्

आदित्य इव मध्याह्ने क्रोधदीप्तवपुर्बभौ।
अङ्गारवर्षं मुञ्चन्ती मुहुर्वालधितो महत् ॥ ३५ ॥
असृजत् पह्लवान् पुच्छात् प्रस्रवाद् द्रविडाञ्छकान्।
योनिदेशाच्च यवनान् शकृतः शबरान् बहुन् ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्रोधके कारण उसके शरीरसे अपूर्व दीप्ति प्रकट हो रही थी। वह दोपहरके सूर्यकी भाँति उद्भासित हो उठी। उसने अपनी पूँछसे बारंबार अंगारकी भारी वर्षा करते हुए पूँछसे स पह्लवोंकी सृष्टि की, थनोंसे द्रविडों और शकोंको उत्पन्न किया, योनिदेशसे यवनों और गोबरसे बहुतेरे शबरोंको जन्म दिया॥३५-३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मूत्रतश्चासृजत् कांश्चिच्छबरांश्चैव पार्श्वतः ।
पौण्ड्रान् किरातान्‌ यवनान् सिंहलान् बर्बरान् खसान् ॥ ३७ ॥

मूलम्

मूत्रतश्चासृजत् कांश्चिच्छबरांश्चैव पार्श्वतः ।
पौण्ड्रान् किरातान्‌ यवनान् सिंहलान् बर्बरान् खसान् ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कितने ही शबर उसके मूत्रसे प्रकट हुए। उसके पाश्वभागसे पौण्ड्र, किरात, यवन, सिंहल, बर्बर और खसोंकी सृष्टि हुई॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चिबुकांश्च पुलिन्दांश्च चीनान् हूणान् सकेरलान्।
ससर्ज फेनतः सा गौर्म्लेच्छान् बहुविधानपि ॥ ३८ ॥

मूलम्

चिबुकांश्च पुलिन्दांश्च चीनान् हूणान् सकेरलान्।
ससर्ज फेनतः सा गौर्म्लेच्छान् बहुविधानपि ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी प्रकार उस गौने फेनसे चिबुक, पुलिन्द, चीन, हूण, केरल आदि बहुत प्रकारके म्लेच्छोंकी सृष्टि की॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तैर्विसृष्टैर्महासैन्यैर्नानाम्लेच्छगणैस्तदा ।
नानावरणसंच्छन्नैर्नानायुधधरैस्तथा ॥ ३९ ॥
अवाकीर्यत संरब्धैर्विश्वामित्रस्य पश्यतः ।
एकैकश्च तदा योधः पञ्चभिः सप्तभिर्वृतः ॥ ४० ॥

मूलम्

तैर्विसृष्टैर्महासैन्यैर्नानाम्लेच्छगणैस्तदा ।
नानावरणसंच्छन्नैर्नानायुधधरैस्तथा ॥ ३९ ॥
अवाकीर्यत संरब्धैर्विश्वामित्रस्य पश्यतः ।
एकैकश्च तदा योधः पञ्चभिः सप्तभिर्वृतः ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसके द्वारा रचे गये नाना प्रकारके म्लेच्छगणोंकी वे विशाल सेनाएँ जो अनेक प्रकारके कवच आदिसे आच्छादित थीं। सबने भाँति-भाँतिके आयुध धारण कर रखे थे और सभी सैनिक क्रोधमें भरे हुए थे। उन्होंने विश्वामित्रके देखते-देखते उनकी सेनाको तितर-बितर कर दिया। विश्वामित्रके एक-एक सैनिकको म्लेच्छ-सेनाके पाँच-पाँच, सात-सात योद्धाओंने घेर रखा था॥३९-४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्त्रवर्षेण महता वध्यमानं बलं तदा।
प्रभग्नं सर्वतस्त्रस्तं विश्वामित्रस्य पश्यतः ॥ ४१ ॥

