श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना
सप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
सूर्यकन्या तपतीको देखकर राजा संवरणका मोहित होना
मूलम् (वचनम्)
अर्जुन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तापत्य इति यद् वाक्यमुक्तवानसि मामिह।
तदहं ज्ञातुमिच्छामि तापत्यार्थं विनिश्चितम् ॥ १ ॥
मूलम्
तापत्य इति यद् वाक्यमुक्तवानसि मामिह।
तदहं ज्ञातुमिच्छामि तापत्यार्थं विनिश्चितम् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुनने कहा— गन्धर्व! तुमने ‘तपतीनन्दन’ कहकर जो बात यहाँ मुझसे कही है, उसके सम्बन्धमें मैं यह जानना चाहता हूँ कि तापत्यका निश्चित अर्थ क्या है?॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तपती नाम का चैषा तापत्या यत्कृते वयम्।
कौन्तेया हि वयं साधो तत्त्वमिच्छामि वेदितुम् ॥ २ ॥
मूलम्
तपती नाम का चैषा तापत्या यत्कृते वयम्।
कौन्तेया हि वयं साधो तत्त्वमिच्छामि वेदितुम् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
साधुस्वभाव गन्धर्वराज! यह तपती कौन है, जिसके कारण हमलोग तापत्य कहलाते हैं? हम तो अपनेको कुन्तीका पुत्र समझते हैं। अतः ‘तापत्य’ का यथार्थ रहस्य क्या है, यह जाननेकी मुझे बड़ी इच्छा हो रही है॥२॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्तः स गन्धर्वः कुन्तीपुत्रं धनंजयम्।
विश्रुतां त्रिषु लोकेषु श्रावयामास वै कथाम् ॥ ३ ॥
मूलम्
एवमुक्तः स गन्धर्वः कुन्तीपुत्रं धनंजयम्।
विश्रुतां त्रिषु लोकेषु श्रावयामास वै कथाम् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! उनके यों कहनेपर गन्धर्वने कुन्तीनन्दन धनंजयको वह कथा सुनानी प्रारम्भ की, जो तीनों लोकोंमें विख्यात है॥३॥
मूलम् (वचनम्)
गन्धर्व उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
हन्त ते कथयिष्यामि कथामेतां मनोरमाम्।
यथावदखिलां पार्थ सर्वबुद्धिमतां वर ॥ ४ ॥
मूलम्
हन्त ते कथयिष्यामि कथामेतां मनोरमाम्।
यथावदखिलां पार्थ सर्वबुद्धिमतां वर ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गन्धर्व बोला— समस्त बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ कुन्तीकुमार! इस विषयमें एक बहुत मनोरम कथा है, जिसे मैं यथार्थ एवं पूर्णरूपसे आपको सुनाऊँगा॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उक्तवानस्मि येन त्वां तापत्य इति यद् वचः।
तत् तेऽहं कथयिष्यामि शृणुष्वैकमना भव ॥ ५ ॥
मूलम्
उक्तवानस्मि येन त्वां तापत्य इति यद् वचः।
तत् तेऽहं कथयिष्यामि शृणुष्वैकमना भव ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैंने जिस कारण अपने वक्तव्यमें तुम्हें ‘तापत्य’ कहा है, वह बता रहा हूँ, एकाग्रचित्त होकर सुनो॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
य एष दिवि धिष्ण्येन नाकं व्याप्नोति तेजसा।
एतस्य तपती नाम बभूव सदृशी सुता ॥ ६ ॥
विवस्वतो वै देवस्य सावित्र्यवरजा विभो।
विश्रुता त्रिषु लोकेषु तपती तपसा युता ॥ ७ ॥
मूलम्
य एष दिवि धिष्ण्येन नाकं व्याप्नोति तेजसा।
एतस्य तपती नाम बभूव सदृशी सुता ॥ ६ ॥
