१४१ दुर्योधनप्रस्तावः

श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना

एकचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

दुर्योधनका धृतराष्ट्रसे पाण्डवोंको वारणावत भेज देनेका प्रस्ताव

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं श्रुत्वा तु पुत्रस्य प्रज्ञाचक्षुर्नराधिपः।
कणिकस्य च वाक्यानि तानि श्रुत्वा स सर्वशः ॥ १ ॥
धृतराष्ट्रो द्विधाचित्तः शोकार्तः समपद्यत।
दुर्योधनश्च कर्णश्च शकुनिः सौबलस्तथा ॥ २ ॥
दुःशासनचतुर्थास्ते मन्त्रयामासुरेकतः ।
ततो दुर्योधनो राजा धृतराष्ट्रमभाषत ॥ ३ ॥

मूलम्

एवं श्रुत्वा तु पुत्रस्य प्रज्ञाचक्षुर्नराधिपः।
कणिकस्य च वाक्यानि तानि श्रुत्वा स सर्वशः ॥ १ ॥
धृतराष्ट्रो द्विधाचित्तः शोकार्तः समपद्यत।
दुर्योधनश्च कर्णश्च शकुनिः सौबलस्तथा ॥ २ ॥
दुःशासनचतुर्थास्ते मन्त्रयामासुरेकतः ।
ततो दुर्योधनो राजा धृतराष्ट्रमभाषत ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! अपने पुत्रकी यह बात सुनकर तथा कणिकके उन वचानोंका स्मरण करके प्रज्ञाचक्षु महाराज धृतराष्ट्रका चित्त सब प्रकारसे दुविधामें पड़ गया। वे शोकसे आतुर हो गये। दुर्योधन, कर्ण, सुबलपुत्र शकुनि तथा चौथे दुःशासन इन सबने एक जगह बैठकर सलाह की; फिर राजा दुर्योधनने धृतराष्ट्रसे कहा—॥१—३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पाण्डवेभ्यो भयं न स्यात् तान् विवासयतां भवान्।
निपुणेनाभ्युपायेन नगरं वारणावतम् ॥ ४ ॥

मूलम्

पाण्डवेभ्यो भयं न स्यात् तान् विवासयतां भवान्।
निपुणेनाभ्युपायेन नगरं वारणावतम् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पिताजी! हमें पाण्डवोंसे भय न हो, इसलिये आप किसी उत्तम उपायसे उन्हें यहाँसे हटाकर वारणावत नगरमें भेज दीजिये’॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धृतराष्ट्रस्तु पुत्रेण श्रुत्वा वचनमीरितम्।
मुहूर्तमिव संचिन्त्य दुर्योधनमथाब्रवीत् ॥ ५ ॥

मूलम्

धृतराष्ट्रस्तु पुत्रेण श्रुत्वा वचनमीरितम्।
मुहूर्तमिव संचिन्त्य दुर्योधनमथाब्रवीत् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपने पुत्रकी कही हुई यह बात सुनकर धृतराष्ट्र दो घड़ीतक भारी चिन्तामें पड़े रहे; फिर दुर्योधनसे बोले॥५॥

मूलम् (वचनम्)

धृतराष्ट्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मनित्यः सदा पाण्डुस्तथा धर्मपरायणः।
सर्वेषु ज्ञातिषु तथा मयि त्वासीद् विशेषतः ॥ ६ ॥

मूलम्

धर्मनित्यः सदा पाण्डुस्तथा धर्मपरायणः।
सर्वेषु ज्ञातिषु तथा मयि त्वासीद् विशेषतः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धृतराष्ट्रने कहा— बेटा! पाण्डु अपने जीवनभर धर्मको ही नित्य मानकर सम्पूर्ण ज्ञातिजनोंके साथ धर्मानुकूल व्यवहार ही करते थे; मेरे प्रति तो विशेषरूपसे॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नासौ किंचिद् विजानाति भोजनादि चिकीर्षितम्।
निवेदयति नित्यं हि मम राज्यं धृतव्रतः ॥ ७ ॥

मूलम्

नासौ किंचिद् विजानाति भोजनादि चिकीर्षितम्।
निवेदयति नित्यं हि मम राज्यं धृतव्रतः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे इतने भोले-भाले थे कि अपने स्नान-भोजन आदि अभीष्ट कर्तव्योंके सम्बन्धमें भी कुछ नहीं जानते थे। वे उत्तम व्रतका पालन करते हुए प्रतिदिन मुझसे यही कहते थे कि ‘यह राज्य तो आपका ही है’॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य पुत्रो यथा पाण्डुस्तथा धर्मपरायणः।
गुणवाल्ँलोकविख्यातः पौरवाणां सुसम्मतः ॥ ८ ॥

