१५० जलप्राप्तिः

श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना

पञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

माता कुन्तीके लिये भीमसेनका जल ले आना, माता और भाइयोंको भूमिपर सोये देखकर भीमका विषाद एवं दुर्योधनके प्रति क्रोध

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेन विक्रममाणेन ऊरुवेगसमीरितम् ।
वनं सवृक्षविटपं व्याघूर्णितमिवाभवत् ॥ १ ॥

मूलम्

तेन विक्रममाणेन ऊरुवेगसमीरितम् ।
वनं सवृक्षविटपं व्याघूर्णितमिवाभवत् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! भीमसेनके चलते समय उनके महान् वेगसे आन्दोलित हो वृक्ष और शाखाओंसहित वह सम्पूर्ण वन घूमता-सा प्रतीत होने लगा॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जङ्घावातो ववौ चास्य शुचिशुक्रागमे यथा।
आवर्जितलतावृक्षं मार्गं चक्रे महाबलः ॥ २ ॥

मूलम्

जङ्घावातो ववौ चास्य शुचिशुक्रागमे यथा।
आवर्जितलतावृक्षं मार्गं चक्रे महाबलः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे ज्येष्ठ और आषाढ़ मासके संधिकालमें जोर-जोरसे हवा चलने लगती है, उसी प्रकार उनकी पिंडलियोंके वेगपूर्वक संचालनसे आँधी-सी उठ रही थी। महाबली भीम जिस मार्गसे चलते, वहाँकी लताओं और वृक्षोंको पैरोंसे रौंदकर जमीनके बराबर कर देते थे॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स मृद्‌नन् पुष्पितांश्चैव फलितांश्च वनस्पतीन्।
अवरुज्य ययौ गुल्मान् पथस्तस्य समीपजान् ॥ ३ ॥

मूलम्

स मृद्‌नन् पुष्पितांश्चैव फलितांश्च वनस्पतीन्।
अवरुज्य ययौ गुल्मान् पथस्तस्य समीपजान् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके मार्गके निकट जो फल और फूलोंसे लदे हुए वनस्पति एवं गुल्म आदि होते, उन्हें तोड़कर वे पैरोंसे रौंदते जाते थे॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स रोषित इव क्रुद्धो वने भञ्जन् महाद्रुमान्।
त्रिप्रस्रुतमदः शुष्मी षष्टिवर्षी मतङ्गराट् ॥ ४ ॥

मूलम्

स रोषित इव क्रुद्धो वने भञ्जन् महाद्रुमान्।
त्रिप्रस्रुतमदः शुष्मी षष्टिवर्षी मतङ्गराट् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे तीन अंगोंसे मद बहानेवाला साठ वर्षका तेजस्वी गजराज (किसी कारणसे) कुपित हो वनके बड़े-बड़े वृक्षोंको तोड़ने लगता है, उसी प्रकार महातेजस्वी भीमसेन उस वनके विशाल वृक्षोंको धराशायी करते हुए आगे बढ़ रहे थे॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गच्छतस्तस्य वेगेन तार्क्ष्यमारुतरंहसः ।
भीमस्य पाण्डुपुत्राणां मूर्च्छेव समजायत ॥ ५ ॥

मूलम्

गच्छतस्तस्य वेगेन तार्क्ष्यमारुतरंहसः ।
भीमस्य पाण्डुपुत्राणां मूर्च्छेव समजायत ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गरुड़ और वायुके समान तीव्र गतिवाले भीमसेनके चलते समय उनके (महान्) वेगसे अन्य पाण्डुपुत्रोंको मूर्च्छा-सी आ जाती थी॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

असकृच्चापि संतीर्य दूरपारं भुजप्लवैः।
पथि प्रच्छन्नमासेदुर्धार्तराष्ट्रभयात् तदा ॥ ६ ॥

मूलम्

असकृच्चापि संतीर्य दूरपारं भुजप्लवैः।
पथि प्रच्छन्नमासेदुर्धार्तराष्ट्रभयात् तदा ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मार्गमें आये हुए जल-प्रवाहको, जिसका पाट दूरतक फैला होता था, दोनों भुजाओंके बेड़ेद्वारा ही बारंबार पार करके वे सब पाण्डव दुर्योधनके भयसे किसी गुप्त स्थानमें जाकर रहते थे॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृच्छ्रेण मातरं चैव सुकुमारीं यशस्विनीम्।
अवहत् स तु पृष्ठेन रोधस्तु विषमेषु च ॥ ७ ॥

