श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना
पञ्चषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
द्रोणके द्वारा द्रुपदके अपमानित होनेका वृत्तान्त
मूलम् (वचनम्)
ब्राह्मण उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
गङ्गाद्वारं प्रति महान् बभूवर्षिर्महातपाः।
भरद्वाजो महाप्राज्ञः सततं संशितव्रतः ॥ १ ॥
मूलम्
गङ्गाद्वारं प्रति महान् बभूवर्षिर्महातपाः।
भरद्वाजो महाप्राज्ञः सततं संशितव्रतः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आगन्तुक ब्राह्मणने कहा— गंगाद्वारमें एक महाबुद्धिमान् और परम तपस्वी भरद्वाज नामक महर्षि रहते थे, जो सदा कठोर व्रतका पालन करते थे॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽभिषेक्तुं गतो गङ्गां पूर्वमेवागतां सतीम्।
ददर्शाप्सरसं तत्र घृताचीमाप्लुतामृषिः ॥ २ ॥
मूलम्
सोऽभिषेक्तुं गतो गङ्गां पूर्वमेवागतां सतीम्।
ददर्शाप्सरसं तत्र घृताचीमाप्लुतामृषिः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक दिन वे गंगाजीमें स्नान करनेके लिये गये। वहाँ पहलेसे ही आकर सुन्दरी अप्सरा घृताची नामवाली गंगाजीमें गोते लगा रही थी। महर्षिने उसे देखा॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्या वायुर्नदीतीरे वसनं व्यहरत् तदा।
अपकृष्टाम्बरां दृष्ट्वा तामृषिश्चकमे तदा ॥ ३ ॥
मूलम्
तस्या वायुर्नदीतीरे वसनं व्यहरत् तदा।
अपकृष्टाम्बरां दृष्ट्वा तामृषिश्चकमे तदा ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब नदीके तटपर खड़ी हो वह वस्त्र बदलने लगी, उस समय वायुने उसकी साड़ी उड़ा दी। वस्त्र हट जानेसे उसे नग्नावस्थामें देखकर महर्षिने उसे प्राप्त करनेकी इच्छा की॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्यां संसक्तमनसः कौमारब्रह्मचारिणः ।
चिरस्य रेतश्चस्कन्द तदृषिर्द्रोण आदधे ॥ ४ ॥
मूलम्
तस्यां संसक्तमनसः कौमारब्रह्मचारिणः ।
चिरस्य रेतश्चस्कन्द तदृषिर्द्रोण आदधे ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुनिवर भरद्वाजने कुमारावस्थासे ही दीर्घकाल-तक ब्रह्मचर्यका पालन किया था। घृताचीमें चित्त आसक्त हो जानेके कारण उनका वीर्य स्खलित हो गया। महर्षिने उस वीर्यको द्रोण (यज्ञकलश)-में रख दिया॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः समभवद् द्रोणः कुमारस्तस्य धीमतः।
अध्यगीष्ट स वेदांश्च वेदाङ्गानि च सर्वशः ॥ ५ ॥
मूलम्
ततः समभवद् द्रोणः कुमारस्तस्य धीमतः।
अध्यगीष्ट स वेदांश्च वेदाङ्गानि च सर्वशः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसीसे बुद्धिमान् भरद्वाजजीके द्रोण नामक पुत्र हुआ। उसने सम्पूर्ण वेदों और वेदांगोंका भी अध्ययन कर लिया॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भरद्वाजस्य तु सखा पृषतो नाम पार्थिवः।
तस्यापि द्रुपदो नाम तदा समभवत् सुतः ॥ ६ ॥
मूलम्
भरद्वाजस्य तु सखा पृषतो नाम पार्थिवः।
तस्यापि द्रुपदो नाम तदा समभवत् सुतः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पृषत नामके एक राजा भरद्वाज मुनिके मित्र थे। उन्हीं दिनों राजा पृषतके भी द्रुपद नामक पुत्र हुआ॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स नित्यमाश्रमं गत्वा द्रोणेन सह पार्षतः।
