१६९ चित्ररथ-युद्धम्

श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना

एकोनसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

पाण्डवोंकी पंचाल-यात्रा और अर्जुनके द्वारा चित्ररथ गन्धर्वकी पराजय एवं उन दोनोंकी मित्रता

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

गते भगवति व्यासे पाण्डवा हृष्टमानसाः।
ते प्रतस्थुः पुरस्कृत्य मातरं पुरुषर्षभाः ॥ १ ॥

मूलम्

गते भगवति व्यासे पाण्डवा हृष्टमानसाः।
ते प्रतस्थुः पुरस्कृत्य मातरं पुरुषर्षभाः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! भगवान् व्यासके चले जानेपर पुरुषश्रेष्ठ पाण्डव प्रसन्नचित्त हो अपनी माताको आगे करके वहाँसे पंचालदेशकी ओर चल दिये॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आमन्त्र्य ब्राह्मणं पूर्वमभिवाद्यानुमान्य च।
समैरुदङ्‌मुखैर्मार्गैर्यथोद्दिष्टं परंतपाः ॥ २ ॥

मूलम्

आमन्त्र्य ब्राह्मणं पूर्वमभिवाद्यानुमान्य च।
समैरुदङ्‌मुखैर्मार्गैर्यथोद्दिष्टं परंतपाः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परंतप! कुन्तीकुमारोंने पहले ही अपने आश्रयदाता ब्राह्मणसे पूछकर जानेकी आज्ञा ले ली थी और चलते समय बड़े आदरके साथ उन्हें प्रणाम किया। वे सब लोग उत्तर दिशाकी ओर जानेवाले सीधे मार्गोंद्वारा उत्तराभिमुख हो अपने अभीष्ट स्थान पंचालदेशकी ओर बढ़ने लगे॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते त्वगच्छन्नहोरात्रात् तीर्थं सोमाश्रयायणम्।
आसेदुः पुरुषव्याघ्रा गङ्गायां पाण्डुनन्दनाः ॥ ३ ॥

मूलम्

ते त्वगच्छन्नहोरात्रात् तीर्थं सोमाश्रयायणम्।
आसेदुः पुरुषव्याघ्रा गङ्गायां पाण्डुनन्दनाः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक दिन और एक रात चलकर वे नरश्रेष्ठ पाण्डव गंगाजीके तटपर सोमाश्रयायण नामक तीर्थमें जा पहुँचे॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उल्मुकं तु समुद्यम्य तेषामग्रे धनंजयः।
प्रकाशार्थं ययौ तत्र रक्षार्थं च महारथः ॥ ४ ॥

मूलम्

उल्मुकं तु समुद्यम्य तेषामग्रे धनंजयः।
प्रकाशार्थं ययौ तत्र रक्षार्थं च महारथः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय उनके आगे-आगे महारथी अर्जुन उजाला तथा रक्षा करनेके लिये जलती हुई मशाल उठाये चल रहे थे॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र गङ्गाजले रम्ये विविक्ते क्रीडयन् स्त्रियः।
ईर्ष्युर्गन्धर्वराजो वै जलक्रीडामुपागतः ॥ ५ ॥

मूलम्

तत्र गङ्गाजले रम्ये विविक्ते क्रीडयन् स्त्रियः।
ईर्ष्युर्गन्धर्वराजो वै जलक्रीडामुपागतः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस तीर्थकी गंगाके रमणीय तथा एकान्त जलमें गन्धर्वराज अंगारपर्ण (चित्ररथ) अपनी स्त्रियोंके साथ क्रीड़ा कर रहा था। वह बड़ा ही ईर्ष्यालु था और जलक्रीड़ा करनेके लिये ही वहाँ आया था॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शब्दं तेषां स शुश्राव नदीं समुपसर्पताम्।
तेन शब्देन चाविष्टश्चुक्रोध बलवद् बली ॥ ६ ॥

मूलम्

शब्दं तेषां स शुश्राव नदीं समुपसर्पताम्।
तेन शब्देन चाविष्टश्चुक्रोध बलवद् बली ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसने गंगाजीकी ओर बढ़ते हुए पाण्डवोंके पैरोंकी धमक सुनी। उस शब्दको सुनते ही वह बलवान् गन्धर्व क्रोधके आवेशमें आकर बड़े जोरसे कुपित हो उठा॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स दृष्ट्वा पाण्डवांस्तत्र सह मात्रा परंतपान्।
विस्फारयन् धनुर्घोरमिदं वचनमब्रवीत् ॥ ७ ॥

मूलम्

स दृष्ट्वा पाण्डवांस्तत्र सह मात्रा परंतपान्।
विस्फारयन् धनुर्घोरमिदं वचनमब्रवीत् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परंतप पाण्डवोंको अपनी माताके साथ वहाँ देख वह अपने भयानक धनुषको टंकारता हुआ इस प्रकार बोला—॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संध्या संरज्यते घोरा पूर्वरात्रागमेषु या।
अशीतिभिर्लवैर्हीनं तन्मुहुर्तं प्रचक्षते ॥ ८ ॥
विहितं कामचाराणां यक्षगन्धर्वरक्षसाम् ।
शेषमन्यन्मनुष्याणां कर्मचारेषु वै स्मृतम् ॥ ९ ॥

मूलम्

संध्या संरज्यते घोरा पूर्वरात्रागमेषु या।
अशीतिभिर्लवैर्हीनं तन्मुहुर्तं प्रचक्षते ॥ ८ ॥
विहितं कामचाराणां यक्षगन्धर्वरक्षसाम् ।
शेषमन्यन्मनुष्याणां कर्मचारेषु वै स्मृतम् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘रात्रि प्रारम्भ होनेके पहले जो पश्चिम दिशामें भयंकर संध्याकी लाली छा जाती है, उस समय अस्सी लवको छोड़कर सारा मुहूर्त इच्छानुसार विचरनेवाले यक्षों, गन्धर्वों तथा राक्षसोंके लिये निश्चित बताया जाता है। शेष दिनका सब समय मनुष्योंके कार्यवश विचरनेके लिये माना गया है॥८-९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लोभात् प्रचारं चरतस्तासु वेलासु वै नरान्।
उपक्रान्तानि गृह्णीमो राक्षसैः सह बालिशान् ॥ १० ॥

मूलम्

लोभात् प्रचारं चरतस्तासु वेलासु वै नरान्।
उपक्रान्तानि गृह्णीमो राक्षसैः सह बालिशान् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो मनुष्य लोभवश हमलोगोंकी वेलामें इधर घूमते हुए आ जाते हैं, उन मूर्खोंको हम गन्धर्व और राक्षस कैद कर लेते हैं॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतो रात्रौ प्राप्नुवन्तो जलं ब्रह्मविदो जनाः।
गर्हयन्ति नरान् सर्वान् बलस्थान् नृपतीनपि ॥ ११ ॥