मूलम्

कृच्छ्रेण मातरं चैव सुकुमारीं यशस्विनीम्।
अवहत् स तु पृष्ठेन रोधस्तु विषमेषु च ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीमसेन अपनी सुकुमारी एवं यशस्विनी माता कुन्तीको पीठपर बिठाकर नदीके ऊँचे-नीचे कगारोंपर बड़ी कठिनाईसे ले जाते थे॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अगमच्च वनोद्देशमल्पमूलफलोदकम् ।
क्रूरपक्षिमृगं घोरं सायाह्ने भरतर्षभ ॥ ८ ॥

मूलम्

अगमच्च वनोद्देशमल्पमूलफलोदकम् ।
क्रूरपक्षिमृगं घोरं सायाह्ने भरतर्षभ ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! वे संध्या होते-होते वनके ऐसे भयंकर प्रदेशमें जा पहुँचे, जहाँ फल-मूल और जलकी बहुत कमी थी। वहाँ क्रूर स्वभाववाले पक्षी और हिंसक पशु रहते थे॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

घोरा समभवत् संध्या दारुणा मृगपक्षिणः।
अप्रकाशा दिशः सर्वा वातैरासन्ननार्तवैः ॥ ९ ॥

मूलम्

घोरा समभवत् संध्या दारुणा मृगपक्षिणः।
अप्रकाशा दिशः सर्वा वातैरासन्ननार्तवैः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह संध्या बड़ी भयानक प्रतीत होती थी। क्रूर स्वभाववाले पशु और पक्षी वहाँ वास करते थे। बिना ऋतुकी प्रचण्ड हवाओंके चलनेसे सम्पूर्ण दिशाएँ (धूलसे आच्छादित हो) अन्धकारपूर्ण हो रही थीं॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शीर्णपर्णफलै राजन् बहुगुल्मक्षुपैर्द्रुमैः ।
भग्नावभग्नभूयिष्ठैर्नानाद्रुमसमाकुलैः ॥ १० ॥

मूलम्

शीर्णपर्णफलै राजन् बहुगुल्मक्षुपैर्द्रुमैः ।
भग्नावभग्नभूयिष्ठैर्नानाद्रुमसमाकुलैः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! (हवाके झोंकोंसे) वनके बहुसंख्यक छोटे-बड़े वृक्ष और गुल्म-लता आदि झुक-झुककर टूट गये थे। उनके पत्ते और फल इधर-उधर बिखर गये थे और उनपर पक्षी शब्द कर रहे थे। इन सबके कारण सम्पूर्ण दिशाओंमें अँधेरा छा रहा था॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते श्रमेण च कौरव्यास्तृष्णया च प्रपीडिताः।
नाशक्नुवंस्तदा गन्तुं निद्रया च प्रवृद्धया ॥ ११ ॥

मूलम्

ते श्रमेण च कौरव्यास्तृष्णया च प्रपीडिताः।
नाशक्नुवंस्तदा गन्तुं निद्रया च प्रवृद्धया ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे कुरुकुलरत्न पाण्डव उस समय अधिक परिश्रम और प्यासके कारण बहुत कष्ट पा रहे थे। थकावटसे उनकी नींद भी बहुत बढ़ गयी थी, जिससे पीड़ित होकर वे आगे जानेमें असमर्थ हो गये॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न्यविशन्त हि ते सर्वे निरास्वादे महावने।
ततस्तृषापरिक्लान्ता कुन्ती पुत्रानथाब्रवीत् ॥ १२ ॥

मूलम्

न्यविशन्त हि ते सर्वे निरास्वादे महावने।
ततस्तृषापरिक्लान्ता कुन्ती पुत्रानथाब्रवीत् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब उन सबने उस नीरस विशाल जंगलमें डेरा डाल दिया। तत्पश्चात् प्याससे पीड़ित कुन्तीदेवी अपने पुत्रोंसे बोली—॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

