श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना
अष्टपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
ब्राह्मण-कन्याके त्याग और विवेकपूर्ण वचन तथा कुन्तीका उन सबके पास जाना
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तयोर्दुःखितयोर्वाक्यमतिमात्रं निशम्य तु ।
ततो दुःखपरीताङ्गी कन्या तावभ्यभाषत ॥ १ ॥
मूलम्
तयोर्दुःखितयोर्वाक्यमतिमात्रं निशम्य तु ।
ततो दुःखपरीताङ्गी कन्या तावभ्यभाषत ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! दुःखमें डूबे हुए माता-पिताका यह (अत्यन्त शोकपूर्ण) वचन सुनकर कन्याके सम्पूर्ण अंगोंमें दुःख व्याप्त हो गया; उसने माता और पिता दोनोंसे कहा—॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किमेवं भृशदुःखार्तौ रोरूयेतामनाथवत् ।
ममापि श्रूयतां वाक्यं श्रुत्वा च क्रियतां क्षमम् ॥ २ ॥
मूलम्
किमेवं भृशदुःखार्तौ रोरूयेतामनाथवत् ।
ममापि श्रूयतां वाक्यं श्रुत्वा च क्रियतां क्षमम् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आप दोनों इस प्रकार अत्यन्त दुःखसे आतुर हो अनाथकी भाँति क्यों बार-बार रो रहे हैं? मेरी भी बात सुनिये और उसे सुनकर जो उचित जान पड़े, वह कीजिये॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्मतोऽहं परित्याज्या युवयोर्नात्र संशयः।
त्यक्तव्यां मां परित्यज्य त्राहि सर्वं मयैकया ॥ ३ ॥
मूलम्
धर्मतोऽहं परित्याज्या युवयोर्नात्र संशयः।
त्यक्तव्यां मां परित्यज्य त्राहि सर्वं मयैकया ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इसमें संदेह नहीं कि एक-न-एक दिन आप दोनोंको धर्मतः मेरा परित्याग करना पड़ेगा। जब मैं त्याज्य ही हूँ, तब आज ही मुझे त्यागकर मुझ अकेलीके द्वारा इस समूचे कुलकी रक्षा कर लीजिये॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्यर्थमिष्यतेऽपत्यं तारयिष्यति मामिति ।
अस्मिन्नुपस्थिते काले तरध्वं प्लववन्मया ॥ ४ ॥
मूलम्
इत्यर्थमिष्यतेऽपत्यं तारयिष्यति मामिति ।
अस्मिन्नुपस्थिते काले तरध्वं प्लववन्मया ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘संतानकी इच्छा इसीलिये की जाती है कि यह मुझे संकटसे उबारेगी। अतः इस समय जो संकट उपस्थित हुआ है, उसमें नौकाकी भाँति मेरा उपयोग करके आपलोग शोकसागरसे पार हो जाइये॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इह वा तारयेद् दुर्गादुत वा प्रेत्य भारत।
सर्वथा तारयेत् पुत्रः पुत्र इत्युच्यते बुधैः ॥ ५ ॥
मूलम्
इह वा तारयेद् दुर्गादुत वा प्रेत्य भारत।
सर्वथा तारयेत् पुत्रः पुत्र इत्युच्यते बुधैः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो पुत्र इस लोकमें दुर्गम संकटसे पार लगाये अथवा मृत्युके पश्चात् परलोकमें उद्धार करे—सब प्रकार पिताको तार दे, उसे ही विद्वानोंने वास्तवमें पुत्र कहा है॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आकाङ्क्षन्ते च दौहित्रान् मयि नित्यं पितामहाः।
तत् स्वयं वै परित्रास्ये रक्षन्ती जीवितं पितुः ॥ ६ ॥
मूलम्
आकाङ्क्षन्ते च दौहित्रान् मयि नित्यं पितामहाः।
