१४६ सुरङ्ग-करणम्

श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना

षट्‌चत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

विदुरके भेजे हुए खनकद्वारा लाक्षागृहमें सुरंगका निर्माण

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

विदुरस्य सुहृत् कश्चित् खनकः कुशलो नरः।
विविक्ते पाण्डवान् राजन्निदं वचनमब्रवीत् ॥ १ ॥

मूलम्

विदुरस्य सुहृत् कश्चित् खनकः कुशलो नरः।
विविक्ते पाण्डवान् राजन्निदं वचनमब्रवीत् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! एक सुरंग खोदनेवाला मनुष्य विदुरजीका हितैषी एवं विश्वास-पात्र था। वह अपने काममें बड़ा चतुर था। एक दिन वह एकान्तमें पाण्डवोंसे मिला और इस प्रकार कहने लगा—॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रहितो विदुरेणास्मि खनकः कुशलो ह्यहम्।
पाण्डवानां प्रियं कार्यमिति किं करवाणि वः ॥ २ ॥
प्रच्छन्नं विदुरेणोक्तः श्रेयस्त्वमिति पाण्डवान्।
प्रतिपादय विश्वासादिति किं करवाणि वः ॥ ३ ॥

मूलम्

प्रहितो विदुरेणास्मि खनकः कुशलो ह्यहम्।
पाण्डवानां प्रियं कार्यमिति किं करवाणि वः ॥ २ ॥
प्रच्छन्नं विदुरेणोक्तः श्रेयस्त्वमिति पाण्डवान्।
प्रतिपादय विश्वासादिति किं करवाणि वः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मुझे विदुरजीने भेजा है। मैं सुरंग खोदनेके काममें बड़ा निपुण हूँ। मुझे आप पाण्डवोंका प्रिय कार्य करना है, अतः आपलोग बतायें, मैं आपकी क्या सेवा करूँ? विदुरने गुप्तरूपसे मुझसे यह कहा है कि तुम वारणावतमें जाकर विश्वासपूर्वक पाण्डवोंका हित सम्पादन करो। अतः आप आज्ञा कीजिये कि मैं क्या करूँ?॥२-३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृष्णपक्षे चतुर्दश्यां रात्रावस्यां पुरोचनः।
भवनस्य तव द्वारि प्रदास्यति हुताशनम् ॥ ४ ॥

मूलम्

कृष्णपक्षे चतुर्दश्यां रात्रावस्यां पुरोचनः।
भवनस्य तव द्वारि प्रदास्यति हुताशनम् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इसी कृष्णपक्षकी चतुर्दशीकी रातको पुरोचन आपके घरके दरवाजेपर आग लगा देगा॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मात्रा सह प्रदग्धव्याः पाण्डवाः पुरुषर्षभाः।
इति व्यवसितं तस्य धार्तराष्ट्रस्य दुर्मतेः ॥ ५ ॥

मूलम्

मात्रा सह प्रदग्धव्याः पाण्डवाः पुरुषर्षभाः।
इति व्यवसितं तस्य धार्तराष्ट्रस्य दुर्मतेः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘दुर्बुद्धि दुर्योधनकी यह चेष्टा है कि नरश्रेष्ठ पाण्डव अपनी माताके साथ जला दिये जायँ॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किंचिच्च विदुरेणोक्तो म्लेच्छवाचासि पाण्डव।
त्वया च तत् तथेत्युक्तमेतद् विश्वासकारणम् ॥ ६ ॥

मूलम्

किंचिच्च विदुरेणोक्तो म्लेच्छवाचासि पाण्डव।
त्वया च तत् तथेत्युक्तमेतद् विश्वासकारणम् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पाण्डुनन्दन! विदुरजीने म्लेच्छभाषामें आपको कुछ संकेत किया था और आपने ‘तथास्तु’ कहकर उसे स्वीकार किया था। यह बात मैं विश्वास दिलानेके लिये कहता हूँ’॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उवाच तं सत्यधृतिः कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः।
अभिजानामि सौम्य त्वां सुहृदं विदुरस्य वै ॥ ७ ॥
शुचिमाप्तं प्रियं चैव सदा च दृढभक्तिकम्।
न विद्यते कवेः किंचिदविज्ञातं प्रयोजनम् ॥ ८ ॥

