श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना
द्विसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
वसिष्ठजीकी सहायतासे राजा संवरणको तपतीकी प्राप्ति
मूलम् (वचनम्)
गन्धर्व उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्त्वा ततस्तूर्णं जगामोर्ध्वमनिन्दिता ।
स तु राजा पुनर्भूमौ तत्रैव निपपात ह ॥ १ ॥
मूलम्
एवमुक्त्वा ततस्तूर्णं जगामोर्ध्वमनिन्दिता ।
स तु राजा पुनर्भूमौ तत्रैव निपपात ह ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गन्धर्व कहता है— अर्जुन! यों कहकर वह अनिन्द्यसुन्दरी तपती तत्काल ऊपर (आकाशमें) चली गयी और वे राजा संवरण फिर वहीं (मूर्च्छित हो) पृथ्वीपर गिर पड़े॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्वेषमाणः सबलस्तं राजानं नृपोत्तमम्।
अमात्यः सानुयात्रश्च तं ददर्श महावने ॥ २ ॥
मूलम्
अन्वेषमाणः सबलस्तं राजानं नृपोत्तमम्।
अमात्यः सानुयात्रश्च तं ददर्श महावने ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इधर उनके मन्त्री सेना और अनुचरोंको साथ लिये उन श्रेष्ठ नरेशको खोजते हुए आ रहे थे। उस महान् वनमें पहुँचकर मन्त्रीने राजाको देखा॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षितौ निपतितं काले शक्रध्वजमिवोच्छ्रितम्।
तं हि दृष्ट्वा महेष्वासं निरस्तं पतितं भुवि ॥ ३ ॥
बभूव सोऽस्य सचिवः सम्प्रदीप्त इवाग्निना।
त्वरया चोपसंगम्य स्नेहादागतसम्भ्रमः ॥ ४ ॥
मूलम्
क्षितौ निपतितं काले शक्रध्वजमिवोच्छ्रितम्।
तं हि दृष्ट्वा महेष्वासं निरस्तं पतितं भुवि ॥ ३ ॥
बभूव सोऽस्य सचिवः सम्प्रदीप्त इवाग्निना।
त्वरया चोपसंगम्य स्नेहादागतसम्भ्रमः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे समय पाकर गिरे हुए ऊँचे इन्द्रध्वजकी भाँति पृथ्वीपर पड़े थे। तपतीसे विमुक्त उन महान् धनुर्धर महाराजको इस प्रकार पृथ्वीपर पड़ा देख राजमन्त्री ऐसे व्याकुल हो उठे मानो उनके शरीरमें आग लग गयी हो। वे तुरंत उनके पास जा पहुँचे। स्नेहवश उनके हृदयमें घबराहट पैदा हो गयी थी॥३-४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं समुत्थापयामास नृपतिं काममोहितम्।
भूतलाद् भूमिपालेशं पितेव पतितं सुतम् ॥ ५ ॥
प्रज्ञया वयसा चैव वृद्धः कीर्त्या नयेन च।
अमात्यस्तं समुत्थाप्य बभूव विगतज्वरः ॥ ६ ॥
मूलम्
तं समुत्थापयामास नृपतिं काममोहितम्।
भूतलाद् भूमिपालेशं पितेव पतितं सुतम् ॥ ५ ॥
प्रज्ञया वयसा चैव वृद्धः कीर्त्या नयेन च।
अमात्यस्तं समुत्थाप्य बभूव विगतज्वरः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजमन्त्री अवस्थामें तो बड़े-बूढ़े थे ही, बुद्धि, कीर्ति और नीतिमें भी बढ़े-चढ़े थे। उन्होंने जैसे पिता अपने गिरे हुए पुत्रको धरतीसे उठा ले, उसी प्रकार कामवेदनासे मूर्च्छित हुए भूमिपालोंके भी स्वामी महाराज संवरणको शीघ्रतापूर्वक पृथ्वीपरसे उठा लिया। राजाको उठाकर और उन्हें जीवित पाकर उनकी चिन्ता दूर हो गयी॥५-६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उवाच चैनं कल्याण्या वाचा मधुरयोत्थितम्।
मा भैर्मनुजशार्दूल भद्रमस्तु तवानघ ॥ ७ ॥
मूलम्
उवाच चैनं कल्याण्या वाचा मधुरयोत्थितम्।
मा भैर्मनुजशार्दूल भद्रमस्तु तवानघ ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे उठकर बैठे हुए महाराजसे कल्याणमयी मधुर वाणीमें बोले—‘नरश्रेष्ठ! आप डरें नहीं। अनघ! आपका कल्याण हो’॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षुत्पिपासापरिश्रान्तं तर्कयामास वै नृपम्।
