१५९ बकवृत्तान्तः

श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना

एकोनषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

कुन्तीके पूछनेपर ब्राह्मणका उनसे अपने दुःखका कारण बताना

मूलम् (वचनम्)

कुन्त्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुतोमूलमिदं दुःखं ज्ञातुमिच्छामि तत्त्वतः।
विदित्वाप्यपकर्षेयं शक्यं चेदपकर्षितुम् ॥ १ ॥

मूलम्

कुतोमूलमिदं दुःखं ज्ञातुमिच्छामि तत्त्वतः।
विदित्वाप्यपकर्षेयं शक्यं चेदपकर्षितुम् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुन्तीने पूछा— ब्रह्मन्! आपलोगोंके इस दुःखका कारण क्या है? मैं यह ठीक-ठीक जानना चाहती हूँ। उसे जानकर यदि मिटाया जा सकेगा तो मिटानेकी चेष्टा करूँगी॥१॥

मूलम् (वचनम्)

ब्राह्मण उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपपन्नं सतामेतद् यद् ब्रवीषि तपोधने।
न तु दुःखमिदं शक्यं मानुषेण व्यपोहितुम् ॥ २ ॥

मूलम्

उपपन्नं सतामेतद् यद् ब्रवीषि तपोधने।
न तु दुःखमिदं शक्यं मानुषेण व्यपोहितुम् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मणने कहा— तपोधने! आप जो कुछ कह रही हैं, वह आप-जैसे सज्जनोंके अनुरूप ही है; परंतु हमारे इस दुःखको मनुष्य नहीं मिटा सकता॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समीपे नगरस्यास्य बको वसति राक्षसः।
(इतो गव्यूतिमात्रेऽस्ति यमुनागह्वरे गुहा।
तस्यां घोरः स वसति जिघांसुः पुरुषादकः॥)
ईशो जनपदस्यास्य पुरस्य च महाबलः ॥ ३ ॥
पुष्टो मानुषमांसेन दुर्बुद्धिः पुरुषादकः।
(तेनेयं पुरुषादेन भक्ष्यमाणा दुरात्मना।
अनाथा नगरी नाथं त्रातारं नाधिगच्छति॥)
रक्षत्यसुरराण्नित्यमिमं जनपदं बली ॥ ४ ॥
नगरं चैव देशं च रक्षोबलसमन्वितः।
तत्कृते परचक्राच्च भूतेभ्यश्च न नो भयम् ॥ ५ ॥

मूलम्

समीपे नगरस्यास्य बको वसति राक्षसः।
(इतो गव्यूतिमात्रेऽस्ति यमुनागह्वरे गुहा।
तस्यां घोरः स वसति जिघांसुः पुरुषादकः॥)
ईशो जनपदस्यास्य पुरस्य च महाबलः ॥ ३ ॥
पुष्टो मानुषमांसेन दुर्बुद्धिः पुरुषादकः।
(तेनेयं पुरुषादेन भक्ष्यमाणा दुरात्मना।
अनाथा नगरी नाथं त्रातारं नाधिगच्छति॥)
रक्षत्यसुरराण्नित्यमिमं जनपदं बली ॥ ४ ॥
नगरं चैव देशं च रक्षोबलसमन्वितः।
तत्कृते परचक्राच्च भूतेभ्यश्च न नो भयम् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस नगरके पास ही यहाँसे दो कोसकी दूरीपर यमुनाके किनारे घने जंगलमें एक गुफा है, उसीमें एक भयंकर हिंसाप्रिय नरभक्षी राक्षस रहता है। उसका नाम है बक। वह राक्षस अत्यन्त बलवान् है। वही इस जनपद और नगरका स्वामी है। वह खोटी बुद्धिवाला मनुष्यभक्षी राक्षस मनुष्यके ही मांससे पुष्ट हुआ है। उस दुरात्मा नरभक्षी निशाचरद्वारा प्रतिदिन खायी जाती हुई यह नगरी अनाथ हो रही है। इसे कोई रक्षक या स्वामी नहीं मिल रहा है। राक्षसोचित-बलसे सम्पन्न वह शक्तिशाली असुरराज सदा इस जनपद, नगर और देशकी रक्षा करता है। उसके कारण हमें शत्रुराज्यों तथा हिंसक प्राणियोंसे कभी भय नहीं होता॥३—५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वेतनं तस्य विहितं शालिवाहस्य भोजनम्।
महिषौ पुरुषश्चैको यस्तदादाय गच्छति ॥ ६ ॥