मूलम्

अतो रात्रौ प्राप्नुवन्तो जलं ब्रह्मविदो जनाः।
गर्हयन्ति नरान् सर्वान् बलस्थान् नृपतीनपि ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इसीलिये वेदवेत्ता पुरुष रातके समय जलमें प्रवेश करनेवाले सम्पूर्ण मनुष्यों और बलवान् राजाओंकी भी निन्दा करते हैं॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आरात् तिष्ठत मा मह्यं समीपमुपसर्पत।
कस्मान्मां नाभिजानीत प्राप्तं भागीरथीजलम् ॥ १२ ॥
अङ्गारपर्णं गन्धर्वं वित्त मां स्वबलाश्रयम्।
अहं हि मानी चेर्ष्युश्च कुबेरस्य प्रियः सखा ॥ १३ ॥

मूलम्

आरात् तिष्ठत मा मह्यं समीपमुपसर्पत।
कस्मान्मां नाभिजानीत प्राप्तं भागीरथीजलम् ॥ १२ ॥
अङ्गारपर्णं गन्धर्वं वित्त मां स्वबलाश्रयम्।
अहं हि मानी चेर्ष्युश्च कुबेरस्य प्रियः सखा ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अरे, ओ मनुष्यो! दूर ही खड़े रहो। मेरे समीप न आना। तुम्हें ज्ञात कैसे नहीं हुआ कि मैं गन्धर्वराज अंगारपर्ण गंगाजीके जलमें उतरा हुआ हूँ। तुमलोग मुझे (अच्छी तरह) जान लो, मैं अपने ही बलका भरोसा करनेवाला स्वाभिमानी, ईर्ष्यालु तथा कुबेरका प्रिय मित्र हूँ॥१२-१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अङ्गारपर्णमित्येवं ख्यातं चेदं वनं मम।
अनुगङ्गं चरन् कामांश्चित्रं यत्र रमाम्यहम् ॥ १४ ॥

मूलम्

अङ्गारपर्णमित्येवं ख्यातं चेदं वनं मम।
अनुगङ्गं चरन् कामांश्चित्रं यत्र रमाम्यहम् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मेरा यह वन भी अंगारपर्ण नामसे विख्यात है। मैं गंगाजीके तटपर विचरता हुआ इस वनमें इच्छानुसार विचित्र क्रीड़ाएँ करता रहता हूँ॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न कौणपाः शृङ्गिणो वा न देवा न च मानुषाः।
इदं समुपसर्पन्ति तत् किं समनुसर्पथ ॥ १५ ॥

मूलम्

न कौणपाः शृङ्गिणो वा न देवा न च मानुषाः।
इदं समुपसर्पन्ति तत् किं समनुसर्पथ ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मेरी उपस्थितिमें यहाँ राक्षस, यक्ष, देवता अथवा मनुष्य—कोई भी नहीं आने पाते; फिर तुमलोग कैसे आ रहे हो?’॥१५॥

मूलम् (वचनम्)

अर्जुन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

समुद्रे हिमवत्पार्श्वे नद्यामस्यां च दुर्मते।
रात्रावहनि संध्यायां कस्य गुप्तः परिग्रहः ॥ १६ ॥

मूलम्

समुद्रे हिमवत्पार्श्वे नद्यामस्यां च दुर्मते।
रात्रावहनि संध्यायां कस्य गुप्तः परिग्रहः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुन बोले— दुर्मते! समुद्र, हिमालयकी तराई और गंगानदीके तटपर रात, दिन अथवा संध्याके समय किसका अधिकार सुरक्षित है?॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भुक्तो वाप्यथवाभुक्तो रात्रावहनि खेचर।
न कालनियमो ह्यस्ति गङ्गां प्राप्य सरिद्वराम् ॥ १७ ॥

मूलम्

भुक्तो वाप्यथवाभुक्तो रात्रावहनि खेचर।
न कालनियमो ह्यस्ति गङ्गां प्राप्य सरिद्वराम् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आकाशचारी गन्धर्व! सरिताओंमें श्रेष्ठ गंगाजीके तटपर आनेके लिये यह नियम नहीं है कि यहाँ कोई खाकर आये या बिना खाये, रातमें आये या दिनमें। इसी प्रकार काल आदिका भी कोई नियम नहीं है॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वयं च शक्तिसम्पन्ना अकाले त्वामधृष्णुम।
अशक्ता हि रणे क्रूर युष्मानर्चन्ति मानवाः ॥ १८ ॥

मूलम्

वयं च शक्तिसम्पन्ना अकाले त्वामधृष्णुम।
अशक्ता हि रणे क्रूर युष्मानर्चन्ति मानवाः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अरे, ओ क्रूर! हमलोग तो शक्तिसम्पन्न हैं। असमयमें भी आकर तुम्हें कुचल सकते हैं। जो युद्ध करनेमें असमर्थ हैं, वे दुर्बल मनुष्य ही तुमलोगोंकी पूजा करते हैं॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुरा हिमवतश्चैषा हेमशृङ्गाद् विनिस्सृता।
गङ्गा गत्वा समुद्राम्भः सप्तधा समपद्यत ॥ १९ ॥
गङ्गां च यमुनां चैव प्लक्षजातां सरस्वतीम्।
रथस्थां सरयूं चैव गोमतीं गण्डकीं तथा ॥ २० ॥
अपर्युषितपापास्ते नदीः सप्त पिबन्ति ये।
इयं भूत्वा चैकवप्रा शुचिराकाशगा पुनः ॥ २१ ॥
देवेषु गङ्गा गन्धर्व प्राप्नोत्यलकनन्दताम्।
तथा पितॄन् वैतरणी दुस्तरा पापकर्मभिः।
गङ्गा भवति वै प्राप्य कृष्णद्वैपायनोऽब्रवीत् ॥ २२ ॥

मूलम्

पुरा हिमवतश्चैषा हेमशृङ्गाद् विनिस्सृता।
गङ्गा गत्वा समुद्राम्भः सप्तधा समपद्यत ॥ १९ ॥
गङ्गां च यमुनां चैव प्लक्षजातां सरस्वतीम्।
रथस्थां सरयूं चैव गोमतीं गण्डकीं तथा ॥ २० ॥
अपर्युषितपापास्ते नदीः सप्त पिबन्ति ये।
इयं भूत्वा चैकवप्रा शुचिराकाशगा पुनः ॥ २१ ॥
देवेषु गङ्गा गन्धर्व प्राप्नोत्यलकनन्दताम्।
तथा पितॄन् वैतरणी दुस्तरा पापकर्मभिः।
गङ्गा भवति वै प्राप्य कृष्णद्वैपायनोऽब्रवीत् ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्राचीन कालमें हिमालयके स्वर्णशिखरसे निकली हुई गंगा सात धाराओंमें विभक्त हो समुद्रमें जाकर मिल गयी हैं। जो पुरुष गंगा, यमुना, प्लक्षकी जड़से प्रकट हुई सरस्वती, रथस्था, सरयू, गोमती और गण्डकी—इन सात नदियोंका जल पीते हैं, उनके पाप तत्काल नष्ट हो जाते हैं। ये गंगा बड़ी पवित्र नदी हैं। एकमात्र आकाश ही इनका तट है। गन्धर्व! ये आकाशमार्गसे विचरती हुई गंगा देवलोकमें अलकनन्दा नाम धारण करती हैं। ये ही वैतरणी होकर पितृलोकमें बहती हैं। वहाँ पापियोंके लिये इनके पार जाना अत्यन्त कठिन होता है। इस लोकमें आकर इनका नाम गंगा होता है। यह श्रीकृष्णद्वैपायन व्यासजीका कथन है॥१९—२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