पतितं पातनं संख्ये शात्रवाणां महीतले ॥ ८ ॥
मूलम्
क्षुत्पिपासापरिश्रान्तं तर्कयामास वै नृपम्।
पतितं पातनं संख्ये शात्रवाणां महीतले ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युद्धमें शत्रुदलको पृथ्वीपर गिरा देनेवाले नरेशको भूमिपर गिरा देख मन्त्रीने यह अनुमान लगाया कि ये भूख-प्याससे पीड़ित एवं थके-माँदे हैं॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वारिणा च सुशीतेन शिरस्तस्याभ्यषेचयत्।
अस्फुटन्मुकुटं राज्ञः पुण्डरीकसुगन्धिना ॥ ९ ॥
मूलम्
वारिणा च सुशीतेन शिरस्तस्याभ्यषेचयत्।
अस्फुटन्मुकुटं राज्ञः पुण्डरीकसुगन्धिना ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गिरनेपर राजाका मुकुट छिन्न-भिन्न नहीं हुआ था (इससे अनुमान होता था कि राजा युद्धमें घायल नहीं हुए हैं)। मन्त्रीने राजाके मस्तकको कमलकी सुगन्धसे युक्त ठंडे जलसे सींचा॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः प्रत्यागतप्राणस्तद् बलं बलवान् नृपः।
सर्वं विसर्जयामास तमेकं सचिवं विना ॥ १० ॥
मूलम्
ततः प्रत्यागतप्राणस्तद् बलं बलवान् नृपः।
सर्वं विसर्जयामास तमेकं सचिवं विना ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उससे राजाको चेत हो आया। बलवान् नरेशने एकमात्र अपने मन्त्रीके सिवा सारी सेनाको लौटा दिया॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तस्याज्ञया राज्ञो विप्रतस्थे महद् बलम्।
स तु राजा गिरिप्रस्थे तस्मिन् पुनरुपाविशत् ॥ ११ ॥
मूलम्
ततस्तस्याज्ञया राज्ञो विप्रतस्थे महद् बलम्।
स तु राजा गिरिप्रस्थे तस्मिन् पुनरुपाविशत् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराजकी आज्ञासे तुरंत वह विशाल सेना राजधानीकी ओर चल दी; परंतु वे राजा संवरण फिर उसी पर्वत-शिखरपर जा बैठे॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तस्मिन् गिरिवरे शुचिर्भूत्वा कृताञ्जलिः।
आरिराधयिषुः सूर्यं तस्थावूर्ध्वमुखः क्षितौ ॥ १२ ॥
मूलम्
ततस्तस्मिन् गिरिवरे शुचिर्भूत्वा कृताञ्जलिः।
आरिराधयिषुः सूर्यं तस्थावूर्ध्वमुखः क्षितौ ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर उस श्रेष्ठ पर्वतपर स्नानादिसे पवित्र हो भगवान् सूर्यकी आराधना करनेके लिये हाथ जोड़ ऊपरकी ओर मुँह किये वे भूमिपर खड़े हो गये॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जगाम मनसा चैव वसिष्ठमृषिसत्तमम्।
पुरोहितममित्रघ्नस्तदा संवरणो नृपः ॥ १३ ॥
मूलम्
जगाम मनसा चैव वसिष्ठमृषिसत्तमम्।
पुरोहितममित्रघ्नस्तदा संवरणो नृपः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय शत्रुओंका नाश करनेवाले राजा संवरणने अपने पुरोहित मुनिवर वसिष्ठका मन-ही-मन स्मरण किया॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नक्तं दिनमथैकत्र स्थिते तस्मिञ्जनाधिपे।
अथाजगाम विप्रर्षिस्तदा द्वादशमेऽहनि ॥ १४ ॥
मूलम्
नक्तं दिनमथैकत्र स्थिते तस्मिञ्जनाधिपे।
अथाजगाम विप्रर्षिस्तदा द्वादशमेऽहनि ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे रात-दिन एक ही जगह खड़े होकर तपस्यामें लगे रहे। तब बारहवें दिन महर्षि वसिष्ठका (वहाँ) शुभागमन हुआ॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स विदित्वैव नृपतिं तपत्या हृतमानसम्।