माता सती पाण्डवानां पञ्चानां मध्यतः स्थिता।
तृष्णया हि परीतास्मि पुत्रान् भृशमथाब्रवीत् ॥ १३ ॥

मूलम्

माता सती पाण्डवानां पञ्चानां मध्यतः स्थिता।
तृष्णया हि परीतास्मि पुत्रान् भृशमथाब्रवीत् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैं पाँच पाण्डुपुत्रोंकी माता हूँ और उन्हींके बीचमें स्थित हूँ, तो भी प्याससे व्याकुल हूँ’ इस प्रकार कुन्तीदेवीने अपने बेटोंके समक्ष यह बात बार-बार दुहरायी॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तच्छ्रुत्वा भीमसेनस्य मातृस्नेहात् प्रजल्पितम्।
कारुण्येन मनस्तप्तं गमनायोपचक्रमे ॥ १४ ॥

मूलम्

तच्छ्रुत्वा भीमसेनस्य मातृस्नेहात् प्रजल्पितम्।
कारुण्येन मनस्तप्तं गमनायोपचक्रमे ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

माताका वात्सल्यसे कहा हुआ वह वचन सुनकर भीमसेनका हृदय करुणासे भर आया। वे मन-ही-मन संतप्त हो उठे और स्वयं ही (पानी लानेके लिये) जानेकी तैयारी करने लगे॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो भीमो वनं घोरं प्रविश्य विजनं महत्।
न्यग्रोधं विपुलच्छायं रमणीयं ददर्श ह ॥ १५ ॥

मूलम्

ततो भीमो वनं घोरं प्रविश्य विजनं महत्।
न्यग्रोधं विपुलच्छायं रमणीयं ददर्श ह ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय भीमने उस विशाल, निर्जन एवं भयंकर वनमें प्रवेश करके एक बहुत सुन्दर और विस्तृत छायावाला बरगदका पेड़ देखा॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र निक्षिप्य तान् सर्वानुवाच भरतर्षभः।
पानीयं मृगयामीह विश्रमध्वमिति प्रभो ॥ १६ ॥

मूलम्

तत्र निक्षिप्य तान् सर्वानुवाच भरतर्षभः।
पानीयं मृगयामीह विश्रमध्वमिति प्रभो ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! भरतवंशियोंमें श्रेष्ठ भीमसेनने उन सबको वहीं बिठाकर कहा—‘आपलोग यहाँ विश्राम करें, तबतक मैं पानीका पता लगाता हूँ’॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एते रुवन्ति मधुरं सारसा जलचारिणः।
ध्रुवमत्र जलस्थानं महच्येति मतिर्मम ॥ १७ ॥

मूलम्

एते रुवन्ति मधुरं सारसा जलचारिणः।
ध्रुवमत्र जलस्थानं महच्येति मतिर्मम ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘ये जलचर सारस पक्षी बड़ी मीठी बोली बोल रहे हैं; (अतः) यहाँ (पासमें) अवश्य कोई महान् जलाशय होगा—ऐसा मेरा विश्वास है’॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनुज्ञातः स गच्छेति भ्रात्रा ज्येष्ठेन भारत।
जगाम तत्र यत्र स्म सारसा जलचारिणः ॥ १८ ॥

मूलम्

अनुज्ञातः स गच्छेति भ्रात्रा ज्येष्ठेन भारत।
जगाम तत्र यत्र स्म सारसा जलचारिणः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! तब बड़े भाई युधिष्ठिरने ‘जाओ!’ कहकर उन्हें अनुमति दे दी। आज्ञा पाकर भीमसेन वहीं गये, जहाँ ये जलचर सारस पक्षी कलरव कर रहे थे॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तत्र पीत्वा पानीयं स्नात्वा च भरतर्षभ।
तेषामर्थे च जग्राह भ्रातॄणां भ्रातृवत्सलः।
उत्तरीयेण पानीयमानयामास भारत ॥ १९ ॥

मूलम्

स तत्र पीत्वा पानीयं स्नात्वा च भरतर्षभ।
तेषामर्थे च जग्राह भ्रातॄणां भ्रातृवत्सलः।
उत्तरीयेण पानीयमानयामास भारत ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! वहाँ पानी पीकर स्नान कर लेनेके पश्चात् भाइयोंपर स्नेह रखनेवाले भीम उनके लिये भी चादरमें पानी ले आये॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गव्यूतिमात्रादागत्य त्वरितो मातरं प्रति।
शोकदुःखपरीतात्मा निःशश्वासोरगो यथा ॥ २० ॥

