श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना
सप्तपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
ब्राह्मणीका स्वयं मरनेके लिये उद्यत होकर पतिसे जीवित रहनेके लिये अनुरोध करना
मूलम् (वचनम्)
ब्राह्मण्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
न संतापस्त्वया कार्यः प्राकृतेनेव कर्हिचित्।
न हि संतापकालोऽयं वैद्यस्य तव विद्यते ॥ १ ॥
मूलम्
न संतापस्त्वया कार्यः प्राकृतेनेव कर्हिचित्।
न हि संतापकालोऽयं वैद्यस्य तव विद्यते ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मणी बोली— प्राणनाथ! आपको साधारण मनुष्योंकी भाँति कभी संताप नहीं करना चाहिये। आप विद्वान् हैं, आपके लिये यह संतापका अवसर नहीं है॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवश्यं निधनं सर्वैर्गन्तव्यमिह मानवैः।
अवश्यम्भाविन्यर्थे वै संतापो नेह विद्यते ॥ २ ॥
मूलम्
अवश्यं निधनं सर्वैर्गन्तव्यमिह मानवैः।
अवश्यम्भाविन्यर्थे वै संतापो नेह विद्यते ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक-न-एक दिन संसारमें सभी मनुष्योंको अवश्य मरना पड़ेगा; अतः जो बात अवश्य होनेवाली है, उसके लिये यहाँ शोक करनेकी आवश्यकता नहीं है॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भार्या पुत्रोऽथ दुहिता सर्वमात्मार्थमिष्यते।
व्यथां जहि सुबुद्ध्या त्वं स्वयं यास्यामि तत्र च॥३॥
एतद्धि परमं नार्याः कार्यं लोके सनातनम्।
प्राणानपि परित्यज्य यद् भर्तृहितमाचरेत् ॥ ४ ॥
मूलम्
भार्या पुत्रोऽथ दुहिता सर्वमात्मार्थमिष्यते।
व्यथां जहि सुबुद्ध्या त्वं स्वयं यास्यामि तत्र च॥३॥
एतद्धि परमं नार्याः कार्यं लोके सनातनम्।
प्राणानपि परित्यज्य यद् भर्तृहितमाचरेत् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पत्नी, पुत्र और पुत्री—ये सब अपने ही लिये अभीष्ट होते हैं। आप उत्तम बुद्धि-विवेकका आश्रय लेकर शोक-संताप छोड़िये। मैं स्वयं वहाँ (राक्षसके समीप) चली जाऊँगी। पत्नीके लिये लोकमें सबसे बढ़कर यही सनातन कर्तव्य है कि वह अपने प्राणोंको भी निछावर करके पतिकी भलाई करे॥३-४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तच्च तत्र कृतं कर्म तवापीदं सुखावहम्।
भवत्यमुत्र चाक्षय्यं लोकेऽस्मिंश्च यशस्करम् ॥ ५ ॥
मूलम्
तच्च तत्र कृतं कर्म तवापीदं सुखावहम्।
भवत्यमुत्र चाक्षय्यं लोकेऽस्मिंश्च यशस्करम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पतिके हितके लिये किया हुआ मेरा वह प्राणोत्सर्गरूप कर्म आपके लिये तो सुखकारक होगा ही, मेरे लिये भी परलोकमें अक्षय सुखका साधक और इस लोकमें यशकी प्राप्ति करानेवाला होगा॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एष चैव गुरुर्धर्मो यं प्रवक्ष्याम्यहं तव।
अर्थश्च तव धर्मश्च भूयानत्र प्रदृश्यते ॥ ६ ॥
मूलम्
एष चैव गुरुर्धर्मो यं प्रवक्ष्याम्यहं तव।
अर्थश्च तव धर्मश्च भूयानत्र प्रदृश्यते ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह सबसे बड़ा धर्म है, जो मैं आपसे बता रही हूँ। इसमें आपके लिये अधिक-से-अधिक स्वार्थ और धर्मका लाभ दिखायी देता है॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदर्थमिष्यते भार्या प्राप्तः सोऽर्थस्त्वया मयि।
कन्या चैका कुमारश्च कृताहमनृणा त्वया ॥ ७ ॥
मूलम्
यदर्थमिष्यते भार्या प्राप्तः सोऽर्थस्त्वया मयि।