मूलम्

वेतनं तस्य विहितं शालिवाहस्य भोजनम्।
महिषौ पुरुषश्चैको यस्तदादाय गच्छति ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसके लिये कर नियत किया गया है—बीस खारी अगहनीके चावलका भात, दो भैंसे और एक मनुष्य, जो वह सब सामान लेकर उसके पास जाता है॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकैकश्चापि पुरुषस्तत् प्रयच्छति भोजनम्।
स वारो बहुभिर्वर्षैर्भवत्यसुकरो नरैः ॥ ७ ॥

मूलम्

एकैकश्चापि पुरुषस्तत् प्रयच्छति भोजनम्।
स वारो बहुभिर्वर्षैर्भवत्यसुकरो नरैः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रत्येक गृहस्थ अपनी बारी आनेपर उसे भोजन देता है। यद्यपि यह बारी बहुत वर्षोंके बाद आती है, तथापि लोगोंके लिये उसकी पूर्ति बहुत कठिन होती है॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तद्विमोक्षाय ये केचिद् यतन्ति पुरुषाः क्वचित्।
सपुत्रदारांस्तान् हत्वा तद् रक्षो भक्षयत्युत ॥ ८ ॥

मूलम्

तद्विमोक्षाय ये केचिद् यतन्ति पुरुषाः क्वचित्।
सपुत्रदारांस्तान् हत्वा तद् रक्षो भक्षयत्युत ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो कोई पुरुष कभी उससे छूटनेका प्रयत्न करते हैं, वह राक्षस उन्हें पुत्र और स्त्रीसहित मारकर खा जाता है॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वेत्रकीयगृहे राजा नायं नयमिहास्थितः।
उपायं तं न कुरुते यत्नादपि स मन्दधीः।
अनामयं जनस्यास्य येन स्यादद्य शाश्वतम् ॥ ९ ॥

मूलम्

वेत्रकीयगृहे राजा नायं नयमिहास्थितः।
उपायं तं न कुरुते यत्नादपि स मन्दधीः।
अनामयं जनस्यास्य येन स्यादद्य शाश्वतम् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वास्तवमें जो यहाँका राजा है, वह वेत्रकीयगृह नामक स्थानमें रहता है। परंतु वह न्यायके मार्गपर नहीं चलता। वह मन्दबुद्धि राजा यत्न करके भी ऐसा कोई उपाय नहीं करता, जिससे सदाके लिये प्रजाका संकट दूर हो जाय॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतदर्हा वयं नूनं वसामो दुर्बलस्य ये।
विषये नित्यवास्तव्याः कुराजानमुपाश्रिताः ॥ १० ॥

मूलम्

एतदर्हा वयं नूनं वसामो दुर्बलस्य ये।
विषये नित्यवास्तव्याः कुराजानमुपाश्रिताः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

निश्चय ही हमलोग ऐसा ही दुःख भोगनेके योग्य हैं; क्योंकि इस दुर्बल राजाके राज्यमें निवास करते हैं, यहाँके नित्य निवासी हो गये हैं और इस दुष्ट राजाके आश्रयमें रहते हैं॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्राह्मणाः कस्य वक्तव्याः कस्य वाच्छन्दचारिणः।
गुणैरेते हि वत्स्यन्ति कामगाः पक्षिणो यथा ॥ ११ ॥

मूलम्

ब्राह्मणाः कस्य वक्तव्याः कस्य वाच्छन्दचारिणः।
गुणैरेते हि वत्स्यन्ति कामगाः पक्षिणो यथा ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मणोंको कौन आदेश दे सकता है अथवा वे किसके अधीन रह सकते हैं। ये तो इच्छानुसार विचरनेवाले पक्षियोंकी भाँति देश या राजाके गुण देखकर ही कहीं भी निवास करते हैं॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजानं प्रथमं विन्देत् ततो भार्यां ततो धनम्।
त्रयस्य संचयेनास्य ज्ञातीन् पुत्रांश्च तारयेत् ॥ १२ ॥