मूलम्

गव्यूतिमात्रादागत्य त्वरितो मातरं प्रति।
शोकदुःखपरीतात्मा निःशश्वासोरगो यथा ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दो कोस दूरसे जल्दी-जल्दी चलकर भीमसेन अपनी माताके पास आये। उनका मन शोक और दुःखसे व्याप्त था और वे सर्पकी भाँति लंबी सांस खींच रहे थे॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स सुप्तां मातरं दृष्ट्‌वा भ्रातॄंश्च वसुधातले।
भृशं शोकपरीतात्मा विललाप वृकोदरः ॥ २१ ॥

मूलम्

स सुप्तां मातरं दृष्ट्‌वा भ्रातॄंश्च वसुधातले।
भृशं शोकपरीतात्मा विललाप वृकोदरः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

माता और भाइयोंको धरतीपर सोया देख भीमसेन मन-ही-मन अत्यन्त शोकसे संतप्त हो गये और इस प्रकार विलाप करने लगे—॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतः कष्टतरं किं नु द्रष्टव्यं हि भविष्यति।
यत् पश्यामि महीसुप्तान् भ्रातॄनद्य सुमन्दभाक् ॥ २२ ॥

मूलम्

अतः कष्टतरं किं नु द्रष्टव्यं हि भविष्यति।
यत् पश्यामि महीसुप्तान् भ्रातॄनद्य सुमन्दभाक् ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘हाय! मैं कितना भाग्यहीन हूँ कि आज अपने भाइयोंको पृथ्वीपर सोया देख रहा हूँ। इससे महान् कष्टकी बात देखनेमें क्या आयेगी॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शयनेषु परार्घ्येषु ये पुरा वारणावते।
नाधिजग्मुस्तदा निद्रां तेऽद्य सुप्ता महीतले ॥ २३ ॥

मूलम्

शयनेषु परार्घ्येषु ये पुरा वारणावते।
नाधिजग्मुस्तदा निद्रां तेऽद्य सुप्ता महीतले ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आजसे पहले जब हमलोग वारणावत नगरमें थे, उस समय जिन्हें बहुमूल्य शय्याओंपर भी नींद नहीं आती थी, वे ही आज धरतीपर सो रहे हैं!॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वसारं वसुदेवस्य शत्रुसङ्घावमर्दिनः ।
कुन्तिराजसुतां कुन्तीं सर्वलक्षणपूजिताम् ॥ २४ ॥
स्नुषां विचित्रवीर्यस्य भार्यां पाण्डोर्महात्मनः।
तथैव चास्मज्जननीं पुण्डरीकोदरप्रभाम् ॥ २५ ॥
सुकुमारतरामेनां महार्हशयनोचिताम् ।
शयानां पश्यताद्येह पृथिव्यामतथोचिताम् ॥ २६ ॥

मूलम्

स्वसारं वसुदेवस्य शत्रुसङ्घावमर्दिनः ।
कुन्तिराजसुतां कुन्तीं सर्वलक्षणपूजिताम् ॥ २४ ॥
स्नुषां विचित्रवीर्यस्य भार्यां पाण्डोर्महात्मनः।
तथैव चास्मज्जननीं पुण्डरीकोदरप्रभाम् ॥ २५ ॥
सुकुमारतरामेनां महार्हशयनोचिताम् ।
शयानां पश्यताद्येह पृथिव्यामतथोचिताम् ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो शत्रुसमूहका संहार करनेवाले वसुदेवजीकी बहिन तथा महाराज कुन्तिभोजकी कन्या हैं, समस्त शुभ लक्षणोंके कारण जिनका सदा समादर होता आया है, जो राजा विचित्रवीर्यकी पुत्रवधू तथा महात्मा पाण्डुकी धर्मपत्नी हैं, जिन्होंने हम-जैसे पुत्रोंको जन्म दिया है, जिनकी अंगकान्ति कमलके भीतरी भागके समान है, जो अत्यन्त सुकुमार और बहुमूल्य शय्यापर शयन करनेके योग्य हैं, देखो, आज वे ही कुन्तीदेवी यहाँ भूमिपर सोयी हैं! ये कदापि इस तरह शयन करनेके योग्य नहीं हैं॥२४—२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मादिन्द्राच्च वाताच्च सुषुवे या सुतानिमान्।
सेयं भूमौ परिश्रान्ता शेते प्रासादशायिनी ॥ २७ ॥

