श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना
(बकवधपर्व)
षट्पञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
ब्राह्मणपरिवारका कष्ट दूर करनेके लिये कुन्तीकी भीमसेनसे बातचीत तथा ब्राह्मणके चिन्तापूर्ण उद्गार
मूलम् (वचनम्)
जनमेजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकचक्रां गतास्ते तु कुन्तीपुत्रा महारथाः।
अत ऊर्ध्वं द्विजश्रेष्ठ किमकुर्वत पाण्डवाः ॥ १ ॥
मूलम्
एकचक्रां गतास्ते तु कुन्तीपुत्रा महारथाः।
अत ऊर्ध्वं द्विजश्रेष्ठ किमकुर्वत पाण्डवाः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जनमेजयने पूछा— द्विजश्रेष्ठ! कुन्तीके महारथी पुत्र पाण्डव जब एकचक्रा नगरीमें पहुँच गये, उसके बाद उन्होंने क्या किया?॥१॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकचक्रां गतास्ते तु कुन्तीपुत्रा महारथाः।
ऊषुर्नातिचिरं कालं ब्राह्मणस्य निवेशने ॥ २ ॥
मूलम्
एकचक्रां गतास्ते तु कुन्तीपुत्रा महारथाः।
ऊषुर्नातिचिरं कालं ब्राह्मणस्य निवेशने ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजीने कहा— राजन्! एकचक्रा नगरीमें जाकर महारथी कुन्तीपुत्र थोड़े दिनोंतक एक ब्राह्मणके घरमें रहे॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रमणीयानि पश्यन्तो वनानि विविधानि च।
पार्थिवानपि चोद्देशान् सरितश्च सरांसि च ॥ ३ ॥
चेरुर्भैक्षं तदा ते तु सर्व एव विशाम्पते।
बभूवुर्नागराणां च स्वैर्गुणैः प्रियदर्शनाः ॥ ४ ॥
मूलम्
रमणीयानि पश्यन्तो वनानि विविधानि च।
पार्थिवानपि चोद्देशान् सरितश्च सरांसि च ॥ ३ ॥
चेरुर्भैक्षं तदा ते तु सर्व एव विशाम्पते।
बभूवुर्नागराणां च स्वैर्गुणैः प्रियदर्शनाः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जनमेजय! उस समय वे सभी पाण्डव भाँति-भाँतिके रमणीय वनों, सुन्दर भूभागों, सरिताओं और सरोवरोंका दर्शन करते हुए भिक्षाके द्वारा जीवन-निर्वाह करते थे। अपने उत्तम गुणोंके कारण वे सभी नागरिकोंके प्रीति-पात्र हो गये थे॥३-४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(दर्शनीया द्विजाः शुद्धा देवगर्भोपमाः शुभाः।
भैक्षानर्हाश्च राज्यार्हाः सुकुमारास्तपस्विनः ॥
सर्वलक्षणसम्पन्ना भैक्षं नार्हन्ति नित्यशः।
कार्यार्थिनश्चरन्तीति तर्कयन्त इति ब्रुवन्॥
बन्धूनामागमान्नित्यमुपचिन्त्य तु नागराः ।
भाजनानि च पूर्णानि भक्ष्यभोज्यैरकारयन्॥
मौनव्रतेन संयुक्ता भैक्षं गृह्णन्ति पाण्डवाः।
माता चिरगतान् दृष्ट्वा शोचन्तीति च पाण्डवाः।
त्वरमाणा निवर्तन्ते मातृगौरवयन्त्रिताः ॥)
मूलम्
(दर्शनीया द्विजाः शुद्धा देवगर्भोपमाः शुभाः।
भैक्षानर्हाश्च राज्यार्हाः सुकुमारास्तपस्विनः ॥
सर्वलक्षणसम्पन्ना भैक्षं नार्हन्ति नित्यशः।
कार्यार्थिनश्चरन्तीति तर्कयन्त इति ब्रुवन्॥
बन्धूनामागमान्नित्यमुपचिन्त्य तु नागराः ।
भाजनानि च पूर्णानि भक्ष्यभोज्यैरकारयन्॥
मौनव्रतेन संयुक्ता भैक्षं गृह्णन्ति पाण्डवाः।
माता चिरगतान् दृष्ट्वा शोचन्तीति च पाण्डवाः।
त्वरमाणा निवर्तन्ते मातृगौरवयन्त्रिताः ॥)
अनुवाद (हिन्दी)