दिव्येन विधिना ज्ञात्वा भावितात्मा महानृषिः ॥ १५ ॥
मूलम्
स विदित्वैव नृपतिं तपत्या हृतमानसम्।
दिव्येन विधिना ज्ञात्वा भावितात्मा महानृषिः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विशुद्ध अन्तःकरणवाले महर्षि वसिष्ठ दिव्यज्ञानसे पहले ही जान गये कि सूर्यकन्या तपतीने राजाका चित्त चुरा लिया है॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा तु नियतात्मानं तं नृपं मुनिसत्तमः।
आबभाषे स धर्मात्मा तस्यैवार्थचिकीर्षया ॥ १६ ॥
मूलम्
तथा तु नियतात्मानं तं नृपं मुनिसत्तमः।
आबभाषे स धर्मात्मा तस्यैवार्थचिकीर्षया ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार मन और इन्द्रियोंको संयममें रखकर तपस्यामें लगे हुए उक्त नरेशसे धर्मात्मा मुनिवर वसिष्ठने उन्हींकी कार्यसिद्धिके लिये कुछ बातचीत की॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तस्य मनुजेन्द्रस्य पश्यतो भगवानृषिः।
ऊर्ध्वमाचक्रमे द्रष्टुं भास्करं भास्करद्युतिः ॥ १७ ॥
मूलम्
स तस्य मनुजेन्द्रस्य पश्यतो भगवानृषिः।
ऊर्ध्वमाचक्रमे द्रष्टुं भास्करं भास्करद्युतिः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उक्त महाराजके देखते-देखते सूर्यके समान तेजस्वी भगवान् वसिष्ठ मुनि सूर्यदेवसे मिलनेके लिये ऊपरको गये॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सहस्रांशुं ततो विप्रः कृताञ्जलिरुपस्थितः।
वसिष्ठोऽहमिति प्रीत्या स चात्मानं न्यवेदयत् ॥ १८ ॥
मूलम्
सहस्रांशुं ततो विप्रः कृताञ्जलिरुपस्थितः।
वसिष्ठोऽहमिति प्रीत्या स चात्मानं न्यवेदयत् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्मर्षि वसिष्ठ दोनों हाथ जोड़कर सहस्रों किरणोंसे सुशोभित भगवान् सूर्यदेवके समीप गये और ‘मैं वसिष्ठ हूँ’ यों कहकर उन्होंने बड़ी प्रसन्नतासे अपना समाचार निवेदित किया॥१८॥
मूलम् (वचनम्)
(वसिष्ठ उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अजाय लोकत्रयपावनाय
भूतात्मने गोपतये वृषाय ।
सूर्याय सर्गप्रलयालयाय
नमो महाकारुणिकोत्तमाय ॥
विवस्वते ज्ञानभृदन्तरात्मने
जगत्प्रदीपाय जगद्धितैषिणे ।
स्वयम्भुवे दीप्तसहस्रचक्षुषे
सुरोत्तमायामिततेजसे नमः ॥
नमः सवित्रे जगदेकचक्षुषे
जगत्प्रसूतिस्थितिनाशहेतवे ।
त्रयीमयाय त्रिगुणात्मधारिणे
विरिञ्चिनारायणशङ्करात्मने ॥)
मूलम्
अजाय लोकत्रयपावनाय
भूतात्मने गोपतये वृषाय ।
सूर्याय सर्गप्रलयालयाय
नमो महाकारुणिकोत्तमाय ॥
विवस्वते ज्ञानभृदन्तरात्मने
जगत्प्रदीपाय जगद्धितैषिणे ।
स्वयम्भुवे दीप्तसहस्रचक्षुषे
सुरोत्तमायामिततेजसे नमः ॥
नमः सवित्रे जगदेकचक्षुषे
जगत्प्रसूतिस्थितिनाशहेतवे ।
त्रयीमयाय त्रिगुणात्मधारिणे
विरिञ्चिनारायणशङ्करात्मने ॥)
अनुवाद (हिन्दी)
फिर वसिष्ठजी बोले— जो अजन्मा, तीनों लोकोंको पवित्र करनेवाले, समस्त प्राणियोंके अन्तर्यामी, किरणोंके अधिपति, धर्मस्वरूप, सृष्टि और प्रलयके अधिष्ठान तथा परम दयालु देवताओंमें सर्वश्रेष्ठ हैं, उन भगवान् सूर्यको नमस्कार है। जो ज्ञानियोंके अन्तरात्मा, जगत्को प्रकाशित करनेवाले, संसारके हितैषी, स्वयम्भू तथा सहस्रों उद्दीप्त नेत्रोंसे सुशोभित हैं, उन अमिततेजस्वी सुरश्रेष्ठ भगवन् सूर्यको नमस्कार है। जो जगत्के एकमात्र नेत्र हैं, संसारकी सृष्टि, पालन और संहारके हेतु हैं, तीनों वेद जिनके स्वरूप हैं, जो त्रिगुणात्मक स्वरूप धारण करके ब्रह्मा, विष्णु और शिव नामसे प्रसिद्ध हैं, उन भगवान् सविताको नमस्कार है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमुवाच महातेजा विवस्वान् मुनिसत्तमम्।