कन्या चैका कुमारश्च कृताहमनृणा त्वया ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस उद्देश्यसे पत्नीकी अभिलाषा की जाती है, आपने वह उद्देश्य मुझसे सिद्ध कर लिया है। एक पुत्री और एक पुत्र आपके द्वारा मेरे गर्भसे उत्पन्न हो चुके हैं। इस प्रकार आपने मुझे भी उऋण कर दिया है॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समर्थः पोषणे चासि सुतयो रक्षणे तथा।
न त्वहं सुतयोः शक्ता तथा रक्षणपोषणे ॥ ८ ॥
मूलम्
समर्थः पोषणे चासि सुतयो रक्षणे तथा।
न त्वहं सुतयोः शक्ता तथा रक्षणपोषणे ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन दोनों संतानोंका पालन-पोषण और संरक्षण करनेमें आप समर्थ हैं। आपकी तरह मैं इन दोनोंके पालन-पोषण तथा रक्षाकी व्यवस्था नहीं कर सकूँगी॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मम हि त्वद्विहीनायाः सर्वप्राणधनेश्वर।
कथं स्यातां सुतौ बालौ भरेयं च कथं त्वहम्॥९॥
मूलम्
मम हि त्वद्विहीनायाः सर्वप्राणधनेश्वर।
कथं स्यातां सुतौ बालौ भरेयं च कथं त्वहम्॥९॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरे सर्वस्वके स्वामी प्राणेश्वर! आपके न रहनेपर मेरे इन दोनों बच्चोंकी क्या दशा होगी? मैं किस तरह इन बालकोंका भरण-पोषण करूँगी?॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथं हि विधवानाथा बालपुत्रा विना त्वया।
मिथुनं जीवयिष्यामि स्थिता साधुगते पथि ॥ १० ॥
मूलम्
कथं हि विधवानाथा बालपुत्रा विना त्वया।
मिथुनं जीवयिष्यामि स्थिता साधुगते पथि ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरा पुत्र अभी बालक है, आपके बिना मैं अनाथ विधवा सन्मार्गपर स्थित रहकर इन दोनों बच्चोंको कैसे जिलाऊँगी॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहंकृतावलिप्तैश्च प्रार्थ्यमानामिमां सुताम् ।
अयुक्तैस्तव सम्बन्धे कथं शक्ष्यामि रक्षितुम् ॥ ११ ॥
मूलम्
अहंकृतावलिप्तैश्च प्रार्थ्यमानामिमां सुताम् ।
अयुक्तैस्तव सम्बन्धे कथं शक्ष्यामि रक्षितुम् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो आपके यहाँ सम्बन्ध करनेके सर्वथा अयोग्य हैं, ऐसे अहंकारी और घमंडीलोग जब मुझसे इस कन्याको माँगेंगे, तब मैं उनसे इसकी रक्षा कैसे कर सकूँगी॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उत्सृष्टमामिषं भूमौ प्रार्थयन्ति यथा खगाः।
प्रार्थयन्ति जनाः सर्वे पतिहीनां तथा स्त्रियम् ॥ १२ ॥
साहं विचाल्यमाना वै प्रार्थ्यमाना दुरात्मभिः।
स्थातुं पथि न शक्ष्यामि सज्जनेष्टे द्विजोत्तम ॥ १३ ॥
मूलम्
उत्सृष्टमामिषं भूमौ प्रार्थयन्ति यथा खगाः।
प्रार्थयन्ति जनाः सर्वे पतिहीनां तथा स्त्रियम् ॥ १२ ॥
साहं विचाल्यमाना वै प्रार्थ्यमाना दुरात्मभिः।
स्थातुं पथि न शक्ष्यामि सज्जनेष्टे द्विजोत्तम ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे पक्षी पृथ्वीपर डाले हुए मांसके टुकड़ेको लेनेके लिये झपटते हैं, उसी प्रकार सब लोग विधवा स्त्रीको वशमें करना चाहते हैं। द्विजश्रेष्ठ! दुराचारी मनुष्य जब बार-बार मुझसे याचना करते हुए मुझे मर्यादासे विचलित करनेकी चेष्टा करेंगे, उस समय मैं श्रेष्ठ पुरुषोंके द्वारा अभिलषित मार्गपर स्थिर नहीं रह सकूँगी॥१२-१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथं तव कुलस्यैकामिमां बालामनागसम्।
पितृपैतामहे मार्गे नियोक्तुमहमुत्सहे ॥ १४ ॥
मूलम्