उन्हें देखकर नगरनिवासी आपसमें तर्क-वितर्क करते हुए इस प्रकारकी बातें करते थे—‘ये ब्राह्मणलोग तो देखने ही योग्य हैं। इनके आचार-विचार शुद्ध एवं सुन्दर हैं। इनकी आकृति देवकुमारोंके समान जान पड़ती है। ये भीख माँगनेयोग्य नहीं, राज्य करनेके योग्य हैं। सुकुमार होते हुए भी तपस्यामें लगे हैं। इनमें सब प्रकारके शुभ लक्षण शोभा पाते हैं। ये कदापि भिक्षा ग्रहण करनेयोग्य नहीं हैं। शायद किसी कार्यवश भिक्षुकोंके वेशमें विचर रहे हैं।’ वे नागरिक पाण्डवोंके आगमनको अपने बन्धुजनोंका ही आगमन मानकर उनके लिये भक्ष्य-भोज्य पदार्थोंसे भरे हुए पात्र तैयार रखते थे और मौनव्रतका पालन करनेवाले पाण्डव उनसे वह भिक्षा ग्रहण करते थे। हमें आये हुए बहुत देर हो गयी, इसलिये माताजी चिन्तामें पड़ी होंगी—यह सोचकर माताके गौरव-पाशमें बँधे हुए पाण्डव बड़ी उतावलीके साथ उनके पास लौट आते थे।
विश्वास-प्रस्तुतिः
निवेदयन्ति स्म तदा कुन्त्या भैक्षं सदा निशि।
तया विभक्तान् भागांस्ते भुञ्जते स्म पृथक् पृथक् ॥ ५ ॥
मूलम्
निवेदयन्ति स्म तदा कुन्त्या भैक्षं सदा निशि।
तया विभक्तान् भागांस्ते भुञ्जते स्म पृथक् पृथक् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रतिदिन रात्रिके आरम्भमें भिक्षा लाकर वे माता कुन्तीको सौंप देते और वे बाँटकर जिसके लिये जितना हिस्सा देतीं, उतना ही पृथक्-पृथक् लेकर पाण्डवलोग भोजन करते थे॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अर्धं ते भुञ्जते वीराः सह मात्रा परंतपाः।
अर्धं सर्वस्य भैक्षस्य भीमो भुङ्क्ते महाबलः ॥ ६ ॥
मूलम्
अर्धं ते भुञ्जते वीराः सह मात्रा परंतपाः।
अर्धं सर्वस्य भैक्षस्य भीमो भुङ्क्ते महाबलः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे चारों वीर परंतप पाण्डव अपनी माताके साथ आधी भिक्षाका उपयोग करते थे और सम्पूर्ण भिक्षाका आधा भाग अकेले महाबली भीमसेन खाते थे॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा तु तेषां वसतां तस्मिन् राष्ट्रे महात्मनाम्।
अतिचक्राम सुमहान् कालोऽथ भरतर्षभ ॥ ७ ॥
मूलम्
तथा तु तेषां वसतां तस्मिन् राष्ट्रे महात्मनाम्।
अतिचक्राम सुमहान् कालोऽथ भरतर्षभ ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतवंशशिरोमणे! इस प्रकार उस राष्ट्रमें निवास करते हुए महात्मा पाण्डवोंका बहुत समय बीत गया॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः कदाचित् भैक्षाय गतास्ते पुरुषर्षभाः।
संगत्या भीमसेनस्तु तत्रास्ते पृथया सह ॥ ८ ॥
मूलम्
ततः कदाचित् भैक्षाय गतास्ते पुरुषर्षभाः।
संगत्या भीमसेनस्तु तत्रास्ते पृथया सह ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर एक दिन नरश्रेष्ठ युधिष्ठिर आदि चार भाई भिक्षाके लिये गये; किंतु भीमसेन किसी कार्यविशेषके सम्बन्धसे कुन्तीके साथ वहाँ घरपर ही रह गये थे॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथार्तिजं महाशब्दं ब्राह्मणस्य निवेशने।
भृशमुत्पतितं घोरं कुन्ती शुश्राव भारत ॥ ९ ॥
मूलम्
अथार्तिजं महाशब्दं ब्राह्मणस्य निवेशने।
भृशमुत्पतितं घोरं कुन्ती शुश्राव भारत ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! उस दिन ब्राह्मणके घरमें सहसा बड़े जोरका भयानक आर्तनाद होने लगा, जिसे कुन्तीने सुना॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रोरूयमाणांस्तान् दृष्ट्वा परिदेवयतश्च सा।
कारुण्यात् साधुभावाच्च कुन्ती राजन् न चक्षमे ॥ १० ॥
मूलम्
रोरूयमाणांस्तान् दृष्ट्वा परिदेवयतश्च सा।