असम्बाधा देवनदी स्वर्गसम्पादनी शुभा।
कथमिच्छसि तां रोद्धुं नैष धर्मः सनातनः ॥ २३ ॥

मूलम्

असम्बाधा देवनदी स्वर्गसम्पादनी शुभा।
कथमिच्छसि तां रोद्धुं नैष धर्मः सनातनः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये कल्याणमयी देवनदी सब प्रकारकी विघ्न-बाधाओंसे रहित एवं स्वर्गलोककी प्राप्ति करानेवाली हैं। तुम उन्हीं गंगाजीपर किसलिये रोक लगाना चाहते हो? यह सनातन धर्म नहीं है॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनिवार्यमसम्बाधं तव वाचा कथं वयम्।
न स्पृशेम यथाकामं पुण्यं भागीरथीजलम् ॥ २४ ॥

मूलम्

अनिवार्यमसम्बाधं तव वाचा कथं वयम्।
न स्पृशेम यथाकामं पुण्यं भागीरथीजलम् ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसे कोई रोक नहीं सकता, जहाँ पहुँचनेमें कोई बाधा नहीं है, भागीरथीके उस पावन जलका तुम्हारे कहनेसे हम अपने इच्छानुसार स्पर्श क्यों न करें?॥२४॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अङ्गारपर्णस्तच्छ्रुत्वा क्रुद्ध आनम्य कार्मुकम्।
मुमोच बाणान् निशितानहीनाशीविषानिव ॥ २५ ॥

मूलम्

अङ्गारपर्णस्तच्छ्रुत्वा क्रुद्ध आनम्य कार्मुकम्।
मुमोच बाणान् निशितानहीनाशीविषानिव ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! अर्जुनकी वह बात सुनकर अंगारपर्ण क्रोधित हो गया और धनुष नवाकर विषैले साँपोंकी भाँति तीखे बाण छोड़ने लगा॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उल्मुकं भ्रामयंस्तूर्णं पाण्डवश्चर्म चोत्तरम्।
व्यपोहत शरांस्तस्य सर्वानेव धनंजयः ॥ २६ ॥

मूलम्

उल्मुकं भ्रामयंस्तूर्णं पाण्डवश्चर्म चोत्तरम्।
व्यपोहत शरांस्तस्य सर्वानेव धनंजयः ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह देख पाण्डुनन्दन धनंजयने तुरंत ही मशाल घुमाकर और उत्तम ढालसे रोककर उसके सभी बाण व्यर्थ कर दिये॥२६॥

मूलम् (वचनम्)

अर्जुन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिभीषिका वै गन्धर्व नास्त्रज्ञेषु प्रयुज्यते।
अस्त्रज्ञेषु प्रयुक्तेयं फेनवत् प्रविलीयते ॥ २७ ॥

मूलम्

बिभीषिका वै गन्धर्व नास्त्रज्ञेषु प्रयुज्यते।
अस्त्रज्ञेषु प्रयुक्तेयं फेनवत् प्रविलीयते ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुनने कहा— गन्धर्व! जो अस्त्र-विद्याके विद्वान् हैं, उनपर तुम्हारी यह घुड़की नहीं चल सकती। अस्त्र-विद्याके मर्मज्ञोंपर फैलायी हुई तुम्हारी यह माया फेनकी तरह विलीन हो जायगी॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मानुषानतिगन्धर्वान् सर्वान् गन्धर्व लक्षये।
तस्मादस्त्रेण दिव्येन योत्स्येऽहं न तु मायया ॥ २८ ॥

मूलम्

मानुषानतिगन्धर्वान् सर्वान् गन्धर्व लक्षये।
तस्मादस्त्रेण दिव्येन योत्स्येऽहं न तु मायया ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गन्धर्व! मैं जानता हूँ कि सम्पूर्ण गन्धर्व मनुष्योंसे अधिक शक्तिशाली होते हैं, इसलिये मैं तुम्हारे साथ मायासे नहीं, दिव्यास्त्रसे युद्ध करूँगा॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुरास्त्रमिदमाग्नेयं प्रादात् किल बृहस्पतिः।
भरद्वाजाय गन्धर्व गुरुर्मान्यः शतक्रतोः ॥ २९ ॥

मूलम्

पुरास्त्रमिदमाग्नेयं प्रादात् किल बृहस्पतिः।
भरद्वाजाय गन्धर्व गुरुर्मान्यः शतक्रतोः ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गन्धर्व! यह आग्नेय अस्त्र पूर्वकालमें इन्द्रके माननीय गुरु बृहस्पतिजीने भरद्वाज मुनिको दिया था॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भरद्वाजादग्निवेश्य अग्निवेश्याद् गुरुर्मम ।
साध्विदं मह्यमददद् द्रोणो ब्राह्मणसत्तमः ॥ ३० ॥

मूलम्

भरद्वाजादग्निवेश्य अग्निवेश्याद् गुरुर्मम ।
साध्विदं मह्यमददद् द्रोणो ब्राह्मणसत्तमः ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरद्वाजसे इसे अग्निवेश्यने और अग्निवेश्यसे मेरे गुरु द्रोणाचार्यने प्राप्त किया है। फिर विप्रवर द्रोणाचार्यने यह उत्तम अस्त्र मुझे प्रदान किया॥३०॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्त्वा पाण्डवः क्रुद्धो गन्धर्वाय मुमोच ह।
प्रदीप्तमस्त्रमाग्नेयं ददाहास्य रथं तु तत् ॥ ३१ ॥
विरथं विप्लुतं तं तु स गन्धर्वं महाबलः।
अस्त्रतेजःप्रमूढं च प्रपतन्तमवाङ्‌मुखम् ॥ ३२ ॥
शिरोरुहेषु जग्राह माल्यवत्सु धनंजयः।
भ्रातॄन् प्रति चकर्षाथ सोऽस्त्रपातादचेतसम् ॥ ३३ ॥

