श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना
अष्टचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
विदुरजीके भेजे हुए नाविकका पाण्डवोंको गंगाजीके पार उतारना
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतस्मिन्नेव काले तु यथासम्प्रत्ययं कविः।
विदुरः प्रेषयामास तद् वनं पुरुषं शुचिम् ॥ १ ॥
मूलम्
एतस्मिन्नेव काले तु यथासम्प्रत्ययं कविः।
विदुरः प्रेषयामास तद् वनं पुरुषं शुचिम् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! इसी समय परम ज्ञानी विदुरजीने अपने विश्वासके अनुसार एक शुद्ध विचारवाले पुरुषको उस वनमें भेजा॥१॥
सूचना (हिन्दी)
सुरंगद्वारा मातासहित पाण्डवोंका लाक्षागृहसे निकलना
विश्वास-प्रस्तुतिः
स गत्वा तु यथोद्देशं पाण्डवान् ददृशे वने।
जनन्या सह कौरव्य मापयानान् नदीजलम् ॥ २ ॥
मूलम्
स गत्वा तु यथोद्देशं पाण्डवान् ददृशे वने।
जनन्या सह कौरव्य मापयानान् नदीजलम् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुरुनन्दन! उसने विदुरजीके बताये अनुसार ठीक स्थानपर पहुँचकर वनमें मातासहित पाण्डवोंको देखा, जो नदीमें कितना जल है, इसका अनुमान लगा रहे थे॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विदितं तन्महाबुद्धेर्विदुरस्य महात्मनः ।
ततस्तस्यापि चारेण चेष्टितं पापचेतसः ॥ ३ ॥
ततः प्रवासितो विद्वान् विदुरेण नरस्तदा।
पार्थानां दर्शयामास मनोमारुतगामिनीम् ॥ ४ ॥
सर्ववातसहां नावं यन्त्रयुक्तां पताकिनीम्।
शिवे भागीरथीतीरे नरैर्विस्रम्भिभिः कृताम् ॥ ५ ॥
मूलम्
विदितं तन्महाबुद्धेर्विदुरस्य महात्मनः ।
ततस्तस्यापि चारेण चेष्टितं पापचेतसः ॥ ३ ॥
ततः प्रवासितो विद्वान् विदुरेण नरस्तदा।
पार्थानां दर्शयामास मनोमारुतगामिनीम् ॥ ४ ॥
सर्ववातसहां नावं यन्त्रयुक्तां पताकिनीम्।
शिवे भागीरथीतीरे नरैर्विस्रम्भिभिः कृताम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परम बुद्धिमान् महात्मा विदुरको गुप्तचरद्वारा उस पापासक्त पुरोचनकी चेष्टाओंका भी पता चल गया था। इसीलिये उन्होंने उस समय उस बुद्धिमान् मनुष्यको वहाँ भेजा था। उसने मन और वायुके समान वेगसे चलनेवाली एक नाव पाण्डवोंको दिखायी, जो सब प्रकारसे हवाका वेग सहनेमें समर्थ और ध्वजा-पताकाओंसे सुशोभित थी। उस नौकाको चलानेके लिये यन्त्र लगाया गया था। वह नाव गंगाजीके पावन तटपर विद्यमान थी और उसे विश्वासी मनुष्योंने बनाकर तैयार किया था॥३—५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः पुनरथोवाच ज्ञापकं पूर्वचोदितम्।
युधिष्ठिर निबोधेदं संज्ञार्थं वचनं कवेः ॥ ६ ॥
मूलम्
ततः पुनरथोवाच ज्ञापकं पूर्वचोदितम्।
युधिष्ठिर निबोधेदं संज्ञार्थं वचनं कवेः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर उस मनुष्यने कहा—‘युधिष्ठिरजी! ज्ञानी विदुरजीके द्वारा पहले कही हुई यह बात, जो मेरी विश्वसनीयताको सूचित करनेवाली है, पुनः सुनिये। मैं आपको संकेतके तौरपर स्मरण दिलानेके लिये इसे कहता हूँ॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कक्षघ्नः शिशिरघ्नश्च महाकक्षे बिलौकसः।
न हन्तीत्येवमात्मानं यो रक्षति स जीवति ॥ ७ ॥
मूलम्
कक्षघ्नः शिशिरघ्नश्च महाकक्षे बिलौकसः।
न हन्तीत्येवमात्मानं यो रक्षति स जीवति ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘(तुमसे विदुरजीने कहा था—) ‘घास-फूस तथा सूखे वृक्षोंके जंगलको जलानेवाली और सर्दीको नष्ट कर देनेवाली आग विशाल वनमें फैल जानेपर भी बिलमें रहनेवाले चूहे आदि जन्तुओंको नहीं जला सकती। यों समझकर जो अपनी रक्षाका उपाय करता है, वही जीवित रहता है’॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेन मां प्रेषितं विद्धि विश्वस्तं संज्ञयानया।
भूयश्चैवाह मां क्षत्ता विदुरः सर्वतोऽर्थवित् ॥ ८ ॥
कर्णं दुर्योधनं चैव भ्रातृभिः सहितं रणे।
शकुनिं चैव कौन्तेय विजेतासि न संशयः ॥ ९ ॥
मूलम्
तेन मां प्रेषितं विद्धि विश्वस्तं संज्ञयानया।
भूयश्चैवाह मां क्षत्ता विदुरः सर्वतोऽर्थवित् ॥ ८ ॥