चिक्रीडाध्ययनं चैव चकार क्षत्रियर्षभः ॥ ७ ॥
मूलम्
स नित्यमाश्रमं गत्वा द्रोणेन सह पार्षतः।
चिक्रीडाध्ययनं चैव चकार क्षत्रियर्षभः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्षत्रियशिरोमणि पृषतकुमार द्रुपद प्रतिदिन भरद्वाज मुनिके आश्रमपर जाकर द्रोणके साथ खेलते और अध्ययन करते थे॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तु पृषतेऽतीते स राजा द्रुपदोऽभवत्।
द्रोणोऽपि रामं शुश्राव दित्सन्तं वसु सर्वशः ॥ ८ ॥
वनं तु प्रस्थितं रामं भरद्वाजसुतोऽब्रवीत्।
आगतं वित्तकामं मां विद्धि द्रोणं द्विजोत्तम ॥ ९ ॥
मूलम्
ततस्तु पृषतेऽतीते स राजा द्रुपदोऽभवत्।
द्रोणोऽपि रामं शुश्राव दित्सन्तं वसु सर्वशः ॥ ८ ॥
वनं तु प्रस्थितं रामं भरद्वाजसुतोऽब्रवीत्।
आगतं वित्तकामं मां विद्धि द्रोणं द्विजोत्तम ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पृषतकी मृत्युके पश्चात् द्रुपद राजा हुए। इधर द्रोणने भी यह सुना कि परशुरामजी अपना सारा धन दान कर देना चाहते हैं और वनमें जानेके लिये उद्यत हैं। तब वे भरद्वाजनन्दन द्रोण परशुरामजीके पास जाकर बोले—‘द्विजश्रेष्ठ! मुझे द्रोण जानिये। मैं धनकी कामनासे यहाँ आया हूँ’॥८-९॥
मूलम् (वचनम्)
राम उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
शरीरमात्रमेवाद्य मया समवशेषितम् ।
अस्त्राणि वा शरीरं वा ब्रह्मन्नेकतमं वृणु ॥ १० ॥
मूलम्
शरीरमात्रमेवाद्य मया समवशेषितम् ।
अस्त्राणि वा शरीरं वा ब्रह्मन्नेकतमं वृणु ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परशुरामजीने कहा— ब्रह्मन्! अब तो केवल मैंने अपने शरीरको ही बचा रखा है (शरीरके सिवा सब कुछ दान कर दिया)। अतः अब तुम मेरे अस्त्रों अथवा यह शरीर—दोनोंमेंसे किसी एकको माँग लो॥१०॥
मूलम् (वचनम्)
द्रोण उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्त्राणि चैव सर्वाणि तेषां संहारमेव च।
प्रयोगं चैव सर्वेषां दातुमर्हति मे भवान् ॥ ११ ॥
मूलम्
अस्त्राणि चैव सर्वाणि तेषां संहारमेव च।
प्रयोगं चैव सर्वेषां दातुमर्हति मे भवान् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
द्रोण बोले— भगवन्! आप मुझे सम्पूर्ण अस्त्र तथा उन सबके प्रयोग और उपसंहारकी विधि भी प्रदान करें॥११॥
मूलम् (वचनम्)
ब्राह्मण उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथेत्युक्त्वा ततस्तस्मै प्रददौ भृगुनन्दनः।
प्रतिगृह्य तदा द्रोणः कृतकृत्योऽभवत् तदा ॥ १२ ॥
मूलम्
तथेत्युक्त्वा ततस्तस्मै प्रददौ भृगुनन्दनः।
प्रतिगृह्य तदा द्रोणः कृतकृत्योऽभवत् तदा ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आगन्तुक ब्राह्मणने कहा— तब भृगुनन्दन परशुरामजीने ‘तथास्तु’ कहकर अपने सब अस्त्र द्रोणको दे दिये। उन सबको ग्रहण करके द्रोण उस समय कृतार्थ हो गये॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सम्प्रहृष्टमना द्रोणो रामात् परमसम्मतम्।
ब्रह्मास्त्रं समनुप्राप्य नरेष्वभ्यधिकोऽभवत् ॥ १३ ॥
मूलम्
सम्प्रहृष्टमना द्रोणो रामात् परमसम्मतम्।
ब्रह्मास्त्रं समनुप्राप्य नरेष्वभ्यधिकोऽभवत् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने परशुरामजीसे प्रसन्नचित्त होकर परम सम्मानित ब्रह्मास्त्रका ज्ञान प्राप्त किया और मनुष्योंमें सबसे बढ़-चढ़कर हो गये॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो द्रुपदमासाद्य भारद्वाजः प्रतापवान्।
