श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना
त्रिचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
दुर्योधनके आदेशसे पुरोचनका वारणावत नगरमें लाक्षागृह बनाना
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्तेषु राज्ञा तु पाण्डुपुत्रेषु भारत।
दुर्योधनः परं हर्षमगच्छत् स दुरात्मवान् ॥ १ ॥
स पुरोचनमेकान्तमानीय भरतर्षभ ।
गृहीत्वा दक्षिणे पाणौ सचिवं वाक्यमब्रवीत् ॥ २ ॥
ममेयं वसुसम्पूर्णा पुरोचन वसुंधरा।
यथेयं मम तद्वत् ते स तां रक्षितुमर्हसि ॥ ३ ॥
न हि मे कश्चिदन्योऽस्ति विश्वासिकतरस्त्वया।
सहायो येन संधाय मन्त्रयेयं यथा त्वया ॥ ४ ॥
मूलम्
एवमुक्तेषु राज्ञा तु पाण्डुपुत्रेषु भारत।
दुर्योधनः परं हर्षमगच्छत् स दुरात्मवान् ॥ १ ॥
स पुरोचनमेकान्तमानीय भरतर्षभ ।
गृहीत्वा दक्षिणे पाणौ सचिवं वाक्यमब्रवीत् ॥ २ ॥
ममेयं वसुसम्पूर्णा पुरोचन वसुंधरा।
यथेयं मम तद्वत् ते स तां रक्षितुमर्हसि ॥ ३ ॥
न हि मे कश्चिदन्योऽस्ति विश्वासिकतरस्त्वया।
सहायो येन संधाय मन्त्रयेयं यथा त्वया ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! जब राजा धृतराष्ट्रने पाण्डवोंको इस प्रकार वारणावत जानेकी आज्ञा दे दी, तब दुरात्मा दुर्योधनको बड़ी प्रसन्नता हुई। भरतश्रेष्ठ! उसने अपने मन्त्री पुरोचनको एकान्तमें बुलाया और उसका दाहिना हाथ पकड़कर कहा, ‘पुरोचन! यह धन-धान्यसे सम्पन्न पृथ्वी जैसे मेरी है, वैसे ही तुम्हारी भी है; अतः तुम्हें इसकी रक्षा करनी चाहिये। मेरा तुमसे बढ़कर दूसरा कोई ऐसा विश्वासपात्र सहायक नहीं है, जिससे मिलकर इतनी गुप्त सलाह कर सकूँ, जैसे तुम्हारे साथ करता हूँ॥१—४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संरक्ष तात मन्त्रं च सपत्नांश्च ममोद्धर।
निपुणेनाभ्युपायेन यद् ब्रवीमि तथा कुरु ॥ ५ ॥
मूलम्
संरक्ष तात मन्त्रं च सपत्नांश्च ममोद्धर।
निपुणेनाभ्युपायेन यद् ब्रवीमि तथा कुरु ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तात! तुम मेरी इस गुप्त मन्त्रणाकी रक्षा करो—इसे दूसरोंपर प्रकट न होने दो और अच्छे उपायद्वारा मेरे शत्रुओंको उखाड़ फेंको। मैं तुमसे जो कहता हूँ, वही करो॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पाण्डवा धृतराष्ट्रेण प्रेषिता वारणावतम्।
उत्सवे विहरिष्यन्ति धृतराष्ट्रस्य शासनात् ॥ ६ ॥
मूलम्
पाण्डवा धृतराष्ट्रेण प्रेषिता वारणावतम्।
उत्सवे विहरिष्यन्ति धृतराष्ट्रस्य शासनात् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पिताजीने पाण्डवोंको वारणावत जानेकी आज्ञा दी है। वे उनके आदेशसे (कुछ दिनोंतक) वहाँ रहकर उत्सवमें भाग लेंगे—मेलेमें घूमे-फिरेंगे॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स त्वं रासभयुक्तेन स्यन्दनेनाशुगामिना।
वारणावतमद्यैव यथा यासि तथा कुरु ॥ ७ ॥
मूलम्
स त्वं रासभयुक्तेन स्यन्दनेनाशुगामिना।