कारुण्यात् साधुभावाच्च कुन्ती राजन् न चक्षमे ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! उन ब्राह्मण-परिवारके लोगोंको बहुत रोते और विलाप करते देख कुन्तीदेवी अत्यन्त दयालुता तथा साधु-स्वभावके कारण सहन न कर सकीं॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मथ्यमानेन दुःखेन हृदयेन पृथा तदा।
उवाच भीमं कल्याणी कृपान्वितमिदं वचः ॥ ११ ॥
वसाम सुसुखं पुत्र ब्राह्मणस्य निवेशने।
अज्ञाता धार्तराष्ट्रस्य सत्कृता वीतमन्यवः ॥ १२ ॥
मूलम्
मथ्यमानेन दुःखेन हृदयेन पृथा तदा।
उवाच भीमं कल्याणी कृपान्वितमिदं वचः ॥ ११ ॥
वसाम सुसुखं पुत्र ब्राह्मणस्य निवेशने।
अज्ञाता धार्तराष्ट्रस्य सत्कृता वीतमन्यवः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय उनका दुःख मानो कुन्तीदेवीके हृदयको मथे डालता था। अतः कल्याणमयी कुन्ती भीमसेनसे इस प्रकार करुणायुक्त वचन बोलीं—‘बेटा! हमलोग इस ब्राह्मणके घरमें दुर्योधनसे अज्ञात रहकर बड़े सुखसे निवास करते हैं। यहाँ हमारा इतना सत्कार हुआ है कि हम अपने दुःख और दैन्यको भूल गये हैं॥११-१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा चिन्तये सदा पुत्र ब्राह्मणस्यास्य किं न्वहम्।
प्रियं कुर्यामिति गृहे यत् कुर्युरुषिताः सुखम् ॥ १३ ॥
मूलम्
सा चिन्तये सदा पुत्र ब्राह्मणस्यास्य किं न्वहम्।
प्रियं कुर्यामिति गृहे यत् कुर्युरुषिताः सुखम् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इसलिये पुत्र! मैं सदा यही सोचती रहती हूँ कि इस ब्राह्मणका मैं कौन-सा प्रिय कार्य करूँ, जिसे किसीके घरमें सुखपूर्वक रहनेवाले लोग किया करते हैं॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतावान् पुरुषस्तात कृतं यस्मिन् न नश्यति।
यावच्च कुर्यादन्योऽस्य कुर्यादभ्यधिकं ततः ॥ १४ ॥
मूलम्
एतावान् पुरुषस्तात कृतं यस्मिन् न नश्यति।
यावच्च कुर्यादन्योऽस्य कुर्यादभ्यधिकं ततः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तात! जिसके प्रति किया हुआ उपकार उसका बदला चुकाये बिना नष्ट नहीं होता, वही पुरुष है (और इतना ही उसका पौरुष—मानवता है कि) दूसरा मनुष्य उसके प्रति जितना उपकार करे, वह उससे भी अधिक उस मनुष्यका प्रत्युपकार कर दे॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदिदं ब्राह्मणस्यास्य दुःखमापतितं ध्रुवम्।
तत्रास्य यदि साहाय्यं कुर्यामुपकृतं भवेत् ॥ १५ ॥
मूलम्
तदिदं ब्राह्मणस्यास्य दुःखमापतितं ध्रुवम्।
तत्रास्य यदि साहाय्यं कुर्यामुपकृतं भवेत् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इस समय निश्चय ही इस ब्राह्मणपर कोई भारी दुःख आ पड़ा है। यदि उसमें मैं इसकी सहायता करूँ तो वास्तविक उपकार हो सकता है’॥१५॥
मूलम् (वचनम्)
भीमसेन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ज्ञायतामस्य यद् दुःखं यतश्चैव समुत्थितम्।
विदित्वा व्यवसिष्यामि यद्यपि स्यात् सुदुष्करम् ॥ १६ ॥
मूलम्
ज्ञायतामस्य यद् दुःखं यतश्चैव समुत्थितम्।
विदित्वा व्यवसिष्यामि यद्यपि स्यात् सुदुष्करम् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीमसेन बोले— माँ! पहले यह मालूम करो कि इस ब्राह्मणको क्या दुःख है और वह किस कारणसे प्राप्त हुआ है। जान लेनेपर अत्यन्त दुष्कर होगा, तो भी मैं इसका कष्ट दूर करनेके लिये उद्योग करूँगा॥१६॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं तौ कथयन्तौ च भूयः शुश्रुवतुः स्वनम्।