अब्रवीत् पुरुषव्याघ्रः सखायं विद्धि मामिति ॥ १४ ॥
मूलम्
ततो द्रुपदमासाद्य भारद्वाजः प्रतापवान्।
अब्रवीत् पुरुषव्याघ्रः सखायं विद्धि मामिति ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब पुरुषसिंह प्रतापी द्रोणने राजा द्रुपदके पास जाकर कहा—‘राजन्! मैं तुम्हारा सखा हूँ, मुझे पहचानो’॥१४॥
मूलम् (वचनम्)
द्रुपद उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाश्रोत्रियः श्रोत्रियस्य नारथी रथिनः सखा।
नाराजा पार्थिवस्यापि सखिपूर्वं किमिष्यते ॥ १५ ॥
मूलम्
नाश्रोत्रियः श्रोत्रियस्य नारथी रथिनः सखा।
नाराजा पार्थिवस्यापि सखिपूर्वं किमिष्यते ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
द्रुपदने कहा— जो श्रोत्रिय नहीं है, वह श्रोत्रियका; जो रथी नहीं है, वह रथी वीरका और इसी प्रकार जो राजा नहीं है, वह किसी राजाका मित्र होनेयोग्य नहीं है; फिर तुम पहलेकी मित्रताकी अभिलाषा क्यों करते हो?॥१५॥
मूलम् (वचनम्)
ब्राह्मण उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
स विनिश्चित्य मनसा पाञ्चाल्यं प्रति बुद्धिमान्।
जगाम कुरुमुख्यानां नगरं नागसाह्वयम् ॥ १६ ॥
मूलम्
स विनिश्चित्य मनसा पाञ्चाल्यं प्रति बुद्धिमान्।
जगाम कुरुमुख्यानां नगरं नागसाह्वयम् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आगन्तुक ब्राह्मणने कहा— बुद्धिमान् द्रोणने पांचालराज द्रुपदसे बदला लेनेका मन-ही-मन निश्चय किया। फिर वे कुरुवंशी राजाओंकी राजधानी हस्तिनापुरमें गये॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मै पौत्रान् समादाय वसूनि विविधानि च।
प्राप्ताय प्रददौ भीष्मः शिष्यान् द्रोणाय धीमते ॥ १७ ॥
मूलम्
तस्मै पौत्रान् समादाय वसूनि विविधानि च।
प्राप्ताय प्रददौ भीष्मः शिष्यान् द्रोणाय धीमते ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ जानेपर बुद्धिमान् द्रोणको नाना प्रकारके धन लेकर भीष्मजीने अपने सभी पौत्रोंको उन्हें शिष्यरूपमें सौंप दिया॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्रोणः शिष्यांस्ततः पार्थानिदं वचनमब्रवीत्।
समानीय तु ताञ्शिष्यान् द्रुपदस्यासुखाय वै ॥ १८ ॥
मूलम्
द्रोणः शिष्यांस्ततः पार्थानिदं वचनमब्रवीत्।
समानीय तु ताञ्शिष्यान् द्रुपदस्यासुखाय वै ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब द्रोणने सब शिष्योंको एकत्र करके, जिनमें कुन्तीके पुत्र तथा अन्य लोग भी थे, द्रुपदको कष्ट देनेके उद्देश्यसे इस प्रकार कहा—॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आचार्यवेतनं किंचिद् हृदि यद् वर्तते मम।
कृतास्त्रैस्तत् प्रदेयं स्यात् तदृतं वदतानघाः।
सोऽर्जुनप्रमुखैरुक्तस्तथास्त्विति गुरुस्तदा ॥ १९ ॥
मूलम्
आचार्यवेतनं किंचिद् हृदि यद् वर्तते मम।
कृतास्त्रैस्तत् प्रदेयं स्यात् तदृतं वदतानघाः।
सोऽर्जुनप्रमुखैरुक्तस्तथास्त्विति गुरुस्तदा ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘निष्पाप शिष्यगण! मेरे मनमें तुमलोगोंसे कुछ गुरुदक्षिणा लेनेकी इच्छा है। अस्त्रविद्यामें पारंगत होनेपर तुम्हें वह दक्षिणा देनी होगी। इसके लिये सच्ची प्रतिज्ञा करो।’ तब अर्जुन आदि शिष्योंने अपने गुरुसे कहा—‘तथास्तु (ऐसा ही होगा)’॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदा च पाण्डवाः सर्वे कृतास्त्राः कृतनिश्चयाः।
