श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना
चतुष्पञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
युधिष्ठिरका भीमसेनको हिडिम्बाके वधसे रोकना, हिडिम्बाकी भीमसेनके लिये प्रार्थना, भीमसेन और हिडिम्बाका मिलन तथा घटोत्कचकी उत्पत्ति
मूलम् (वचनम्)
(वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा तानेवापतत् तूर्णं भगिनी तस्य रक्षसः।
अब्रुवाणा हिडिम्बा तु राक्षसी पाण्डवान् प्रति॥
अभिवाद्य ततः कुन्तीं धर्मराजं च पाण्डवम्।
अभिपूज्य च तान् सर्वान् भीमसेनमभाषत॥
मूलम्
सा तानेवापतत् तूर्णं भगिनी तस्य रक्षसः।
अब्रुवाणा हिडिम्बा तु राक्षसी पाण्डवान् प्रति॥
अभिवाद्य ततः कुन्तीं धर्मराजं च पाण्डवम्।
अभिपूज्य च तान् सर्वान् भीमसेनमभाषत॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! हिडिम्बा-सुरकी बहिन राक्षसी हिडिम्बा बिना कुछ कहे-सुने तुरंत पाण्डवोंके ही पास आयी और फिर माता कुन्ती तथा पाण्डुनन्दन धर्मराज युधिष्ठिरको प्रणाम करके उन सबके प्रति समादरका भाव प्रकट करती हुई भीमसेनसे बोली।
मूलम् (वचनम्)
हिडिम्बोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं ते दर्शनादेव मन्मथस्य वशं गता।
क्रूरं भ्रातृवचो हित्वा सा त्वामेवानुरुन्धती॥
राक्षसे रौद्रसंकाशे तवापश्यं विचेष्टितम्।
अहं शुश्रूषुरिच्छेयं तव गात्रं निषेवितुम्॥)
मूलम्
अहं ते दर्शनादेव मन्मथस्य वशं गता।
क्रूरं भ्रातृवचो हित्वा सा त्वामेवानुरुन्धती॥
राक्षसे रौद्रसंकाशे तवापश्यं विचेष्टितम्।
अहं शुश्रूषुरिच्छेयं तव गात्रं निषेवितुम्॥)
अनुवाद (हिन्दी)
हिडिम्बाने कहा— (आर्यपुत्र!) आपके दर्शनमात्रसे मैं कामदेवके अधीन हो गयी और अपने भाईके क्रूरतापूर्ण वचनोंकी अवहेलना करके आपका ही अनुसरण करने लगी। उस भयंकर आकृतिवाले राक्षसपर आपने जो पराक्रम प्रकट किया है, उसे मैंने अपनी आँखों देखा है; अतः मैं सेविका आपके शरीरकी सेवा करना चाहती हूँ।
मूलम् (वचनम्)
भीमसेन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्मरन्ति वैरं रक्षांसि मायामाश्रित्य मोहिनीम्।
हिडिम्बे व्रज पन्थानं त्वमिमं भ्रातृसेवितम् ॥ १ ॥
मूलम्
स्मरन्ति वैरं रक्षांसि मायामाश्रित्य मोहिनीम्।
हिडिम्बे व्रज पन्थानं त्वमिमं भ्रातृसेवितम् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीमसेन बोले— हिडिम्बे! राक्षस मोहिनी मायाका आश्रय लेकर बहुत दिनोंतक वैरका स्मरण रखते हैं, अतः तू भी अपने भाईके ही मार्गपर चली जा॥१॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रुद्धोऽपि पुरुषव्याघ्र भीम मा स्म स्त्रियं वधीः।
शरीरगुप्त्यभ्यधिकं धर्मं गोपाय पाण्डव ॥ २ ॥
मूलम्
क्रुद्धोऽपि पुरुषव्याघ्र भीम मा स्म स्त्रियं वधीः।
शरीरगुप्त्यभ्यधिकं धर्मं गोपाय पाण्डव ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह सुनकर युधिष्ठिरने कहा— पुरुषसिंह भीम! यद्यपि तुम क्रोधसे भरे हुए हो, तो भी स्त्रीका वध न करो। पाण्डुनन्दन! शरीरकी रक्षाकी अपेक्षा भी अधिक तत्परतासे धर्मकी रक्षा करो॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वधाभिप्रायमायान्तमवधीस्त्वं महाबलम् ।
रक्षसस्तस्य भगिनी किं नः क्रुद्धा करिष्यति ॥ ३ ॥
मूलम्
वधाभिप्रायमायान्तमवधीस्त्वं महाबलम् ।
रक्षसस्तस्य भगिनी किं नः क्रुद्धा करिष्यति ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाबली हिडिम्ब हमलोगोंको मारनेके अभिप्रायसे आ रहा था। अतः तुमने जो उसका वध किया, वह उचित ही है। उस राक्षसकी बहिन हिडिम्बा यदि क्रोध भी करे तो हमारा क्या कर लेगी?॥३॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
हिडिम्बा तु ततः कुन्तीमभिवाद्य कृताञ्जलिः।
युधिष्ठिरं तु कौन्तेयमिदं वचनमब्रवीत् ॥ ४ ॥
मूलम्
हिडिम्बा तु ततः कुन्तीमभिवाद्य कृताञ्जलिः।
युधिष्ठिरं तु कौन्तेयमिदं वचनमब्रवीत् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! तदनन्तर हिडिम्बाने हाथ जोड़कर कुन्तीदेवी तथा उनके पुत्र युधिष्ठिरको प्रणाम करके इस प्रकार कहा—॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आर्ये जानासि यद् दुःखमिह स्त्रीणामनङ्गजम्।
तदिदं मामनुप्राप्तं भीमसेनकृतं शुभे ॥ ५ ॥
मूलम्
आर्ये जानासि यद् दुःखमिह स्त्रीणामनङ्गजम्।
तदिदं मामनुप्राप्तं भीमसेनकृतं शुभे ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आर्ये! स्त्रियोंको इस जगत्में जो कामजनित पीड़ा होती है, उसे आप जानती ही हैं। शुभे! आपके पुत्र भीमसेनकी ओरसे मुझे वही कामदेवजनित कष्ट प्राप्त हुआ है॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोढं तत् परमं दुःखं मया कालप्रतीक्षया।