विवस्वतो वै देवस्य सावित्र्यवरजा विभो।
विश्रुता त्रिषु लोकेषु तपती तपसा युता ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ये जो आकाशमें उदित हो अपने तेजोमण्डलके द्वारा यहाँसे स्वर्गलोकतक व्याप्त हो रहे हैं, इन्हीं भगवान् सूर्यदेवके तपती नामकी एक पुत्री हुई, जो पिताके अनुरूप ही थी। प्रभो! वह सावित्रीदेवीकी छोटी बहिन थी। वह तपस्यामें संलग्न रहनेके कारण तीनों लोकोंमें तपती नामसे विख्यात हुई॥६-७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न देवी नासुरी चैव न यक्षी न च राक्षसी।
नाप्सरा न च गन्धर्वी तथा रूपेण काचन ॥ ८ ॥
मूलम्
न देवी नासुरी चैव न यक्षी न च राक्षसी।
नाप्सरा न च गन्धर्वी तथा रूपेण काचन ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय देवता, असुर, यक्ष एवं राक्षस जातिकी स्त्री, कोई अप्सरा तथा गधर्वपत्नी भी उसके समान रूपवती न थी॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुविभक्तानवद्याङ्गी स्वसितायतलोचना ।
स्वाचारा चैव साध्वी च सुवेषा चैव भामिनी ॥ ९ ॥
न तस्याः सदृशं कंचित् त्रिषु लोकेषु भारत।
भर्तारं सविता मेने रूपशीलगुणश्रुतैः ॥ १० ॥
मूलम्
सुविभक्तानवद्याङ्गी स्वसितायतलोचना ।
स्वाचारा चैव साध्वी च सुवेषा चैव भामिनी ॥ ९ ॥
न तस्याः सदृशं कंचित् त्रिषु लोकेषु भारत।
भर्तारं सविता मेने रूपशीलगुणश्रुतैः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसके शरीरका एक-एक अवयव बहुत सुन्दर, सुविभक्त और निर्दोष था। उसकी आँखें बड़ी-बड़ी और कजरारी थीं। वह सुन्दरी सदाचार, साधु-स्वभाव और मनोहर वेशसे सुशोभित थी। भारत! भगवान् सूर्यने तीनों लोकोंमें किसी भी पुरुषको ऐसा नहीं पाया, जो रूप, शील, गुण और शास्त्रज्ञानकी दृष्टिसे उसका पति होनेयोग्य हो॥९-१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सम्प्राप्तयौवनां पश्यन् देयां दुहितरं तु ताम्।
नोपलेभे ततः शान्तिं सम्प्रदानं विचिन्तयन् ॥ ११ ॥
मूलम्
सम्प्राप्तयौवनां पश्यन् देयां दुहितरं तु ताम्।
नोपलेभे ततः शान्तिं सम्प्रदानं विचिन्तयन् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह युवावस्थाको प्राप्त हो गयी। अब उसका किसीके साथ विवाह कर देना आवश्यक था। उसे उस अवस्थामें देखकर भगवान् सूर्य इस चिन्तामें पड़े कि इसका विवाह किसके साथ किया जाय। यही सोचकर उन्हें शान्ति नहीं मिलती थी॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथर्क्षपुत्रः कौन्तेय कुरूणामृषभो बली।
सूर्यमाराधयामास नृपः संवरणस्तदा ॥ १२ ॥
मूलम्
अथर्क्षपुत्रः कौन्तेय कुरूणामृषभो बली।
सूर्यमाराधयामास नृपः संवरणस्तदा ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्तीनन्दन! उन्हीं दिनों महाराज ऋक्षके पुत्र राजा संवरण कुरुकुलके श्रेष्ठ एवं बलवान् पुरुष थे। उन्होंने भगवान् सूर्यकी आराधना प्रारम्भ की॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अर्घ्यमाल्योपहाराद्यैर्गन्धैश्च नियतः शुचिः ।
नियमैरुपवासैश्च तपोभिर्विविधैरपि ॥ १३ ॥
शुश्रूषुरनहंवादी शुचिः पौरवनन्दन ।
अंशुमन्तं समुद्यन्तं पूजयामास भक्तिमान् ॥ १४ ॥