मूलम्

धर्मादिन्द्राच्च वाताच्च सुषुवे या सुतानिमान्।
सेयं भूमौ परिश्रान्ता शेते प्रासादशायिनी ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जिन्होंने धर्म, इन्द्र और वायुके द्वारा हम-जैसे पुत्रोंको उत्पन्न किया है, वे राजमहलमें सोनेवाली महारानी कुन्ती आज परिश्रमसे थककर यहाँ पृथ्वीपर पड़ी हैं॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किं नु दुःखतरं शक्यं मया द्रष्टुमतः परम्।
योऽहमद्य नरव्याघ्रान् सुप्तान् पश्यामि भूतले ॥ २८ ॥

मूलम्

किं नु दुःखतरं शक्यं मया द्रष्टुमतः परम्।
योऽहमद्य नरव्याघ्रान् सुप्तान् पश्यामि भूतले ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इससे बढ़कर दुःख मैं और क्या देख सकता हूँ जबकि अपने नरश्रेष्ठ भाइयोंको आज मुझे धरतीपर सोते देखना पड़ रहा है॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रिषु लोकेषु यो राज्यं धर्मनित्योऽर्हते नृपः।
सोऽयं भूमौ परिश्रान्तः शेते प्राकृतवत् कथम् ॥ २९ ॥

मूलम्

त्रिषु लोकेषु यो राज्यं धर्मनित्योऽर्हते नृपः।
सोऽयं भूमौ परिश्रान्तः शेते प्राकृतवत् कथम् ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो नित्य धर्मपरायण नरेश तीनों लोकोंका राज्य पानेके अधिकारी हैं, वे ही आज साधारण मनुष्योंकी भाँति थके-माँदे पृथ्वीपर कैसे पड़े हैं॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अयं नीलाम्बुदश्यामो नरेष्वप्रतिमोऽर्जुनः ।
शेते प्राकृतवद् भूमौ ततो दुःखतरं नु किम् ॥ ३० ॥

मूलम्

अयं नीलाम्बुदश्यामो नरेष्वप्रतिमोऽर्जुनः ।
शेते प्राकृतवद् भूमौ ततो दुःखतरं नु किम् ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मनुष्योंमें जिनकी कहीं समता नहीं है, वे नील मेघके समान श्याम कान्तिवाले अर्जुन आज प्राकृत जनोंकी भाँति पृथ्वीपर सो रहे हैं; इससे महान् दुःख और क्या हो सकता है॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अश्विनाविव देवानां याविमौ रूपसम्पदा।
तौ प्राकृतवदद्येमौ प्रसुप्तौ धरणीतले ॥ ३१ ॥

मूलम्

अश्विनाविव देवानां याविमौ रूपसम्पदा।
तौ प्राकृतवदद्येमौ प्रसुप्तौ धरणीतले ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो अपनी रूप-सम्पत्तिसे देवताओंमें अश्विनीकुमारोंके समान जान पड़ते हैं, वे ही ये दोनों नकुल-सहदेव आज यहाँ साधारण मनुष्योंके समान जमीनपर सोये पड़े हैं॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ज्ञातयो यस्य नैव स्युर्विषमाः कुलपांसनाः।
स जीवेत सुखं लोके ग्रामद्रुम इवैकजः ॥ ३२ ॥

मूलम्

ज्ञातयो यस्य नैव स्युर्विषमाः कुलपांसनाः।
स जीवेत सुखं लोके ग्रामद्रुम इवैकजः ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जिसके कुटुम्बी पक्षपातयुक्त और कुलको कलंक लगानेवाले नहीं होते, वह पुरुष गाँवके अकेले वृक्षकी भाँति संसारमें सुखपूर्वक जीवन धारण करता है॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एको वृक्षो हि यो ग्रामे भवेत् पर्णफलान्वितः।
चैत्यो भवति निर्ज्ञातिरर्चनीयः सुपूजितः ॥ ३३ ॥