सोऽयमभ्यागतः कालो भविता मे सुखोदयः ॥ ६ ॥
मूलम्
सोढं तत् परमं दुःखं मया कालप्रतीक्षया।
सोऽयमभ्यागतः कालो भविता मे सुखोदयः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैंने समयकी प्रतीक्षामें उस महान् दुःखको सहन किया है। अब वह समय आ गया है। आशा है, मुझे अभीष्ट सुखकी प्राप्ति होगी॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मया ह्युत्सृज्य सुहृदः स्वधर्मं स्वजनं तथा।
वृतोऽयं पुरुषव्याघ्रस्तव पुत्रः पतिः शुभे ॥ ७ ॥
मूलम्
मया ह्युत्सृज्य सुहृदः स्वधर्मं स्वजनं तथा।
वृतोऽयं पुरुषव्याघ्रस्तव पुत्रः पतिः शुभे ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘शुभे! मैंने अपने हितैषी सुहृदों, स्वजनों तथा स्वधर्मका परित्याग करके आपके पुत्र पुरुषसिंह भीमसेनको अपना पति चुना है॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वीरेणाहं तथानेन त्वया चापि यशस्विनि।
प्रत्याख्याता न जीवामि सत्यमेतद् ब्रवीमि ते ॥ ८ ॥
मूलम्
वीरेणाहं तथानेन त्वया चापि यशस्विनि।
प्रत्याख्याता न जीवामि सत्यमेतद् ब्रवीमि ते ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यशस्विनि! यदि ये वीरवर भीमसेन या आप मेरी इस प्रार्थनाको ठुकरा देंगी तो मैं जीवित नहीं रह सकूँगी। यह मैं आपसे सत्य कहती हूँ॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदर्हसि कृपां कर्तुं मयि त्वं वरवर्णिनि।
मत्वा मूढेति तन्मा त्वं भक्ता वानुगतेति वा ॥ ९ ॥
मूलम्
तदर्हसि कृपां कर्तुं मयि त्वं वरवर्णिनि।
मत्वा मूढेति तन्मा त्वं भक्ता वानुगतेति वा ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अतः वरवर्णिनि! आपको मुझे एक मूढ़ स्वभावकी स्त्री मानकर या अपनी भक्ता जानकर अथवा अनुचरी (सेविका) समझकर मुझपर कृपा करनी चाहिये॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भर्त्रानेन महाभागे संयोजय सुतेन ह।
तमुपादाय गच्छेयं यथेष्टं देवरूपिणम्।
पुनश्चैवानयिष्यामि विस्रम्भं कुरु मे शुभे ॥ १० ॥
मूलम्
भर्त्रानेन महाभागे संयोजय सुतेन ह।
तमुपादाय गच्छेयं यथेष्टं देवरूपिणम्।
पुनश्चैवानयिष्यामि विस्रम्भं कुरु मे शुभे ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाभागे! मुझे अपने इस पुत्रसे, जो मेरे मनोनीत पति हैं, मिलनेका अवसर दीजिये। मैं इन देवस्वरूप स्वामीको लेकर अपने अभीष्ट स्थानपर जाऊँगी और पुनः निश्चित समयपर इन्हें आपके समीप ले आऊँगी। शुभे! आप मेरा विश्वास कीजिये॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं हि मनसा ध्याता सर्वान् नेष्यामि वः सदा।
(न यातुधान्यहं त्वार्ये न चास्मि रजनीचरी।
कन्या रक्षस्सु साध्व्यस्मि राज्ञि सालकटङ्कटी॥
पुत्रेण तव संयुक्ता युवतिर्देववर्णिनी।
सर्वान् वोऽहमुपस्थास्ये पुरस्कृत्य वृकोदरम्॥
अप्रमत्ता प्रमत्तेषु शुश्रूषुरसकृत् त्वहम्।)
वृजिनात् तारयिष्यामि दुर्गेषु विषमेषु च ॥ ११ ॥
पृष्ठेन वो वहिष्यामि शीघ्रं गतिमभीप्सतः।
यूयं प्रसादं कुरुत भीमसेनो भजेत माम् ॥ १२ ॥
मूलम्
अहं हि मनसा ध्याता सर्वान् नेष्यामि वः सदा।
(न यातुधान्यहं त्वार्ये न चास्मि रजनीचरी।
कन्या रक्षस्सु साध्व्यस्मि राज्ञि सालकटङ्कटी॥
पुत्रेण तव संयुक्ता युवतिर्देववर्णिनी।
सर्वान् वोऽहमुपस्थास्ये पुरस्कृत्य वृकोदरम्॥
अप्रमत्ता प्रमत्तेषु शुश्रूषुरसकृत् त्वहम्।)
वृजिनात् तारयिष्यामि दुर्गेषु विषमेषु च ॥ ११ ॥
पृष्ठेन वो वहिष्यामि शीघ्रं गतिमभीप्सतः।
यूयं प्रसादं कुरुत भीमसेनो भजेत माम् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आप अपने मनसे जब-जब मेरा स्मरण करेंगे, तब-तब सदा ही (सेवामें उपस्थित हो) मैं आपलोगोंको अभीष्ट स्थानोंमें पहुँचा दिया करूँगी। आर्ये! मैं न तो यातुधानी हूँ और न निशाचरी ही हूँ। महारानी! मैं राक्षस जातिकी सुशीला कन्या हूँ और मेरा नाम सालकटंकटी है। मैं देवोपम कान्तिसे युक्त और युवावस्थासे सम्पन्न हूँ। मेरे हृदयका संयोग आपके पुत्र भीमसेनके साथ हुआ है। मैं वृकोदरको सामने रखकर आप सब लोगोंकी सेवामें उपस्थित रहूँगी। आपलोग असावधान हों, तो भी मैं पूरी सावधानी रखकर निरन्तर आपकी सेवामें संलग्न रहूँगी। आपको संकटोंसे बचाऊँगी। दुर्गम एवं विषम स्थानोंमें यदि आप शीघ्रतापूर्वक अभीष्ट लक्ष्यतक जाना चाहते हों तो मैं आप सब लोगोंको अपनी पीठपर बिठाकर वहाँ पहुँचाऊँगी। आपलोग मुझपर कृपा करें, जिससे भीमसेन मुझे स्वीकार कर लें॥११-१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपदस्तरणे प्राणान् धारयेद् येन तेन वा।