वारणावतमद्यैव यथा यासि तथा कुरु ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अतः तुम खच्चर जुते हुए शीघ्रगामी रथपर बैठकर आज ही वहाँ पहुँच जाओ, ऐसी चेष्टा करो॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र गत्वा चतुःशालं गृहं परमसंवृतम्।
नगरोपान्तमाश्रित्य कारयेथा महाधनम् ॥ ८ ॥
मूलम्
तत्र गत्वा चतुःशालं गृहं परमसंवृतम्।
नगरोपान्तमाश्रित्य कारयेथा महाधनम् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वहाँ जाकर नगरके निकट ही एक ऐसा भवन तैयार कराओ जिसमें चारों ओर कमरे हों तथा जो सब ओरसे सुरक्षित हो। वह भवन बहुत धन खर्च करके सुन्दर-से-सुन्दर बनवाना चाहिये॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शणसर्जरसादीनि यानि द्रव्याणि कानिचित्।
आग्नेयान्युत सन्तीह तानि तत्र प्रदापय ॥ ९ ॥
मूलम्
शणसर्जरसादीनि यानि द्रव्याणि कानिचित्।
आग्नेयान्युत सन्तीह तानि तत्र प्रदापय ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सन तथा राल आदि, जो कोई भी आग भड़कानेवाले द्रव्य संसारमें हैं, उन सबको उस मकानकी दीवारोंमें लगवाना॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्पिस्तैलवसाभिश्च लाक्षया चाप्यनल्पया ।
मृत्तिकां मिश्रयित्वा त्वं लेपं कुड्येषु दापय ॥ १० ॥
मूलम्
सर्पिस्तैलवसाभिश्च लाक्षया चाप्यनल्पया ।
मृत्तिकां मिश्रयित्वा त्वं लेपं कुड्येषु दापय ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘घी, तेल, चर्बी तथा बहुत-सी लाह मिट्टीमें मिलवाकर उसीसे दीवारोंको लिपवाना॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शणं तैलं घृतं चैव जतु दारूणि चैव हि।
तस्मिन् वेश्मनि सर्वाणि निक्षिपेथाः समन्ततः ॥ ११ ॥
यथा च तन्न पश्येरन् परीक्षन्तोऽपि पाण्डवाः।
आग्नेयमिति तत् कार्यमपि चान्येऽपि मानवाः ॥ १२ ॥
वेश्मन्येवं कृते तत्र गत्वा तान् परमार्चितान्।
वासयेथाः पाण्डवेयान् कुन्तीं च ससुहृज्जनाम् ॥ १३ ॥
मूलम्
शणं तैलं घृतं चैव जतु दारूणि चैव हि।
तस्मिन् वेश्मनि सर्वाणि निक्षिपेथाः समन्ततः ॥ ११ ॥
यथा च तन्न पश्येरन् परीक्षन्तोऽपि पाण्डवाः।
आग्नेयमिति तत् कार्यमपि चान्येऽपि मानवाः ॥ १२ ॥
वेश्मन्येवं कृते तत्र गत्वा तान् परमार्चितान्।
वासयेथाः पाण्डवेयान् कुन्तीं च ससुहृज्जनाम् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘उस घरके चारों ओर सन, तेल, घी, लाह और लकड़ी आदि सब वस्तुएँ संग्रह करके रखना। अच्छी तरह देखभाल करनेपर भी पाण्डवों तथा दूसरे लोगोंको भी इस बातकी शंका न हो कि यह घर आग भड़कानेवाले पदार्थोंसे बना है, इस तरह पूरी सावधानीके साथ उस राजभवनका निर्माण कराना चाहिये। इस प्रकार महल बन जानेपर जब पाण्डव वहाँ जायँ, तब उन्हें तथा सुहृदोंसहित कुन्तीदेवीको भी बड़े आदर-सत्कारके साथ उसीमें रखना॥११—१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसनानि च दिव्यानि यानानि शयनानि च।
विधातव्यानि पाण्डूनां यथा तुष्येत वै पिता ॥ १४ ॥
यथा च तन्न जानन्ति नगरे वारणावते।
तथा सर्वं विधातव्यं यावत् कालस्य पर्ययः ॥ १५ ॥
मूलम्