महर्षे स्वागतं तेऽस्तु कथयस्व यथेप्सितम् ॥ १९ ॥
मूलम्
तमुवाच महातेजा विवस्वान् मुनिसत्तमम्।
महर्षे स्वागतं तेऽस्तु कथयस्व यथेप्सितम् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब महातेजस्वी भगवान् सूर्यने मुनिवर वसिष्ठसे कहा—‘महर्षे! तुम्हारा स्वागत है! तुम्हारी जो अभिलाषा हो, उसे कहो॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदिच्छसि महाभाग मत्तः प्रवदतां वर।
तत् ते दद्यामभिप्रेतं यद्यपि स्यात् सुदुष्करम् ॥ २० ॥
मूलम्
यदिच्छसि महाभाग मत्तः प्रवदतां वर।
तत् ते दद्यामभिप्रेतं यद्यपि स्यात् सुदुष्करम् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वक्ताओंमें श्रेष्ठ महाभाग! तुम मुझसे जो कुछ चाहते हो, तुम्हारी वह अभीष्ट वस्तु कितनी ही दुर्लभ क्यों न हो, तुम्हें अवश्य दूँगा॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(स्तुतोऽस्मि वरदस्तेऽहं वरं वरय सुव्रत।
स्तुतिस्त्वयोक्ता भक्तानां जप्येयं वरदोऽस्म्यहम्॥)
मूलम्
(स्तुतोऽस्मि वरदस्तेऽहं वरं वरय सुव्रत।
स्तुतिस्त्वयोक्ता भक्तानां जप्येयं वरदोऽस्म्यहम्॥)
अनुवाद (हिन्दी)
‘उत्तम व्रतका पालन करनेवाले महर्षे! तुमने जो मेरा स्तवन किया है, इसके लिये मैं तुम्हें वर देनेको उद्यत हूँ, कोई वर माँगो। तुम्हारे द्वारा कही हुई वह स्तुति भक्तोंके लिये निरन्तर जप करनेयोग्य है। मैं तुम्हें वर देना चाहता हूँ’।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्तः स तेनर्षिर्वसिष्ठः प्रत्यभाषत।
प्रणिपत्य विवस्वन्तं भानुमन्तं महातपाः ॥ २१ ॥
मूलम्
एवमुक्तः स तेनर्षिर्वसिष्ठः प्रत्यभाषत।
प्रणिपत्य विवस्वन्तं भानुमन्तं महातपाः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके यों कहनेपर महातपस्वी मुनिवर वसिष्ठ मरीचि-माली भगवान् भास्करको प्रणाम करके इस प्रकार बोले॥२१॥
मूलम् (वचनम्)
वसिष्ठ उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यैषा ते तपती नाम सावित्र्यवरजा सुता।
तां त्वां संवरणस्यार्थे वरयामि विभावसो ॥ २२ ॥
मूलम्
यैषा ते तपती नाम सावित्र्यवरजा सुता।
तां त्वां संवरणस्यार्थे वरयामि विभावसो ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वसिष्ठजीने कहा— विभावसो! यह जो आपकी तपती नामकी पुत्री एवं सावित्रीकी छोटी बहिन है, इसे मैं आपसे राजा संवरणके लिये माँगता हूँ॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स हि राजा बृहत्कीर्तिर्धर्मार्थविदुदारधीः।
युक्तः संवरणो भर्ता दुहितुस्ते विहंगम ॥ २३ ॥
मूलम्
स हि राजा बृहत्कीर्तिर्धर्मार्थविदुदारधीः।
युक्तः संवरणो भर्ता दुहितुस्ते विहंगम ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस राजाकी कीर्ति बहुत दूरतक फैली हुई है। वे धर्म और अर्थके ज्ञाता तथा उदार बुद्धिवाले हैं; अतः आकाशचारी सूर्यदेव! महाराज संवरण आपकी पुत्रीके लिये सुयोग्य पति होंगे॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्तः स तदा तेन ददानीत्येव निश्चितः।
प्रत्यभाषत तं विप्रं प्रतिनन्द्य दिवाकरः ॥ २४ ॥
मूलम्
इत्युक्तः स तदा तेन ददानीत्येव निश्चितः।