मूलम्
अर्घ्यमाल्योपहाराद्यैर्गन्धैश्च नियतः शुचिः ।
नियमैरुपवासैश्च तपोभिर्विविधैरपि ॥ १३ ॥
शुश्रूषुरनहंवादी शुचिः पौरवनन्दन ।
अंशुमन्तं समुद्यन्तं पूजयामास भक्तिमान् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पौरवनन्दन! वे मन और इन्द्रियोंको संयममें रखकर पवित्र हो अर्घ्य, पुष्प, गन्ध एवं नैवेद्य आदि सामग्रियोंसे तथा भाँति-भाँतिके नियम, व्रत एवं तपस्याओंद्वारा बड़े भक्तिभावसे उदय होते हुए सूर्यकी पूजा करते थे। उनके हृदयमें सेवाका भाव था। वे शुद्ध तथा अहंकारशून्य थे॥१३-१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः कृतज्ञं धर्मज्ञं रूपेणासदृशं भुवि।
तपत्याः सदृशं मेने सूर्यः संवरणं पतिम् ॥ १५ ॥
मूलम्
ततः कृतज्ञं धर्मज्ञं रूपेणासदृशं भुवि।
तपत्याः सदृशं मेने सूर्यः संवरणं पतिम् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रूपमें इस पृथ्वीपर उनके समान दूसरा कोई पुरुष नहीं था। वे कृतज्ञ और धर्मज्ञ थे। अतः सूर्यदेवने राजा संवरणको ही तपतीके योग्य पति माना॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दातुमैच्छत् ततः कन्यां तस्मै संवरणाय ताम्।
नृपोत्तमाय कौरव्य विश्रुताभिजनाय च ॥ १६ ॥
मूलम्
दातुमैच्छत् ततः कन्यां तस्मै संवरणाय ताम्।
नृपोत्तमाय कौरव्य विश्रुताभिजनाय च ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुरुनन्दन! उन्होंने नृपश्रेष्ठ संवरणको, जिनका उत्तम कुल सम्पूर्ण विश्वमें विख्यात था, अपनी कन्या देनेकी इच्छा की॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा हि दिवि दीप्तांशुः प्रभासयति तेजसा।
तथा भुवि महीपालो दीप्त्या संवरणोऽभवत् ॥ १७ ॥
मूलम्
यथा हि दिवि दीप्तांशुः प्रभासयति तेजसा।
तथा भुवि महीपालो दीप्त्या संवरणोऽभवत् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे आकाशमें उद्दीप्त किरणोंवाले सूर्यदेव अपने तेजसे प्रकाशित होते हैं, उसी प्रकार पृथ्वीपर राजा संवरण अपनी दिव्य कान्तिसे प्रकाशित थे॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथार्चयन्ति चादित्यमुद्यन्तं ब्रह्मवादिनः ।
तथा संवरणं पार्थ ब्राह्मणावरजाः प्रजाः ॥ १८ ॥
मूलम्
यथार्चयन्ति चादित्यमुद्यन्तं ब्रह्मवादिनः ।
तथा संवरणं पार्थ ब्राह्मणावरजाः प्रजाः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पार्थ! जैसे ब्रह्मवादी महर्षि उगते हुए सूर्यकी आराधना करते हैं, उसी प्रकार क्षत्रिय, वैश्य आदि प्रजाएँ महाराज संवरणकी उपासना करती थीं॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स सोममति कान्तत्वादादित्यमति तेजसा।
बभूव नृपतिः श्रीमान् सुहृदां दुर्हृदामपि ॥ १९ ॥
मूलम्
स सोममति कान्तत्वादादित्यमति तेजसा।
बभूव नृपतिः श्रीमान् सुहृदां दुर्हृदामपि ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे अपनी कमनीय कान्तिसे चन्द्रमाको और तेजसे सूर्यदेवको भी तिरस्कृत करते थे। राजा संवरण मित्रों तथा शत्रुओंकी मण्डलीमें भी अपनी दिव्य शोभासे प्रकाशित होते थे॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवंगुणस्य नृपतेस्तथावृत्तस्य कौरव ।