कथं तव कुलस्यैकामिमां बालामनागसम्।
पितृपैतामहे मार्गे नियोक्तुमहमुत्सहे ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आपके कुलकी इस एकमात्र निरपराध बालिकाको मैं बाप-दादोंके द्वारा पालित धर्ममार्गपर लगाये रखनेमें कैसे समर्थ होऊँगी॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथं शक्ष्यामि बालेऽस्मिन् गुणानाधातुमीप्सितान्।
अनाथे सर्वतो लुप्ते यथा त्वं धर्मदर्शिवान् ॥ १५ ॥
मूलम्
कथं शक्ष्यामि बालेऽस्मिन् गुणानाधातुमीप्सितान्।
अनाथे सर्वतो लुप्ते यथा त्वं धर्मदर्शिवान् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आप धर्मके ज्ञाता हैं, आप जैसे अपने बालकको सद्गुणी बना सकते हैं, उस प्रकार मैं आपके न रहनेपर सब ओरसे आश्रयहीन हुए इस अनाथ बालकमें वांछनीय उत्तम गुणोंका आधान कैसे कर सकूँगी॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इमामपि च ते बालामनाथां परिभूय माम्।
अनर्हाः प्रार्थयिष्यन्ति शूद्रा वेदश्रुतिं यथा ॥ १६ ॥
मूलम्
इमामपि च ते बालामनाथां परिभूय माम्।
अनर्हाः प्रार्थयिष्यन्ति शूद्रा वेदश्रुतिं यथा ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे अनधिकारी शूद्र वेदकी श्रुतिको प्राप्त करना चाहता हो, उसी प्रकार अयोग्य पुरुष मेरी अवहेलना करके आपकी इस अनाथ बालिकाको भी ग्रहण करना चाहेंगे॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तां चैदहं न दित्सेयं त्वद्गुणैरुपबृंहिताम्।
प्रमथ्यैनां हरेयुस्ते हविर्ध्वाङ्क्षा इवाध्वरात् ॥ १७ ॥
मूलम्
तां चैदहं न दित्सेयं त्वद्गुणैरुपबृंहिताम्।
प्रमथ्यैनां हरेयुस्ते हविर्ध्वाङ्क्षा इवाध्वरात् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आपके ही उत्तम गुणोंसे सम्पन्न अपनी इस पुत्रीको यदि मैं उन अयोग्य पुरुषोंके हाथमें न देना चाहूँगी तो वे बलपूर्वक इसे उसी प्रकार हर ले जायँगे, जैसे कौए यज्ञसे हविष्यका भाग लेकर उड़ जायँ॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सम्प्रेक्षमाणा पुत्रं ते नानुरूपमिवात्मनः।
अनर्हवशमापन्नामिमां चापि सुतां तव ॥ १८ ॥
अवज्ञाता च लोकेषु तथाऽऽत्मानमजानती।
अवलिप्तैर्नरैर्ब्रह्मन् मरिष्यामि न संशयः ॥ १९ ॥
मूलम्
सम्प्रेक्षमाणा पुत्रं ते नानुरूपमिवात्मनः।
अनर्हवशमापन्नामिमां चापि सुतां तव ॥ १८ ॥
अवज्ञाता च लोकेषु तथाऽऽत्मानमजानती।
अवलिप्तैर्नरैर्ब्रह्मन् मरिष्यामि न संशयः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्मन्! आपके इस पुत्रको आपके अनुरूप न देखकर और आपकी इस पुत्रीको भी अयोग्य पुरुषके वशमें पड़ी देखकर तथा लोकमें घमंडी मनुष्योंद्वारा अपमानित हो अपनेको पूर्ववत् सम्मानित अवस्थामें न पाकर मैं प्राण त्याग दूँगी, इसमें संशय नहीं है॥१८-१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तौ च हीनौ मया बालौ त्वया चैव तथाऽऽत्मजौ।
विनश्येतां न संदेहो मत्स्याविव जलक्षये ॥ २० ॥
मूलम्
तौ च हीनौ मया बालौ त्वया चैव तथाऽऽत्मजौ।
विनश्येतां न संदेहो मत्स्याविव जलक्षये ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे पानी सूख जानेपर वहाँकी मछलियाँ नष्ट हो जाती हैं, उसी प्रकार मुझसे और आपसे रहित होकर अपने ये दोनों बच्चे निस्संदेह नष्ट हो जायँगे॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रितयं सर्वथाप्येवं विनशिष्यत्यसंशयम् ।
त्वया विहीनं तस्मात् त्वं मां परित्यक्तुमर्हसि ॥ २१ ॥