सर्वमावृत्य कर्तव्यं तं धर्ममनुवर्तता ॥ १३ ॥
मूलम्
आपदस्तरणे प्राणान् धारयेद् येन तेन वा।
सर्वमावृत्य कर्तव्यं तं धर्ममनुवर्तता ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जिस उपायसे भी आपत्तिसे छुटकारा मिले और प्राणोंकी रक्षा हो सके, धर्मका अनुसरण करनेवाले पुरुषको वह सब स्वीकार करके उस उपायको काममें लाना चाहिये॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपत्सु यो धारयति धर्मं धर्मविदुत्तमः।
व्यसनं ह्येव धर्मस्य धर्मिणामापदुच्यते ॥ १४ ॥
मूलम्
आपत्सु यो धारयति धर्मं धर्मविदुत्तमः।
व्यसनं ह्येव धर्मस्य धर्मिणामापदुच्यते ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो आपत्तिकालमें धर्मको धारण करता है, वही धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ है। धर्मपालनमें संकट उपस्थित होना ही धर्मात्मा पुरुषोंके लिये आपत्ति कही जाती है॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुण्यं प्राणान् धारयति पुण्यं प्राणदमुच्यते।
येन येनाचरेद् धर्मं तस्मिन् गर्हा न विद्यते ॥ १५ ॥
मूलम्
पुण्यं प्राणान् धारयति पुण्यं प्राणदमुच्यते।
येन येनाचरेद् धर्मं तस्मिन् गर्हा न विद्यते ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पुण्य ही प्राणोंको धारण करता है, इसलिये पुण्य प्राणदाता कहलाता है; अतः जिस-जिस उपायसे धर्मका आचरण हो सके, उसके करनेमें कोई निन्दाकी बात नहीं है॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(महतोऽत्र स्त्रियं कामाद् बाधितां त्राहि मामपि।
धर्मार्थकाममोक्षेषु दयां कुर्वन्ति साधवः॥
तं तु धर्ममिति प्राहुर्मुनयो धर्मवत्सलाः।
दिव्यज्ञानेन पश्यामि अतीतानागतानहम् ॥
तस्माद् वक्ष्यामि वः श्रेय आसन्नं सर उत्तमम्।
अद्यासाद्य सरः स्नात्वा विश्रम्य च वनस्पतौ॥
व्यासं कमलपत्राक्षं दृष्ट्वा शोकं विहास्यथ॥
धार्तराष्ट्राद् विवासश्च दहनं वारणावते।
त्राणं च विदुरात् तुभ्यं विदितं ज्ञानचक्षुषा॥
आवासे शालिहोत्रस्य स च वासं विधास्यति।
वर्षवातातपसहः अयं पुण्यो वनस्पतिः॥
पीतमात्रे तु पानीये क्षुत्पिपासे विनश्यतः।
तपसा शालिहोत्रेण सरो वृक्षश्च निर्मितः॥
कादम्बाः सारसा हंसाः कुरर्यः कुररैः सह।
रुवन्ति मधुरं गीतं गान्धर्वस्वनमिश्रितम्॥
मूलम्
(महतोऽत्र स्त्रियं कामाद् बाधितां त्राहि मामपि।
धर्मार्थकाममोक्षेषु दयां कुर्वन्ति साधवः॥
तं तु धर्ममिति प्राहुर्मुनयो धर्मवत्सलाः।
दिव्यज्ञानेन पश्यामि अतीतानागतानहम् ॥
तस्माद् वक्ष्यामि वः श्रेय आसन्नं सर उत्तमम्।
अद्यासाद्य सरः स्नात्वा विश्रम्य च वनस्पतौ॥
व्यासं कमलपत्राक्षं दृष्ट्वा शोकं विहास्यथ॥
धार्तराष्ट्राद् विवासश्च दहनं वारणावते।
त्राणं च विदुरात् तुभ्यं विदितं ज्ञानचक्षुषा॥
आवासे शालिहोत्रस्य स च वासं विधास्यति।
वर्षवातातपसहः अयं पुण्यो वनस्पतिः॥
पीतमात्रे तु पानीये क्षुत्पिपासे विनश्यतः।
तपसा शालिहोत्रेण सरो वृक्षश्च निर्मितः॥
कादम्बाः सारसा हंसाः कुरर्यः कुररैः सह।
रुवन्ति मधुरं गीतं गान्धर्वस्वनमिश्रितम्॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैं महती कामवेदनासे पीड़ित एक नारी हूँ, अतः आप मेरी भी रक्षा कीजिये। साधु पुरुष धर्म, अर्थ, काम और मोक्षकी सिद्धिके सभी पुरुषार्थोंके लिये शरणागतोंपर दया करते हैं। धर्मानुरागी महर्षि दयाको ही श्रेष्ठ धर्म मानते हैं। मैं दिव्य ज्ञानसे भूत और भविष्यकी घटनाओंको देखती हूँ। अतः आपलोगोंके कल्याणकी बात बता रही हूँ। यहाँसे थोड़ी ही दूरपर एक उत्तम सरोवर है। आपलोग आज वहाँ जाकर उस सरोवरमें स्नान करके वृक्षके नीचे विश्राम करें। कुछ दिन बाद कमलनयन व्यासजीका दर्शन पाकर आपलोग शोकमुक्त हो जायँगे। दुर्योधनके द्वारा आपलोगोंका हस्तिनापुरसे निकाला जाना, वारणावत नगरमें जलाया जाना और विदुरजीके प्रयत्नसे आप सब लोगोंकी रक्षा होनी आदि बातें उन्हें ज्ञानदृष्टिसे ज्ञात हो गयी हैं। वे महात्मा व्यास शालिहोत्र मुनिके आश्रममें निवास करेंगे। उनके आश्रमका वह पवित्र वृक्ष सर्दी, गर्मी और वर्षाको अच्छी तरह सहनेवाला है। वहाँ केवल जल पी लेनेसे भूख-प्यास दूर हो जाती है। शालिहोत्र मुनिने अपनी तपस्याद्वारा पूर्वोक्त सरोवर और वृक्षका निर्माण किया है। वहाँ कादम्ब, सारस, हंस, कुररी और कुरर आदि पक्षी संगीतकी ध्वनिसे मिश्रित मधुर गीत गाते रहते हैं’।
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्यास्तद् वचनं श्रुत्वा कुन्ती वचनमब्रवीत्।
युधिष्ठिरं महाप्राज्ञं सर्वशास्त्रविशारदम् ॥