आर्तिजं तस्य विप्रस्य सभार्यस्य विशाम्पते ॥ १७ ॥
मूलम्
एवं तौ कथयन्तौ च भूयः शुश्रुवतुः स्वनम्।
आर्तिजं तस्य विप्रस्य सभार्यस्य विशाम्पते ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! वे माँ-बेटे इस प्रकार बात कर ही रहे थे कि पुनः पत्नीसहित ब्राह्मणका आर्तनाद उनके कानोंमें पड़ा॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्तःपुरं ततस्तस्य ब्राह्मणस्य महात्मनः।
विवेश त्वरिता कुन्ती बद्धवत्सेव सौरभी ॥ १८ ॥
मूलम्
अन्तःपुरं ततस्तस्य ब्राह्मणस्य महात्मनः।
विवेश त्वरिता कुन्ती बद्धवत्सेव सौरभी ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब कुन्तीदेवी तुरंत ही उस महात्मा ब्राह्मणके अन्तःपुरमें घुस गयीं—ठीक उसी तरह जैसे घरके भीतर बँधे हुए बछड़ेवाली गाय स्वयं ही उसके पास पहुँच जाती है॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तं ब्राह्मणं तत्र भार्यया च सुतेन च।
दुहित्रा चैव सहितं ददर्शावनताननम् ॥ १९ ॥
मूलम्
ततस्तं ब्राह्मणं तत्र भार्यया च सुतेन च।
दुहित्रा चैव सहितं ददर्शावनताननम् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीतर जाकर कुन्तीने ब्राह्मणको वहाँ पत्नी, पुत्र और कन्याके साथ नीचे मुँह किये बैठे देखा॥१९॥
मूलम् (वचनम्)
ब्राह्मण उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
धिगिदं जीवितं लोके गतसारमनर्थकम्।
दुःखमूलं पराधीनं भृशमप्रियभागि च ॥ २० ॥
मूलम्
धिगिदं जीवितं लोके गतसारमनर्थकम्।
दुःखमूलं पराधीनं भृशमप्रियभागि च ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मणदेवता कह रहे थे— जगत्के इस जीवनको धिक्कार है; क्योंकि यह सारहीन, निरर्थक, दुःखकी जड़, पराधीन और अत्यन्त अप्रियका भागी है॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जीविते परमं दुःखं जीविते परमो ज्वरः।
जीविते वर्तमानस्य दुःखानामागमो ध्रुवः ॥ २१ ॥
मूलम्
जीविते परमं दुःखं जीविते परमो ज्वरः।
जीविते वर्तमानस्य दुःखानामागमो ध्रुवः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जीनेमें महान् दुःख है। जीवनकालमें बड़ी भारी चिन्ताका सामना करना पड़ता है। जिसने जीवन धारण कर रखा है, उसे दुःखोंकी प्राप्ति अवश्य होती है॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आत्मा ह्येको हि धर्मार्थौ कामं चैव निषेवते।
एतैश्च विप्रयोगोऽपि दुःखं परमनन्तकम् ॥ २२ ॥
मूलम्
आत्मा ह्येको हि धर्मार्थौ कामं चैव निषेवते।
एतैश्च विप्रयोगोऽपि दुःखं परमनन्तकम् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जीवात्मा अकेला ही धर्म, अर्थ और कामका सेवन करता है। इनका वियोग होना भी उसके लिये महान् और अनन्त दुःखका कारण होता है॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आहुः केचित् परं मोक्षं स च नास्ति कथंचन।
अर्थप्राप्तौ तु नरकः कृत्स्न एवोपपद्यते ॥ २३ ॥
मूलम्
आहुः केचित् परं मोक्षं स च नास्ति कथंचन।
अर्थप्राप्तौ तु नरकः कृत्स्न एवोपपद्यते ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुछ लोग चारों पुरुषार्थोंमें मोक्षको ही सर्वोत्तम बतलाते हैं, किंतु वह भी मेरे लिये किसी प्रकार सुलभ नहीं है। अर्थकी प्राप्ति होनेपर तो नरकका सम्पूर्ण दुःख भोगना ही पड़ता है॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अर्थेप्सुता परं दुःखमर्थप्राप्तौ ततोऽधिकम्।