मूलम्

उवाच तं सत्यधृतिः कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः।
अभिजानामि सौम्य त्वां सुहृदं विदुरस्य वै ॥ ७ ॥
शुचिमाप्तं प्रियं चैव सदा च दृढभक्तिकम्।
न विद्यते कवेः किंचिदविज्ञातं प्रयोजनम् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब सत्यवादी कुन्तीकुमार युधिष्ठिरने उससे कहा—‘सौम्य! मैं तुम्हें पहचानता हूँ। तुम विदुरजीके हितैषी, ईमानदार, विश्वसनीय, प्रिय तथा उनके प्रति सदा अविचल भक्ति रखनेवाले हो। हमारा कोई भी ऐसा प्रयोजन नहीं है, जो परम ज्ञानी विदुरजीको ज्ञात न हो॥७-८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा तस्य तथा नस्त्वं निर्विशेषा वयं त्वयि।
भवतश्च यथा तस्य पालयास्मान् यथा कविः ॥ ९ ॥

मूलम्

यथा तस्य तथा नस्त्वं निर्विशेषा वयं त्वयि।
भवतश्च यथा तस्य पालयास्मान् यथा कविः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुम विदुरजीके लिये जैसे आदरणीय और विश्वसनीय हो, वैसे ही हमारे लिये भी हो। तुमसे हमारा कोई अन्तर नहीं है। हमलोग जिस प्रकार विदुरजीके पालनीय हैं, वैसे ही तुम्हारे भी हैं। जैसे वे हमारी रक्षा करते हैं, वैसे ही तुम भी करो॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इदं शरणमाग्नेयं मदर्थमिति मे मतिः।
पुरोचनेन विहितं धार्तराष्ट्रस्य शासनात् ॥ १० ॥

मूलम्

इदं शरणमाग्नेयं मदर्थमिति मे मतिः।
पुरोचनेन विहितं धार्तराष्ट्रस्य शासनात् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यह घर आग भड़कानेवाले पदार्थोंसे बना है। हमारा विश्वास है कि दुर्योधनके आदेशसे पुरोचनने हमारे लिये ही इसे बनवाया है॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स पापः कोषवांश्चैव ससहायश्च दुर्मतिः।
अस्मानपि च पापात्मा नित्यकालं प्रबाधते ॥ ११ ॥

मूलम्

स पापः कोषवांश्चैव ससहायश्च दुर्मतिः।
अस्मानपि च पापात्मा नित्यकालं प्रबाधते ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पापी दुर्योधनके पास खजाना है और उसके बहुत-से सहायक भी हैं; इसीलिये वह दुर्बुद्धि पापात्मा सदा हमें सताया करता है॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स भवान् मोक्षयत्वस्मान् यत्नेनास्माद् हुताशनात्।
अस्मास्विह हि दग्धेषु सकामः स्यात् सुयोधनः ॥ १२ ॥

मूलम्

स भवान् मोक्षयत्वस्मान् यत्नेनास्माद् हुताशनात्।
अस्मास्विह हि दग्धेषु सकामः स्यात् सुयोधनः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुम यत्न करके हमलोगोंको इस आगसे बचा लो; अन्यथा हमलोगोंके यहाँ दग्ध हो जानेपर दुर्योधनका मनोरथ सफल हो जायगा॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समृद्धमायुधागारमिदं तस्य दुरात्मनः ।
वप्रान्तं निष्प्रतीकारमाश्रित्येदं कृतं महत् ॥ १३ ॥
इदं तदशुभं नूनं तस्य कर्म चिकीर्षितम्।
प्रागेव विदुरो वेद तेनास्मानन्वबोधयत् ॥ १४ ॥

मूलम्

समृद्धमायुधागारमिदं तस्य दुरात्मनः ।
वप्रान्तं निष्प्रतीकारमाश्रित्येदं कृतं महत् ॥ १३ ॥
इदं तदशुभं नूनं तस्य कर्म चिकीर्षितम्।
प्रागेव विदुरो वेद तेनास्मानन्वबोधयत् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यह उस दुरात्माका अस्त्र-शस्त्रोंसे भरा हुआ आयुधागार है। इसीके सहारे इस महान् गृहका निर्माण किया गया है। इसमें चहारदीवारीके निकटतक कहीं कोई बाहर निकलनेका मार्ग नहीं है। अवश्य ही दुर्योधनका यह अशुभ कर्म, जिसे वह पूर्ण करना चाहता है, पहले ही विदुरजीको मालूम हो गया था। इसीलिये उन्होंने हमें इसकी जानकारी करा दी॥१३-१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सेयमापदनुप्राप्ता क्षत्ता यां दृष्टवान् पुरा।
पुरोचनस्याविदितानस्मांस्त्वं प्रतिमोचय ॥ १५ ॥

