१४७ ज्वालनम्

श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना

सप्तचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

लाक्षागृहका दाह और पाण्डवोंका सुरंगके रास्ते निकल जाना

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तांस्तु दृष्ट्‌वा सुमनसः परिसंवत्सरोषितान्।
विश्वस्तानिव संलक्ष्य हर्षं चक्रे पुरोचनः ॥ १ ॥
पुरोचने तथा हृष्टे कौन्तेयोऽथ युधिष्ठिरः।
भीमसेनार्जुनौ चोभौ यमौ प्रोवाच धर्मवित् ॥ २ ॥

मूलम्

तांस्तु दृष्ट्‌वा सुमनसः परिसंवत्सरोषितान्।
विश्वस्तानिव संलक्ष्य हर्षं चक्रे पुरोचनः ॥ १ ॥
पुरोचने तथा हृष्टे कौन्तेयोऽथ युधिष्ठिरः।
भीमसेनार्जुनौ चोभौ यमौ प्रोवाच धर्मवित् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! पाण्डवोंको एक वर्षसे वहाँ प्रसन्नचित्त हो विश्वस्तकी तरह रहते हुए देख पुरोचनको बड़ा हर्ष हुआ। उसके इस प्रकार प्रसन्न होनेपर धर्मके ज्ञाता कुन्तीनन्दन युधिष्ठिरने भीमसेन, अर्जुन, नकुल और सहदेवसे इस प्रकार कहा—॥१-२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्मानयं सुविश्वस्तान् वेत्ति पापः पुरोचनः।
वञ्चितोऽयं नृशंसात्मा कालं मन्ये पलायने ॥ ३ ॥

मूलम्

अस्मानयं सुविश्वस्तान् वेत्ति पापः पुरोचनः।
वञ्चितोऽयं नृशंसात्मा कालं मन्ये पलायने ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पापी पुरोचन हमलोगोंको पूर्ण विश्वस्त समझ रहा है। इस क्रूरको अबतक हमलोगोंने धोखा दिया है। अब मेरी रायमें हमारे भाग निकलनेका यह उपयुक्त अवसर आ गया है॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आयुधागारमादीप्य दग्ध्वा चैव पुरोचनम्।
षट् प्राणिनो निधायेह द्रवामोऽनभिलक्षिताः ॥ ४ ॥

मूलम्

आयुधागारमादीप्य दग्ध्वा चैव पुरोचनम्।
षट् प्राणिनो निधायेह द्रवामोऽनभिलक्षिताः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इस आयुधागारमें आग लगाकर पुरोचनको जला करके इसके भीतर छः प्राणियोंको रखकर हम इस तरह भाग निकलें कि कोई हमें देख न सके’॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ दानापदेशेन कुन्ती ब्राह्मणभोजनम्।
चक्रे निशि महाराज आजग्मुस्तत्र योषितः ॥ ५ ॥
ता विहृत्य यथाकामं भुक्त्वा पीत्वा च भारत।
जग्मुर्निशि गृहानेव समनुज्ञाप्य माधवीम् ॥ ६ ॥

मूलम्

अथ दानापदेशेन कुन्ती ब्राह्मणभोजनम्।
चक्रे निशि महाराज आजग्मुस्तत्र योषितः ॥ ५ ॥
ता विहृत्य यथाकामं भुक्त्वा पीत्वा च भारत।
जग्मुर्निशि गृहानेव समनुज्ञाप्य माधवीम् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! तदनन्तर एक दिन रात्रिके समय कुन्तीने दान देनेके निमित्त ब्राह्मण-भोजन कराया। उसमें बहुत-सी स्त्रियाँ भी आयी थीं। भारत! वे सब स्त्रियाँ इच्छानुसार घूम-फिरकर खा-पी लेनेके बाद कुन्तीदेवीसे आज्ञा ले रातमें फिर अपने-अपने घरोंको ही लौट गयीं॥५-६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निषादी पञ्चपुत्रा तु तस्मिन् भोज्ये यदृच्छया।
अन्नार्थिनी समभ्यागात् सपुत्रा कालचोदिता ॥ ७ ॥
सा पीत्वा मदिरां मत्ता सपुत्रा मदविह्वला।
सह सर्वैः सुतै राजंस्तस्मिन्नेव निवेशने ॥ ८ ॥
सुष्वाप विगतज्ञाना मृतकल्पा नराधिप।
अथ प्रवाते तुमुले निशि सुप्ते जने तदा ॥ ९ ॥
तदुपादीपयद् भीमः शेते यत्र पुरोचनः।
ततो जतुगृहद्वारं दीपयामास पाण्डवः ॥ १० ॥

