श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना
पञ्चचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
वारणावतमें पाण्डवोंका स्वागत, पुरोचनका सत्कारपूर्वक उन्हें ठहराना, लाक्षागृहमें निवासकी व्यवस्था और युधिष्ठिर एवं भीमसेनकी बातचीत
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः सर्वाः प्रकृतयो नगराद् वारणावतात्।
सर्वमङ्गलसंयुक्ता यथाशास्त्रमतन्द्रिताः ॥ १ ॥
श्रुत्वाऽऽगतान् पाण्डुपुत्रान् नानायानैः सहस्रशः।
अभिजग्मुर्नरश्रेष्ठान् क्षुत्वैव परया मुदा ॥ २ ॥
मूलम्
ततः सर्वाः प्रकृतयो नगराद् वारणावतात्।
सर्वमङ्गलसंयुक्ता यथाशास्त्रमतन्द्रिताः ॥ १ ॥
श्रुत्वाऽऽगतान् पाण्डुपुत्रान् नानायानैः सहस्रशः।
अभिजग्मुर्नरश्रेष्ठान् क्षुत्वैव परया मुदा ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! नरश्रेष्ठ पाण्डवोंके शुभागमनका समाचार सुनकर वारणावत नगरसे वहाँके समस्त प्रजाजन अत्यन्त प्रसन्न हो आलस्य छोड़कर शास्त्रविधिके अनुसार सब तरहकी मांगलिक वस्तुओंकी भेंट लेकर हजारोंकी संख्यामें नाना प्रकारकी सवारियोंके द्वारा उनकी अगवानीके लिये आये॥१-२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते समासाद्य कौन्तेयान् वारणावतका जनाः।
कृत्वा जयाशिषः सर्वे परिवार्यावतस्थिरे ॥ ३ ॥
मूलम्
ते समासाद्य कौन्तेयान् वारणावतका जनाः।
कृत्वा जयाशिषः सर्वे परिवार्यावतस्थिरे ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्तीकुमारोंके निकट पहुँचकर वारणावतके सब लोग उनकी जय-जयकार करते और आशीर्वाद देते हुए उन्हें चारों ओरसे घेरकर खड़े हो गये॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तैर्वृतः पुरुषव्याघ्रो धर्मराजो युधिष्ठिरः।
विबभौ देवसंकाशो वज्रपाणिरिवामरैः ॥ ४ ॥
मूलम्
तैर्वृतः पुरुषव्याघ्रो धर्मराजो युधिष्ठिरः।
विबभौ देवसंकाशो वज्रपाणिरिवामरैः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनसे घिरे हुए पुरुषसिंह धर्मराज युधिष्ठिर, जो देवताओंके समान तेजस्वी थे, इस प्रकार शोभा पा रहे थे मानो देवमण्डलीके बीच साक्षात् वज्रपाणि इन्द्र हों॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत्कृताश्चैव पौरैस्ते पौरान् सत्कृत्य चानघ।
अलंकृतं जनाकीर्णं विविशुर्वारणावतम् ॥ ५ ॥
मूलम्
सत्कृताश्चैव पौरैस्ते पौरान् सत्कृत्य चानघ।
अलंकृतं जनाकीर्णं विविशुर्वारणावतम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
निष्पाप जनमेजय! पुरवासियोंने पाण्डवोंका बड़ा स्वागत-सत्कार किया। फिर पाण्डवोंने भी नागरिकोंको आदरपूर्वक अपनाकर जनसमुदायसे भरे हुए सजे-सजाये वारणावत नगरमें प्रवेश किया॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते प्रविश्य पुरीं वीरास्तूर्णं जग्मुरथो गृहान्।
ब्राह्मणानां महीपाल रतानां स्वेषु कर्मसु ॥ ६ ॥
मूलम्
ते प्रविश्य पुरीं वीरास्तूर्णं जग्मुरथो गृहान्।
ब्राह्मणानां महीपाल रतानां स्वेषु कर्मसु ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! नगरमें प्रवेश करके वीर पाण्डव सबसे पहले शीघ्रतापूर्वक स्वधर्मपरायण ब्राह्मणोंके घरोंमें गये॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नगराधिकृतानां च गृहाणि रथिनां तदा।