मूलम्

सेयमापदनुप्राप्ता क्षत्ता यां दृष्टवान् पुरा।
पुरोचनस्याविदितानस्मांस्त्वं प्रतिमोचय ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘विदुरजीकी दृष्टिमें जो बहुत पहले आ चुकी थी, वही यह विपत्ति आज हमलोगोंपर आयी-की-आयी है। तुम हमें इस संकटसे इस तरह मुक्त करो, जिससे पुरोचनको हमारे विषयमें कुछ भी पता न चले’॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तथेति प्रतिश्रुत्य खनको यत्नमास्थितः।
परिखामुत्किरन्नाम चकार च महाबिलम् ॥ १६ ॥

मूलम्

स तथेति प्रतिश्रुत्य खनको यत्नमास्थितः।
परिखामुत्किरन्नाम चकार च महाबिलम् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब उस सुरंग खोदनेवालेने ‘बहुत अच्छा, ऐसा ही होगा’, यह प्रतिज्ञा की और कार्यसिद्धिके प्रयत्नमें लग गया। खाईकी सफाई करनेके व्याजसे उसने एक बहुत बड़ी सुरंग तैयार कर दी॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चक्रे च वेश्मनस्तस्य मध्येनातिमहद् बिलम्।
कपाटयुक्तमज्ञातं समं भूम्याश्च भारत ॥ १७ ॥

मूलम्

चक्रे च वेश्मनस्तस्य मध्येनातिमहद् बिलम्।
कपाटयुक्तमज्ञातं समं भूम्याश्च भारत ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! उसने उस भवनके ठीक बीचसे वह महान् सुरंग निकाली। उसके मुहानेपर किवाड़ लगे थे। वह भूमिके समान सतहमें ही बनी थी; अतः किसीको ज्ञात नहीं हो पाती थी॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुरोचनभयादेव व्यदधात् संवृतं मुखम्।
स तस्य तु गृहद्वारि वसत्यशुभधीः सदा।
तत्र ते सायुधाः सर्वे वसन्ति स्म क्षपां नृप॥१८॥
दिवा चरन्ति मृगयां पाण्डवेया वनाद् वनम्।
विश्वस्तवदविश्वस्ता वञ्चयन्तः पुरोचनम् ।
अतुष्टा तुष्टवद् राजन्नूषुः परमविस्मिताः ॥ १९ ॥

मूलम्

पुरोचनभयादेव व्यदधात् संवृतं मुखम्।
स तस्य तु गृहद्वारि वसत्यशुभधीः सदा।
तत्र ते सायुधाः सर्वे वसन्ति स्म क्षपां नृप॥१८॥
दिवा चरन्ति मृगयां पाण्डवेया वनाद् वनम्।
विश्वस्तवदविश्वस्ता वञ्चयन्तः पुरोचनम् ।
अतुष्टा तुष्टवद् राजन्नूषुः परमविस्मिताः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुरोचनके भयसे उस सुरंग खोदनेवालेने उसके मुखको बंद कर दिया था। दुष्टबुद्धि पुरोचन सर्वदा मकानके द्वारपर ही निवास करता था और पाण्डवगण भी रात्रिके समय शस्त्र सँभाले सावधानीके साथ उस द्वारपर ही रहा करते थे। (इसलिये पुरोचनको आग लगानेका अवसर नहीं मिलता था।) वे दिनमें हिंस्र पशुओंके मारनेके बहाने एक वनसे दूसरे वनमें विचरते रहते थे। पाण्डव भीतरसे तो विश्वास न करनेके कारण सदा चौकन्ने रहते थे, परंतु ऊपरसे पुरोचनको ठगनेके लिये विश्वस्तकी भाँति व्यवहार करते थे। राजन्! वे संतुष्ट न होते हुए भी संतुष्टकी भाँति निवास करते और अत्यन्त विस्मययुक्त रहते थे॥१८-१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न चैनानन्वबुध्यन्त नरा नगरवासिनः।
अन्यत्र विदुरामात्यात् तस्मात् खनकसत्तमात् ॥ २० ॥

मूलम्

न चैनानन्वबुध्यन्त नरा नगरवासिनः।
अन्यत्र विदुरामात्यात् तस्मात् खनकसत्तमात् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विदुरके मन्त्री और खोदाईके काममें श्रेष्ठ उस खनकको छोड़कर नगरके निवासी भी पाण्डवोंके विषयमें कुछ नहीं जान पाते थे॥२०॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि जतुगृहपर्वणि जतुगृहवासे षट्‌चत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १४६ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत जतुगृहपर्वमें जतुगृहवासविषयक एक सौ छियालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१४६॥