मूलम्

निषादी पञ्चपुत्रा तु तस्मिन् भोज्ये यदृच्छया।
अन्नार्थिनी समभ्यागात् सपुत्रा कालचोदिता ॥ ७ ॥
सा पीत्वा मदिरां मत्ता सपुत्रा मदविह्वला।
सह सर्वैः सुतै राजंस्तस्मिन्नेव निवेशने ॥ ८ ॥
सुष्वाप विगतज्ञाना मृतकल्पा नराधिप।
अथ प्रवाते तुमुले निशि सुप्ते जने तदा ॥ ९ ॥
तदुपादीपयद् भीमः शेते यत्र पुरोचनः।
ततो जतुगृहद्वारं दीपयामास पाण्डवः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परंतु दैवेच्छासे उस भोजके समय एक भीलनी अपने पाँच बेटोंके साथ वहाँ भोजनकी इच्छासे आयी, मानो कालने ही उसे प्रेरित करके वहाँ भेजा था। वह भीलनी मदिरा पीकर मतवाली हो चुकी थी। उसके पुत्र भी शराब पीकर मस्त थे। राजन्! शराबके नशेमें बेहोश होनेके कारण अपने सब पुत्रोंके साथ वह उसी घरमें सो गयी। उस समय वह अपनी सुध-बुध खोकर मृतक-सी हो रही थी। रातमें जब सब लोग सो गये, उस समय सहसा बड़े जोरकी आँधी चली। तब भीमसेनने उस जगह आग लगा दी, जहाँ पुरोचन सो रहा था। फिर उन्होंने लाक्षागृहके प्रमुख द्वारपर आग लगायी॥७—१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समन्ततो ददौ पश्चादग्निं तत्र निवेशने।
ज्ञात्वा तु तद् गृहं सर्वमादीप्तं पाण्डुनन्दनाः ॥ ११ ॥
सुरङ्गां विविशुस्तूर्णं मात्रा सार्धमरिंदमाः।
ततः प्रतापः सुमहाञ्छब्दश्चैव विभावसोः ॥ १२ ॥
प्रादुरासीत् तदा तेन बुबुधे स जनव्रजः।
तदवेक्ष्य गृहं दीप्तमाहुः पौराः कृशाननाः ॥ १३ ॥

मूलम्

समन्ततो ददौ पश्चादग्निं तत्र निवेशने।
ज्ञात्वा तु तद् गृहं सर्वमादीप्तं पाण्डुनन्दनाः ॥ ११ ॥
सुरङ्गां विविशुस्तूर्णं मात्रा सार्धमरिंदमाः।
ततः प्रतापः सुमहाञ्छब्दश्चैव विभावसोः ॥ १२ ॥
प्रादुरासीत् तदा तेन बुबुधे स जनव्रजः।
तदवेक्ष्य गृहं दीप्तमाहुः पौराः कृशाननाः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके पश्चात् उन्होंने उस घरके चारों ओर आग लगा दी। जब वह सारा घर अग्निकी लपेटमें आ गया, तब यह जानकर शत्रुओंका दमन करनेवाले पाण्डव अपनी माताके साथ सुरंगमें घुस गये; फिर तो वहाँ अग्निकी भयंकर लपटें उठने लगीं, भीषण ताप फैल गया। घरको जलानेवाली उस आगका महान् चट-चट शब्द सुनायी देने लगा। इससे उस नगरका जनसमूह जाग उठा। उस घरको जलता देख पुरवासियोंके मुखपर दीनता छा गयी। वे व्याकुल होकर कहने लगे॥११—१३॥

मूलम् (वचनम्)

पौरा ऊचुः

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुर्योधनप्रयुक्तेन पापेनाकृतबुद्धिना ।
गृहमात्मविनाशाय कारितं दाहितं च तत् ॥ १४ ॥
अहो धिग् धृतराष्ट्रस्य बुद्धिर्नातिसमञ्जसा।
यः शुचीन् पाण्डुदायादान्‌ दाहयामास शत्रुवत् ॥ १५ ॥

मूलम्

दुर्योधनप्रयुक्तेन पापेनाकृतबुद्धिना ।
गृहमात्मविनाशाय कारितं दाहितं च तत् ॥ १४ ॥
अहो धिग् धृतराष्ट्रस्य बुद्धिर्नातिसमञ्जसा।
यः शुचीन् पाण्डुदायादान्‌ दाहयामास शत्रुवत् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुरवासी बोले— अहो! पुरोचनका अन्तःकरण अपने वशमें नहीं था। उस पापीने दुर्योधनकी आज्ञासे अपने ही विनाशके लिये इस घरको बनवाया और जला भी दिया! अहो! धिक्कार है, धृतराष्ट्रकी बुद्धि बहुत बिगड़ गयी है, जिसने शुद्ध हृदयवाले पाण्डुपुत्रोंको शत्रुकी भाँति आगमें जला दिया॥१४-१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिष्ट्या त्विदानीं पापात्मा दग्धोऽयमतिदुर्मतिः।
अनागसः सुविश्वस्तान् यो ददाह नरोत्तमान् ॥ १६ ॥