मूलम्
तस्यास्तद् वचनं श्रुत्वा कुन्ती वचनमब्रवीत्।
युधिष्ठिरं महाप्राज्ञं सर्वशास्त्रविशारदम् ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! हिडिम्बाका यह वचन सुनकर कुन्तीदेवीने सम्पूर्ण शास्त्रोंमें पारंगत परम बुद्धिमान् युधिष्ठिरसे इस प्रकार कहा।
मूलम् (वचनम्)
कुन्त्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वं हि धर्मभृतां श्रेष्ठ मयोक्तं शृणु भारत।
राक्षस्येषा हि वाक्येन धर्मं वदति साधु वै॥
भावेन दुष्टा भीमं सा किं करिष्यति राक्षसी।
भजतां पाण्डवं वीरमपत्यार्थं यदीच्छसि॥)
मूलम्
त्वं हि धर्मभृतां श्रेष्ठ मयोक्तं शृणु भारत।
राक्षस्येषा हि वाक्येन धर्मं वदति साधु वै॥
भावेन दुष्टा भीमं सा किं करिष्यति राक्षसी।
भजतां पाण्डवं वीरमपत्यार्थं यदीच्छसि॥)
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्ती बोली— धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ भारत! मैं जो कहती हूँ, उसे तुम सुनो; यह राक्षसी अपनी वाणीद्वारा तो उत्तम धर्मका ही प्रतिपादन करती है। यदि इसकी हार्दिक भावना भीमसेनके प्रति दूषित हो, तो भी यह उनका क्या बिगाड़ लेगी? अतः यदि तुम्हारी सम्मति हो तो यह संतानके लिये कुछ कालतक मेरे वीर पुत्र पाण्डुनन्दन भीमसेनकी सेवामें रहे।
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमेतद् यथाऽऽत्थ त्वं हिडिम्बे नात्र संशयः।
स्थातव्यं तु त्वया सत्ये यथा ब्रूयां सुमध्यमे ॥ १६ ॥
मूलम्
एवमेतद् यथाऽऽत्थ त्वं हिडिम्बे नात्र संशयः।
स्थातव्यं तु त्वया सत्ये यथा ब्रूयां सुमध्यमे ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर बोले— हिडिम्बे! तुम जैसा कह रही हो, वह सब ठीक है; इसमें संशय नहीं है। परंतु सुमध्यमे! मैं जैसे कहूँ, उसी प्रकार तुम्हें सत्यपर स्थिर रहना चाहिये॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्नातं कृताह्निकं भद्रे कृतकौतुकमङ्गलम्।
भीमसेनं भजेथास्त्वं प्रागस्तगमनाद् रवेः ॥ १७ ॥
मूलम्
स्नातं कृताह्निकं भद्रे कृतकौतुकमङ्गलम्।
भीमसेनं भजेथास्त्वं प्रागस्तगमनाद् रवेः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भद्रे! जब भीमसेन स्नान, नित्यकर्म तथा मांगलिक वेशभूषा आदि धारण कर लें, तब तुम प्रतिदिन उनके साथ रहकर सूर्यास्त होनेसे पहलेतक ही उनकी सेवा कर सकती हो॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहस्सु विहरानेन यथाकामं मनोजवा।
अयं त्वानयितव्यस्ते भीमसेनः सदा निशि ॥ १८ ॥
मूलम्
अहस्सु विहरानेन यथाकामं मनोजवा।
अयं त्वानयितव्यस्ते भीमसेनः सदा निशि ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम मनके समान वेगसे चलने-फिरनेवाली हो, अतः दिनभर तो तुम इनके साथ अपनी इच्छाके अनुसार विहार करो, परंतु रातको सदा ही तुम्हें भीमसेनको (हमारे पास) पहुँचा देना होगा॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(प्राक् संध्यातो विमोक्तव्यो रक्षितव्यश्च नित्यशः।
एवं रमस्व भीमेन यावद् गर्भस्य वेदनम्॥
एष ते समयो भद्रे शुश्रूष्यश्चाप्रमत्तया।
नित्यानुकूलया भूत्वा कर्तव्यं शोभनं त्वया॥
मूलम्
(प्राक् संध्यातो विमोक्तव्यो रक्षितव्यश्च नित्यशः।
एवं रमस्व भीमेन यावद् गर्भस्य वेदनम्॥
एष ते समयो भद्रे शुश्रूष्यश्चाप्रमत्तया।
नित्यानुकूलया भूत्वा कर्तव्यं शोभनं त्वया॥
अनुवाद (हिन्दी)
संध्याकाल आनेसे पहले ही इन्हें छोड़ देना होगा और नित्य-निरन्तर इनकी रक्षा करनी होगी। इस शर्तपर तुम भीमसेनके साथ सुखपूर्वक तबतक रहो, जबतक कि तुम्हें यह पता न चल जाय कि तुम्हारे गर्भमें बालक आ गया है। भद्रे! यही तुम्हारे लिये पालन करनेयोग्य नियम है। तुम्हें सावधान होकर भीमसेनकी सेवा करनी चाहिये और नित्य उनके अनुकूल होकर सदा उनकी भलाईमें संलग्न रहना चाहिये।
विश्वास-प्रस्तुतिः
युधिष्ठिरेणैवमुक्ता कुन्त्या चाङ्केऽधिरोपिता ।
भीमार्जुनान्तरगता यमाभ्यां च पुरस्कृता॥
तिर्यग् युधिष्ठिरे याति हिडिम्बा भीमगामिनी।
शालिहोत्रसरो रम्यमासेदुस्ते जलार्थिनः ॥
तत् तथेति प्रतिज्ञाय हिडिम्बा राक्षसी तदा।
वनस्पतितलं गत्वा परिमृज्य गृहं यथा॥
पाण्डवानां च वासं सा कृत्वा पर्णमयं तथा।
आत्मनश्च तथा कुन्त्या एकोद्देशे चकार सा॥
पाण्डवास्तु ततः स्नात्वा शुद्धाः संध्यामुपास्य च।
तृषिताः क्षुत्पिपासार्ता जलमात्रेण वर्तयन्॥
शालिहोत्रस्ततो ज्ञात्वा क्षुधार्तान् पाण्डवांस्तदा।
मनसा चिन्तयामास पानीयं भोजनं महत्।
ततस्ते पाण्डवाः सर्वे विश्रान्ताः पृथया सह॥
यथा जतुगृहे वृत्तं राक्षसेन कृतं च यत्।