उपतस्थुर्नरश्रेष्ठा वैश्यशूद्रगृहाण्यपि ॥ ७ ॥
मूलम्
नगराधिकृतानां च गृहाणि रथिनां तदा।
उपतस्थुर्नरश्रेष्ठा वैश्यशूद्रगृहाण्यपि ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् वे नरश्रेष्ठ कुन्तीकुमार नगरके अधिकारी क्षत्रियोंके यहाँ गये। इसी प्रकार वे क्रमशः वैश्यों और शूद्रोंके घरोंपर भी उपस्थित हुए॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अर्चिताश्च नरैः पौरैः पाण्डवा भरतर्षभ।
जग्मुरावसथं पश्चात् पुरोचनपुरस्सराः ॥ ८ ॥
मूलम्
अर्चिताश्च नरैः पौरैः पाण्डवा भरतर्षभ।
जग्मुरावसथं पश्चात् पुरोचनपुरस्सराः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! नगरनिवासी मनुष्योंद्वारा पूजित एवं सम्मानित हो पाण्डवलोग पुरोचनको आगे करके डेरेपर गये॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेभ्यो भक्ष्याणि पानानि शयनानि शुभानि च।
आसनानि च मुख्यानि प्रददौ स पुरोचनः ॥ ९ ॥
मूलम्
तेभ्यो भक्ष्याणि पानानि शयनानि शुभानि च।
आसनानि च मुख्यानि प्रददौ स पुरोचनः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ पुरोचनने उनके लिये खाने-पीनेकी उत्तम वस्तुएँ, सुन्दर शय्याएँ और श्रेष्ठ आसन प्रस्तुत किये॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र ते सत्कृतास्तेन सुमहार्हपरिच्छदाः।
उपास्यमानाः पुरुषैरूषुः पुरनिवासिभिः ॥ १० ॥
मूलम्
तत्र ते सत्कृतास्तेन सुमहार्हपरिच्छदाः।
उपास्यमानाः पुरुषैरूषुः पुरनिवासिभिः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस भवनमें पुरोचनद्वारा उनका बड़ा सत्कार हुआ। वे अत्यन्त बहुमूल्य सामग्रियोंका उपयोग करते थे और बहुत-से नगरनिवासी श्रेष्ठ पुरुष उनकी सेवामें उपस्थित रहते थे। इस प्रकार वे (बड़े आनन्दसे) वहाँ रहने लगे॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दशरात्रोषितानां तु तत्र तेषां पुरोचनः।
निवेदयामास गृहं शिवाख्यमशिवं तदा ॥ ११ ॥
मूलम्
दशरात्रोषितानां तु तत्र तेषां पुरोचनः।
निवेदयामास गृहं शिवाख्यमशिवं तदा ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दस दिनोंतक वहाँ रह लेनेके पश्चात् पुरोचनने पाण्डवोंसे उस नूतन गृहके सम्बन्धमें चर्चा की, जो कहनेको तो ‘शिवभवन’ था, परंतु वास्तवमें अशिव (अमंगलकारी) था॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र ते पुरुषव्याघ्रा विविशुः सपरिच्छदाः।
पुरोचनस्य वचनात् कैलासमिव गुह्यकाः ॥ १२ ॥
मूलम्
तत्र ते पुरुषव्याघ्रा विविशुः सपरिच्छदाः।
पुरोचनस्य वचनात् कैलासमिव गुह्यकाः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुरोचनके कहनेसे वे पुरुषसिंह पाण्डव अपनी सब सामग्रियों और सेवकोंके साथ उस नये भवनमें गये; मानो गुह्यकगण कैलास पर्वतपर जा रहे हों॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तच्चागारमभिप्रेक्ष्य सर्वधर्मभृतां वरः ।
उवाचाग्नेयमित्येवं भीमसेनं युधिष्ठिरः ॥ १३ ॥
मूलम्
तच्चागारमभिप्रेक्ष्य सर्वधर्मभृतां वरः ।