मूलम्

अस्त्रवर्षेण महता वध्यमानं बलं तदा।
प्रभग्नं सर्वतस्त्रस्तं विश्वामित्रस्य पश्यतः ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय अस्त्र-शस्त्रोंकी भारी वर्षासे घायल होकर विश्वामित्रकी सेनाके पाँव उखड़ गये और उनके सामने ही वे सभी योद्धा भयभीत हो सब ओर भाग चले॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न च प्राणैर्वियुज्यन्ते केचित् तत्रास्य सैनिकाः।
विश्वामित्रस्य संक्रुद्धैर्वासिष्ठैर्भरतर्षभ ॥ ४२ ॥

मूलम्

न च प्राणैर्वियुज्यन्ते केचित् तत्रास्य सैनिकाः।
विश्वामित्रस्य संक्रुद्धैर्वासिष्ठैर्भरतर्षभ ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! क्रोधमें भरे हुए होनेपर भी वसिष्ठसेनाके सैनिक विश्वामित्रके किसी भी योद्धाका प्राण नहीं लेते थे॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा गौस्तत् सकलं सैन्यं कालयामास दूरतः।
विश्वामित्रस्य तत् सैन्यं काल्यमानं त्रियोजनम् ॥ ४३ ॥
क्रोशमानं भयोद्विग्नं त्रातारं नाध्यगच्छत।

मूलम्

सा गौस्तत् सकलं सैन्यं कालयामास दूरतः।
विश्वामित्रस्य तत् सैन्यं काल्यमानं त्रियोजनम् ॥ ४३ ॥
क्रोशमानं भयोद्विग्नं त्रातारं नाध्यगच्छत।

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार नन्दिनी गायने उनकी सारी सेनाको दूर भगा दिया। विश्वामित्रकी वह सेना तीन योजनतक खदेड़ी गयी। वह सेना भयसे व्याकुल होकर चीखती-चिल्लाती रही; किंतु कोई भी संरक्षक उसे नहीं मिला॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(विश्वामित्रस्ततो दृष्ट्‌वा क्रोधाविष्टः स रोदसी।
ववर्ष शरवर्षाणि वसिष्ठे मुनिसत्तमे॥
घोररूपांश्च नाराचान् क्षुरान् भल्लान् महामुनिः।
विश्वामित्रप्रयुक्तांस्तान् वैणवेन व्यमोचयत् ॥
वसिष्ठस्य तदा दृष्ट्‌वा कर्मकौशलमाहवे॥
विश्वामित्रोऽपि कोपेन भूयः शत्रुनिपातनः।
दिव्यास्त्रवर्षं तस्मै तु प्राहिणोन्मुनये रुषा॥
आग्नेयं वारुणं चैन्द्रं याम्यं वायव्यमेव च।
विससर्ज महाभागे वसिष्ठे ब्रह्मणः सुते॥
अस्त्राणि सर्वतो ज्वालां विसृजन्ति प्रपेदिरे।
युगान्तसमये घोराः पतङ्गस्येव रश्मयः॥
वसिष्ठोऽपि महातेजा ब्रह्मशक्तिप्रयुक्तया ।
यष्ट्या निवारयामास सर्वाण्यस्त्राणि स स्मयन्॥
ततस्ते भस्मसाद्भूताः पतन्ति स्म महीतले।
अपोह्य दिव्यान्यस्त्राणि वसिष्ठो वाक्यमब्रवीत्॥