तस्मै दातुं मनश्चक्रे तपतीं तपनः स्वयम् ॥ २० ॥
मूलम्
एवंगुणस्य नृपतेस्तथावृत्तस्य कौरव ।
तस्मै दातुं मनश्चक्रे तपतीं तपनः स्वयम् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुरुनन्दन! ऐसे उत्तम गुणोंसे विभूषित तथा श्रेष्ठ आचार-व्यवहारसे युक्त राजा संवरणको भगवान् सूर्यने स्वयं ही अपनी पुत्री तपतीको देनेका निश्चय कर लिया॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स कदाचिदथो राजा श्रीमानमितविक्रमः।
चचार मृगयां पार्थ पर्वतोपवने किल ॥ २१ ॥
मूलम्
स कदाचिदथो राजा श्रीमानमितविक्रमः।
चचार मृगयां पार्थ पर्वतोपवने किल ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्तीनन्दन! एक दिन अमितपराक्रमी श्रीमान् राजा संवरण पर्वतके समीपवर्ती उपवनमें हिंसक पशुओंका शिकार कर रहे थे॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चरतो मृगयां तस्य क्षुत्पिपासासमन्वितः।
ममार राज्ञः कौन्तेय गिरावप्रतिमो हयः ॥ २२ ॥
स मृताश्वश्चरन् पार्थ पद्भ्यामेव गिरौ नृपः।
ददर्शासदृशीं लोके कन्यामायतलोचनाम् ॥ २३ ॥
मूलम्
चरतो मृगयां तस्य क्षुत्पिपासासमन्वितः।
ममार राज्ञः कौन्तेय गिरावप्रतिमो हयः ॥ २२ ॥
स मृताश्वश्चरन् पार्थ पद्भ्यामेव गिरौ नृपः।
ददर्शासदृशीं लोके कन्यामायतलोचनाम् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्तीपुत्र! शिकार खेलते समय ही राजाका अनुपम अश्व पर्वतपर भूख-प्याससे पीड़ित हो मर गया। पार्थ! घोड़ेकी मृत्यु हो जानेसे राजा संवरण पैदल ही उस पर्वत-शिखरपर विचरने लगे। घूमते-घूमते उन्होंने एक विशाललोचना कन्या देखी, जिसकी समता करनेवाली स्त्री कहीं नहीं थी॥२२-२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स एक एकामासाद्य कन्यां परबलार्दनः।
तस्थौ नृपतिशार्दूलः पश्यन्नविचलेक्षणः ॥ २४ ॥
मूलम्
स एक एकामासाद्य कन्यां परबलार्दनः।
तस्थौ नृपतिशार्दूलः पश्यन्नविचलेक्षणः ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुओंकी सेनाका संहार करनेवाले नृपश्रेष्ठ संवरण अकेले थे और वह कन्या भी अकेली ही थी। उसके पास पहुँचकर राजा एकटक नेत्रोंसे उसकी ओर देखते हुए खड़े रह गये॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स हि तां तर्कयामास रूपतो नृपतिः श्रियम्।
पुनः संतर्कयामास रवेर्भ्रष्टामिव प्रभाम् ॥ २५ ॥
मूलम्
स हि तां तर्कयामास रूपतो नृपतिः श्रियम्।
पुनः संतर्कयामास रवेर्भ्रष्टामिव प्रभाम् ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पहले तो उसका रूप देखकर नरेशने अनुमान किया कि हो-न-हो ये साक्षात् लक्ष्मी हैं; फिर उनके ध्यानमें यह बात आयी कि सम्भव है, भगवान् सूर्यकी प्रभा ही सूर्यमण्डलसे च्युत होकर इस कन्याके रूपमें आकाशसे पृथ्वीपर आ गयी हो॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वपुषा वर्चसा चैव शिखामिव विभावसोः।
प्रसन्नत्वेन कान्त्या च चन्द्ररेखामिवामलाम् ॥ २६ ॥
मूलम्
वपुषा वर्चसा चैव शिखामिव विभावसोः।