उवाचाग्नेयमित्येवं भीमसेनं युधिष्ठिरः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस घरको अच्छी तरह देखकर समस्त धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ युधिष्ठिरने भीमसेनसे कहा—‘भाई! यह भवन तो आग भड़कानेवाली वस्तुओंसे बना जान पड़ता है॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिघ्राणोऽस्य वसागन्धं सर्पिर्जतुविमिश्रितम् ।
कृतं हि व्यक्तमाग्नेयमिदं वेश्म परंतप ॥ १४ ॥
मूलम्
जिघ्राणोऽस्य वसागन्धं सर्पिर्जतुविमिश्रितम् ।
कृतं हि व्यक्तमाग्नेयमिदं वेश्म परंतप ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘शत्रुओंको संताप देनेवाले भीमसेन! मुझे इस घरकी दीवारोंसे घी और लाह मिली हुई चर्बीकी गन्ध आ रही है। अतः स्पष्ट जान पड़ता है कि इस घरका निर्माण अग्निदीपक पदार्थोंसे ही हुआ है॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शणसर्जरसंव्यक्तमानीय गृहकर्मणि ।
मुञ्जबल्वजवंशादि द्रव्यं सर्वं घृतोक्षितम् ॥ १५ ॥
शिल्पिभिः सुकृतं ह्याप्तैर्विनीतैर्वेश्मकर्मणि ।
विश्वस्तं मामयं पापो दग्धुकामः पुरोचनः ॥ १६ ॥
तथा हि वर्तते मन्दः सुयोधनवशे स्थितः।
इमां तु तां महाबुद्धिर्विदुरो दृष्टवांस्तथा ॥ १७ ॥
आपदं तेन मां पार्थ स सम्बोधितवान् पुरा।
ते वयं बोधितास्तेन नित्यमस्मद्धितैषिणा ॥ १८ ॥
पित्रा कनीयसा स्नेहाद् बुद्धिमन्तोऽशिवं गृहम्।
अनार्यैः सुकृतं गूढैर्दुर्योधनवशानुगैः ॥ १९ ॥
मूलम्
शणसर्जरसंव्यक्तमानीय गृहकर्मणि ।
मुञ्जबल्वजवंशादि द्रव्यं सर्वं घृतोक्षितम् ॥ १५ ॥
शिल्पिभिः सुकृतं ह्याप्तैर्विनीतैर्वेश्मकर्मणि ।
विश्वस्तं मामयं पापो दग्धुकामः पुरोचनः ॥ १६ ॥
तथा हि वर्तते मन्दः सुयोधनवशे स्थितः।
इमां तु तां महाबुद्धिर्विदुरो दृष्टवांस्तथा ॥ १७ ॥
आपदं तेन मां पार्थ स सम्बोधितवान् पुरा।
ते वयं बोधितास्तेन नित्यमस्मद्धितैषिणा ॥ १८ ॥
पित्रा कनीयसा स्नेहाद् बुद्धिमन्तोऽशिवं गृहम्।
अनार्यैः सुकृतं गूढैर्दुर्योधनवशानुगैः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘गृहनिर्माणके कर्ममें सुशिक्षित एवं विश्वसनीय कारीगरोंने अवश्य ही घर बनाते समय सन, राल, मूँज, बल्वज (मोटे तिनकोंवाली घास) और बाँस आदि सब द्रव्योंको घीसे सींचकर बड़ी खूबीके साथ इन सबके द्वारा इस सुन्दर भवनकी रचना की है। यह मन्दबुद्धि पापी पुरोचन दुर्योधनकी आज्ञाके अधीन हो सदा इस घातमें लगा रहता है कि जब हमलोग विश्वस्त होकर सोये हों, तब वह आग लगाकर (घरके साथ ही) हमें जला दे। यही उसकी इच्छा है। भीमसेन! परम बुद्धिमान् विदुरजीने हमारे ऊपर आनेवाली इस विपत्तिको यथार्थरूपमें समझ लिया था; इसीलिये उन्होंने पहले ही मुझे सचेत कर दिया। विदुरजी हमारे छोटे पिता और सदा हमलोगोंका हित चाहनेवाले हैं। अतः उन्होंने स्नेहवश हम बुद्धिमानोंको इस अशिव (अमंगलकारी) गृहके सम्बन्धमें, जिसे दुर्योधनके वशवर्ती दुष्ट कारीगरोंने छिपकर कौशलसे बनाया है, पहले ही सब कुछ समझा दिया’॥१५—१९॥
मूलम् (वचनम्)
भीमसेन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदीदं गृहमाग्नेयं विहितं मन्यते भवान्।
तथैव साधु गच्छामो यत्र पूर्वोषिता वयम् ॥ २० ॥
मूलम्
यदीदं गृहमाग्नेयं विहितं मन्यते भवान्।