मूलम्

इत्युक्त्वा पाण्डवः क्रुद्धो गन्धर्वाय मुमोच ह।
प्रदीप्तमस्त्रमाग्नेयं ददाहास्य रथं तु तत् ॥ ३१ ॥
विरथं विप्लुतं तं तु स गन्धर्वं महाबलः।
अस्त्रतेजःप्रमूढं च प्रपतन्तमवाङ्‌मुखम् ॥ ३२ ॥
शिरोरुहेषु जग्राह माल्यवत्सु धनंजयः।
भ्रातॄन् प्रति चकर्षाथ सोऽस्त्रपातादचेतसम् ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! ऐसा कहकर पाण्डुनन्दन अर्जुनने कुपित हो गन्धर्वपर वह प्रज्वलित आग्नेय अस्त्र चला दिया। उस अस्त्रने गन्धर्वके रथको जलाकर भस्म कर दिया। वह रथहीन गन्धर्व व्याकुल हो गया और अस्त्रके तेजसे मूढ होकर नीचे मुँह किये गिरने लगा। महाबली अर्जुनने उसके फूलकी मालाओंसे सुशोभित केश पकड़ लिये और घसीटकर अपने भाइयोंके पास ले आये। अस्त्रके आघातसे वह गन्धर्व अचेत हो गया था॥३१-३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

युधिष्ठिरं तस्य भार्या प्रपेदे शरणार्थिनी।
नाम्ना कुम्भीनसी नाम पतित्राणमभीप्सती ॥ ३४ ॥

मूलम्

युधिष्ठिरं तस्य भार्या प्रपेदे शरणार्थिनी।
नाम्ना कुम्भीनसी नाम पतित्राणमभीप्सती ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस गन्धर्वकी पत्नीका नाम कुम्भीनसी था। उसने अपने पतिके जीवनकी रक्षाके लिये महाराज युधिष्ठिरकी शरण ली॥३४॥

मूलम् (वचनम्)

गन्धर्व्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रायस्व मां महाभाग पतिं चेमं विमुञ्च मे।
गन्धर्वी शरणं प्राप्ता नाम्ना कुम्भीनसी प्रभो ॥ ३५ ॥

मूलम्

त्रायस्व मां महाभाग पतिं चेमं विमुञ्च मे।
गन्धर्वी शरणं प्राप्ता नाम्ना कुम्भीनसी प्रभो ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गन्धर्वी बोली— महाभाग! मेरी रक्षा कीजिये और मेरे इन पतिदेवको आप छोड़ दीजिये। प्रभो! मैं गन्धर्वपत्नी कुम्भीनसी आपकी शरणमें आयी हूँ॥३५॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

युद्धे जितं यशोहीनं स्त्रीनाथमपराक्रमम्।
को निहन्याद् रिपुं तात मुञ्चेमं रिपुसूदन ॥ ३६ ॥

मूलम्

युद्धे जितं यशोहीनं स्त्रीनाथमपराक्रमम्।
को निहन्याद् रिपुं तात मुञ्चेमं रिपुसूदन ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने कहा— तात! शत्रुसूदन अर्जुन! यह गन्धर्व युद्धमें हार गया और अपना यश खो चुका। अब स्त्री इसकी रक्षिका बनकर आयी है। यह स्वयं कोई पराक्रम नहीं कर सकता। ऐसे दीन-हीन शत्रुको कौन मारता है? इसे जीवित छोड़ दो॥३६॥

मूलम् (वचनम्)

अर्जुन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

जीवितं प्रतिपद्यस्व गच्छ गन्धर्व मा शुचः।
प्रदिशत्यभयं तेऽद्य कुरुराजो युधिष्ठिरः ॥ ३७ ॥

मूलम्

जीवितं प्रतिपद्यस्व गच्छ गन्धर्व मा शुचः।
प्रदिशत्यभयं तेऽद्य कुरुराजो युधिष्ठिरः ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुन बोले— गन्धर्व! जीवन धारण करो। जाओ, अब शोक न करो। इस समय कुरुराज युधिष्ठिर तुम्हें अभयदान दे रहे हैं॥३७॥

मूलम् (वचनम्)

गन्धर्व उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

जितोऽहं पूर्वकं नाम मुञ्चाम्यङ्गारपर्णताम्।
न च श्लाघे बलेनाङ्ग न नाम्ना जनसंसदि ॥ ३८ ॥

मूलम्

जितोऽहं पूर्वकं नाम मुञ्चाम्यङ्गारपर्णताम्।
न च श्लाघे बलेनाङ्ग न नाम्ना जनसंसदि ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गन्धर्वने कहा— अर्जुन! मैं परास्त हो गया, अतः अपने पहले नाम अंगारपर्णको छोड़ देता हूँ। अब मैं जनसमुदायमें अपने बलकी श्लाघा नहीं करूँगा और न इस नामसे अपना परिचय ही दूँगा॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

साध्विमं लब्धवाल्ँलाभं योऽहं दिव्यास्त्रधारिणम्।
गान्धर्व्या माययेच्छामि संयोजयितुमर्जुनम् ॥ ३९ ॥

मूलम्

साध्विमं लब्धवाल्ँलाभं योऽहं दिव्यास्त्रधारिणम्।
गान्धर्व्या माययेच्छामि संयोजयितुमर्जुनम् ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

(आजकी पराजयसे) मुझे सबसे बड़ा लाभ यह हुआ है कि मैंने दिव्यास्त्रधारी अर्जुनको (मित्ररूपमें) प्राप्त किया है और अब मैं इन्हें गन्धर्वोंकी मायासे संयुक्त करना चाहता हूँ॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्त्राग्निना विचित्रोऽयं दग्धो मे रथ उत्तमः।
सोऽहं चित्ररथो भूत्वा नाम्ना दग्धरथोऽभवम् ॥ ४० ॥

मूलम्

अस्त्राग्निना विचित्रोऽयं दग्धो मे रथ उत्तमः।
सोऽहं चित्ररथो भूत्वा नाम्ना दग्धरथोऽभवम् ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इनके दिव्यास्त्रकी अग्निसे मेरा यह विचित्र एवं उत्तम रथ दग्ध हो गया है। पहले मैं विचित्र रथके कारण ‘चित्ररथ’ कहलाता था; परंतु अब मेरा नाम ‘दग्धरथ’ हो गया॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सम्भृता चैव विद्येयं तपसेह मया पुरा।
निवेदयिष्ये तामद्य प्राणदाय महात्मने ॥ ४१ ॥

मूलम्

सम्भृता चैव विद्येयं तपसेह मया पुरा।
निवेदयिष्ये तामद्य प्राणदाय महात्मने ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैंने पूर्वकालमें यहाँ तपस्याद्वारा जो यह विद्या प्राप्त की है, उसे आज अपने प्राणदाता महात्मा मित्रको अर्पित करूँगा॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संस्तम्भयित्वा तरसा जितं शरणमागतम्।
यो रिपुं योजयेत् प्राणैः कल्याणं किं न सोऽर्हति॥४२॥

मूलम्

संस्तम्भयित्वा तरसा जितं शरणमागतम्।
यो रिपुं योजयेत् प्राणैः कल्याणं किं न सोऽर्हति॥४२॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिन्होंने अपने वेगसे शत्रुकी शक्तिको कुण्ठित करके उसपर विजय पायी और फिर जब वह शत्रु शरणमें आ गया, तब जो उसे प्राणदान दे रहे हैं, वे किस कल्याणकी प्राप्तिके अधिकारी नहीं है?॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चाक्षुषी नाम विद्येयं यां सोमाय ददौ मनुः।
ददौ स विश्वावसवे मम विश्वावसुर्ददौ ॥ ४३ ॥