ततो द्रोणोऽब्रवीद् भूयो वेतनार्थमिदं वचः ॥ २० ॥
मूलम्
यदा च पाण्डवाः सर्वे कृतास्त्राः कृतनिश्चयाः।
ततो द्रोणोऽब्रवीद् भूयो वेतनार्थमिदं वचः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब समस्त पाण्डव अस्त्रविद्यामें पारंगत हो गये और प्रतिज्ञापालनके निश्चयपर दृढ़तापूर्वक डटे रहे, तब द्रोणाचार्यने गुरुदक्षिणा लेनेके लिये पुनः यह बात कही—॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पार्षतो द्रुपदो नामच्छत्रवत्यां नरेश्वरः।
तस्मादाकृष्य तद् राज्यं मम शीघ्रं प्रदीयताम् ॥ २१ ॥
मूलम्
पार्षतो द्रुपदो नामच्छत्रवत्यां नरेश्वरः।
तस्मादाकृष्य तद् राज्यं मम शीघ्रं प्रदीयताम् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अहिच्छत्रा नगरीमें पृषतके पुत्र राजा द्रुपद रहते हैं। उनसे उनका राज्य छीनकर शीघ्र मुझे अर्पित कर दो’॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(धार्तराष्ट्रैश्च सहिताः पञ्चालान् पाण्डवा ययुः॥
यज्ञसेनेन संगम्य कर्णदुर्योधनादयः ।
निर्जिताः संन्यवर्तन्त तथान्ये क्षत्रियर्षभाः॥)
ततः पाण्डुसुताः पञ्च निर्जित्य द्रुपदं युधि।
द्रोणाय दर्शयामासुर्बद्ध्वा ससचिवं तदा ॥ २२ ॥
मूलम्
(धार्तराष्ट्रैश्च सहिताः पञ्चालान् पाण्डवा ययुः॥
यज्ञसेनेन संगम्य कर्णदुर्योधनादयः ।
निर्जिताः संन्यवर्तन्त तथान्ये क्षत्रियर्षभाः॥)
ततः पाण्डुसुताः पञ्च निर्जित्य द्रुपदं युधि।
द्रोणाय दर्शयामासुर्बद्ध्वा ससचिवं तदा ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(गुरुकी आज्ञा पाकर) धृतराष्ट्रपुत्रोंसहित पाण्डव पंचाल देशमें गये। वहाँ राजा द्रुपदके साथ युद्ध होनेपर कर्ण, दुर्योधन आदि कौरव तथा दूसरे-दूसरे प्रमुख क्षत्रिय वीर परास्त होकर रणभूमिसे भाग गये। तब पाँचों पाण्डवोंने द्रुपदको युद्धमें परास्त कर दिया और मन्त्रियों-सहित उन्हें कैद करके द्रोणके सम्मुख ला दिया॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(महेन्द्र इव दुर्धर्षो महेन्द्र इव दानवम्।
महेन्द्रपुत्रः पाञ्चालं जितवानर्जुनस्तदा ॥
तद् दृष्ट्वा तु महावीर्यं फाल्गुनस्यामितौजसः।
व्यस्मयन्त जनाः सर्वे यज्ञसेनस्य बान्धवाः॥
नास्त्यर्जुनसमो वीर्ये राजपुत्र इति ब्रुवन्॥)
मूलम्
(महेन्द्र इव दुर्धर्षो महेन्द्र इव दानवम्।
महेन्द्रपुत्रः पाञ्चालं जितवानर्जुनस्तदा ॥
तद् दृष्ट्वा तु महावीर्यं फाल्गुनस्यामितौजसः।
व्यस्मयन्त जनाः सर्वे यज्ञसेनस्य बान्धवाः॥
नास्त्यर्जुनसमो वीर्ये राजपुत्र इति ब्रुवन्॥)
अनुवाद (हिन्दी)
महेन्द्रपुत्र अर्जुन महेन्द्र पर्वतके समान दुर्धर्ष थे। जैसे महेन्द्रने दानवराजको परास्त किया था, उसी प्रकार उन्होंने पांचालराजपर विजय पायी। अमिततेजस्वी अर्जुनका वह महान् पराक्रम देख राजा द्रुपदके समस्त बान्धवजन बड़े विस्मित हुए और मन-ही-मन कहने लगे—‘अर्जुनके समान शक्तिशाली दूसरा कोई राजकुमार नहीं है’।
मूलम् (वचनम्)
द्रोण उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रार्थयामि त्वया सख्यं पुनरेव नराधिप।