प्रत्यभाषत तं विप्रं प्रतिनन्द्य दिवाकरः ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वसिष्ठजीके यों कहनेपर अपनी कन्या देनेका निश्चय करके भगवान् सूर्यने ब्रह्मर्षिका अभिनन्दन किया और इस प्रकार कहा—॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वरः संवरणो राज्ञां त्वमृषीणां वरो मुने।
तपती योषितां श्रेष्ठा किमन्यदपवर्जनात् ॥ २५ ॥
मूलम्
वरः संवरणो राज्ञां त्वमृषीणां वरो मुने।
तपती योषितां श्रेष्ठा किमन्यदपवर्जनात् ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मुने! संवरण राजाओंमें श्रेष्ठ हैं, आप महर्षियोंमें उत्तम हैं और तपती युवतियोंमें सर्वश्रेष्ठ है; अतः उसके दानसे श्रेष्ठ और क्या हो सकता है’॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः सर्वानवद्याङ्गीं तपतीं तपनः स्वयम्।
ददौ संवरणस्यार्थे वसिष्ठाय महात्मने ॥ २६ ॥
मूलम्
ततः सर्वानवद्याङ्गीं तपतीं तपनः स्वयम्।
ददौ संवरणस्यार्थे वसिष्ठाय महात्मने ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर साक्षात् भगवान् सूर्यने अनिन्द्यसुन्दरी तपतीको राजा संवरणकी पत्नी होनेके लिये महात्मा वसिष्ठको अर्पित कर दिया॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रतिजग्राह तां कन्यां महर्षिस्तपतीं तदा।
वसिष्ठोऽथ विसृष्टस्तु पुनरेवाजगाम ह ॥ २७ ॥
यत्र विख्यातकीर्तिः स कुरूणामृषभोऽभवत्।
स राजा मन्मथाविष्टस्तद्गतेनान्तरात्मना ॥ २८ ॥
मूलम्
प्रतिजग्राह तां कन्यां महर्षिस्तपतीं तदा।
वसिष्ठोऽथ विसृष्टस्तु पुनरेवाजगाम ह ॥ २७ ॥
यत्र विख्यातकीर्तिः स कुरूणामृषभोऽभवत्।
स राजा मन्मथाविष्टस्तद्गतेनान्तरात्मना ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्मर्षि वसिष्ठने उस कन्याको ग्रहण किया और वहाँसे विदा होकर वे तपतीके साथ पुनः उस स्थानपर आये, जहाँ विख्यातकीर्ति, कुरुवंशियोंमें श्रेष्ठ राजा संवरण कामके वशीभूत हो मन-ही-मन तपतीका चिन्तन करते हुए बैठे थे॥२७-२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृष्ट्वा च देवकन्यां तां तपतीं चारुहासिनीम्।
वसिष्ठेन सहायान्तीं संहृष्टोऽभ्यधिकं बभौ ॥ २९ ॥
मूलम्
दृष्ट्वा च देवकन्यां तां तपतीं चारुहासिनीम्।
वसिष्ठेन सहायान्तीं संहृष्टोऽभ्यधिकं बभौ ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनोहर मुसकानवाली देवकन्या तपतीको वसिष्ठजीके साथ आती देख राजा संवरण अत्यन्त हर्षोल्लाससे युक्त हो अधिक शोभा पाने लगे॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रुरुचे साधिकं सुभ्रूरापतन्ती नभस्तलात्।
सौदामिनीव विभ्रष्टा द्योतयन्ती दिशस्त्विषा ॥ ३० ॥
मूलम्
रुरुचे साधिकं सुभ्रूरापतन्ती नभस्तलात्।
सौदामिनीव विभ्रष्टा द्योतयन्ती दिशस्त्विषा ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुन्दर भौंहोंवाली तपती आकाशसे पृथ्वीपर आते समय गिरी हुई बिजलीके समान सम्पूर्ण दिशाओंको अपनी प्रभासे प्रकाशित करती हुई अधिक सुशोभित हो रही थी॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृच्छ्राद् द्वादशरात्रे तु तस्य राज्ञः समाहिते।
आजगाम विशुद्धात्मा वसिष्ठो भगवानृषिः ॥ ३१ ॥
मूलम्
कृच्छ्राद् द्वादशरात्रे तु तस्य राज्ञः समाहिते।
आजगाम विशुद्धात्मा वसिष्ठो भगवानृषिः ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजाने क्लेश सहन करते हुए बारह राततक एकाग्रचित्त होकर ध्यान लगाया था। तब विशुद्ध अन्तःकरणवाले भगवान् वसिष्ठ मुनि राजाके पास आये थे॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तपसाऽऽराध्य वरदं देवं गोपतिमीश्वरम्।