मूलम्

(विश्वामित्रस्ततो दृष्ट्‌वा क्रोधाविष्टः स रोदसी।
ववर्ष शरवर्षाणि वसिष्ठे मुनिसत्तमे॥
घोररूपांश्च नाराचान् क्षुरान् भल्लान् महामुनिः।
विश्वामित्रप्रयुक्तांस्तान् वैणवेन व्यमोचयत् ॥
वसिष्ठस्य तदा दृष्ट्‌वा कर्मकौशलमाहवे॥
विश्वामित्रोऽपि कोपेन भूयः शत्रुनिपातनः।
दिव्यास्त्रवर्षं तस्मै तु प्राहिणोन्मुनये रुषा॥
आग्नेयं वारुणं चैन्द्रं याम्यं वायव्यमेव च।
विससर्ज महाभागे वसिष्ठे ब्रह्मणः सुते॥
अस्त्राणि सर्वतो ज्वालां विसृजन्ति प्रपेदिरे।
युगान्तसमये घोराः पतङ्गस्येव रश्मयः॥
वसिष्ठोऽपि महातेजा ब्रह्मशक्तिप्रयुक्तया ।
यष्ट्या निवारयामास सर्वाण्यस्त्राणि स स्मयन्॥
ततस्ते भस्मसाद्भूताः पतन्ति स्म महीतले।
अपोह्य दिव्यान्यस्त्राणि वसिष्ठो वाक्यमब्रवीत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह देखकर विश्वामित्र क्रोधसे व्याप्त हो मुनि-श्रेष्ठ वसिष्ठको लक्षित करके पृथिवी और आकाशमें बाणोंकी वर्षा करने लगे; परंतु महामुनि वसिष्ठने विश्वामित्रके चलाये हुए भयंकर नाराच, क्षुर और भल्ल नामक बाणोंका केवल बाँसकी छड़ीसे निवारण कर दिया। युद्धमें वसिष्ठ मुनिका वह कार्य-कौशल देखकर शत्रुओंको मार गिरानेवाले विश्वामित्र भी पुनः कुपित हो महर्षि वसिष्ठपर रोषपूर्वक दिव्यास्त्रोंकी वर्षा करने लगे। उन्होंने ब्रह्माजीके पुत्र महाभाग वसिष्ठपर आग्नेयास्त्र, वारुणास्त्र, ऐन्द्रास्त्र, याम्यास्त्र और वायव्यास्त्रका प्रयोग किया। वे सब अस्त्र प्रलयकालके सूर्यकी प्रचण्ड किरणोंके समान सब ओरसे आगकी लपटें छोड़ते हुए महर्षिपर टूट पड़े; परंतु महातेजस्वी वसिष्ठने मुसकराते हुए ब्राह्मबलसे प्रेरित हुई छड़ीके द्वारा इन सब अस्त्रोंको पीछे लौटा दिया। फिर तो वे सभी अस्त्र भस्मीभूत होकर पृथ्वीपर गिर पड़े। इस प्रकार उन दिव्यास्त्रोंका निवारण करके वसिष्ठजीने विश्वामित्रसे यह बात कही।

मूलम् (वचनम्)

वसिष्ठ उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

निर्जितोऽसि महाराज दुरात्मन् गाधिनन्दन।
यदि तेऽस्ति परं शौर्यं तद् दर्शय मयि स्थिते॥

मूलम्

निर्जितोऽसि महाराज दुरात्मन् गाधिनन्दन।
यदि तेऽस्ति परं शौर्यं तद् दर्शय मयि स्थिते॥

अनुवाद (हिन्दी)

वसिष्ठजी बोले— महाराज दुरात्मा गाधिनन्दन! अब तू परास्त हो चुका है। यदि तुझमें और भी उत्तम पराक्रम है तो मेरे ऊपर दिखा। मैं तेरे सामने डटकर खड़ा हूँ।

मूलम् (वचनम्)

गन्धर्व उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

विश्वामित्रस्तथा चोक्तो वसिष्ठेन नराधिप।
नोवाच किंचिद् व्रीडाढ्यो विद्रावितमहाबलः॥)

मूलम्

विश्वामित्रस्तथा चोक्तो वसिष्ठेन नराधिप।
नोवाच किंचिद् व्रीडाढ्यो विद्रावितमहाबलः॥)

अनुवाद (हिन्दी)

गन्धर्व कहता है— राजन्! विश्वामित्रकी वह विशाल सेना खदेड़ी जा चुकी थी। वसिष्ठके द्वारा पूर्वोक्तरूपसे ललकारे जानेपर वे लज्जित होकर कुछ भी उत्तर न दे सके।

विश्वास-प्रस्तुतिः

दृष्ट्‌वा तन्महदाश्चर्यं ब्रह्मतेजोभवे तदा ॥ ४४ ॥
विश्वामित्रः क्षत्रभावान्निर्विण्णो वाक्यमब्रवीत् ।
धिग् बलं क्षत्रियबलं ब्रह्मतेजोबलं बलम् ॥ ४५ ॥