जातस्नेहस्य चार्थेषु विप्रयोगे महत्तरम् ॥ २४ ॥
मूलम्
अर्थेप्सुता परं दुःखमर्थप्राप्तौ ततोऽधिकम्।
जातस्नेहस्य चार्थेषु विप्रयोगे महत्तरम् ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धनकी इच्छा सबसे बड़ा दुःख है, किंतु धन प्राप्त करनेमें तो और भी अधिक दुःख है और जिसकी धनमें आसक्ति हो गयी है1, उसे उस धनका वियोग होनेपर इतना महान् दुःख होता है, जिसकी कोई सीमा नहीं है॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न हि योगं प्रपश्यामि येन मुच्येयमापदः।
पुत्रदारेण वा सार्धं प्राद्रवेयमनामयम् ॥ २५ ॥
मूलम्
न हि योगं प्रपश्यामि येन मुच्येयमापदः।
पुत्रदारेण वा सार्धं प्राद्रवेयमनामयम् ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुझे ऐसा कोई उपाय नहीं दिखायी देता, जिससे इस विपत्तिसे छुटकारा पा सकूँ अथवा पुत्र और स्त्रीके साथ किसी निरापद स्थानमें भाग चलूँ॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यतितं वै मया पूर्वं वेत्थ ब्राह्मणि तत् तथा।
क्षेमं यतस्ततो गन्तुं त्वया तु मम न श्रुतम्॥२६॥
मूलम्
यतितं वै मया पूर्वं वेत्थ ब्राह्मणि तत् तथा।
क्षेमं यतस्ततो गन्तुं त्वया तु मम न श्रुतम्॥२६॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मणी! तुम इस बातको ठीक-ठीक जानती हो कि पहले तुम्हारे साथ किसी ऐसे स्थानमें चलनेके लिये जहाँ सब प्रकारसे अपना भला हो, मैंने प्रयत्न किया था; परंतु उस समय तुमने मेरी बात नहीं सुनी॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इह जाता विवृद्धास्मि पिता चापि ममेति वै।
उक्तवत्यसि दुर्मेधे याच्यमाना मयासकृत् ॥ २७ ॥
मूलम्
इह जाता विवृद्धास्मि पिता चापि ममेति वै।
उक्तवत्यसि दुर्मेधे याच्यमाना मयासकृत् ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मूढमते! मैं बार-बार तुमसे अन्यत्र चलनेके लिये अनुरोध करता। उस समय तुम कहने लगती थीं—‘यहीं मेरा जन्म हुआ, यहीं बड़ी हुई तथा मेरे पिता भी यहीं रहते थे’॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वर्गतोऽपि पिता वृद्धस्तथा माता चिरं तव।
बान्धवा भूतपूर्वाश्च तत्र वासे तु का रतिः ॥ २८ ॥
मूलम्
स्वर्गतोऽपि पिता वृद्धस्तथा माता चिरं तव।
बान्धवा भूतपूर्वाश्च तत्र वासे तु का रतिः ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अरी! तुम्हारे बूढ़े माता-पिता और पहलेके भाई-बन्धु जिसे छोड़कर बहुत दिन हुए स्वर्गलोकको चले गये, वहीं निवास करनेके लिये यह आसक्ति कैसी?॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽयं ते बन्धुकामाया अशृण्वत्या वचो मम।
बन्धुप्रणाशः सम्प्राप्तो भृशं दुःखकरो मम ॥ २९ ॥
मूलम्
सोऽयं ते बन्धुकामाया अशृण्वत्या वचो मम।
बन्धुप्रणाशः सम्प्राप्तो भृशं दुःखकरो मम ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुमने बंधु-बान्धवोंके साथ रहनेकी इच्छा रखकर जो मेरी बात नहीं सुनी, उसीका यह फल है कि आज समस्त भाई-बंधुओंके विनाशकी घड़ी आ पहुँची है, जो मेरे लिये अत्यन्त दुःखका कारण है॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथवा मद्विनाशोऽयं न हि शक्ष्यामि कंचन।