मूलम्

एको वृक्षो हि यो ग्रामे भवेत् पर्णफलान्वितः।
चैत्यो भवति निर्ज्ञातिरर्चनीयः सुपूजितः ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘गाँवमें यदि एक ही वृक्ष पत्र और फल-फूलोंसे सम्पन्न हो तो वह दूसरे सजातीय वृक्षोंसे रहित होनेपर भी चैत्य (देववृक्ष) माना जाता है तथा उसे पूज्य मानकर उसकी खूब पूजा की जाती है॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

येषां च बहवः शूरा ज्ञातयो धर्ममाश्रिताः।
ते जीवन्ति सुखं लोके भवन्ति च निरामयाः ॥ ३४ ॥

मूलम्

येषां च बहवः शूरा ज्ञातयो धर्ममाश्रिताः।
ते जीवन्ति सुखं लोके भवन्ति च निरामयाः ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जिनके बहुत-से शूरवीर भाई-बन्धु धर्म-परायण होते हैं, वे भी संसारमें नीरोग रहते और सुखसे जीते हैं॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बलवन्तः समृद्धार्था मित्रबान्धवनन्दनाः ।
जीवन्त्यन्योन्यमाश्रित्य द्रुमाः काननजा इव ॥ ३५ ॥

मूलम्

बलवन्तः समृद्धार्था मित्रबान्धवनन्दनाः ।
जीवन्त्यन्योन्यमाश्रित्य द्रुमाः काननजा इव ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो बलवान्, धनसम्पन्न तथा मित्रों और भाई-बन्धुओंको आनन्दित करनेवाले हैं, वे जंगलके वृक्षोंकी भाँति एक-दूसरेके सहारे जीवन धारण करते हैं॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वयं तु धृतराष्ट्रेण सपुत्रेण दुरात्मना।
विवासिता न दग्धाश्च कथंचिद् दैवसंश्रयात् ॥ ३६ ॥

मूलम्

वयं तु धृतराष्ट्रेण सपुत्रेण दुरात्मना।
विवासिता न दग्धाश्च कथंचिद् दैवसंश्रयात् ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘दुरात्मा धृतराष्ट्र और उसके पुत्रोंने तो हमें घरसे निकाल दिया और जलानेकी भी चेष्टा की, परंतु किसी तरह भाग्यके भरोसे हम बच गये हैं॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मान्मुक्ता वयं दाहादिमं वृक्षमुपाश्रिताः।
कां दिशं प्रतिपत्स्यमः प्राप्ताः क्लेशमनुत्तमम् ॥ ३७ ॥

मूलम्

तस्मान्मुक्ता वयं दाहादिमं वृक्षमुपाश्रिताः।
कां दिशं प्रतिपत्स्यमः प्राप्ताः क्लेशमनुत्तमम् ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आज उस अग्निदाहसे मुक्त हो हम इस वृक्षके नीचे आश्रय ले रहे हैं। हमें किस दिशामें जाना है, इसका भी पता नहीं है। हम भारी-से-भारी कष्ट उठा रहे हैं॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सकामो भव दुर्बुद्धे धार्तराष्ट्राल्पदर्शन।
नूनं देवाः प्रसन्नास्ते नानुज्ञां मे युधिष्ठिरः ॥ ३८ ॥
प्रयच्छति वधे तुभ्यं तेन जीवसि दुर्मते।
नन्वद्य त्वां सहामात्यं सकर्णानुजसौबलम् ॥ ३९ ॥
गत्वा क्रोधसमाविष्टः प्रेषयिष्ये यमक्षयम्।
किं नु शक्यं मया कर्तुं यत् ते न क्रुध्यते नृपः॥४०॥
धर्मात्मा पाण्डवश्रेष्ठः पापाचार युधिष्ठिरः।
एवमुक्त्वा महाबाहुः क्रोधसंदीप्तमानसः ॥ ४१ ॥
करं करेण निष्पिष्य निःश्वसन् दीनमानसः।
पुनर्दीनमना भूत्वा शान्तार्चिरिव पावकः ॥ ४२ ॥
भ्रातॄन् महीतले सुप्तानवैक्षत वृकोदरः।
विश्वस्तानिव संविष्टान् पृथग्जनसमानिव ॥ ४३ ॥