प्रसन्नत्वेन कान्त्या च चन्द्ररेखामिवामलाम् ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शरीर और तेजसे वह आगकी ज्वाला-सी जान पड़ती थी। उसकी प्रसन्नता और कमनीय कान्तिसे ऐसा प्रतीत होता था, मानो वह निर्मल चन्द्रकला हो॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गिरिपृष्ठे तु सा यस्मिन् स्थिता स्वसितलोचना।
विभ्राजमाना शुशुभे प्रतिमेव हिरण्मयी ॥ २७ ॥
मूलम्
गिरिपृष्ठे तु सा यस्मिन् स्थिता स्वसितलोचना।
विभ्राजमाना शुशुभे प्रतिमेव हिरण्मयी ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुन्दर कजरारे नेत्रोंवाली वह दिव्य कन्या जिस पर्वत-शिखरपर खड़ी थी, वहाँ वह सोनेकी दमकती हुई प्रतिमा-सी सुशोभित हो रही थी॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्या रूपेण स गिरिर्वेषेण च विशेषतः।
स सवृक्षक्षुपलतो हिरण्मय इवाभवत् ॥ २८ ॥
मूलम्
तस्या रूपेण स गिरिर्वेषेण च विशेषतः।
स सवृक्षक्षुपलतो हिरण्मय इवाभवत् ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विशेषतः उसके रूप और वेशसे विभूषित हो वृक्ष, गुल्म और लताओंसहित वह पर्वत सुवर्णमय-सा जान पड़ता था॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवमेने च तां दृष्ट्वा सर्वलोकेषु योषितः।
अवाप्तं चात्मनो मेने स राजा चक्षुषः फलम् ॥ २९ ॥
मूलम्
अवमेने च तां दृष्ट्वा सर्वलोकेषु योषितः।
अवाप्तं चात्मनो मेने स राजा चक्षुषः फलम् ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसे देखकर राजा संवरणकी समस्त लोकोंकी सुन्दरी युवतियोंमें अनादर-बुद्धि हो गयी। राजा यह मानने लगे कि आज मुझे अपने नेत्रोंका फल मिल गया॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जन्मप्रभृति यत् किंचिद् दृष्टवान् स महीपतिः।
रूपं न सदृशं तस्यास्तर्कयामास किंचन ॥ ३० ॥
मूलम्
जन्मप्रभृति यत् किंचिद् दृष्टवान् स महीपतिः।
रूपं न सदृशं तस्यास्तर्कयामास किंचन ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भूपाल संवरणने जन्मसे लेकर (उस दिनतक) जो कुछ देखा था, उसमें कोई भी रूप उन्हें उस (दिव्य किशोरी)-के सदृश नहीं प्रतीत हुआ॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तया बद्धमनश्चक्षुः पाशैर्गुणमयैस्तदा ।
न चचाल ततो देशाद् बुबुधे न च किंचन॥३१॥
मूलम्
तया बद्धमनश्चक्षुः पाशैर्गुणमयैस्तदा ।
न चचाल ततो देशाद् बुबुधे न च किंचन॥३१॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस कन्याने उस समय अपने उत्तम गुणमय पाशोंसे राजाके मन और नेत्रोंको बाँध लिया। वे अपने स्थानसे हिल-डुलतक न सके। उन्हें किसी बातकी सुध-बुध (भी) न रही॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्या नूनं विशालाक्ष्याः सदेवासुरमानुषम्।
लोकं निर्मथ्य धात्रेदं रूपमाविष्कृतं कृतम् ॥ ३२ ॥
मूलम्
अस्या नूनं विशालाक्ष्याः सदेवासुरमानुषम्।
लोकं निर्मथ्य धात्रेदं रूपमाविष्कृतं कृतम् ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे सोचने लगे, निश्चय ही ब्रह्माने देवता, असुर और मनुष्योंसहित सम्पूर्ण लोकोंके सौन्दर्य-सिन्धुको मथकर इस विशाल नेत्रोंवाली किशोरीके इस मनोहर रूपका आविष्कार किया होगा॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं संतर्कयामास रूपद्रविणसम्पदा ।