तत् स्वयं वै परित्रास्ये रक्षन्ती जीवितं पितुः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पितरलोग मुझसे उत्पन्न होनेवाले दौहित्रसे अपने उद्धारकी सदा अभिलाषा रखते हैं, इसलिये मैं स्वयं ही पिताके जीवनकी रक्षा करती हुई उन सबका उद्धार करूँगी॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भ्राता च मम बालोऽयं गते लोकममुं त्वयि।
अचिरेणैव कालेन विनश्येत न संशयः ॥ ७ ॥
मूलम्
भ्राता च मम बालोऽयं गते लोकममुं त्वयि।
अचिरेणैव कालेन विनश्येत न संशयः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यदि आप परलोकवासी हो गये तो यह मेरा नन्हा-सा भाई थोड़े ही समयमें नष्ट हो जायगा, इसमें संशय नहीं है॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तातेऽपि हि गते स्वर्गं विनष्टे च ममानुजे।
पिण्डः पितॄणां व्युच्छिद्येत् तत् तेषां विप्रियं भवेत् ॥ ८ ॥
मूलम्
तातेऽपि हि गते स्वर्गं विनष्टे च ममानुजे।
पिण्डः पितॄणां व्युच्छिद्येत् तत् तेषां विप्रियं भवेत् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पिता स्वर्गवासी हो जायँ और मेरा भैया भी नष्ट हो जाय, तो पितरोंका पिण्ड ही लुप्त हो जायगा, जो उनके लिये बहुत ही अप्रिय होगा॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पित्रा त्यक्ता तथा मात्रा भ्रात्रा चाहमसंशयम्।
दुःखाद् दुःखतरं प्राप्य म्रियेयमतथोचिता ॥ ९ ॥
मूलम्
पित्रा त्यक्ता तथा मात्रा भ्रात्रा चाहमसंशयम्।
दुःखाद् दुःखतरं प्राप्य म्रियेयमतथोचिता ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पिता, माता और भाई—तीनोंसे परित्यक्त होकर मैं एक दुःखसे दूसरे महान् दुःखमें पड़कर निश्चय ही मर जाऊँगी। यद्यपि मैं ऐसा दुःख भोगनेके योग्य नहीं हूँ, तथापि आप लोगोंके बिना मुझे वह सब भोगना ही पड़ेगा॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वयि त्वरोगे निर्मुक्ते माता भ्राता च मे शिशुः।
संतानश्चैव पिण्डश्च प्रतिष्ठास्यत्यसंशयम् ॥ १० ॥
मूलम्
त्वयि त्वरोगे निर्मुक्ते माता भ्राता च मे शिशुः।
संतानश्चैव पिण्डश्च प्रतिष्ठास्यत्यसंशयम् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यदि आप मृत्युके संकटसे मुक्त एवं नीरोग रहे तो मेरी माता, मेरा नन्हा-सा भाई, संतान-परम्परा और पिण्ड (श्राद्धकर्म)—ये सब स्थिर रहेंगे; इसमें संशय नहीं है॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आत्मा पुत्रः सखा भार्या कृच्छ्रं तु दुहिता किल।
स कृच्छ्रान्मोचयात्मानं मां च धर्मे नियोजय ॥ ११ ॥
मूलम्
आत्मा पुत्रः सखा भार्या कृच्छ्रं तु दुहिता किल।
स कृच्छ्रान्मोचयात्मानं मां च धर्मे नियोजय ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कहते हैं पुत्र अपना आत्मा है, पत्नी मित्र है; किंतु पुत्री निश्चय ही संकट है, अतः आप इस संकटसे अपनेको बचा लीजिये और मुझे भी धर्ममें लगाइये॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनाथा कृपणा बाला यत्रक्वचनगामिनी।
भविष्यामि त्वया तात विहीना कृपणा सदा ॥ १२ ॥
मूलम्
अनाथा कृपणा बाला यत्रक्वचनगामिनी।