तथैव साधु गच्छामो यत्र पूर्वोषिता वयम् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीमसेन बोले— भैया! यदि आप यह मानते हों कि इस घरका निर्माण अग्निको उद्दीप्त करनेवाली वस्तुओंसे हुआ है तो हमलोग जहाँ पहले रहते थे, कुशलपूर्वक पुनः उसी घरमें क्यों न लौट चलें?॥२०॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इह यत्तैर्निराकारैर्वस्तव्यमिति रोचये ।
अप्रमत्तैर्विचिन्वद्भिर्गतिमिष्टां ध्रुवामितः ॥ २१ ॥
मूलम्
इह यत्तैर्निराकारैर्वस्तव्यमिति रोचये ।
अप्रमत्तैर्विचिन्वद्भिर्गतिमिष्टां ध्रुवामितः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर बोले— भाई! हमलोगोंको यहाँ अपनी बाह्य चेष्टाओंसे मनकी बात प्रकट न करते हुए और यहाँसे भाग छूटनेके लिये मनोऽनुकूल निश्चित मार्गका पता लगाते हुए पूरी सावधानीके साथ यहीं रहना चाहिये। मुझे ऐसा करना ही अच्छा लगता है॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि विन्देत चाकारमस्माकं स पुरोचनः।
क्षिप्रकारी ततो भूत्वा प्रदह्यादपि हेतुतः ॥ २२ ॥
मूलम्
यदि विन्देत चाकारमस्माकं स पुरोचनः।
क्षिप्रकारी ततो भूत्वा प्रदह्यादपि हेतुतः ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि पुरोचन हमारी किसी भी चेष्टासे हमारे भीतरी मनोभावको ताड़ लेगा तो वह शीघ्रतापूर्वक अपना काम बनानेके लिये उद्यत हो हमें किसी-न-किसी हेतुसे जला भी सकता है॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नायं बिभेत्युपक्रोशादधर्माद् वा पुरोचनः।
तथा हि वर्तते मन्दः सुयोधनवशे स्थितः ॥ २३ ॥
मूलम्
नायं बिभेत्युपक्रोशादधर्माद् वा पुरोचनः।
तथा हि वर्तते मन्दः सुयोधनवशे स्थितः ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह मूढ़ पुरोचन निन्दा अथवा अधर्मसे नहीं डरता एवं दुर्योधनके वशमें होकर उसकी आज्ञाके अनुसार आचरण करता है॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपि चेह प्रदग्धेषु भीष्मोऽस्मासु पितामहः।
कोपं कुर्यात् किमर्थं वा कौरवान् कोपयीत सः ॥ २४ ॥
मूलम्
अपि चेह प्रदग्धेषु भीष्मोऽस्मासु पितामहः।
कोपं कुर्यात् किमर्थं वा कौरवान् कोपयीत सः ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि यहाँ हमारे जल जानेपर पितामह भीष्म कौरवोंपर क्रोध भी करें तो वह अनावश्यक है; क्योंकि फिर किस प्रयोजनकी सिद्धिके लिये वे कौरवोंको कुपित करेंगे॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथवापीह दग्धेषु भीष्मोऽस्माकं पितामहः।
धर्म इत्येव कुप्येरन् ये चान्ये कुरुपुङ्गवाः ॥ २५ ॥
मूलम्
अथवापीह दग्धेषु भीष्मोऽस्माकं पितामहः।
धर्म इत्येव कुप्येरन् ये चान्ये कुरुपुङ्गवाः ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अथवा सम्भव है कि यहाँ हमलोगोंके जल जानेपर हमारे पितामह भीष्म तथा कुरुकुलके दूसरे श्रेष्ठ पुरुष धर्म समझकर ही उन आततायियोंपर क्रोध करें (परंतु वह क्रोध हमारे किस कामका होगा?)॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वयं तु यदि दाहस्य बिभ्यतः प्रद्रवेमहि।
स्पशैर्निर्घातयेत् सर्वान् राज्यलुब्धः सुयोधनः ॥ २६ ॥
मूलम्
वयं तु यदि दाहस्य बिभ्यतः प्रद्रवेमहि।