मूलम्
त्रितयं सर्वथाप्येवं विनशिष्यत्यसंशयम् ।
त्वया विहीनं तस्मात् त्वं मां परित्यक्तुमर्हसि ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नाथ! इस प्रकार आपके बिना मैं और ये दोनों बच्चे—तीनों ही सर्वथा विनष्ट हो जायँगे—इसमें तनिक भी संशय नहीं है। इसलिये आप केवल मुझे त्याग दीजिये॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
व्युष्टिरेषा परा स्त्रीणां पूर्वं भर्तुः परां गतिम्।
गन्तुं ब्रह्मन् सपुत्राणामिति धर्मविदो विदुः ॥ २२ ॥
मूलम्
व्युष्टिरेषा परा स्त्रीणां पूर्वं भर्तुः परां गतिम्।
गन्तुं ब्रह्मन् सपुत्राणामिति धर्मविदो विदुः ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्मन्! पुत्रवती स्त्रियाँ यदि अपने पतिसे पहले ही मृत्युको प्राप्त हो जायँ तो यह उनके लिये परम सौभाग्यकी बात है। धर्मज्ञ विद्वान् ऐसा ही मानते हैं॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(मितं ददाति हि पिता मितं माता मितं सुतः।
अमितस्य हि दातारं का पतिं नाभिनन्दति॥)
मूलम्
(मितं ददाति हि पिता मितं माता मितं सुतः।
अमितस्य हि दातारं का पतिं नाभिनन्दति॥)
अनुवाद (हिन्दी)
पिता, माता और पुत्र—ये सब परिमित मात्रामें ही सुख देते हैं, अपरिमित सुखको देनेवाला तो केवल पति है। ऐसे पतिका कौन स्त्री आदर नहीं करेगी?
विश्वास-प्रस्तुतिः
परित्यक्तः सुतश्चायं दुहितेयं तथा मया।
बान्धवाश्च परित्यक्तास्त्वदर्थं जीवितं च मे ॥ २३ ॥
मूलम्
परित्यक्तः सुतश्चायं दुहितेयं तथा मया।
बान्धवाश्च परित्यक्तास्त्वदर्थं जीवितं च मे ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आर्यपुत्र! आपके लिये मैंने यह पुत्र और पुत्री भी छोड़ दी, समस्त बन्धु-बान्धवोंको भी छोड़ दिया और अब अपना यह जीवन भी त्याग देनेको उद्यत हूँ॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यज्ञैस्तपोभिर्नियमैर्दानैश्च विविधैस्तथा ।
विशिष्यते स्त्रिया भर्तुर्नित्यं प्रियहिते स्थितिः ॥ २४ ॥
मूलम्
यज्ञैस्तपोभिर्नियमैर्दानैश्च विविधैस्तथा ।
विशिष्यते स्त्रिया भर्तुर्नित्यं प्रियहिते स्थितिः ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
स्त्री यदि सदा अपने स्वामीके प्रिय और हितमें लगी रहे तो यह उसके लिये बड़े-बड़े यज्ञों, तपस्याओं, नियमों और नाना प्रकारके दानोंसे भी बढ़कर है॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदिदं यच्चिकीर्षामि धर्मं परमसम्मतम्।
इष्टं चैव हितं चैव तव चैव कुलस्य च॥२५॥
मूलम्
तदिदं यच्चिकीर्षामि धर्मं परमसम्मतम्।
इष्टं चैव हितं चैव तव चैव कुलस्य च॥२५॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः मैं जो यह कार्य करना चाहती हूँ, यह श्रेष्ठ पुरुषोंसे सम्मत धर्म है और आपके तथा इस कुलके लिये सर्वथा अनुकूल एवं हितकारक है॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इष्टानि चाप्यपत्यानि द्रव्याणि सुहृदः प्रियाः।
आपद्धर्मप्रमोक्षाय भार्या चापि सतां मतम् ॥ २६ ॥
मूलम्
इष्टानि चाप्यपत्यानि द्रव्याणि सुहृदः प्रियाः।
आपद्धर्मप्रमोक्षाय भार्या चापि सतां मतम् ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अनुकूल संतान, धन, प्रिय, सुहृद् तथा पत्नी—ये सभी आपद्धर्मसे छूटनेके लिये ही वांछनीय हैं; ऐसा साधु पुरुषोंका मत है॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपदर्थे धनं रक्षेद् दारान् रक्षेद् धनैरपि।