कृत्वा कथा बहुविधाः कथान्ते पाण्डुनन्दनम्॥
कुन्तिराजसुता वाक्यं भीमसेनमथाब्रवीत् ॥
मूलम्
युधिष्ठिरेणैवमुक्ता कुन्त्या चाङ्केऽधिरोपिता ।
भीमार्जुनान्तरगता यमाभ्यां च पुरस्कृता॥
तिर्यग् युधिष्ठिरे याति हिडिम्बा भीमगामिनी।
शालिहोत्रसरो रम्यमासेदुस्ते जलार्थिनः ॥
तत् तथेति प्रतिज्ञाय हिडिम्बा राक्षसी तदा।
वनस्पतितलं गत्वा परिमृज्य गृहं यथा॥
पाण्डवानां च वासं सा कृत्वा पर्णमयं तथा।
आत्मनश्च तथा कुन्त्या एकोद्देशे चकार सा॥
पाण्डवास्तु ततः स्नात्वा शुद्धाः संध्यामुपास्य च।
तृषिताः क्षुत्पिपासार्ता जलमात्रेण वर्तयन्॥
शालिहोत्रस्ततो ज्ञात्वा क्षुधार्तान् पाण्डवांस्तदा।
मनसा चिन्तयामास पानीयं भोजनं महत्।
ततस्ते पाण्डवाः सर्वे विश्रान्ताः पृथया सह॥
यथा जतुगृहे वृत्तं राक्षसेन कृतं च यत्।
कृत्वा कथा बहुविधाः कथान्ते पाण्डुनन्दनम्॥
कुन्तिराजसुता वाक्यं भीमसेनमथाब्रवीत् ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरके यों कहनेपर कुन्तीने हिडिम्बाको अपने हृदयसे लगा लिया। तदनन्तर वह युधिष्ठिरसे कुछ दूरीपर रहकर भीमके साथ चल पड़ी। वह चलते समय भीम और अर्जुनके बीचमें रहती थी। नकुल और सहदेव सदा उसे आगे करके चलते थे। (इस प्रकार) वे (सब) लोग जल पीनेकी इच्छासे शालिहोत्र मुनिके रमणीय सरोवरके तटपर जा पहुँचे। वहाँ कुन्ती तथा युधिष्ठिरने पहले जो शर्त रखी थी, उसे स्वीकार करके हिडिम्बा राक्षसीने वैसा ही कार्य करनेकी प्रतिज्ञा की। तत्पश्चात् उसने वृक्षके नीचे जाकर घरकी तरह झाड़ू लगायी और पाण्डवोंके लिये निवास-स्थानका निर्माण किया। उन सबके लिये पर्णशाला तैयार करनेके बाद उसने अपने और कुन्तीके लिये एक दूसरी जगह कुटी बनायी। तदनन्तर पाण्डवोंने स्नान करके शुद्ध हो संध्योपासना किया और भूख-प्याससे पीड़ित होनेपर भी केवल जलका आहार किया। उस समय शालिहोत्र मुनिने उन्हें भूखसे व्याकुल जान मन-ही-मन उनके लिये प्रचुर अन्न-पानकी सामग्रीका चिन्तन किया (और उससे पाण्डवोंको भोजन कराया)। तदनन्तर कुन्तीदेवीसहित सब पाण्डव विश्राम करने लगे। विश्रामके समय उनमें नाना प्रकारकी बातें होने लगीं—किस प्रकार लाक्षागृहमें उन्हें जलानेका प्रयत्न किया गया तथा फिर राक्षस हिडिम्बने उन लोगोंपर किस प्रकार आक्रमण किया इत्यादि प्रसंग उनकी चर्चाके विषय थे। बातचीत समाप्त होनेपर कुन्तिराजकुमारी कुन्तीने पाण्डुनन्दन भीमसेनसे इस प्रकार कहा।
मूलम् (वचनम्)
कुन्त्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा पाण्डुस्तथा मान्यस्तव ज्येष्ठो युधिष्ठिरः।
अहं धर्मविधानेन मान्या गुरुतरा तव॥
तस्मात् पाण्डुहितार्थं मे युवराज हितं कुरु।
निकृता धार्तराष्ट्रेण पापेनाकृतबुद्धिना ।
दुष्कृतस्य प्रतीकारं न पश्यामि वृकोदर॥
तस्मात् कतिपयाहेन योगक्षेमं भविष्यति॥
क्षेमं दुर्गमिमं वासं वसिष्यामो यथासुखम्।
इदमद्य महद् दुःखं धर्मकृच्छ्रं वृकोदर॥
दृष्ट्वैव त्वां महाप्राज्ञ अनङ्गाभिप्रचोदिता।
युधिष्ठिरं च मां चैव वरयामास धर्मतः॥
धर्मार्थं देहि पुत्रं त्वं स नः श्रेयः करिष्यति।
प्रतिवाक्यं तु नेच्छामि ह्यावाभ्यां वचनं कुरु॥)
मूलम्
यथा पाण्डुस्तथा मान्यस्तव ज्येष्ठो युधिष्ठिरः।
अहं धर्मविधानेन मान्या गुरुतरा तव॥
तस्मात् पाण्डुहितार्थं मे युवराज हितं कुरु।
निकृता धार्तराष्ट्रेण पापेनाकृतबुद्धिना ।
दुष्कृतस्य प्रतीकारं न पश्यामि वृकोदर॥
तस्मात् कतिपयाहेन योगक्षेमं भविष्यति॥
क्षेमं दुर्गमिमं वासं वसिष्यामो यथासुखम्।
इदमद्य महद् दुःखं धर्मकृच्छ्रं वृकोदर॥
दृष्ट्वैव त्वां महाप्राज्ञ अनङ्गाभिप्रचोदिता।
युधिष्ठिरं च मां चैव वरयामास धर्मतः॥
धर्मार्थं देहि पुत्रं त्वं स नः श्रेयः करिष्यति।
प्रतिवाक्यं तु नेच्छामि ह्यावाभ्यां वचनं कुरु॥)
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्ती बोली— युवराज! तुम्हारे लिये जैसे महाराज पाण्डु माननीय थे, वैसे ही बड़े भाई युधिष्ठिर भी हैं। धर्मशास्त्रकी दृष्टिसे मैं उनकी अपेक्षा भी अधिक गौरवकी पात्र तथा सम्माननीय हूँ। अतः तुम महाराज पाण्डुके हितके लिये मेरी एक हितकर आज्ञाका पालन करो। वृकोदर! अपवित्र बुद्धिवाले पापात्मा दुर्योधनने हमारे साथ जो दुष्टता की है, उसके प्रतिशोधका उपाय मुझे कोई नहीं दिखायी देता। अतः कुछ दिनोंके बाद भले ही हमारा योगक्षेम सिद्ध हो। यह निवासस्थान अत्यन्त दुर्गम होनेके कारण हमारे लिये कल्याणकारी सिद्ध होगा। हम यहाँ सुखपूर्वक रहेंगे। महाप्राज्ञ भीमसेन! आज यह हमारे सामने अत्यन्त दुःखद धर्मसंकट उपस्थित हुआ है कि हिडिम्बा तुम्हें देखते ही कामसे प्रेरित हो मेरे और युधिष्ठिरके पास आकर धर्मतः तुम्हें पतिके रूपमें वरण कर चुकी है। मेरी आज्ञा है कि तुम उसे धर्मके लिये एक पुत्र प्रदान करो। वह हमारे लिये कल्याणकारी होगा। मैं इस विषयमें तुम्हारा कोई प्रतिवाद नहीं सुनना चाहती। तुम हम दोनोंके सामने प्रतिज्ञा करो।