मूलम्

चाक्षुषी नाम विद्येयं यां सोमाय ददौ मनुः।
ददौ स विश्वावसवे मम विश्वावसुर्ददौ ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह चाक्षुषी नामक विद्या है, जिसे मनुने सोमको दिया। सोमने विश्वावसुको दिया और विश्वावसुने मुझे प्रदान किया है॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सेयं कापुरुषं प्राप्ता गुरुदत्ता प्रणश्यति।
आगमोऽस्या मया प्रोक्तो वीर्यं प्रतिनिबोध मे ॥ ४४ ॥

मूलम्

सेयं कापुरुषं प्राप्ता गुरुदत्ता प्रणश्यति।
आगमोऽस्या मया प्रोक्तो वीर्यं प्रतिनिबोध मे ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह गुरुकी दी हुई विद्या यदि किसी कायरको मिल गयी तो नष्ट हो जाती है। (इस प्रकार) मैंने इसके उपदेशकी परम्पराका वर्णन किया है। अब इसका बल भी मुझसे सुन लीजिये॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यच्चक्षुषा द्रष्टुमिच्छेत् त्रिषु लोकेषु किंचन।
तत् पश्येद् यादृशं चेच्छेत् तादृशं द्रष्टुमर्हति ॥ ४५ ॥

मूलम्

यच्चक्षुषा द्रष्टुमिच्छेत् त्रिषु लोकेषु किंचन।
तत् पश्येद् यादृशं चेच्छेत् तादृशं द्रष्टुमर्हति ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तीनों लोकोंमें जो कोई भी वस्तु है, उसमेंसे जिस वस्तुको आँखसे देखनेकी इच्छा हो, उसे इस विद्याके प्रभावसे कोई भी देख सकता है और जिस रूपमें देखना चाहे, उसी रूपमें देख सकता है॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकपादेन षण्मासान् स्थितो विद्यां लभेदिमाम्।
अनुनेष्याम्यहं विद्यां स्वयं तुभ्यं व्रतेऽकृते ॥ ४६ ॥

मूलम्

एकपादेन षण्मासान् स्थितो विद्यां लभेदिमाम्।
अनुनेष्याम्यहं विद्यां स्वयं तुभ्यं व्रतेऽकृते ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो एक पैरसे छः महीनेतक खड़ा रहकर तपस्या करे, वही इस विद्याको पा सकता है। परंतु आपको इस व्रतका पालन या तपस्या किये बिना ही मैं स्वयं उक्त विद्याकी प्राप्ति कराऊँगा॥४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विद्यया ह्यनया राजन् वयं नृभ्यो विशेषिताः।
अविशिष्टाश्च देवानामनुभावप्रदर्शिनः ॥ ४७ ॥

मूलम्

विद्यया ह्यनया राजन् वयं नृभ्यो विशेषिताः।
अविशिष्टाश्च देवानामनुभावप्रदर्शिनः ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! इस विद्याके बलसे ही हमलोग मनुष्योंसे श्रेष्ठ माने जाते हैं और देवताओंके तुल्य प्रभाव दिखा सकते हैं॥४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गन्धर्वजानामश्वानामहं पुरुषसत्तम ।
भ्रातृभ्यस्तव तुभ्यं च पृथग्दाता शतं शतम् ॥ ४८ ॥

मूलम्

गन्धर्वजानामश्वानामहं पुरुषसत्तम ।
भ्रातृभ्यस्तव तुभ्यं च पृथग्दाता शतं शतम् ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुरुषशिरोमणे! मैं आपको और आपके भाइयोंको अलग-अलग गन्धर्वलोकके सौ-सौ घोड़े भेंट करता हूँ॥४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवगन्धर्ववाहास्ते दिव्यवर्णा मनोजवाः ।
क्षीणाक्षीणा भवन्त्येते न हीयन्ते च रंहसः ॥ ४९ ॥

मूलम्

देवगन्धर्ववाहास्ते दिव्यवर्णा मनोजवाः ।
क्षीणाक्षीणा भवन्त्येते न हीयन्ते च रंहसः ॥ ४९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे घोड़े देवताओं और गन्धर्वोंके वाहन हैं। उनके शरीरकी कान्ति दिव्य है। वे मनके समान वेगशाली और आवश्यकताके अनुसार दुबले-मोटे होते हैं; किंतु उनका वेग कभी कम नहीं होता॥४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुरा कृतं महेन्द्रस्य वज्रं वृत्रनिबर्हणम्।
दशधा शतधा चैव तच्छीर्णं वृत्रमूर्धनि ॥ ५० ॥

मूलम्

पुरा कृतं महेन्द्रस्य वज्रं वृत्रनिबर्हणम्।
दशधा शतधा चैव तच्छीर्णं वृत्रमूर्धनि ॥ ५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पूर्वकालमें वृत्रासुरका संहार करनेके निमित्त इन्द्रके लिये जिस वज्रका निर्माण किया गया था, वृत्रासुरके मस्तकपर पड़ते ही उसके दस बड़े और सौ छोटे टुकड़े हो गये॥५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो भागीकृतो देवैर्वज्रभाग उपास्यते।
लोके यशो धनं किंचित् सैव वज्रतनुः स्मृता ॥ ५१ ॥

मूलम्

ततो भागीकृतो देवैर्वज्रभाग उपास्यते।
लोके यशो धनं किंचित् सैव वज्रतनुः स्मृता ॥ ५१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तबसे अनेक भागोंमें बँटे हुए उस वज्रके प्रत्येक भागकी देवतालोग उपासना करते हैं। लोकमें उत्कृष्ट धन और यश आदि जो कुछ भी वस्तु है, उसे वज्रका स्वरूप माना गया है॥५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वज्रपाणिर्ब्राह्मणः स्यात् क्षत्रं वज्ररथं स्मृतम्।
वैश्या वै दानवज्राश्च कर्मवज्रा यवीयसः ॥ ५२ ॥

मूलम्

वज्रपाणिर्ब्राह्मणः स्यात् क्षत्रं वज्ररथं स्मृतम्।
वैश्या वै दानवज्राश्च कर्मवज्रा यवीयसः ॥ ५२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

(अग्निमें आहुति देनेके कारण) ब्राह्मणका दाहिना हाथ वज्र है। क्षत्रियका रथ वज्र है। वैश्यलोग जो दान करते हैं, वह भी वज्र है और शूद्रलोग जो सेवाकार्य करते हैं, उसे भी वज्र ही समझना चाहिये॥५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षत्रवज्रस्य भागेन अवध्या वाजिनः स्मृताः।
रथाङ्गं वडवा सूते शूराश्चाश्वेषु ये मताः ॥ ५३ ॥

