श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना
सप्तषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
कुन्तीकी अपने पुत्रोंसे पूछकर पंचालदेशमें जानेकी तैयारी
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतच्छ्रुत्वा तु कौन्तेया
ब्राह्मणात् संशितव्रतात्।
सर्वे चास्वस्थमनसो
बभूवुस्ते महाबलाः ॥ १ ॥
मूलम्
एतच्छ्रुत्वा तु कौन्तेया ब्राह्मणात् संशितव्रतात्।
सर्वे चास्वस्थमनसो बभूवुस्ते महाबलाः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! कठोर व्रत-वाले उस ब्राह्मणसे यह सुनकर उन सब महाबली कुन्तीपुत्रोंका मन विचलित हो गया॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः कुन्ती सुतान् दृष्ट्वा
सर्वांस्तद्गतचेतसः।
युधिष्ठिरमुवाचेदं
वचनं सत्यवादिनी ॥ २ ॥
मूलम्
ततः कुन्ती सुतान् दृष्ट्वा सर्वांस्तद्गतचेतसः।
युधिष्ठिरमुवाचेदं वचनं सत्यवादिनी ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब सत्यवादिनी कुन्तीने अपने सभी पुत्रोंका मन उस स्वयंवरकी ओर आकृष्ट देख युधिष्ठिरसे इस प्रकार कहा॥२॥
मूलम् (वचनम्)
कुन्त्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
चिररात्रोषिताः स्मेह
ब्राह्मणस्य निवेशने।
रममाणाः पुरे रम्ये
लब्धभैक्षा महात्मनः ॥ ३ ॥
मूलम्
चिररात्रोषिताः स्मेह ब्राह्मणस्य निवेशने।
रममाणाः पुरे रम्ये लब्धभैक्षा महात्मनः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्ती बोली— बेटा! हमलोग यहाँ इन महात्मा ब्राह्मणके घरमें बहुत दिनोंसे रह रहे हैं। इस रमणीय नगरमें हम आनन्दपूर्वक घूमे-फिरे और यहाँ हमें (पर्याप्त) भिक्षा भी उपलब्ध हुई॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यानीह रमणीयानि
वनान्युपवनानि च।
सर्वाणि तानि दृष्टानि
पुनः पुनररिंदम ॥ ४ ॥
मूलम्
यानीह रमणीयानि वनान्युपवनानि च।
सर्वाणि तानि दृष्टानि पुनः पुनररिंदम ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुदमन! यहाँ जो रमणीय वन और उपवन हैं, उन सबको हमने बार-बार देख लिया॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुनर्द्रष्टुं हि तानीह
प्रीणयन्ति न नस्तथा।
भैक्षं च न तथा वीर
लभ्यते कुरुनन्दन ॥ ५ ॥
मूलम्
पुनर्द्रष्टुं हि तानीह प्रीणयन्ति न नस्तथा।
भैक्षं च न तथा वीर लभ्यते कुरुनन्दन ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वीर! यदि उन्हींको हम फिर देखनेके लिये जायँ तो वे हमें उतनी प्रसन्नता नहीं दे सकते। कुरुनन्दन! अब भिक्षा भी यहाँ हमें पहले-जैसी नहीं मिल रही है॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते वयं साधु पञ्चालान्
गच्छाम यदि मन्यसे।
अपूर्वदर्शनं वीर
रमणीयं भविष्यति ॥ ६ ॥
मूलम्
ते वयं साधु पञ्चालान् गच्छाम यदि मन्यसे।
अपूर्वदर्शनं वीर रमणीयं भविष्यति ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि तुम्हारी राय हो तो अब हमलोग सुखपूर्वक पंचालदेशमें चलें। वीर! उस देशको हमने पहले कभी नहीं देखा है, इसलिये वह बड़ा रमणीय प्रतीत होगा॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुभिक्षाश्चैव पञ्चालाः
श्रूयन्ते शत्रुकर्शन।
यज्ञसेनश्च राजासौ
ब्रह्मण्य इति शुश्रुम ॥ ७ ॥
मूलम्
सुभिक्षाश्चैव पञ्चालाः श्रूयन्ते शत्रुकर्शन।
यज्ञसेनश्च राजासौ ब्रह्मण्य इति शुश्रुम ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुनाशन! सुना जाता है, पंचालदेशमें बड़ा सुकाल है (इसलिये भिक्षा बहुतायतसे मिलती है)। हमने यह भी सुना है कि राजा यज्ञसेन ब्राह्मणोंके बड़े भक्त हैं॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकत्र चिरवासश्च
क्षमो न च मतो मम।
ते तत्र साधु गच्छामो
यदि त्वं पुत्र मन्यसे॥८॥
मूलम्
एकत्र चिरवासश्च क्षमो न च मतो मम।
ते तत्र साधु गच्छामो यदि त्वं पुत्र मन्यसे॥८॥
अनुवाद (हिन्दी)
बेटा! एक स्थानपर बहुत दिनोंतक रहना मुझे उचित नहीं जान पड़ता; अतः यदि तुम ठीक समझो तो हमलोग सुखपूर्वक वहाँ चलें॥८॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
भवत्या यन्मतं कार्यं
तदस्माकं परं हितम्।
अनुजांस्तु न जानामि
गच्छेयुर्नेति वा पुनः ॥ ९ ॥
मूलम्
भवत्या यन्मतं कार्यं तदस्माकं परं हितम्।
अनुजांस्तु न जानामि गच्छेयुर्नेति वा पुनः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने कहा— माँ! आप जिस कार्यको ठीक समझती हैं, वह हमारे लिये परम हितकर है; परंतु अपने छोटे भाइयोंके सम्बन्धमें मैं नहीं जानता कि वे जानेके लिये उद्यत हैं या नहीं॥९॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः कुन्ती भीमसेनम्
अर्जुनं यमजौ तथा।
उवाच गमनं ते च
तथेत्येवाब्रुवंस्तदा ॥ १० ॥
मूलम्
ततः कुन्ती भीमसेनमर्जुनं यमजौ तथा।
उवाच गमनं ते च तथेत्येवाब्रुवंस्तदा ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! तब कुन्तीने भीमसेन, अर्जुन, नकुल और सहदेवसे भी चलनेके विषयमें पूछा। उन सबने भी ‘तथास्तु’ कहकर स्वीकृति दे दी॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत आमन्त्र्य तं विप्रं
कुन्ती राजन् सुतैः सह।
प्रतस्थे नगरीं रम्यां
द्रुपदस्य महात्मनः ॥ ११ ॥
मूलम्
तत आमन्त्र्य तं विप्रं कुन्ती राजन् सुतैः सह।
प्रतस्थे नगरीं रम्यां द्रुपदस्य महात्मनः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! तब कुन्तीने उन ब्राह्मणदेवतासे विदा लेकर अपने पुत्रोंके साथ महात्मा द्रुपदकी रमणीय नगरीकी ओर जानेकी तैयारी की॥११॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि चैत्ररथपर्वणि पञ्चालदेशयात्रायां सप्तषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १६७ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत चैत्ररथपर्वमें पंचालदेशकी यात्राविषयक एक सौ सरसठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१६७॥