मूलम्

दिष्ट्या त्विदानीं पापात्मा दग्धोऽयमतिदुर्मतिः।
अनागसः सुविश्वस्तान् यो ददाह नरोत्तमान् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सौभाग्यकी बात है कि यह अत्यन्त खोटी बुद्धिवाला पापात्मा पुरोचन भी इस समय दग्ध हो गया है, जिसने बिना किसी अपराधके अपने ऊपर पूर्ण विश्वास करनेवाले नरश्रेष्ठ पाण्डवोंको जला दिया है॥१६॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं ते विलपन्ति स्म वारणावतका जनाः।
परिवार्य गृहं तच्च तस्थू रात्रौ समन्ततः ॥ १७ ॥

मूलम्

एवं ते विलपन्ति स्म वारणावतका जनाः।
परिवार्य गृहं तच्च तस्थू रात्रौ समन्ततः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! इस प्रकार वारणावतके लोग विलाप करने लगे। वे रातभर उस घरको चारों ओरसे घेरकर खड़े रहे॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पाण्डवाश्चापि ते सर्वे सह मात्रा सुदुःखिताः।
बिलेन तेन निर्गत्य जग्मुर्द्रुतमलक्षिताः ॥ १८ ॥

मूलम्

पाण्डवाश्चापि ते सर्वे सह मात्रा सुदुःखिताः।
बिलेन तेन निर्गत्य जग्मुर्द्रुतमलक्षिताः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उधर समस्त पाण्डव भी अत्यन्त दुःखी हो अपनी माताके साथ सुरंगके मार्गसे निकलकर तुरंत ही दूर चले गये। उन्हें कोई भी देख न सका॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेन निद्रोपरोधेन साध्वसेन च पाण्डवाः।
न शेकुः सहसा गन्तुं सह मात्रा परंतपाः ॥ १९ ॥

मूलम्

तेन निद्रोपरोधेन साध्वसेन च पाण्डवाः।
न शेकुः सहसा गन्तुं सह मात्रा परंतपाः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नींद न ले सकनेके कारण आलस्य और भयसे युक्त परंतप पाण्डव अपनी माताके साथ जल्दी-जल्दी चल नहीं पाते थे॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भीमसेनस्तु राजेन्द्र भीमवेगपराक्रमः ।
जगाम भ्रातॄनादाय सर्वान् मातरमेव च ॥ २० ॥
स्कन्धमारोप्य जननीं यमावङ्केन वीर्यवान्।
पार्थौ गृहीत्वा पाणिभ्यां भ्रातरौ सुमहाबलः ॥ २१ ॥

मूलम्

भीमसेनस्तु राजेन्द्र भीमवेगपराक्रमः ।
जगाम भ्रातॄनादाय सर्वान् मातरमेव च ॥ २० ॥
स्कन्धमारोप्य जननीं यमावङ्केन वीर्यवान्।
पार्थौ गृहीत्वा पाणिभ्यां भ्रातरौ सुमहाबलः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजेन्द्र! भयंकर वेग और पराक्रमवाले भीमसेन अपने सब भाइयों तथा माताको भी साथ लिये चल रहे थे। वे महान् बल और पराक्रमसे सम्पन्न थे। उन्होंने माताको तो कंधेपर चढ़ा लिया और नकुल-सहदेवको गोदमें उठा लिया तथा शेष दोनों भाइयोंको दोनों हाथोंसे पकड़कर उन्हें सहारा देते हुए चलने लगे॥२०-२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उरसा पादपान् भञ्जन् महीं पद्भ्यां विदारयन्।
स जगामाशु तेजस्वी वातरंहा वृकोदरः ॥ २२ ॥

मूलम्

उरसा पादपान् भञ्जन् महीं पद्भ्यां विदारयन्।
स जगामाशु तेजस्वी वातरंहा वृकोदरः ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तेजस्वी भीम वायुके समान वेगशाली थे। वे अपनी छातीके धक्केसे वृक्षोंको तोड़ते और पैरोंकी ठोकरसे पृथ्वीको विदीर्ण करते हुए तीव्र गतिसे आगे बढ़े जा रहे थे॥२२॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि जतुगृहपर्वणि जतुगृहदाहे सप्तचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १४७ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत जतुगृहपर्वमें जतुगृहदाहविषयक एक सौ सैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१४७॥