लेभे संवरणो भार्यां वसिष्ठस्यैव तेजसा ॥ ३२ ॥
मूलम्
तपसाऽऽराध्य वरदं देवं गोपतिमीश्वरम्।
लेभे संवरणो भार्यां वसिष्ठस्यैव तेजसा ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सबके अधीश्वर वरदायक देवशिरोमणि भगवान् सूर्यको तपस्याद्वारा प्रसन्न करके महाराज संवरणने वसिष्ठजीके ही तेजसे तपतीको पत्नीरूपमें प्राप्त किया॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तस्मिन् गिरिश्रेष्ठे देवगन्धर्वसेविते ।
जग्राह विधिवत् पाणिं तपत्याः स नरर्षभः ॥ ३३ ॥
मूलम्
ततस्तस्मिन् गिरिश्रेष्ठे देवगन्धर्वसेविते ।
जग्राह विधिवत् पाणिं तपत्याः स नरर्षभः ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर उन नरश्रेष्ठने देवताओं और गन्धर्वोंसे सेवित उस उत्तम पर्वतपर विधिपूर्वक तपतीका पाणिग्रहण किया॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वसिष्ठेनाभ्यनुज्ञातस्तस्मिन्नेव धराधरे ।
सोऽकामयत राजर्षिर्विहर्तुं सह भार्यया ॥ ३४ ॥
मूलम्
वसिष्ठेनाभ्यनुज्ञातस्तस्मिन्नेव धराधरे ।
सोऽकामयत राजर्षिर्विहर्तुं सह भार्यया ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसके बाद वसिष्ठजीकी आज्ञा लेकर राजर्षि संवरणने उसी पर्वतपर अपनी पत्नीके साथ विहार करनेकी इच्छा की॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः पुरे च राष्ट्रे च वनेषूपवनेषु च।
आदिदेश महीपालस्तमेव सचिवं तदा ॥ ३५ ॥
मूलम्
ततः पुरे च राष्ट्रे च वनेषूपवनेषु च।
आदिदेश महीपालस्तमेव सचिवं तदा ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन दिनों भूपालने नगर, राष्ट्र, वन तथा उपवनोंकी देखभाल एवं रक्षाके लिये मन्त्रीको ही आदेश देकर विदा किया॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नृपतिं त्वभ्यनुज्ञाप्य वसिष्ठोऽथापचक्रमे ।
सोऽथ राजा गिरौ तस्मिन् विजहारामरो यथा ॥ ३६ ॥
मूलम्
नृपतिं त्वभ्यनुज्ञाप्य वसिष्ठोऽथापचक्रमे ।
सोऽथ राजा गिरौ तस्मिन् विजहारामरो यथा ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वसिष्ठजी भी राजासे विदा ले अपने स्थानको चले गये। तदनन्तर राजा संवरण उस पर्वतपर देवताकी भाँति विहार करने लगे॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो द्वादश वर्षाणि काननेषु वनेषु च।
रेमे तस्मिन् गिरौ राजा तथैव सह भार्यया ॥ ३७ ॥
मूलम्
ततो द्वादश वर्षाणि काननेषु वनेषु च।
रेमे तस्मिन् गिरौ राजा तथैव सह भार्यया ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे उसी पर्वतके वनों और काननोंमें अपनी पत्नीके साथ उसी प्रकार बारह वर्षोंतक रमण करते रहे॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य राज्ञः पुरे तस्मिन् समा द्वादश सत्तम।
न ववर्ष सहस्राक्षो राष्ट्रे चैवास्य भारत ॥ ३८ ॥
मूलम्
तस्य राज्ञः पुरे तस्मिन् समा द्वादश सत्तम।
न ववर्ष सहस्राक्षो राष्ट्रे चैवास्य भारत ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुन! उन दिनों महाराज संवरणके राज्य और नगरमें इन्द्रने बारह वर्षोंतक वर्षा नहीं की॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तस्यामनावृष्ट्यां प्रवृत्तायामरिंदम ।
प्रजाः क्षयमुपाजग्मुः सर्वाः सस्थाणुजङ्गमाः ॥ ३९ ॥
मूलम्
ततस्तस्यामनावृष्ट्यां प्रवृत्तायामरिंदम ।