भविष्यामि त्वया तात विहीना कृपणा सदा ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पिताजी! आपके बिना मैं सदाके लिये दीन और असहाय हो जाऊँगी, अनाथ और दयनीय समझी जाऊँगी। अरक्षित बालिका होनेके कारण मुझे जहाँ कहीं भी जानेके लिये विवश होना पड़ेगा॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथवाहं करिष्यामि कुलस्यास्य विमोचनम्।
फलसंस्था भविष्यामि कृत्वा कर्म सुदुष्करम् ॥ १३ ॥
मूलम्
अथवाहं करिष्यामि कुलस्यास्य विमोचनम्।
फलसंस्था भविष्यामि कृत्वा कर्म सुदुष्करम् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अथवा मैं अपनेको मृत्युके मुखमें डालकर इस कुलको संकटसे छुड़ाऊँगी। यह अत्यन्त दुष्कर कर्म कर लेनेसे मेरी मृत्यु सफल हो जायगी॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथवा यास्यसे तत्र त्यक्त्वा मां द्विजसत्तम।
पीडिताहं भविष्यामि तदवेक्षस्व मामपि ॥ १४ ॥
मूलम्
अथवा यास्यसे तत्र त्यक्त्वा मां द्विजसत्तम।
पीडिताहं भविष्यामि तदवेक्षस्व मामपि ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘द्विजश्रेष्ठ पिताजी! यदि आप मुझे त्यागकर स्वयं राक्षसके पास चले जायँगे तो मैं बड़े दुःखमें पड़ जाऊँगी। अतः मेरी ओर भी देखिये॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदस्मदर्थं धर्मार्थं प्रसवार्थं स सत्तम।
आत्मानं परिरक्षस्व त्यक्तव्यां मां च संत्यज ॥ १५ ॥
मूलम्
तदस्मदर्थं धर्मार्थं प्रसवार्थं स सत्तम।
आत्मानं परिरक्षस्व त्यक्तव्यां मां च संत्यज ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अतः हे साधुशिरोमणे! आप मेरे लिये, धर्मके लिये तथा संतानकी रक्षाके लिये भी अपनी रक्षा कीजिये और मुझे, जिसको एक दिन छोड़ना ही है, आज ही त्याग दीजिये॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवश्यकरणीये च मा त्वां कालोऽत्यगादयम्।
किं त्वतः परमं दुःखं यद् वयं स्वर्गते त्वयि॥१६॥
याचमानाः परादन्नं परिधावेमहि श्ववत्।
त्वयि त्वरोगे निर्मुक्ते क्लेशादस्मात् सबान्धवे।
अमृते वसती लोके भविष्यामि सुखान्विता ॥ १७ ॥
मूलम्
अवश्यकरणीये च मा त्वां कालोऽत्यगादयम्।
किं त्वतः परमं दुःखं यद् वयं स्वर्गते त्वयि॥१६॥
याचमानाः परादन्नं परिधावेमहि श्ववत्।
त्वयि त्वरोगे निर्मुक्ते क्लेशादस्मात् सबान्धवे।
अमृते वसती लोके भविष्यामि सुखान्विता ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पिताजी! जो काम अवश्य करना है, उसका निश्चय करनेमें आपको अपना समय व्यर्थ नहीं जाने देना चाहिये (शीघ्र मेरा त्याग करके इस कुलकी रक्षा करनी चाहिये)। हमलोगोंके लिये इससे बढ़कर महान् दुःख और क्या होगा कि आपके स्वर्गवासी हो जानेपर हम दूसरोंसे अन्नकी भीख माँगते हुए कुत्तोंकी तरह इधर-उधर दौड़ते फिरें। यदि मुझे त्यागकर आप अपने भाई-बन्धुओंसहित इस क्लेशसे मुक्त हो नीरोग बने रहें तो मैं अमरलोकमें निवास करती हुई बहुत सुखी होऊँगी॥१६-१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इतः प्रदाने देवाश्च पितरश्चेति न श्रुतम्।
त्वया दत्तेन तोयेन भविष्यन्ति हिताय वै ॥ १८ ॥
मूलम्
इतः प्रदाने देवाश्च पितरश्चेति न श्रुतम्।
त्वया दत्तेन तोयेन भविष्यन्ति हिताय वै ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यद्यपि ऐसे दानसे देवता और पितर प्रसन्न नहीं होते, ऐसा मैंने सुन रखा है, तथापि आपके द्वारा दी हुई जलांजलिसे वे प्रसन्न होकर अवश्य हमारा हित-साधन करनेवाले होंगे’॥१८॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं बहुविधं तस्या निशम्य परिदेवितम्।