कन्यामसदृशीं लोके नृपः संवरणस्तदा ॥ ३३ ॥
मूलम्
एवं संतर्कयामास रूपद्रविणसम्पदा ।
कन्यामसदृशीं लोके नृपः संवरणस्तदा ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार उस समय उसकी रूप-सम्पत्तिसे राजा संवरणने यही अनुमान किया कि संसारमें इस दिव्य कन्याकी समता करनेवाली दूसरी कोई स्त्री नहीं है ॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तां च दृष्ट्वैव कल्याणीं कल्याणाभिजनो नृपः।
जगाम मनसा चिन्तां कामबाणेन पीडितः ॥ ३४ ॥
मूलम्
तां च दृष्ट्वैव कल्याणीं कल्याणाभिजनो नृपः।
जगाम मनसा चिन्तां कामबाणेन पीडितः ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कल्याणमय कुलमें उत्पन्न हुए वे नरेश उस कल्याणस्वरूपा कामिनीको देखते ही काम-बाणसे पीड़ित हो गये। उनके मनमें चिन्ताकी आग जल उठी॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दह्यमानः स तीव्रेण नृपतिर्मन्मथाग्निना।
अप्रगल्भां प्रगल्भस्तां तदोवाच मनोहराम् ॥ ३५ ॥
मूलम्
दह्यमानः स तीव्रेण नृपतिर्मन्मथाग्निना।
अप्रगल्भां प्रगल्भस्तां तदोवाच मनोहराम् ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर तीव्र कामाग्निसे जलते हुए राजा संवरणने लज्जारहित होकर उस लज्जाशीला एवं मनोहारिणी कन्यासे इस प्रकार पूछा—॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कासि कस्यासि रम्भोरु किमर्थं चेह तिष्ठसि।
कथं च निर्जनेऽरण्ये चरस्येका शुचिस्मिते ॥ ३६ ॥
मूलम्
कासि कस्यासि रम्भोरु किमर्थं चेह तिष्ठसि।
कथं च निर्जनेऽरण्ये चरस्येका शुचिस्मिते ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘रम्भोरु! तुम कौन हो? किसकी पुत्री हो? और किसलिये यहाँ खड़ी हो? पवित्र मुसकानवाली! तुम इस निर्जन वनमें अकेली कैसे विचर रही हो?॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वं हि सर्वानवद्याङ्गी सर्वाभरणभूषिता।
विभूषणमिवैतेषां भूषणानामभीप्सितम् ॥ ३७ ॥
मूलम्
त्वं हि सर्वानवद्याङ्गी सर्वाभरणभूषिता।
विभूषणमिवैतेषां भूषणानामभीप्सितम् ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तुम्हारे सभी अंग परम सुन्दर एवं निर्दोष हैं। तुम सब प्रकारके (दिव्य) आभूषणोंसे विभूषित हो। सुन्दरि! इन आभूषणोंसे तुम्हारी शोभा नहीं है, अपितु तुम स्वयं ही इन आभूषणोंकी शोभा बढ़ानेवाली अभीष्ट आभूषणके समान हो॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न देवीं नासुरीं चैव न यक्षीं न च राक्षसीम्।
न च भोगवतीं मन्ये न गन्धर्वीं न मानुषीम्॥३८॥
मूलम्
न देवीं नासुरीं चैव न यक्षीं न च राक्षसीम्।
न च भोगवतीं मन्ये न गन्धर्वीं न मानुषीम्॥३८॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मुझे तो ऐसा जान पड़ता है, तुम न तो देवांगना हो न असुरकन्या, न यक्षकुलकी स्त्री हो न राक्षसवंशकी, न नागकन्या हो न गन्धर्वकन्या। मैं तुम्हें मानवी भी नहीं मानता॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
या हि दृष्टा मया काश्चिच्छ्रुता वापि वराङ्गनाः।
न तासां सदृशीं मन्ये त्वामहं मत्तकाशिनि ॥ ३९ ॥
मूलम्