मूलम्

सकामो भव दुर्बुद्धे धार्तराष्ट्राल्पदर्शन।
नूनं देवाः प्रसन्नास्ते नानुज्ञां मे युधिष्ठिरः ॥ ३८ ॥
प्रयच्छति वधे तुभ्यं तेन जीवसि दुर्मते।
नन्वद्य त्वां सहामात्यं सकर्णानुजसौबलम् ॥ ३९ ॥
गत्वा क्रोधसमाविष्टः प्रेषयिष्ये यमक्षयम्।
किं नु शक्यं मया कर्तुं यत् ते न क्रुध्यते नृपः॥४०॥
धर्मात्मा पाण्डवश्रेष्ठः पापाचार युधिष्ठिरः।
एवमुक्त्वा महाबाहुः क्रोधसंदीप्तमानसः ॥ ४१ ॥
करं करेण निष्पिष्य निःश्वसन् दीनमानसः।
पुनर्दीनमना भूत्वा शान्तार्चिरिव पावकः ॥ ४२ ॥
भ्रातॄन् महीतले सुप्तानवैक्षत वृकोदरः।
विश्वस्तानिव संविष्टान् पृथग्जनसमानिव ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘ओ दुर्बुद्धि अल्पदर्शी धृतराष्ट्रकुमार दुर्योधन! आज तेरी कामना पूरी हुई। निश्चय ही देवता तुझपर प्रसन्न हैं। तभी तो राजा युधिष्ठिर मुझे तेरा वध करनेकी आज्ञा नहीं दे रहे हैं। दुर्मते! यही कारण है कि तू अबतक जी रहा है। रे पापाचारी! मैं आज ही जाकर कुपित हो मन्त्रियों, कर्ण, छोटे भाई और शकुनिसहित तुझे यमलोक भेज सकता हूँ। किंतु क्या करूँ, पाण्डवश्रेष्ठ धर्मात्मा युधिष्ठिर तुझपर कोप नहीं कर रहे हैं’।
यों कहकर महाबाहु भीम मन-ही-मन क्रोधसे जलते और हाथ-से-हाथ मलते हुए दीनभावसे लंबी साँसें खींचने लगे। बुझी हुई लपटोंवाली अग्निकी भाँति दीनहृदय होकर वे पुनः धरतीपर सोये हुए भाइयोंकी ओर देखने लगे। उनके वे सभी भाई साधारण लोगोंकी भाँति भूमिधर ही निश्चिन्ततापूर्वक सो रहे थे॥३८—४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नातिदूरेण नगरं वनादस्माद्धि लक्षये।
जागर्तव्ये स्वपन्तीमे हन्त जागर्म्यहं स्वयम् ॥ ४४ ॥
पास्यन्तीमे जलं पश्चात् प्रतिबुद्धा जितक्लमाः।
इति भीमो व्यवस्यैव जजागार स्वयं तदा ॥ ४५ ॥

मूलम्

नातिदूरेण नगरं वनादस्माद्धि लक्षये।
जागर्तव्ये स्वपन्तीमे हन्त जागर्म्यहं स्वयम् ॥ ४४ ॥
पास्यन्तीमे जलं पश्चात् प्रतिबुद्धा जितक्लमाः।
इति भीमो व्यवस्यैव जजागार स्वयं तदा ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय भीम इस प्रकार विचार करने लगे—‘अहो! इस वनसे थोड़ी ही दूरीपर कोई नगर दिखायी देता है। जबकि जागना चाहिये, ऐसे समय भी ये मेरे भाई सो रहे हैं। अच्छा, मैं स्वयं ही जागरण करूँ। थकावट दूर होनेपर जब ये नींदसे उठेंगे, तभी पानी पियेंगे।’ ऐसा निश्चय करके भीमसेन स्वयं उस समय जागरण करने लगे॥४४-४५॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि जतुगृहपर्वणि भीमजलाहरणे पञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १५० ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत जतुगृहपर्वमें भीमसेनके जल ले आनेसे सम्बन्ध रखनेवाला एक सौ पचासवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१५०॥