पिता माता च सा चैव कन्या प्ररुरुदुस्त्रयः ॥ १९ ॥
मूलम्
एवं बहुविधं तस्या निशम्य परिदेवितम्।
पिता माता च सा चैव कन्या प्ररुरुदुस्त्रयः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! इस तरह उस कन्याके मुखसे नाना प्रकारका विलाप सुनकर पिता-माता और वह कन्या तीनों फूट-फूटकर रोने लगे॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः प्ररुदितान् सर्वान् निशम्याथ सुतस्तदा।
उत्फुल्लनयनो बालः कलमव्यक्तमब्रवीत् ॥ २० ॥
मूलम्
ततः प्ररुदितान् सर्वान् निशम्याथ सुतस्तदा।
उत्फुल्लनयनो बालः कलमव्यक्तमब्रवीत् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब उन सबको रोते देख ब्राह्मणका नन्हा-सा बालक उन सबकी ओर प्रफुल्ल नेत्रोंसे देखता हुआ तोतली भाषामें अस्पष्ट एवं मधुर वचन बोला—॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मा पिता रुद मा मातर्मा स्वसस्त्विति चाब्रवीत्।
प्रहसन्निव सर्वांस्तानेकैकमनुसर्पति ॥ २१ ॥
ततः स तृणमादाय प्रहृष्टः पुनरब्रवीत्।
अनेनाहं हनिष्यामि राक्षसं पुरुषादकम् ॥ २२ ॥
मूलम्
मा पिता रुद मा मातर्मा स्वसस्त्विति चाब्रवीत्।
प्रहसन्निव सर्वांस्तानेकैकमनुसर्पति ॥ २१ ॥
ततः स तृणमादाय प्रहृष्टः पुनरब्रवीत्।
अनेनाहं हनिष्यामि राक्षसं पुरुषादकम् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पिताजी! न रोओ, माँ! न रोओ, बहिन! न रोओ, वह हँसता हुआ-सा प्रत्येकके पास जाता और सबसे यही बात कहता था। तदनन्तर उसने एक तिनका उठा लिया और अत्यन्त हर्षमें भरकर कहा—‘मैं इसीसे उस नरभक्षी राक्षसको मार डालूँगा’॥२१-२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथापि तेषां दुःखेन परीतानां निशम्य तत्।
बालस्य वाक्यमव्यक्तं हर्षः समभवन्महान् ॥ २३ ॥
मूलम्
तथापि तेषां दुःखेन परीतानां निशम्य तत्।
बालस्य वाक्यमव्यक्तं हर्षः समभवन्महान् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यद्यपि वे सब लोग दुःखमें डूबे हुए थे, तथापि उस बालककी अस्पष्ट तोतली बोली सुनकर उनके हृदयमें सहसा अत्यन्त प्रसन्नताकी लहर दौड़ गयी॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अयं काल इति ज्ञात्वा कुन्ती समुपसृत्य तान्।
गतासूनमृतेनेव जीवयन्तीदमब्रवीत् ॥ २४ ॥
मूलम्
अयं काल इति ज्ञात्वा कुन्ती समुपसृत्य तान्।
गतासूनमृतेनेव जीवयन्तीदमब्रवीत् ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अब यही अपनेको प्रकट करनेका अवसर है’ यह जानकर कुन्तीदेवी उन सबके निकट गयीं और अपनी अमृतमयी वाणीसे उन मृतक (तुल्य) मानवोंको जीवन प्रदान करती हुई-सी बोलीं॥२४॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि बकवधपर्वणि ब्राह्मणकन्यापुत्रवाक्ये अष्टपञ्चशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १५८ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत बकवधपर्वमें ब्राह्मणकी कन्या और पुत्रके वचन-सम्बन्धी एक सौ अट्ठावनवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१५८॥