आसनानि च दिव्यानि यानानि शयनानि च।
विधातव्यानि पाण्डूनां यथा तुष्येत वै पिता ॥ १४ ॥
यथा च तन्न जानन्ति नगरे वारणावते।
तथा सर्वं विधातव्यं यावत् कालस्य पर्ययः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वहाँ पाण्डवोंके लिये दिव्य आसन, सवारी और शय्या आदिकी ऐसी (सुन्दर) व्यवस्था कर देना, जिसे सुनकर मेरे पिताजी संतुष्ट हों। जबतक समय बदलनेके साथ ही अपने अभीष्ट कार्यकी सिद्धि न हो जाय, तबतक सब काम इस तरह करना चाहिये कि वारणावत नगरके लोगोंको इसके विषयमें कुछ भी ज्ञात न हो सके॥१४-१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ज्ञात्वा च तान् सुविश्वस्ताञ्शयानानकुतोभयान्।
अग्निस्त्वया ततो देयो द्वारतस्तस्य वेश्मनः ॥ १६ ॥
मूलम्
ज्ञात्वा च तान् सुविश्वस्ताञ्शयानानकुतोभयान्।
अग्निस्त्वया ततो देयो द्वारतस्तस्य वेश्मनः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जब तुम्हें यह भलीभाँति ज्ञात हो जाय कि पाण्डवलोग यहाँ विश्वस्त होकर रहने लगे हैं, इनके मनमें कहींसे कोई खटका नहीं रह गया है, तब उनके सो जानेपर घरके दरवाजेकी ओरसे आग लगा देना॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दह्यमाने स्वके गेहे दग्धा इति ततो जनाः।
न गर्हयेयुरस्मान् वै पाण्डवार्थाय कर्हिचित् ॥ १७ ॥
मूलम्
दह्यमाने स्वके गेहे दग्धा इति ततो जनाः।
न गर्हयेयुरस्मान् वै पाण्डवार्थाय कर्हिचित् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘उस समय लोग यही समझेंगे कि अपने ही घरमें आग लगी थी, उसीमें पाण्डव जल गये। अतः वे पाण्डवोंकी मृत्युके लिये कभी हमारी निन्दा नहीं करेंगे’॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तथेति प्रतिज्ञाय कौरवाय पुरोचनः।
प्रायाद् रासभयुक्तेन स्यन्दनेनाशुगामिना ॥ १८ ॥
मूलम्
स तथेति प्रतिज्ञाय कौरवाय पुरोचनः।
प्रायाद् रासभयुक्तेन स्यन्दनेनाशुगामिना ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुरोचनने दुर्योधनके सामने वैसा ही करनेकी प्रतिज्ञा की एवं खच्चर जुते हुए शीघ्रगामी रथपर आरूढ़ हो वहाँसे वारणावत नगरके लिये प्रस्थान किया॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स गत्वा त्वरितं राजन् दुर्योधनमते स्थितः।
यथोक्तं राजपुत्रेण सर्वं चक्रे पुरोचनः ॥ १९ ॥
मूलम्
स गत्वा त्वरितं राजन् दुर्योधनमते स्थितः।
यथोक्तं राजपुत्रेण सर्वं चक्रे पुरोचनः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! पुरोचन दुर्योधनकी रायके अनुसार चलता था। वारणावतमें शीघ्र ही पहुँचकर उसने राजकुमार दुर्योधनके कथनानुसार सब काम पूरा कर लिया॥१९॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि जतुगृहपर्वणि पुरोचनोपदेशे त्रिचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १४३ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत जतुगृहपर्वमें पुरोचनके प्रति दुर्योधनकृत उपदेशविषयक एक सौ तैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१४३॥