अराजा किल नो राज्ञः सखा भवितुमर्हति ॥ २३ ॥
अतः प्रयतितं राज्ये यज्ञसेन त्वया सह।
राजासि दक्षिणे कूले भागीरथ्याहमुत्तरे ॥ २४ ॥
मूलम्
प्रार्थयामि त्वया सख्यं पुनरेव नराधिप।
अराजा किल नो राज्ञः सखा भवितुमर्हति ॥ २३ ॥
अतः प्रयतितं राज्ये यज्ञसेन त्वया सह।
राजासि दक्षिणे कूले भागीरथ्याहमुत्तरे ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
द्रोणाचार्य बोले— राजन्! मैं फिर भी तुमसे मित्रताके लिये प्रार्थना करता हूँ। यज्ञसेन! तुमने कहा था, जो राजा नहीं है, वह राजाका मित्र नहीं हो सकता; अतः मैंने राज्यप्राप्तिके लिये तुम्हारे साथ युद्धका प्रयास किया है। तुम गंगाके दक्षिणतटके राजा रहो और मैं उत्तरतटका॥२३-२४॥
मूलम् (वचनम्)
ब्राह्मण उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्तो हि पाञ्चाल्यो भारद्वाजेन धीमता।
उवाचास्त्रविदां श्रेष्ठो द्रोणं ब्राह्मणसत्तमम् ॥ २५ ॥
मूलम्
एवमुक्तो हि पाञ्चाल्यो भारद्वाजेन धीमता।
उवाचास्त्रविदां श्रेष्ठो द्रोणं ब्राह्मणसत्तमम् ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आगन्तुक ब्राह्मण कहता है— बुद्धिमान् भरद्वाज-नन्दन द्रोणके यों कहनेपर अस्त्रवेत्ताओंमें श्रेष्ठ पंचाल-नरेश द्रुपदने विप्रवर द्रोणसे इस प्रकार कहा—॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं भवतु भद्रं ते भारद्वाज महामते।
सख्यं तदेव भवतु शश्वद् यदभिमन्यसे ॥ २६ ॥
मूलम्
एवं भवतु भद्रं ते भारद्वाज महामते।
सख्यं तदेव भवतु शश्वद् यदभिमन्यसे ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महामते द्रोण! एवमस्तु, आपका कल्याण हो। आपकी जैसी राय है, उसके अनुसार हम दोनोंकी वही पुरानी मैत्री सदा बनी रहे’॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमन्योन्यमुक्त्वा तौ कृत्वा सख्यमनुत्तमम्।
जग्मतुर्द्रोणपाञ्चाल्यौ यथागतमरिंदमौ ॥ २७ ॥
मूलम्
एवमन्योन्यमुक्त्वा तौ कृत्वा सख्यमनुत्तमम्।
जग्मतुर्द्रोणपाञ्चाल्यौ यथागतमरिंदमौ ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुओंका दमन करनेवाले द्रोणाचार्य और द्रुपद एक दूसरेसे उपर्युक्त बातें कहकर परम उत्तम मैत्रीभाव स्थापित करके इच्छानुसार अपने-अपने स्थानको चले गये॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
असत्कारः स तु महान् मुहूर्तमपि तस्य तु।
नापैति हृदयाद् राज्ञो दुर्मनाः स कृशोऽभवत् ॥ २८ ॥
मूलम्
असत्कारः स तु महान् मुहूर्तमपि तस्य तु।
नापैति हृदयाद् राज्ञो दुर्मनाः स कृशोऽभवत् ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय उनका जो महान् अपमान हुआ, वह दो घड़ीके लिये भी राजा द्रुपदके हृदयसे निकल नहीं पाया। वे मन-ही-मन बहुत दुःखी थे और उनका शरीर भी बहुत दुर्बल हो गया॥२८॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि चैत्ररथपर्वणि द्रौपदीसम्भवे पञ्चषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १६५ ॥
सूचना (हिन्दी)
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत चैत्ररथपर्वमें द्रौपदीजन्मविषयक एक सौ पैंसठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१६५॥
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ४ श्लोक मिलाकर कुल ३२ श्लोक हैं)