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथेति तत् प्रतिज्ञाय भीमसेनोऽब्रवीदिदम्।
शृणु राक्षसि सत्येन समयं ते वदाम्यहम् ॥ १९ ॥
मूलम्
तथेति तत् प्रतिज्ञाय भीमसेनोऽब्रवीदिदम्।
शृणु राक्षसि सत्येन समयं ते वदाम्यहम् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! ‘बहुत अच्छा’ कहकर भीमसेनने वैसा ही करनेकी प्रतिज्ञा की (और हिडिम्बाके साथ गान्धर्व-विवाह कर लिया)। तत्पश्चात् भीमसेन हिडिम्बासे इस प्रकार बोले—‘राक्षसी! सुनो, मैं सत्यकी शपथ खाकर तुम्हारे सामने एक शर्त रखता हूँ॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यावत् कालेन भवति पुत्रस्योत्पादनं शुभे।
तावत् कालं गमिष्यामि त्वया सह सुमध्यमे ॥ २० ॥
मूलम्
यावत् कालेन भवति पुत्रस्योत्पादनं शुभे।
तावत् कालं गमिष्यामि त्वया सह सुमध्यमे ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘शुभे! सुमध्यमे! जबतक तुम्हें पुत्रकी उत्पत्ति न हो जाय तभीतक मैं तुम्हारे साथ विहारके लिये चलूँगा’॥२०॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथेति तत् प्रतिज्ञाय हिडिम्बा राक्षसी तदा।
भीमसेनमुपादाय सोर्ध्वमाचक्रमे ततः ॥ २१ ॥
मूलम्
तथेति तत् प्रतिज्ञाय हिडिम्बा राक्षसी तदा।
भीमसेनमुपादाय सोर्ध्वमाचक्रमे ततः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! तब ‘ऐसा ही होगा’ यह प्रतिज्ञा करके हिडिम्बा राक्षसी भीमसेनको साथ ले वहाँसे ऊपर आकाशमें उड़ गयी॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शैलशृङ्गेषु रम्येषु देवतायतनेषु च।
मृगपक्षिविघुष्टेषु रमणीयेषु सर्वदा ॥ २२ ॥
कृत्वा च परमं रूपं सर्वाभरणभूषिता।
संजल्पन्ती सुमधुरं रमयामास पाण्डवम् ॥ २३ ॥
तथैव वनदुर्गेषु पुष्पितद्रुमवल्लिषु ।
सरस्सु रमणीयेषु पद्मोत्पलयुतेषु च ॥ २४ ॥
नदीद्वीपप्रदेशेषु वैदूर्यसिकतासु च ।
सुतीर्थवनतोयासु तथा गिरिनदीषु च ॥ २५ ॥
काननेषु विचित्रेषु पुष्पितद्रुमवल्लिषु ।
हिमवद्गिरिकुञ्जेषु गुहासु विविधासु च ॥ २६ ॥
प्रफुल्लशतपत्रेषु सरस्स्वमलवारिषु ।
सागरस्य प्रदेशेषु मणिहेमचितेषु च ॥ २७ ॥
पल्वलेषु च रम्येषु महाशालवनेषु च।
देवारण्येषु पुण्येषु तथा पर्वतसानुषु ॥ २८ ॥
गुह्यकानां निवासेषु तापसायतनेषु च।
सर्वर्तुफलरम्येषु मानसेषु सरस्सु च ॥ २९ ॥
बिभ्रती परमं रूपं रमयामास पाण्डवम्।
रमयन्ती तथा भीमं तत्र तत्र मनोजवा ॥ ३० ॥
मूलम्
शैलशृङ्गेषु रम्येषु देवतायतनेषु च।
मृगपक्षिविघुष्टेषु रमणीयेषु सर्वदा ॥ २२ ॥
कृत्वा च परमं रूपं सर्वाभरणभूषिता।
संजल्पन्ती सुमधुरं रमयामास पाण्डवम् ॥ २३ ॥
तथैव वनदुर्गेषु पुष्पितद्रुमवल्लिषु ।
सरस्सु रमणीयेषु पद्मोत्पलयुतेषु च ॥ २४ ॥
नदीद्वीपप्रदेशेषु वैदूर्यसिकतासु च ।
सुतीर्थवनतोयासु तथा गिरिनदीषु च ॥ २५ ॥
काननेषु विचित्रेषु पुष्पितद्रुमवल्लिषु ।
हिमवद्गिरिकुञ्जेषु गुहासु विविधासु च ॥ २६ ॥
प्रफुल्लशतपत्रेषु सरस्स्वमलवारिषु ।
सागरस्य प्रदेशेषु मणिहेमचितेषु च ॥ २७ ॥
पल्वलेषु च रम्येषु महाशालवनेषु च।
देवारण्येषु पुण्येषु तथा पर्वतसानुषु ॥ २८ ॥
गुह्यकानां निवासेषु तापसायतनेषु च।
सर्वर्तुफलरम्येषु मानसेषु सरस्सु च ॥ २९ ॥
बिभ्रती परमं रूपं रमयामास पाण्डवम्।
रमयन्ती तथा भीमं तत्र तत्र मनोजवा ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसने रमणीय पर्वतशिखरोंपर, देवताओंके निवास-स्थानोंमें तथा जहाँ बहुत-से पशु-पक्षी मधुर शब्द करते रहते हैं, ऐसे सुरम्य प्रदेशोंमें सदा परम सुन्दर रूप धारण करके, सब प्रकारके आभूषणोंसे विभूषित हो मीठी-मीठी बातें करके पाण्डुनन्दन भीमसेनको सुख पहुँचाया। इसी प्रकार पुष्पित वृक्षों और लताओंसे सुशोभित दुर्गम वनोंमें, कमल और उत्पल आदिसे अलंकृत रमणीय सरोवरोंमें, नदियोंके द्वीपोंमें तथा जहाँकी वालुका वैदूर्य-मणिके समान है, जिनके घाट, तटवर्ती वन तथा जल सभी सुन्दर एवं पवित्र हैं, उन पर्वतीय नदियोंमें, विकसित वृक्षों और लता-वल्लरियोंसे विभूषित विचित्र काननोंमें, हिमवान् पर्वतके कुंजों और भाँति-भाँतिकी गुफाओंमें, खिले हुए कमलसमूहसे युक्त निर्मल जलवाले सरोवरोंमें, मणियों और सुवर्णसे सम्पन्न समुद्र-तटवर्ती प्रदेशोंमें, छोटे-छोटे सुन्दर तालाबोंमें, बड़े-बड़े शाल-वृक्षोंके जंगलोंमें, पवित्र देववनोंमें, पर्वतीय शिखरोंपर, गुह्यकोंके निवासस्थानोंमें, सभी ऋतुओंके फलोंसे सम्पन्न तपस्वी मुनियोंके सुरम्य आश्रमोंमें तथा मानसरोवर एवं अन्य जलाशयोंमें घूम-फिरकर हिडिम्बाने परम सुन्दर रूप धारण करके पाण्डुनन्दन भीमसेनके साथ रमण किया। वह मनके समान वेगसे चलनेवाली थी, अतः उन-उन स्थानोंमें भीमसेनको आनन्द प्रदान करती हुई विचरती रहती थी॥२२-३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रजज्ञे राक्षसी पुत्रं भीमसेनान्महाबलम्।