कर्णं दुर्योधनं चैव भ्रातृभिः सहितं रणे।
शकुनिं चैव कौन्तेय विजेतासि न संशयः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इस संकेतसे आप यह जान लें कि ‘मैं विश्वास-पात्र हूँ और विदुरजीने ही मुझे भेजा है।’ इसके सिवा, सर्वतोभावेन अर्थसिद्धिका ज्ञान रखनेवाले विदुरजीने पुनः मुझसे आपके लिये यह संदेश दिया कि ‘कुन्ती-नन्दन! तुम युद्धमें भाइयोंसहित दुर्योधन, कर्ण और शकुनिको अवश्य परास्त करोगे, इसमें संशय नहीं है॥८-९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इयं वारिपथे युक्ता नौरप्सु सुखगामिनी।
मोचयिष्यति वः सर्वानस्माद् देशान्न संशयः ॥ १० ॥
मूलम्
इयं वारिपथे युक्ता नौरप्सु सुखगामिनी।
मोचयिष्यति वः सर्वानस्माद् देशान्न संशयः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यह नौका जलमार्गके लिये उपयुक्त है। जलमें यह बड़ी सुगमतासे चलनेवाली है। यह नाव तुम सब लोगोंको इस देशसे दूर छोड़ देगी, इसमें संदेह नहीं है’॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ तान् व्यथितान् दृष्ट्वा सह मात्रा नरोत्तमान्।
नावमारोप्य गङ्गायां प्रस्थितानब्रवीत् पुनः ॥ ११ ॥
मूलम्
अथ तान् व्यथितान् दृष्ट्वा सह मात्रा नरोत्तमान्।
नावमारोप्य गङ्गायां प्रस्थितानब्रवीत् पुनः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद मातासहित नरश्रेष्ठ पाण्डवोंको अत्यन्त दुःखी देख नाविकने उन सबको नावपर चढ़ाया और जब वे गंगाके मार्गसे प्रस्थान करने लगे, तब फिर इस प्रकार कहा—॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विदुरो मूर्ध्न्युपाघ्राय परिष्वज्य वचो मुहुः।
अरिष्टं गच्छताव्यग्राः पन्थानमिति चाब्रवीत् ॥ १२ ॥
मूलम्
विदुरो मूर्ध्न्युपाघ्राय परिष्वज्य वचो मुहुः।
अरिष्टं गच्छताव्यग्राः पन्थानमिति चाब्रवीत् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘विदुरजीने आप सभी पाण्डुपुत्रोंको भावनाद्वारा हृदयसे लगाकर और मस्तक सूँघकर यह आशीर्वाद फिर कहलाया है कि ‘तुम शान्तचित्त हो कुशलपूर्वक मार्गपर बढ़ते जाओ’॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्त्वा स तु तान् वीरान् पुमान् विदुरचोदितः।
तारयामास राजेन्द्र गङ्गां नावा नरर्षभान् ॥ १३ ॥
मूलम्
इत्युक्त्वा स तु तान् वीरान् पुमान् विदुरचोदितः।
तारयामास राजेन्द्र गङ्गां नावा नरर्षभान् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! विदुरजीके भेजनेसे आये हुए उस नाविकने उन शूरवीर नरश्रेष्ठ पाण्डवोंसे ऐसी बात कहकर उसी नावसे उन्हें गंगाजीके पार उतार दिया॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तारयित्वा ततो गङ्गां पारं प्राप्तांश्च सर्वशः।
जयाशिषः प्रयुज्याथ यथागतमगाद्धि सः ॥ १४ ॥
मूलम्
तारयित्वा ततो गङ्गां पारं प्राप्तांश्च सर्वशः।
जयाशिषः प्रयुज्याथ यथागतमगाद्धि सः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पार उतारनेके पश्चात् जब वे गंगाजीके दूसरे तटपर जा पहुँचे, तब उन सबके लिये ‘जय हो, जय हो’ यह आशीर्वाद सुनाकर वह नाविक जैसे आया था, उसी प्रकार लौट गया॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पाण्डवाश्च महात्मानः प्रतिसंदिश्य वै कवेः।
गङ्गामुत्तीर्य वेगेन जग्मुर्गूढमलक्षिताः ॥ १५ ॥
मूलम्
पाण्डवाश्च महात्मानः प्रतिसंदिश्य वै कवेः।
गङ्गामुत्तीर्य वेगेन जग्मुर्गूढमलक्षिताः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महात्मा पाण्डव भी विद्वान् विदुरजीको उनके संदेशका उत्तर देकर गंगापार हो अपनेको छिपाते हुए वेगपूर्वक वहाँसे चल दिये। कोई भी उन्हें देख या पहचान न सका॥१५॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि जतुगृहपर्वणि गङ्गोत्तरणे अष्टचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १४८ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत जतुगृहपर्वमें पाण्डवोंके गंगापार होनेसे सम्बन्ध रखनेवाला एक सौ अड़तालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१४८॥