परित्यक्तुमहं बन्धुं स्वयं जीवन् नृशंसवत् ॥ ३० ॥
मूलम्
अथवा मद्विनाशोऽयं न हि शक्ष्यामि कंचन।
परित्यक्तुमहं बन्धुं स्वयं जीवन् नृशंसवत् ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अथवा यह मेरे ही विनाशका समय है; क्योंकि मैं स्वयं जीवित रहकर क्रूर मनुष्यकी भाँति दूसरे किसी भाई-बंधुका त्याग नहीं कर सकूँगा॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सहधर्मचरीं दान्तां नित्यं मातृसमां मम।
सखायं विहितां देवैर्नित्यं परमिकां गतिम् ॥ ३१ ॥
मूलम्
सहधर्मचरीं दान्तां नित्यं मातृसमां मम।
सखायं विहितां देवैर्नित्यं परमिकां गतिम् ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रिये! तुम मेरी सहधर्मिणी और इन्द्रियोंको संयममें रखनेवाली हो। सदा सावधान रहकर माताके समान मेरा पालन-पोषण करती हो। देवताओंने तुम्हें मेरी सखी (सहायिका) बनाया है। तुम सदा मेरी परम गति (सबसे बड़ा सहारा) हो॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पित्रा मात्रा च विहितां सदा गार्हस्थ्यभागिनीम्।
वरयित्वा यथान्यायं मन्त्रवत् परिणीय च ॥ ३२ ॥
मूलम्
पित्रा मात्रा च विहितां सदा गार्हस्थ्यभागिनीम्।
वरयित्वा यथान्यायं मन्त्रवत् परिणीय च ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम्हारे पिता-माताने तुम्हें सदाके लिये मेरे गृहस्थाश्रमकी अधिकारिणी बनाया है। मैंने विधिपूर्वक तुम्हारा वरण करके मन्त्रोच्चारणपूर्वक तुम्हारे साथ विवाह किया है॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुलीनां शीलसम्पन्नामपत्यजननीमपि ।
त्वामहं जीवितस्यार्थे साध्वीमनपकारिणीम् ॥ ३३ ॥
परित्यक्तुं न शक्ष्यामि भार्यां नित्यमनुव्रताम्।
कुत एव परित्यक्तुं सुतं शक्ष्याम्यहं स्वयम् ॥ ३४ ॥
बालमप्राप्तवयसमजातव्यञ्जनाकृतिम् ।
भर्तुरर्थाय निक्षिप्तां न्यासं धात्रा महात्मना ॥ ३५ ॥
यया दौहित्रजाल्ँलोकानाशंसे पितृभिः सह।
स्वयमुत्पाद्य तां बालां कथमुत्स्रष्टुमुत्सहे ॥ ३६ ॥
मूलम्
कुलीनां शीलसम्पन्नामपत्यजननीमपि ।
त्वामहं जीवितस्यार्थे साध्वीमनपकारिणीम् ॥ ३३ ॥
परित्यक्तुं न शक्ष्यामि भार्यां नित्यमनुव्रताम्।
कुत एव परित्यक्तुं सुतं शक्ष्याम्यहं स्वयम् ॥ ३४ ॥
बालमप्राप्तवयसमजातव्यञ्जनाकृतिम् ।
भर्तुरर्थाय निक्षिप्तां न्यासं धात्रा महात्मना ॥ ३५ ॥
यया दौहित्रजाल्ँलोकानाशंसे पितृभिः सह।
स्वयमुत्पाद्य तां बालां कथमुत्स्रष्टुमुत्सहे ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम कुलीन, सुशीला और संतानवती हो, सती-साध्वी हो। तुमने कभी मेरा अपकार नहीं किया है। तुम नित्य मेरे अनुकूल चलनेवाली धर्मपत्नी हो। अतः मैं अपने जीवनकी रक्षाके लिये तुम्हें नहीं त्याग सकूँगा। फिर स्वयं ही अपने उस पुत्रका त्याग तो कैसे कर सकूँगा, जो अभी निरा बच्चा है, जिसने युवावस्थामें प्रवेश नहीं किया है तथा जिसके शरीरमें अभी जवानीके लक्षणतक नहीं प्रकट हुए हैं। साथ ही अपनी इस कन्याको कैसे त्याग दूँ, जिसे महात्मा ब्रह्माजीने उसके भावी पतिके लिये धरोहरके रूपमें मेरे यहाँ रख छोड़ा है? जिसके होनेसे मैं पितरोंके साथ दौहित्रजनित पुण्यलोकोंको पानेकी आशा रखता हूँ, उसी अपनी बालिकाको स्वयं ही जन्म देकर मैं मौतके मुखमें कैसे छोड़ सकता हूँ?॥३३-३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन्यन्ते केचिदधिकं स्नेहं पुत्रे पितुर्नराः।