आत्मानं सततं रक्षेद् दारैरपि धनैरपि ॥ २७ ॥
मूलम्
आपदर्थे धनं रक्षेद् दारान् रक्षेद् धनैरपि।
आत्मानं सततं रक्षेद् दारैरपि धनैरपि ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आपत्तिके लिये धनकी रक्षा करे, धनके द्वारा स्त्रीकी रक्षा करे और स्त्री तथा धन दोनोंके द्वारा सदा अपनी रक्षा करे॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृष्टादृष्टफलार्थं हि भार्या पुत्रो धनं गृहम्।
सर्वमेतद् विधातव्यं बुधानामेष निश्चयः ॥ २८ ॥
मूलम्
दृष्टादृष्टफलार्थं हि भार्या पुत्रो धनं गृहम्।
सर्वमेतद् विधातव्यं बुधानामेष निश्चयः ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पत्नी, पुत्र, धन और घर—ये सब वस्तुएँ दृष्ट और अदृष्ट फल (लौकिक और पारलौकिक लाभ)-के लिये संग्रहणीय हैं। विद्वानोंका यह निश्चय है॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकतो वा कुलं कृत्स्नमात्मा वा कुलवर्धनः।
न समं सर्वमेवेति बुधानामेष निश्चयः ॥ २९ ॥
मूलम्
एकतो वा कुलं कृत्स्नमात्मा वा कुलवर्धनः।
न समं सर्वमेवेति बुधानामेष निश्चयः ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक ओर सम्पूर्ण कुल हो और दूसरी ओर उस कुलकी वृद्धि करनेवाला शरीर हो तो उन दोनोंकी तुलना करनेपर वह सारा कुल उस शरीरके बराबर नहीं हो सकता; यह विद्वानोंका निश्चय है॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स कुरुष्व मया कार्यं तारयात्मानमात्मना।
अनुजानीहि मामार्य सुतौ मे परिपालय ॥ ३० ॥
मूलम्
स कुरुष्व मया कार्यं तारयात्मानमात्मना।
अनुजानीहि मामार्य सुतौ मे परिपालय ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आर्य! अतः आप मेरे द्वारा अभीष्ट कार्यकी सिद्धि कीजिये और स्वयं प्रयत्न करके अपनेको इस संकटसे बचाइये। मुझे राक्षसके पास जानेकी आज्ञा दीजिये और मेरे दोनों बच्चोंका पालन कीजिये॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवध्यां स्त्रियमित्याहुर्धर्मज्ञा धर्मनिश्चये ।
धर्मज्ञान् राक्षसानाहुर्न हन्यात् स च मामपि ॥ ३१ ॥
मूलम्
अवध्यां स्त्रियमित्याहुर्धर्मज्ञा धर्मनिश्चये ।
धर्मज्ञान् राक्षसानाहुर्न हन्यात् स च मामपि ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्मज्ञ विद्वानोंने धर्म-निर्णयके प्रसंगमें नारीको अवध्य बताया है। राक्षसोंको भी लोग धर्मज्ञ कहते हैं। इसलिये सम्भव है, वह राक्षस भी मुझे स्त्री समझकर न मारे॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निस्संशयं वधः पुंसां स्त्रीणां संशयितो वधः।
अतो मामेव धर्मज्ञ प्रस्थापयितुमर्हसि ॥ ३२ ॥
मूलम्
निस्संशयं वधः पुंसां स्त्रीणां संशयितो वधः।
अतो मामेव धर्मज्ञ प्रस्थापयितुमर्हसि ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुरुष वहाँ जायँ, तो वह राक्षस उनका वध कर ही डालेगा इसमें संशय नहीं है; परंतु स्त्रियोंके वधमें संदेह है। (यदि राक्षसने धर्मका विचार किया तो मेरे बच जानेकी आशा है) अतः धर्मज्ञ आर्यपुत्र! आप मुझे ही वहाँ भेजें॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भुक्तं प्रियाण्यवाप्तानि धर्मश्च चरितो महान्।
त्वत् प्रसूतिः प्रिया प्राप्ता न मां तप्स्यत्यजीवितम् ॥ ३३ ॥
मूलम्
भुक्तं प्रियाण्यवाप्तानि धर्मश्च चरितो महान्।