प्रजाः क्षयमुपाजग्मुः सर्वाः सस्थाणुजङ्गमाः ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुसूदन! उस अनावृष्टिके समय प्रायः स्थावर एवं जंगम सभी प्रकारकी प्रजाका क्षय होने लगा॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मिंस्तथाविधे काले वर्तमाने सुदारुणे।
नावश्यायः पपातोर्व्यां ततः सस्यानि नारुहन् ॥ ४० ॥
मूलम्
तस्मिंस्तथाविधे काले वर्तमाने सुदारुणे।
नावश्यायः पपातोर्व्यां ततः सस्यानि नारुहन् ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसे भयंकर समयमें पृथ्वीपर ओसकी एक बूँदतक न गिरी। परिणाम यह हुआ कि खेती उगती ही नहीं थी॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो विभ्रान्तमनसो जनाः क्षुद्भयपीडिताः।
गृहाणि सम्परित्यज्य बभ्रमुः प्रदिशो दिशः ॥ ४१ ॥
मूलम्
ततो विभ्रान्तमनसो जनाः क्षुद्भयपीडिताः।
गृहाणि सम्परित्यज्य बभ्रमुः प्रदिशो दिशः ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब सभी लोगोंका चित्त व्याकुल हो उठा। मनुष्य भूखके भयसे पीड़ित हो घरोंको छोड़कर दिशा-विदिशाओंमें मारे-मारे फिरने लगे॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तस्मिन् पुरे राष्ट्रे त्यक्तदारपरिग्रहाः।
परस्परममर्यादाः क्षुधार्ता जघ्निरे जनाः ॥ ४२ ॥
तत् क्षुधार्तैर्निरासहारैः शवभूतैस्तथा नरैः।
अभवत् प्रेतराजस्य पुरं प्रेतैरिवावृतम् ॥ ४३ ॥
मूलम्
ततस्तस्मिन् पुरे राष्ट्रे त्यक्तदारपरिग्रहाः।
परस्परममर्यादाः क्षुधार्ता जघ्निरे जनाः ॥ ४२ ॥
तत् क्षुधार्तैर्निरासहारैः शवभूतैस्तथा नरैः।
अभवत् प्रेतराजस्य पुरं प्रेतैरिवावृतम् ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर तो उस नगर और राष्ट्रके लोग क्षुधासे पीड़ित हो सनातन मर्यादाको छोड़कर स्त्री, पुत्र एवं परिवार आदिका त्याग करके परस्पर एक-दूसरेको मारने और लूटने-खसोटने लगे। राजाका नगर ऐसे लोगोंसे भर गया, जो भूखसे आतुर हो उपवास करते-करते मुर्दोंके समान हो रहे थे। उन नर-कंकालोंसे परिपूर्ण वह नगर प्रेतोंसे घिरे हुए यमराजके निवासस्थान-सा जान पड़ता था॥४२-४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तत् तादृशं दृष्ट्वा स एव भगवानृषिः।
अभ्यवर्षत धर्मात्मा वसिष्ठो मुनिसत्तमः ॥ ४४ ॥
मूलम्
ततस्तत् तादृशं दृष्ट्वा स एव भगवानृषिः।
अभ्यवर्षत धर्मात्मा वसिष्ठो मुनिसत्तमः ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रजाकी ऐसी दुरवस्था देख धर्मात्मा मुनिश्रेष्ठ भगवान् वसिष्ठने ही (अपने तपोबलसे) उस राज्यमें वर्षा की॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं च पार्थिवशार्दूलमानयामास तत् पुरम्।
तपत्या सहितं राजन् व्युषितं शाश्वतीः समाः।
ततः प्रवृष्टस्तत्रासीद् यथापूर्वं सुरारिहा ॥ ४५ ॥
मूलम्
तं च पार्थिवशार्दूलमानयामास तत् पुरम्।
तपत्या सहितं राजन् व्युषितं शाश्वतीः समाः।
ततः प्रवृष्टस्तत्रासीद् यथापूर्वं सुरारिहा ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
साथ ही वे नृपश्रेष्ठ संवरणको, जो बहुत वर्षोंसे प्रवासी हो रहे थे, तपतीके साथ नगरमें ले आये। उनके आनेपर दैत्यहन्ता देवराज इन्द्र वहाँ पूर्ववत् वर्षा करने लगे॥४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मिन् नृपतिशार्दूले प्रविष्टे नगरं पुनः।
प्रववर्ष सहस्राक्षः सस्यानि जनयन् प्रभुः ॥ ४६ ॥
मूलम्
तस्मिन् नृपतिशार्दूले प्रविष्टे नगरं पुनः।