मूलम्

क्षत्रवज्रस्य भागेन अवध्या वाजिनः स्मृताः।
रथाङ्गं वडवा सूते शूराश्चाश्वेषु ये मताः ॥ ५३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्षत्रियके रथरूपी वज्रका एक विशिष्ट अंग होनेसे घोड़ोंको अवध्य बताया गया है। गन्धर्वदेशकी घोड़ी रथको वहन करनेवाले रथांगस्वरूप (वज्रस्वरूप) घोड़ेको जन्म देती है। वे घोड़े सब अश्वोंमें शूरवीर माने जाते हैं॥५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कामवर्णाः कामजवाः कामतः समुपस्थिताः।
इति गन्धर्वजाः कामं पूरयिष्यन्ति मे हयाः ॥ ५४ ॥

मूलम्

कामवर्णाः कामजवाः कामतः समुपस्थिताः।
इति गन्धर्वजाः कामं पूरयिष्यन्ति मे हयाः ॥ ५४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गन्धर्व-देशके घोड़ोंकी यह विशेषता है कि वे इच्छानुसार अपना रंग बदल लेते हैं। सवारकी इच्छाके अनुसार अपने वेगको घटा-बढ़ा सकते हैं। जब आवश्यकता या इच्छा हो, तभी वे उपस्थित हो जाते हैं। इस प्रकार मेरे गन्धर्वदेशीय घोड़े आपकी इच्छापूर्ण करते रहेंगे॥५४॥

मूलम् (वचनम्)

अर्जुन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि प्रीतेन मे दत्तं संशये जीवितस्य वा।
विद्याधनं श्रुतं वापि न तद् गन्धर्व रोचये ॥ ५५ ॥

मूलम्

यदि प्रीतेन मे दत्तं संशये जीवितस्य वा।
विद्याधनं श्रुतं वापि न तद् गन्धर्व रोचये ॥ ५५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुनने कहा— गन्धर्व! यदि तुमने प्रसन्न होकर अथवा प्राणसंकटसे बचानेके कारण मुझे विद्या, धन अथवा शास्त्र प्रदान किया है तो मैं इस तरहका दान लेना पसंद नहीं करता॥५५॥

मूलम् (वचनम्)

गन्धर्व उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

संयोगो वै प्रीतिकरो महत्सु प्रतिदृश्यते।
जीवितस्य प्रदानेन प्रीतो विद्यां ददामि ते ॥ ५६ ॥

मूलम्

संयोगो वै प्रीतिकरो महत्सु प्रतिदृश्यते।
जीवितस्य प्रदानेन प्रीतो विद्यां ददामि ते ॥ ५६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गन्धर्व बोला— महापुरुषोंके साथ जो समागम होता है, वह प्रीतिको बढ़ानेवाला होता है—ऐसा देखनेमें आता है। आपने मुझे जीवनदान दिया है, इससे प्रसन्न होकर मैं आपको चाक्षुषी विद्या भेंट करता हूँ॥५६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वत्तोऽप्यहं ग्रहीष्यामि अस्त्रमाग्नेयमुत्तमम् ।
तथैव योग्यं बीभत्सो चिराय भरतर्षभ ॥ ५७ ॥

मूलम्

त्वत्तोऽप्यहं ग्रहीष्यामि अस्त्रमाग्नेयमुत्तमम् ।
तथैव योग्यं बीभत्सो चिराय भरतर्षभ ॥ ५७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

साथ ही आपसे भी मैं उत्तम आग्नेयास्त्र ग्रहण करूँगा। भरतकुलभूषण अर्जुन! ऐसा करनेसे ही हम दोनोंमें दीर्घकालतक समुचित सौहार्द बना रहेगा॥५७॥

मूलम् (वचनम्)

अर्जुन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वत्तोऽस्त्रेण वृणोम्यश्वान् संयोगः शाश्वतोऽस्तु नौ।
सखे तद् ब्रूहि गन्धर्व युष्मभ्यो यद् भयं भवेत्॥५८॥

मूलम्

त्वत्तोऽस्त्रेण वृणोम्यश्वान् संयोगः शाश्वतोऽस्तु नौ।
सखे तद् ब्रूहि गन्धर्व युष्मभ्यो यद् भयं भवेत्॥५८॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुनने कहा— ठीक है, मैं यह अस्त्र-विद्या देकर तुमसे घोड़े ले लूँगा। हम दोनोंकी मैत्री सदा बनी रहे। सखे गन्धर्वराज! बताओ तो सही, तुमलोगोंसे हम मनुष्योंको क्यों भय प्राप्त होता है?॥५८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कारणं ब्रूहि गन्धर्व किं तद् येन स्म धर्षिताः।
यान्तो वेदविदः सर्वे सन्तो रात्रावरिंदमाः ॥ ५९ ॥

मूलम्

कारणं ब्रूहि गन्धर्व किं तद् येन स्म धर्षिताः।
यान्तो वेदविदः सर्वे सन्तो रात्रावरिंदमाः ॥ ५९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गन्धर्व! हम सब लोग वेदवेत्ता हैं और शत्रुओंका दमन करनेकी शक्ति रखते हैं; फिर भी रातमें यात्रा करते समय जो तुमने हमलोगोंपर आक्रमण किया है, इसका क्या कारण है? इसपर भी प्रकाश डालो॥५९॥

मूलम् (वचनम्)

गन्धर्व उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनग्नयोऽनाहुतयो न च विप्रपुरस्कृताः।
यूयं ततो धर्षिताः स्थ मया वै पाण्डुनन्दनाः ॥ ६० ॥

मूलम्

अनग्नयोऽनाहुतयो न च विप्रपुरस्कृताः।
यूयं ततो धर्षिताः स्थ मया वै पाण्डुनन्दनाः ॥ ६० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गन्धर्व बोला— पाण्डुकुमारो! आपलोग (विवाहित न होनेके कारण) त्रिविध अग्नियोंकी सेवा नहीं करते। (अध्ययन पूरा करके समावर्तन संस्कारसे सम्पन्न हो गये हैं, अतः) प्रतिदिन अग्निको आहुति भी नहीं देते। आपके आगे कोई ब्राह्मण पुरोहित भी नहीं है। इन्हीं कारणोंसे मैंने आपपर आक्रमण किया है॥६०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(जानता च मया तस्मात् तेजश्चाभिजनं च वः।
इयं मतिमतां श्रेष्ठ धर्षितुं वै कृता मतिः॥
को हि वस्त्रिषु लोकेषु न वेद भरतर्षभ।
स्वैर्गुणैर्विस्तृतं श्रीमद् यशोऽग्र्यं भूरिवर्चसाम्॥)
यक्षराक्षसगन्धर्वाः पिशाचोरगदानवाः ।
विस्तरं कुरुवंशस्य धीमन्तः कथयन्ति ते ॥ ६१ ॥