त्वत् प्रसूतिः प्रिया प्राप्ता न मां तप्स्यत्यजीवितम् ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैंने सब प्रकारके भोग भोग लिये, मनको प्रिय लगनेवाली वस्तुएँ प्राप्त कर लीं, महान् धर्मका अनुष्ठान भी पूरा कर लिया और आपसे प्यारी संतान भी प्राप्त कर ली। अब यदि मेरी मृत्यु भी हो जाय तो उससे मुझे दुःख न होगा॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जातपुत्रा च वृद्धा च प्रियकामा च ते सदा।
समीक्ष्यैतदहं सर्वं व्यवसायं करोम्यतः ॥ ३४ ॥
मूलम्
जातपुत्रा च वृद्धा च प्रियकामा च ते सदा।
समीक्ष्यैतदहं सर्वं व्यवसायं करोम्यतः ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुझसे पुत्र उत्पन्न हो गया, मैं बूढ़ी भी हो चली और सदा आपका प्रिय करनेकी इच्छा रखती आयी हूँ। इन सब बातोंपर विचार करके ही अब मैं मरनेका निश्चय कर रही हूँ॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उत्सृज्यापि हि मामार्य प्राप्स्यस्यन्यामपि स्त्रियम्।
ततः प्रतिष्ठितो धर्मो भविष्यति पुनस्तव ॥ ३५ ॥
मूलम्
उत्सृज्यापि हि मामार्य प्राप्स्यस्यन्यामपि स्त्रियम्।
ततः प्रतिष्ठितो धर्मो भविष्यति पुनस्तव ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आर्य! मुझे त्याग करके आप दूसरी स्त्री भी प्राप्त कर सकते हैं। उससे आपका गृहस्थ-धर्म पुनः प्रतिष्ठित हो जायगा॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न चाप्यधर्मः कल्याण बहुपत्नीकृतां नृणाम्।
स्त्रीणामधर्मः सुमहान् भर्तुः पूर्वस्य लङ्घने ॥ ३६ ॥
मूलम्
न चाप्यधर्मः कल्याण बहुपत्नीकृतां नृणाम्।
स्त्रीणामधर्मः सुमहान् भर्तुः पूर्वस्य लङ्घने ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कल्याणस्वरूप हृदयेश्वर! बहुत-सी स्त्रियोंसे विवाह करनेवाले पुरुषोंको भी पाप नहीं लगता। परंतु स्त्रियोंको अपने पूर्वपतिका उल्लंघन करनेपर बड़ा भारी पाप लगता है॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतत् सर्वं समीक्ष्य त्वमात्मत्यागं च गर्हितम्।
आत्मानं तारयाद्याशु कुलं चेमौ च दारकौ ॥ ३७ ॥
मूलम्
एतत् सर्वं समीक्ष्य त्वमात्मत्यागं च गर्हितम्।
आत्मानं तारयाद्याशु कुलं चेमौ च दारकौ ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन सब बातोंको विचार करके और अपने देहके त्यागको निन्दित कर्म मानकर आप अब शीघ्र ही अपनेको, अपने कुलको और इन दोनों बच्चोंको भी संकटसे बचा लीजिये॥३७॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्तस्तया भर्ता तां समालिङ्ग्य भारत।
मुमोच बाष्पं शनकैः सभार्यो भृशदुःखितः ॥ ३८ ॥
मूलम्
एवमुक्तस्तया भर्ता तां समालिङ्ग्य भारत।
मुमोच बाष्पं शनकैः सभार्यो भृशदुःखितः ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— भारत! ब्राह्मणीके यों कहनेपर उसके पति ब्राह्मणदेवता अत्यन्त दुःखी हो उसे हृदयसे लगाकर उसके साथ ही धीरे-धीरे आँसू बहाने लगे॥३८॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि बकवधपर्वणि ब्राह्मणीवाक्ये सप्तपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १५७ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत बकवधपर्वमें ब्राह्मणीवाक्यविषयक एक सौ सत्तावनवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१५७॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका १ श्लोक मिलाकर कुल ३९ श्लोक हैं)