प्रववर्ष सहस्राक्षः सस्यानि जनयन् प्रभुः ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन श्रेष्ठ राजाके नगरमें प्रवेश करनेपर भगवान् इन्द्रने वहाँ अन्नका उत्पादन बढ़ानेके लिये पुनः अच्छी वर्षा की॥४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः सराष्ट्रं मुमुदे तत् पुरं परया मुदा।
तेन पार्थिवमुख्येन भावितं भावितात्मना ॥ ४७ ॥
मूलम्
ततः सराष्ट्रं मुमुदे तत् पुरं परया मुदा।
तेन पार्थिवमुख्येन भावितं भावितात्मना ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तबसे शुद्ध अन्तःकरणवाले नृपश्रेष्ठ संवरणके द्वारा पालित सब लोग प्रसन्न रहने लगे। उस राज्य और नगरमें बड़ा आनन्द छा गया॥४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो द्वादश वर्षाणि पुनरीजे नराधिपः।
तपत्या सहितः पत्न्या यथा शच्या मरुत्पतिः ॥ ४८ ॥
मूलम्
ततो द्वादश वर्षाणि पुनरीजे नराधिपः।
तपत्या सहितः पत्न्या यथा शच्या मरुत्पतिः ॥ ४८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर तपतीके सहित महाराज संवरणने शचीके साथ इन्द्रके समान सुशोभित होते हुए बारह वर्षोंतक यज्ञ किया॥४८॥
मूलम् (वचनम्)
गन्धर्व उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमासीन्महाभागा तपती नाम पौर्विकी।
तव वैवस्वती पार्थ तापत्यस्त्वं यया मतः ॥ ४९ ॥
मूलम्
एवमासीन्महाभागा तपती नाम पौर्विकी।
तव वैवस्वती पार्थ तापत्यस्त्वं यया मतः ॥ ४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गन्धर्व कहता है— कुन्तीनन्दन! इस प्रकार भगवान् सूर्यकी पुत्री महाभागा तपती आपके पूर्वपुरुष संवरणकी पत्नी हुई थी, जिससे मैंने आपको तपतीनन्दन माना है॥४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्यां संजनयामास कुरुं संवरणो नृपः।
तपत्यां तपतां श्रेष्ठ तापत्यस्त्वं ततोऽर्जुन ॥ ५० ॥
मूलम्
तस्यां संजनयामास कुरुं संवरणो नृपः।
तपत्यां तपतां श्रेष्ठ तापत्यस्त्वं ततोऽर्जुन ॥ ५० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तपस्वीजनोंमें श्रेष्ठ अर्जुन! महाराज संवरणने तपतीके गर्भसे कुरुको उत्पन्न किया था; अतः उसी वंशमें जन्म लेनेके कारण आपलोग तापत्य हुए॥५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(कुरूद्भवा यतो यूयं कौरवाः कुरवस्तथा।
पौरवा आजमीढाश्च भारता भरतर्षभ॥
तापत्यमखिलं प्रोक्तं वृत्तान्तं तव पूर्वकम्।
पुरोहितमुखा यूयं भुङ्ग्ध्वं वै पृथिवीमिमाम्॥)
मूलम्
(कुरूद्भवा यतो यूयं कौरवाः कुरवस्तथा।
पौरवा आजमीढाश्च भारता भरतर्षभ॥
तापत्यमखिलं प्रोक्तं वृत्तान्तं तव पूर्वकम्।
पुरोहितमुखा यूयं भुङ्ग्ध्वं वै पृथिवीमिमाम्॥)
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ उन्हीं कुरुसे उत्पन्न होनेके कारण आप सब लोग ‘कौरव’ तथा ‘कुरुवंशी’ कहलाते हैं। इसी प्रकार पुरुसे उत्पन्न होनेके कारण ‘पौरव’, अजमीढकुलमें जन्म लेनेसे ‘आजमीढ’ तथा भरतकुलमें उत्पन्न होनेसे ‘भारत’ कहलाते हैं। इस प्रकार आपलोगोंकी वंशजननी तपतीका सारा पुरातन वृत्तान्त मैंने बता दिया। अब आपलोग पुरोहितको आगे रखकर इस पृथ्वीका पालन एवं उपभोग करें।
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि चैत्ररथपर्वणि तपत्युपाख्यानसमाप्तौ द्विसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १७२ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत चैत्ररथपर्वमें तपती-उपाख्यानकी समाप्तिसे सम्बन्ध रखनेवाला एक सौ बहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१७२॥