मूलम्

(जानता च मया तस्मात् तेजश्चाभिजनं च वः।
इयं मतिमतां श्रेष्ठ धर्षितुं वै कृता मतिः॥
को हि वस्त्रिषु लोकेषु न वेद भरतर्षभ।
स्वैर्गुणैर्विस्तृतं श्रीमद् यशोऽग्र्यं भूरिवर्चसाम्॥)
यक्षराक्षसगन्धर्वाः पिशाचोरगदानवाः ।
विस्तरं कुरुवंशस्य धीमन्तः कथयन्ति ते ॥ ६१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ अर्जुन! इसीलिये मैंने आपलोगोंके तेज और कुलोचित प्रभावको जानते हुए भी आपपर आक्रमण करनेका विचार किया। भरतश्रेष्ठ! आपलोग महान् तेजस्वी हैं। आपने अपने गुणोंसे जिस शोभाशाली श्रेष्ठ यशका विस्तार किया है, उसे तीनों लोकोंमें कौन नहीं जानता। बुद्धिमान् यक्ष, राक्षस, गन्धर्व, पिशाच, नाग और दानव कुरुकुलकी यशोगाथाका विस्तारपूर्वक वर्णन करते हैं॥६१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नारदप्रभृतीनां तु देवर्षीणां मया श्रुतम्।
गुणान् कथयतां वीर पूर्वेषां तव धीमताम् ॥ ६२ ॥

मूलम्

नारदप्रभृतीनां तु देवर्षीणां मया श्रुतम्।
गुणान् कथयतां वीर पूर्वेषां तव धीमताम् ॥ ६२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वीर! नारद आदि देवर्षियोंके मुखसे भी मैंने आपके बुद्धिमान् पूर्वजोंका गुणगान सुना है॥६२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वयं चापि मया दृष्टश्चरता सागराम्बराम्।
इमां वसुमतीं कृत्स्नां प्रभावः सुकुलस्य ते ॥ ६३ ॥

मूलम्

स्वयं चापि मया दृष्टश्चरता सागराम्बराम्।
इमां वसुमतीं कृत्स्नां प्रभावः सुकुलस्य ते ॥ ६३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तथा समुद्रसे घिरी हुई इस सम्पूर्ण पृथ्वीपर विचरते हुए मैंने स्वयं भी आपके उत्तम कुलका प्रभाव प्रत्यक्ष देखा है॥६३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वेदे धनुषि चाचार्यमभिजानामि तेऽर्जुन।
विश्रुतं त्रिषु लोकेषु भारद्वाजं यशस्विनम् ॥ ६४ ॥

मूलम्

वेदे धनुषि चाचार्यमभिजानामि तेऽर्जुन।
विश्रुतं त्रिषु लोकेषु भारद्वाजं यशस्विनम् ॥ ६४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुन! तीनों लोकोंमें विख्यात यशस्वी भरद्वाजनन्दन द्रोणको भी, जो आपके वेद और धनुर्वेदके आचार्य रहे हैं, मैं अच्छी तरह जानता हूँ॥६४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मं वायुं च शक्रं च विजानाम्यश्विनौ तथा।
पाण्डुं च कुरुशार्दूल षडेतान् कुरुवर्धनान्।
पितॄनेतानहं पार्थ देवमानुषसत्तमान् ॥ ६५ ॥

मूलम्

धर्मं वायुं च शक्रं च विजानाम्यश्विनौ तथा।
पाण्डुं च कुरुशार्दूल षडेतान् कुरुवर्धनान्।
पितॄनेतानहं पार्थ देवमानुषसत्तमान् ॥ ६५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुश्रेष्ठ! धर्म, वायु, इन्द्र, दोनों अश्विनीकुमार तथा महाराज पाण्डु—ये छः महापुरुष कुरुवंशकी वृद्धि करनेवाले हैं। पार्थ! ये देवताओं तथा मनुष्योंके सिरमौर छहों व्यक्ति आपलोगोंके पिता हैं। मैं इन सबको जानता हूँ॥६५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिव्यात्मानो महात्मानः सर्वशस्त्रभृतां वराः।
भवन्तो भ्रातरः शूराः सर्वे सुचरितव्रताः ॥ ६६ ॥

मूलम्

दिव्यात्मानो महात्मानः सर्वशस्त्रभृतां वराः।
भवन्तो भ्रातरः शूराः सर्वे सुचरितव्रताः ॥ ६६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप सब भाई देवस्वरूप, महात्मा, समस्त शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ शूरवीर हैं तथा आपलोगोंने ब्रह्मचर्यव्रतका भलीभाँति पालन किया है॥६६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्तमां च मनोबुद्धिं भवतां भावितात्मनाम्।
जानन्नपि च वः पार्थ कृतवानिह धर्षणाम् ॥ ६७ ॥

मूलम्

उत्तमां च मनोबुद्धिं भवतां भावितात्मनाम्।
जानन्नपि च वः पार्थ कृतवानिह धर्षणाम् ॥ ६७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपलोगोंका अन्तःकरण शुद्ध है, मन और बुद्धि भी उत्तम है। पार्थ! आपके विषयमें यह सब कुछ जानते हुए भी मैंने यहाँ आक्रमण किया था॥६७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्त्रीसकाशे च कौरव्य न पुमान् क्षन्तुमर्हति।
धर्षणामात्मनः पश्यन् बाहुद्रविणमाश्रितः ॥ ६८ ॥

मूलम्

स्त्रीसकाशे च कौरव्य न पुमान् क्षन्तुमर्हति।
धर्षणामात्मनः पश्यन् बाहुद्रविणमाश्रितः ॥ ६८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुनन्दन! इसका कारण यह है कि अपने बाहुबलका भरोसा रखनेवाला कोई भी पुरुष जब स्त्रीके समीप अपना तिरस्कार होता देखता है, तब उसे सहन नहीं कर पाता॥६८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नक्तं च बलमस्माकं भूय एवाभिवर्धते।
यतस्ततो मां कौन्तेय सदारं मन्युराविशत् ॥ ६९ ॥

मूलम्

नक्तं च बलमस्माकं भूय एवाभिवर्धते।
यतस्ततो मां कौन्तेय सदारं मन्युराविशत् ॥ ६९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुन्तीनन्दन! इसके सिवा एक बात यह भी है कि रातके समय हमलोगोंका बल बहुत बढ़ जाता है। इसीसे स्त्रीके साथ रहनेके कारण मुझमें क्रोधका आवेश हो गया था॥६९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽहं त्वयेह विजितः संख्ये तापत्यवर्धन।
येन तेनेह विधिना कीर्त्यमानं निबोध मे ॥ ७० ॥

मूलम्

सोऽहं त्वयेह विजितः संख्ये तापत्यवर्धन।
येन तेनेह विधिना कीर्त्यमानं निबोध मे ॥ ७० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तपतीके कुलकी वृद्धि करनेवाले अर्जुन! आपने जिस कारण युद्धमें मुझे पराजित किया है, उसे (भी) बतलाता हूँ; सुनिये॥७०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्मचर्यं परो धर्मः स चापि नियतस्त्वयि।
यस्मात् तस्मादहं पार्थ रणेऽस्मि विजितस्त्वया ॥ ७१ ॥