मूलम्

दृष्ट्‌वा तन्महदाश्चर्यं ब्रह्मतेजोभवे तदा ॥ ४४ ॥
विश्वामित्रः क्षत्रभावान्निर्विण्णो वाक्यमब्रवीत् ।
धिग् बलं क्षत्रियबलं ब्रह्मतेजोबलं बलम् ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्मतेजका यह अत्यन्त आश्चर्यजनक चमत्कार देखकर विश्वामित्र क्षत्रियत्वसे खिन्न एवं उदासीन हो यह बात बोले—‘क्षत्रिय-बल तो नाममात्रका ही बल है, उसे धिक्कार है। ब्रह्मतेजजनित बल ही वास्तविक बल है’॥४४-४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बलाबलं विनिश्चित्य तप एव परं बलम्।
स राज्यं स्फीतमुत्सृज्य तां च दीप्तां नृपश्रियम् ॥ ४६ ॥
भोगांश्च पृष्ठतः कृत्वा तपस्येव मनो दधे।
स गत्वा तपसा सिद्धिं लोकान् विष्टभ्य तेजसा ॥ ४७ ॥
तताप सर्वान् दीप्तौजा ब्राह्मणत्वमवाप्तवान्।
अपिबच्च ततः सोममिन्द्रेण सह कौशिकः ॥ ४८ ॥

मूलम्

बलाबलं विनिश्चित्य तप एव परं बलम्।
स राज्यं स्फीतमुत्सृज्य तां च दीप्तां नृपश्रियम् ॥ ४६ ॥
भोगांश्च पृष्ठतः कृत्वा तपस्येव मनो दधे।
स गत्वा तपसा सिद्धिं लोकान् विष्टभ्य तेजसा ॥ ४७ ॥
तताप सर्वान् दीप्तौजा ब्राह्मणत्वमवाप्तवान्।
अपिबच्च ततः सोममिन्द्रेण सह कौशिकः ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार बलाबलका विचार करके उन्होंने तपस्याको ही सर्वोत्तम बल निश्चत किया और अपने समृद्धिशाली राज्य तथा देदीप्यमान राज्यलक्ष्मीको छोड़कर, भोगोंको पीछे करके तपस्यामें ही मन लगाया। इस तपस्यासे सिद्धिको प्राप्त हो उद्दीप्त तेजवाले विश्वामित्रजीने अपने प्रभावसे सम्पूर्ण लोकोंको स्तब्ध एवं संतप्त कर दिया और (अन्ततोगत्वा) ब्राह्मणत्व प्राप्त कर लिया; फिर वे इन्द्रके साथ सोमपान करने लगे॥४६—४८॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि चैत्ररथपर्वणि वासिष्ठे विश्वामित्रपराभवे चतुःसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १७४ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत चैत्ररथपर्वमें वसिष्ठजीके चरित्रके प्रसंगमें विश्वामित्र-पराभवविषयक एक सौ चौहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१७४॥

मूलम् (समाप्तिः)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठके १० श्लोक मिलाकर कुल ५८ श्लोक हैं)


  1. गौओंके मस्तक आदि छः अंगोंका बड़ा एवं विस्तृत होना शुभ माना गया है। जैसा कि शास्त्रका वचन है—‘‘‘शिरो ग्रीवा सक्थिनी च सास्ना पुच्छमथ स्तनाः। शुभान्येतानि धेनूनामायतानि प्रचक्षते॥’’’ ↩︎

  2. गौओंका ललाट, दोनों नेत्र और दोनों कान—ये पाँचों अंग पृथु (पुष्ट एवं विस्तृत) हों तो विद्वानोंद्वारा अच्छे माने जाते हैं। जैसा कि शास्त्रका वचन है—ललाटं श्रवणौ चैव नयनद्वितयं तथा। पृथून्येतानि शस्यन्ते धेनूनां पञ्च सूरिभिः॥ [नीलकण्ठी टीकासे] ↩︎