स्पशैर्निर्घातयेत् सर्वान् राज्यलुब्धः सुयोधनः ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि हम जलनेके भयसे डरकर भाग चलें तो भी राज्यलोभी दुर्योधन हम सबको अपने गुप्तचरोंद्वारा मरवा सकता है॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपदस्थान् पदे तिष्ठन्नपक्षान् पक्षसंस्थितः।
हीनकोशान् महाकोशः प्रयोगैर्घातयेद् ध्रुवम् ॥ २७ ॥
मूलम्
अपदस्थान् पदे तिष्ठन्नपक्षान् पक्षसंस्थितः।
हीनकोशान् महाकोशः प्रयोगैर्घातयेद् ध्रुवम् ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस समय वह अधिकारपूर्ण पदपर प्रतिष्ठित है और हम उससे वंचित हैं। वह सहायकोंके साथ है और हम असहाय हैं। उसके पास बहुत बड़ा खजाना है और हमारे पास उसका सर्वथा अभाव है। अतः निश्चय ही वह अनेक प्रकारके उपायोंद्वारा हमारी हत्या कर सकता है॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदस्माभिरिमं पापं तं च पापं सुयोधनम्।
वञ्चयद्भिर्निवस्तव्यं छन्नावासं क्वचित् क्वचित् ॥ २८ ॥
मूलम्
तदस्माभिरिमं पापं तं च पापं सुयोधनम्।
वञ्चयद्भिर्निवस्तव्यं छन्नावासं क्वचित् क्वचित् ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसलिये इस पापात्मा पुरोचन तथा पापी दुर्योधनको भी धोखेमें रखते हुए हमें यहीं कहीं किसी गुप्त स्थानमें निवास करना चाहिये॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते वयं मृगयाशीलाश्चराम वसुधामिमाम्।
तथा नो विदिता मार्गा भविष्यन्ति पलायताम् ॥ २९ ॥
मूलम्
ते वयं मृगयाशीलाश्चराम वसुधामिमाम्।
तथा नो विदिता मार्गा भविष्यन्ति पलायताम् ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हम सब मृगयामें रत रहकर यहाँकी भूमिपर सब ओर विचरें, इससे भाग निकलनेके लिये हमें बहुत-से मार्ग ज्ञात हो जायँगे॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भौमं च बिलमद्यैव करवाम सुसंवृतम्।
गूढश्वासान्न नस्तत्र हुताशः सम्प्रधक्ष्यति ॥ ३० ॥
मूलम्
भौमं च बिलमद्यैव करवाम सुसंवृतम्।
गूढश्वासान्न नस्तत्र हुताशः सम्प्रधक्ष्यति ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके सिवा आजसे ही हम जमीनमें एक सुरंग तैयार करें, जो ऊपरसे अच्छी तरह ढकी हो। वहाँ हमारी साँसतक छिपी रहेगी (फिर हमारे कार्योंकी तो बात ही क्या है)। उस सुरंगमें घुस जानेपर आग हमें नहीं जला सकेगी॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वसतोऽत्र यथा चास्मान्न बुध्येत पुरोचनः।
पौरो वापि जनः कश्चित् तथा कार्यमतन्द्रितैः ॥ ३१ ॥
मूलम्
वसतोऽत्र यथा चास्मान्न बुध्येत पुरोचनः।
पौरो वापि जनः कश्चित् तथा कार्यमतन्द्रितैः ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हमें आलस्य छोड़कर इस प्रकार कार्य करना चाहिये, जिससे यहाँ रहते हुए भी हमारे सम्बन्धमें पुरोचनको कुछ भी ज्ञात न हो सके और किसी पुरवासीको भी हमारी कानोंकान खबर न हो॥३१॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि जतुगृहपर्वणि भीमसेनयुधिष्ठिरसंवादे पञ्चचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १४५ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत जतुगृहपर्वमें भीमसेन-युधिष्ठिर-संवादविषयक एक सौ पैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१४५॥