मूलम्

राजानं प्रथमं विन्देत् ततो भार्यां ततो धनम्।
त्रयस्य संचयेनास्य ज्ञातीन् पुत्रांश्च तारयेत् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नीति कहती है, पहले अच्छे राजाको प्राप्त करे। उसके बाद पत्नीकी और फिर धनकी उपलब्धि करे। इन तीनोंके संग्रहद्वारा अपने जाति-भाइयों तथा पुत्रोंको संकटसे बचाये॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विपरीतं मया चेदं त्रयं सर्वमुपार्जितम्।
तदिमामापदं प्राप्य भृशं तप्यामहे वयम् ॥ १३ ॥

मूलम्

विपरीतं मया चेदं त्रयं सर्वमुपार्जितम्।
तदिमामापदं प्राप्य भृशं तप्यामहे वयम् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैंने इन तीनोंका विपरीत ढंगसे उपार्जन किया है (अर्थात् दुष्ट राजाके राज्यमें निवास किया, कुराज्यमें विवाह किया और विवाहके पश्चात् धन नहीं कमाया); इसलिये इस विपत्तिमें पड़कर हमलोग भारी कष्ट पा रहे हैं॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽयमस्माननुप्राप्तो वारः कुलविनाशनः ।
भोजनं पुरुषश्चैकः प्रदेयं वेतनं मया ॥ १४ ॥

मूलम्

सोऽयमस्माननुप्राप्तो वारः कुलविनाशनः ।
भोजनं पुरुषश्चैकः प्रदेयं वेतनं मया ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वही आज हमारी बारी आयी है, जो समूचे कुलका विनाश करनेवाली है। मुझे उस राक्षसको करके रूपमें नियत भोजन और एक पुरुषकी बलि देनी पड़ेगी॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न च मे विद्यते वित्तं संक्रेतुं पुरुषं क्वचित्।
सुहृज्जनं प्रदातुं च न शक्ष्यामि कदाचन ॥ १५ ॥

मूलम्

न च मे विद्यते वित्तं संक्रेतुं पुरुषं क्वचित्।
सुहृज्जनं प्रदातुं च न शक्ष्यामि कदाचन ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरे पास धन नहीं है, जिससे कहींसे किसी पुरुषको खरीद लाऊँ। अपने सुहृदों एवं सगे-सम्बन्धियोंको तो मैं कदापि उस राक्षसके हाथमें नहीं दे सकूँगा॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गतिं चैव न पश्यामि तस्मान्मोक्षाय रक्षसः।
सोऽहं दुःखार्णवे मग्नो महत्यसुकरे भृशम् ॥ १६ ॥

मूलम्

गतिं चैव न पश्यामि तस्मान्मोक्षाय रक्षसः।
सोऽहं दुःखार्णवे मग्नो महत्यसुकरे भृशम् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस निशाचरसे छूटनेका कोई उपाय मुझे नहीं दिखायी देता; अतः मैं अत्यन्त दुस्तर दुःखके महासागरमें डूबा हुआ हूँ॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सहैवैतैर्गमिष्यामि बान्धवैरद्य राक्षसम् ।
ततो नः सहितान् क्षुद्रः सर्वानेवोपभोक्ष्यति ॥ १७ ॥

मूलम्

सहैवैतैर्गमिष्यामि बान्धवैरद्य राक्षसम् ।
ततो नः सहितान् क्षुद्रः सर्वानेवोपभोक्ष्यति ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब इन बान्धवजनोंके साथ ही मैं राक्षसके पास जाऊँगा; फिर वह नीच निशाचर एक ही साथ हम सबको खा जायगा॥१७॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि बकवधपर्वणि कुन्तीप्रश्ने एकोनषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १५९ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत बकवधपर्वमें कुन्तीप्रश्नविषयक एक सौ उनसठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१५९॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठके २ श्लोक मिलाकर कुल १९ श्लोक हैं)