विरूपाक्षं महावक्त्रं शङ्कुकर्णं बिभीषणम् ॥ ३१ ॥
मूलम्
प्रजज्ञे राक्षसी पुत्रं भीमसेनान्महाबलम्।
विरूपाक्षं महावक्त्रं शङ्कुकर्णं बिभीषणम् ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुछ कालके पश्चात् उस राक्षसीने भीमसेनसे एक महान् बलवान् पुत्र उत्पन्न किया, जिसकी आँखें विकराल, मुख विशाल और कान शंकुके समान थे। वह देखनेमें बड़ा भयंकर जान पड़ता था॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भीमनादं सुताम्रोष्ठं तीक्ष्णदंष्ट्रं महाबलम्।
महेष्वासं महावीर्यं महासत्त्वं महाभुजम् ॥ ३२ ॥
महाजवं महाकायं महामायमरिंदमम् ।
दीर्घघोणं महोरस्कं विकटोद्बद्धपिण्डिकम् ॥ ३३ ॥
मूलम्
भीमनादं सुताम्रोष्ठं तीक्ष्णदंष्ट्रं महाबलम्।
महेष्वासं महावीर्यं महासत्त्वं महाभुजम् ॥ ३२ ॥
महाजवं महाकायं महामायमरिंदमम् ।
दीर्घघोणं महोरस्कं विकटोद्बद्धपिण्डिकम् ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसकी आवाज बड़ी भयानक थी। सुन्दर लाल-लाल ओठ, तीखी दाढ़ें, महान् बल, बहुत बड़ा धनुष, महान् पराक्रम, अत्यन्त धैर्य और साहस, बड़ी-बड़ी भुजाएँ, महान् वेग और विशाल शरीर—ये उसकी विशेषताएँ थीं। वह महामायावी राक्षस अपने शत्रुओंका दमन करनेवाला था। उसकी नाक बहुत बड़ी, छाती चौड़ी तथा पैरोंकी दोनों पिंडलियाँ टेढ़ी और ऊँची थीं॥३२-३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अमानुषं मानुषजं भीमवेगं महाबलम्।
यः पिशाचानतीत्यान्यान् बभूवातीव राक्षसान् ॥ ३४ ॥
मूलम्
अमानुषं मानुषजं भीमवेगं महाबलम्।
यः पिशाचानतीत्यान्यान् बभूवातीव राक्षसान् ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यद्यपि उसका जन्म मनुष्यसे हुआ था तथापि उसकी आकृति और शक्ति अमानुषिक थी। उसका वेग भयंकर और बल महान् था। वह दूसरे पिशाचों तथा राक्षसोंसे बहुत अधिक शक्तिशाली था॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बालोऽपि यौवनं प्राप्तो मानुषेषु विशाम्पते।
सर्वास्त्रेषु परं वीरः प्रकर्षमगमद् बली ॥ ३५ ॥
मूलम्
बालोऽपि यौवनं प्राप्तो मानुषेषु विशाम्पते।
सर्वास्त्रेषु परं वीरः प्रकर्षमगमद् बली ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! अवस्थामें बालक होनेपर भी वह मनुष्योंमें युवक-सा प्रतीत होता था। उस बलवान् वीरने सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रोंमें बड़ी निपुणता प्राप्त की थी॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सद्यो हि गर्भान् राक्षस्यो लभन्ते प्रसवन्ति च।
कामरूपधराश्चैव भवन्ति बहुरूपिकाः ॥ ३६ ॥
मूलम्
सद्यो हि गर्भान् राक्षस्यो लभन्ते प्रसवन्ति च।
कामरूपधराश्चैव भवन्ति बहुरूपिकाः ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राक्षसियाँ जब गर्भ धारण करती हैं, तब तत्काल ही उसको जन्म दे देती हैं। वे इच्छानुसार रूप धारण करनेवाली और नाना प्रकारके रूप बदलनेवाली होती हैं॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रणम्य विकचः पादावगृह्णात् स पितुस्तदा।
मातुश्च परमेष्वासस्तौ च नामास्य चक्रतुः ॥ ३७ ॥
मूलम्
प्रणम्य विकचः पादावगृह्णात् स पितुस्तदा।
मातुश्च परमेष्वासस्तौ च नामास्य चक्रतुः ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस महान् धनुर्धर बालकने पैदा होते ही पिता और माताके चरणोंमें प्रणाम किया। उसके सिरमें बाल नहीं उगे थे। उस समय पिता और माताने उसका इस प्रकार नामकरण किया॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
घटो हास्योत्कच इति माता तं प्रत्यभाषत।
अब्रवीत् तेन नामास्य घटोत्कच इति स्म ह ॥ ३८ ॥
मूलम्
घटो हास्योत्कच इति माता तं प्रत्यभाषत।
अब्रवीत् तेन नामास्य घटोत्कच इति स्म ह ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बालककी माताने भीमसेनसे कहा—‘इसका घट (सिर) उत्कच1 अर्थात् केशरहित है।’ उसके इस कथनसे ही उसका नाम घटोत्कच हो गया॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनुरक्तश्च तानासीत् पाण्डवान् स घटोत्कचः।
तेषां च दयितो नित्यमात्मनित्यो बभूव ह ॥ ३९ ॥