कन्यायां केचिदपरे मम तुल्यावुभौ स्मृतौ ॥ ३७ ॥
मूलम्
मन्यन्ते केचिदधिकं स्नेहं पुत्रे पितुर्नराः।
कन्यायां केचिदपरे मम तुल्यावुभौ स्मृतौ ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि पिताका अधिक स्नेह पुत्रपर होता है तथा कुछ दूसरे लोग पुत्रीपर ही अधिक स्नेह बताते हैं; किंतु मेरे लिये तो दोनों ही समान हैं॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्यां लोकाः प्रसूतिश्च स्थिता नित्यमथो सुखम्।
अपापां तामहं बालां कथमुत्स्रष्टुमुत्सहे ॥ ३८ ॥
मूलम्
यस्यां लोकाः प्रसूतिश्च स्थिता नित्यमथो सुखम्।
अपापां तामहं बालां कथमुत्स्रष्टुमुत्सहे ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसपर पुण्यलोक, वंशपरम्परा और नित्य सुख—सब कुछ सदा निर्भर रहते हैं, उस निष्पाप बालिकाका परित्याग मैं कैसे कर सकता हूँ॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आत्मानमपि चोत्सृज्य तप्स्यामि परलोकगः।
त्यक्ता ह्येते मया व्यक्तं नेह शक्ष्यन्ति जीवितुम् ॥ ३९ ॥
मूलम्
आत्मानमपि चोत्सृज्य तप्स्यामि परलोकगः।
त्यक्ता ह्येते मया व्यक्तं नेह शक्ष्यन्ति जीवितुम् ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपनेको भी त्यागकर परलोकमें जानेपर मैं सदा इस बातके लिये संतप्त होता रहूँगा कि मेरे द्वारा त्यागे हुए ये बच्चे अवश्य ही यहाँ जीवित नहीं रह सकेंगे॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एषां चान्यतमत्यागो नृशंसो गर्हितो बुधैः।
आत्मत्यागे कृते चेमे मरिष्यन्ति मया विना ॥ ४० ॥
मूलम्
एषां चान्यतमत्यागो नृशंसो गर्हितो बुधैः।
आत्मत्यागे कृते चेमे मरिष्यन्ति मया विना ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इनमेंसे किसीका भी त्याग विद्वानोंने निर्दयतापूर्ण तथा निन्दनीय बताया है और मेरे मर जानेपर ये सभी मेरे बिना मर जायँगे॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स कृच्छ्रामहमापन्नो न शक्तस्तर्तुमापदम्।
अहो धिक् कां गतिं त्वद्य गमिष्यामि सबान्धवः।
सर्वैः सह मृतं श्रेयो न च मे जीवितं क्षमम्॥४१॥
मूलम्
स कृच्छ्रामहमापन्नो न शक्तस्तर्तुमापदम्।
अहो धिक् कां गतिं त्वद्य गमिष्यामि सबान्धवः।
सर्वैः सह मृतं श्रेयो न च मे जीवितं क्षमम्॥४१॥
अनुवाद (हिन्दी)
अहो! मैं बड़ी कठिन विपत्तिमें फँस गया हूँ। इससे पार होनेकी मुझमें शक्ति नहीं है। धिक्कार है इस जीवनको। हाय! मैं बन्धु-बान्धवोंके साथ आज किस गतिको प्राप्त होऊँगा? सबके साथ मर जाना ही अच्छा है। मेरा जीवित रहना कदापि उचित नहीं है॥४१॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि बकवधपर्वणि ब्राह्मणचिन्तायां षट्पञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १५६ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत बकवधपर्वमें ब्राह्मणकी चिन्ताविषयक एक सौ छप्पनवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१५६॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ४ श्लोक मिलाकर कुल ४५ श्लोक हैं)
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यावन्तो यस्य संयोगा द्रव्यैरिष्टैर्भवन्त्युत। तावन्तोऽस्य निखन्यन्ते हृदये शोकशङ्कवः॥ ↩︎