मूलम्

ब्रह्मचर्यं परो धर्मः स चापि नियतस्त्वयि।
यस्मात् तस्मादहं पार्थ रणेऽस्मि विजितस्त्वया ॥ ७१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्मचर्य! सबसे बड़ा धर्म है और वह तुममें निश्चितरूपसे विद्यमान है। कुन्तीनन्दन! इसीलिये युद्धमें मैं तुमसे हार गया हूँ॥७१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्तु स्यात् क्षत्रियः कश्चित् कामवृत्तः परंतप।
नक्तं च युधि युध्येत न स जीवेत् कथंचन॥७२॥

मूलम्

यस्तु स्यात् क्षत्रियः कश्चित् कामवृत्तः परंतप।
नक्तं च युधि युध्येत न स जीवेत् कथंचन॥७२॥

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुओंको संताप देनेवाले वीर! यदि दूसरा कोई कामासक्त क्षत्रिय रातमें मुझसे युद्ध करने आता तो किसी प्रकार जीवित नहीं बच सकता था॥७२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्तु स्यात् कामवृत्तोऽपि पार्थ ब्रह्मपुरस्कृतः।
जयेन्नक्तंचरान् सर्वान् स पुरोहितधूर्गतः ॥ ७३ ॥

मूलम्

यस्तु स्यात् कामवृत्तोऽपि पार्थ ब्रह्मपुरस्कृतः।
जयेन्नक्तंचरान् सर्वान् स पुरोहितधूर्गतः ॥ ७३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

किंतु कुन्तीकुमार! कामासक्त होनेपर भी यदि कोई पुरुष किसी ब्राह्मणको आगे करके चले तो वह समस्त निशाचरोंपर विजय पा सकता है; क्योंकि उस दशामें उसका सारा भार पुरोहितपर होता है॥७३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मात् तापत्य यत्किंचिन्नॄणां श्रेय इहेप्सितम्।
तस्मिन् कर्मणि योक्तव्या दान्तात्मानः पुरोहिताः ॥ ७४ ॥

मूलम्

तस्मात् तापत्य यत्किंचिन्नॄणां श्रेय इहेप्सितम्।
तस्मिन् कर्मणि योक्तव्या दान्तात्मानः पुरोहिताः ॥ ७४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः तपतीनन्दन! मनुष्योंको इस लोकमें जो भी कल्याणकारी कार्य करना अभीष्ट हो, उसमें वह मन और इन्द्रियोंको वशमें रखनेवाले पुरोहितोंको नियुक्त करे॥७४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वेदे षडङ्गे निरताः शुचयः सत्यवादिनः।
धर्मात्मानः कृतात्मानः स्युर्नृपाणां पुरोहिताः ॥ ७५ ॥

मूलम्

वेदे षडङ्गे निरताः शुचयः सत्यवादिनः।
धर्मात्मानः कृतात्मानः स्युर्नृपाणां पुरोहिताः ॥ ७५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो छहों अंगोंसहित वेदके स्वाध्यायमें तत्पर, ईमानदार, सत्यवादी, धर्मात्मा और मनको वशमें रखनेवाले हों, ऐसे ही ब्राह्मण राजाओंके पुरोहित होने चाहिये॥७५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जयश्च नियतो राज्ञः स्वर्गश्च तदनन्तरम्।
यस्य स्याद् धर्मविद् वाग्मी पुरोधाः शीलवान् शुचिः ॥ ७६ ॥

मूलम्

जयश्च नियतो राज्ञः स्वर्गश्च तदनन्तरम्।
यस्य स्याद् धर्मविद् वाग्मी पुरोधाः शीलवान् शुचिः ॥ ७६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसके यहाँ धर्मज्ञ, वक्ता, शीलवान् और ईमानदार ब्राह्मण पुरोहित हो, उस राजाको इस लोकमें निश्चय ही विजय प्राप्त होती है और मरनेके बाद उसे स्वर्गलोक मिलता है॥७६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लाभं लब्धुमलब्धं वा लब्धं वा परिरक्षितुम्।
पुरोहितं प्रकुर्वीत राजा गुणसमन्वितम् ॥ ७७ ॥

मूलम्

लाभं लब्धुमलब्धं वा लब्धं वा परिरक्षितुम्।
पुरोहितं प्रकुर्वीत राजा गुणसमन्वितम् ॥ ७७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाको किसी अप्राप्त वस्तु या धनको प्राप्त करने अथवा उपलब्ध धन आदिकी रक्षा करनेके लिये गुणवान् ब्राह्मणको पुरोहित बनाना चाहिये॥७७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुरोहितमते तिष्ठेद् य इच्छेद् भूतिमात्मनः।
प्राप्तुं वसुमतीं सर्वां सर्वशः सागराम्बराम् ॥ ७८ ॥

मूलम्

पुरोहितमते तिष्ठेद् य इच्छेद् भूतिमात्मनः।
प्राप्तुं वसुमतीं सर्वां सर्वशः सागराम्बराम् ॥ ७८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो समुद्रसे घिरी हुई सम्पूर्ण पृथ्वीपर अपना अधिकार चाहे या अपने लिये ऐश्वर्य पाना चाहे, उसे पुरोहितकी आज्ञाके अधीन रहना चाहिये॥७८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न हि केवलशौर्येण तापत्याभिजनेन च।
जयेदब्राह्मणः कश्चिद् भूमिं भूमिपतिः क्वचित् ॥ ७९ ॥

मूलम्

न हि केवलशौर्येण तापत्याभिजनेन च।
जयेदब्राह्मणः कश्चिद् भूमिं भूमिपतिः क्वचित् ॥ ७९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तपतीनन्दन! कोई भी राजा कहीं भी पुरोहितकी सहायताके बिना केवल अपने बल अथवा कुलीनताके भरोसे भूमिपर विजय नहीं पाता॥७९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मादेवं विजानीहि कुरूणां वंशवर्धन।
ब्राह्मणप्रमुखं राज्यं शक्यं पालयितुं चिरम् ॥ ८० ॥

मूलम्

तस्मादेवं विजानीहि कुरूणां वंशवर्धन।
ब्राह्मणप्रमुखं राज्यं शक्यं पालयितुं चिरम् ॥ ८० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः कौरवोंके कुलकी वृद्धि करनेवाले अर्जुन! आप यह जान लें कि जहाँ विद्वान् ब्राह्मणोंकी प्रधानता हो, उसी राज्यकी दीर्घकालतक रक्षा की जा सकती है॥८०॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि चैत्ररथपर्वणि गन्धर्वपराभवे एकोनसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १६९ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत चैत्ररथपर्वमें गन्धर्वपराभवविषयक एक सौ उनहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१६९॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठके २ श्लोक मिलाकर कुल ८२ श्लोक हैं)