मूलम्
अनुरक्तश्च तानासीत् पाण्डवान् स घटोत्कचः।
तेषां च दयितो नित्यमात्मनित्यो बभूव ह ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
घटोत्कचका पाण्डवोंके प्रति बड़ा अनुराग था और पाण्डवोंको भी वह बहुत प्रिय था। वह सदा उनकी आज्ञाके अधीन रहता था॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संवाससमयो जीर्ण इत्याभाष्य ततस्तु तान्।
हिडिम्बा समयं कृत्वा स्वां गतिं प्रत्यपद्यत ॥ ४० ॥
मूलम्
संवाससमयो जीर्ण इत्याभाष्य ततस्तु तान्।
हिडिम्बा समयं कृत्वा स्वां गतिं प्रत्यपद्यत ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर हिडिम्बा पाण्डवोंसे यह कहकर कि भीमसेनके साथ रहनेका मेरा समय समाप्त हो गया, आवश्यकताके समय पुनः मिलनेकी प्रतिज्ञा करके अपने अभीष्ट स्थानको चली गयी॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
घटोत्कचो महाकायः पाण्डवान् पृथया सह।
अभिवाद्य यथान्यायमब्रवीच्च प्रभाष्य तान् ॥ ४१ ॥
किं करोम्यहमार्याणां निःशङ्कं वदतानघाः।
तं ब्रुवन्तं भैमसेनिं कुन्ती वचनमब्रवीत् ॥ ४२ ॥
मूलम्
घटोत्कचो महाकायः पाण्डवान् पृथया सह।
अभिवाद्य यथान्यायमब्रवीच्च प्रभाष्य तान् ॥ ४१ ॥
किं करोम्यहमार्याणां निःशङ्कं वदतानघाः।
तं ब्रुवन्तं भैमसेनिं कुन्ती वचनमब्रवीत् ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् विशालकाय घटोत्कचने कुन्तीसहित पाण्डवोंको यथायोग्य प्रणाम करके उन्हें सम्बोधित करके कहा—‘निष्पाप गुरुजन! आप निःशंक होकर बतायें, मैं आपकी क्या सेवा करूँ?’ इस प्रकार पूछनेवाले भीमसेनकुमारसे कुन्तीने कहा—॥४१-४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वं कुरूणां कुले जातः साक्षाद् भीमसमो ह्यसि।
ज्येष्ठः पुत्रोऽसि पञ्चानां साहाय्यं कुरु पुत्रक ॥ ४३ ॥
मूलम्
त्वं कुरूणां कुले जातः साक्षाद् भीमसमो ह्यसि।
ज्येष्ठः पुत्रोऽसि पञ्चानां साहाय्यं कुरु पुत्रक ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘बेटा! तुम्हारा जन्म कुरुकुलमें हुआ है। तुम मेरे लिये साक्षात् भीमसेनके समान हो। पाँचों पाण्डवोंके ज्येष्ठ पुत्र हो, अतः हमारी सहायता करो’॥४३॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
पृथयाप्येवमुक्तस्तु प्रणम्यैव वचोऽब्रवीत् ।
यथा हि रावणो लोके इन्द्रजिच्च महाबलः।
वर्ष्मवीर्यसमो लोके विशिष्टश्चाभवं नृषु ॥ ४४ ॥
मूलम्
पृथयाप्येवमुक्तस्तु प्रणम्यैव वचोऽब्रवीत् ।
यथा हि रावणो लोके इन्द्रजिच्च महाबलः।
वर्ष्मवीर्यसमो लोके विशिष्टश्चाभवं नृषु ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! कुन्तीके यों कहनेपर घटोत्कचने प्रणाम करके ही उनसे कहा—‘दादीजी! लोकमें जैसे रावण और मेघनाद बहुत बड़े बलवान् थे, उसी प्रकार इस मानव-जगत्में मैं भी उन्हींके समान विशालकाय और महापराक्रमी हूँ; बल्कि उनसे भी बढ़कर हूँ॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृत्यकाल उपस्थास्ये पितॄनिति घटोत्कचः।
आमन्त्र्य रक्षसां श्रेष्ठः प्रतस्थे चोत्तरां दिशम् ॥ ४५ ॥
मूलम्
कृत्यकाल उपस्थास्ये पितॄनिति घटोत्कचः।
आमन्त्र्य रक्षसां श्रेष्ठः प्रतस्थे चोत्तरां दिशम् ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जब मेरी आवश्यकता होगी, उस समय मैं स्वयं अपने पितृवर्गकी सेवामें उपस्थित हो जाऊँगा।’ यों कहकर राक्षसश्रेष्ठ घटोत्कच पाण्डवोंसे आज्ञा लेकर उत्तर दिशाकी ओर चला गया॥४५॥
सूचना (हिन्दी)
पाण्डवोंकी व्यासजीसे भेंट
विश्वास-प्रस्तुतिः
स हि सृष्टो मघवता शक्तिहेतोर्महात्मना।
कर्णस्याप्रतिवीर्यस्य प्रतियोद्धा महारथः ॥ ४६ ॥
मूलम्
स हि सृष्टो मघवता शक्तिहेतोर्महात्मना।
कर्णस्याप्रतिवीर्यस्य प्रतियोद्धा महारथः ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महामना इन्द्रने अनुपम पराक्रमी कर्णकी शक्तिका आघात सहन करनेके लिये घटोत्कचकी सृष्टि की थी। वह कर्णके सम्मुख युद्ध करनेमें समर्थ महारथी वीर था॥४६॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि हिडिम्बवधपर्वणि घटोत्कचोत्पत्तौ चतुष्पञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १५४ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत हिडिम्बवधपर्वमें घटोत्कचकी उत्पत्तिविषयक एक सौ चौवनवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१५४॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ३३ श्लोक मिलाकर कुल ७९ श्लोक हैं)
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कोई-कोई उत्कचका अर्थ ‘ऊपर उठे हुए बालोंवाला’ भी करते हैं। ↩︎