या हि दृष्टा मया काश्चिच्छ्रुता वापि वराङ्गनाः।
न तासां सदृशीं मन्ये त्वामहं मत्तकाशिनि ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यौवनके मदसे सुशोभित होनेवाली सुन्दरी! मैंने अबतक जो कोई भी सुन्दरी स्त्रियाँ देखी अथवा सुनी हैं, उनमेंसे किसीको भी मैं तुम्हारे समान नहीं मानता॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृष्ट्वैव चारुवदने चन्द्रात् कान्ततरं तव।
वदनं पद्मपत्राक्षं मां मथ्नातीव मन्मथः ॥ ४० ॥
मूलम्
दृष्ट्वैव चारुवदने चन्द्रात् कान्ततरं तव।
वदनं पद्मपत्राक्षं मां मथ्नातीव मन्मथः ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सुमुखि! जबसे मैंने चन्द्रमासे भी बढ़कर कमनीय एवं कमलदलके समान विशाल नेत्रोंसे युक्त तुम्हारे मुखका दर्शन किया है, तभीसे मन्मथ मुझे मथ-सा रहा है’॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं तां स महीपालो बभाषे न तु सा तदा।
कामार्तं निर्जनेऽरण्ये प्रत्यभाषत किंचन ॥ ४१ ॥
मूलम्
एवं तां स महीपालो बभाषे न तु सा तदा।
कामार्तं निर्जनेऽरण्ये प्रत्यभाषत किंचन ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार राजा संवरण उस सुन्दरीसे बहुत कुछ कह गये; परंतु उसने उस समय उस निर्जन वनमें उन कामपीड़ित नरेशको कुछ भी उत्तर नहीं दिया॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो लालप्यमानस्य पार्थिवस्यायतेक्षणा ।
सौदामिनीव चाभ्रेषु तत्रैवान्तरधीयत ॥ ४२ ॥
मूलम्
ततो लालप्यमानस्य पार्थिवस्यायतेक्षणा ।
सौदामिनीव चाभ्रेषु तत्रैवान्तरधीयत ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा संवरण उन्मत्तकी भाँति प्रलाप करते रह गये और वह विशाल नेत्रोंवाली सुन्दरी वहीं उनके सामने ही बादलोंमें बिजलीकी भाँति अन्तर्धान हो गयी॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तामन्वेष्टुं स नृपतिः परिचक्राम सर्वतः।
वनं वनजपत्राक्षीं भ्रमन्नुन्मत्तवत् तदा ॥ ४३ ॥
मूलम्
तामन्वेष्टुं स नृपतिः परिचक्राम सर्वतः।
वनं वनजपत्राक्षीं भ्रमन्नुन्मत्तवत् तदा ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब वे नरेश कमलदलके समान विशाल नेत्रोंवाली उस (दिव्य) कन्याको ढूँढ़नेके लिये वनमें सब ओर उन्मत्तकी भाँति भ्रमण करने लगे॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपश्यमानः स तु तां बहु तत्र विलप्य च।
निश्चेष्टः पार्थिवश्रेष्ठो मुहूर्तं स व्यतिष्ठत ॥ ४४ ॥
मूलम्
अपश्यमानः स तु तां बहु तत्र विलप्य च।
निश्चेष्टः पार्थिवश्रेष्ठो मुहूर्तं स व्यतिष्ठत ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब कहीं भी उसे देख न सके, तब वे नृपश्रेष्ठ वहाँ बहुत विलाप करते-करते मूर्च्छित हो दो घड़ीतक निश्चेष्ट पड़े रहे॥४४॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि चैत्ररथपर्वणि तपत्युपाख्याने सप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १७० ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत चैत्ररथपर्वमें तपती-उपाख्यानविषयक एक सौ सत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१७०॥