मूलम्

तस्य पुत्रो यथा पाण्डुस्तथा धर्मपरायणः।
गुणवाल्ँलोकविख्यातः पौरवाणां सुसम्मतः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके पुत्र युधिष्ठिर भी वैसे ही धर्मपरायण हैं, जैसे स्वयं पाण्डु थे। वे उत्तम गुणोंसे सम्पन्न, सम्पूर्ण जगत्‌में विख्यात तथा पूरुवंशियोंके अत्यन्त प्रिय हैं॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स कथं शक्यतेऽस्माभिरपाकर्तुं बलादितः।
पितृपैतामहाद् राज्यात् ससहायो विशेषतः ॥ ९ ॥

मूलम्

स कथं शक्यतेऽस्माभिरपाकर्तुं बलादितः।
पितृपैतामहाद् राज्यात् ससहायो विशेषतः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर उन्हें उनके बाप-दादोंके राज्यसे बलपूर्वक कैसे हटाया जा सकता है? विशेषतः ऐसे समयमें, जब कि उनके सहायक अधिक हैं॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भृता हि पाण्डुनामात्या बलं च सततं भृतम्।
भृताः पुत्राश्च पौत्राश्च तेषामपि विशेषतः ॥ १० ॥

मूलम्

भृता हि पाण्डुनामात्या बलं च सततं भृतम्।
भृताः पुत्राश्च पौत्राश्च तेषामपि विशेषतः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाण्डुने सभी मन्त्रियों तथा सैनिकोंका सदा पालन-पोषण किया था। उनका ही नहीं, उनके पुत्र-पौत्रोंके भी भरण-पोषणका विशेष ध्यान रखा था॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते पुरा सत्कृतास्तात पाण्डुना नागरा जनाः।
कथं युधिष्ठिरस्यार्थे न नो हन्युः सबान्धवान् ॥ ११ ॥

मूलम्

ते पुरा सत्कृतास्तात पाण्डुना नागरा जनाः।
कथं युधिष्ठिरस्यार्थे न नो हन्युः सबान्धवान् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तात! पाण्डुने पहले नागरिकोंके साथ बड़ा ही सद्भावपूर्ण व्यवहार किया है। अब वे विद्रोही होकर युधिष्ठिरके हितके लिये भाई-बन्धुओंके साथ हम सब लोगोंकी हत्या क्यों न कर डालेंगे?॥११॥

मूलम् (वचनम्)

दुर्योधन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमेतन्मया तात भावितं दोषमात्मनि।
दृष्ट्‌वा प्रकृतयः सर्वा अर्थमानेन पूजिताः ॥ १२ ॥

मूलम्

एवमेतन्मया तात भावितं दोषमात्मनि।
दृष्ट्‌वा प्रकृतयः सर्वा अर्थमानेन पूजिताः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दुर्योधन बोला— पिताजी! मैंने भी अपने हृदयमें इस दोष (प्रजाके विरोधी होने)-की सम्भावना की थी और इसीपर दृष्टि रखकर पहले ही अर्थ और सम्मानके द्वारा समस्त प्रजाका आदर-सत्कार किया है॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ध्रुवमस्मत्सहायास्ते भविष्यन्ति प्रधानतः ।
अर्थवर्गः सहामात्यो मत्संस्थोऽद्य महीपते ॥ १३ ॥

मूलम्

ध्रुवमस्मत्सहायास्ते भविष्यन्ति प्रधानतः ।
अर्थवर्गः सहामात्यो मत्संस्थोऽद्य महीपते ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब निश्चय ही वे लोग मुख्यतासे हमारे सहायक होंगे। राजन्! इस समय खजाना और मन्त्रिमण्डल हमारे ही अधीन हैं॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स भवान् पाण्डवानाशु विवासयितुमर्हति।
मृदुनैवाभ्युपायेन नगरं वारणावतम् ॥ १४ ॥

मूलम्

स भवान् पाण्डवानाशु विवासयितुमर्हति।
मृदुनैवाभ्युपायेन नगरं वारणावतम् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः आप किसी मृदुल उपायसे ही जितना शीघ्र सम्भाव हो, पाण्डवोंको वारणावत नगरमें भेज दें॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदा प्रतिष्ठितं राज्यं मयि राजन् भविष्यति।
तदा कुन्ती सहापत्या पुनरेष्यति भारत ॥ १५ ॥

मूलम्

यदा प्रतिष्ठितं राज्यं मयि राजन् भविष्यति।
तदा कुन्ती सहापत्या पुनरेष्यति भारत ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतवंशके महाराज! जब यह राज्य पूरी तरहसे मेरे अधिकारमें आ जायगा, उस समय कुन्तीदेवी अपने पुत्रोंके साथ पुनः यहाँ आकर रह सकती हैं॥१५॥

मूलम् (वचनम्)

धृतराष्ट्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुर्योधन ममाप्येतद् हृदि सम्परिवर्तते।
अभिप्रायस्य पापत्वान्नैवं तु विवृणोम्यहम् ॥ १६ ॥

मूलम्

दुर्योधन ममाप्येतद् हृदि सम्परिवर्तते।
अभिप्रायस्य पापत्वान्नैवं तु विवृणोम्यहम् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धृतराष्ट्र बोले— दुर्योधन! मेरे हृदयमें भी यही बात घूम रही है; किंतु हमलोगोंका यह अभिप्राय पापपूर्ण है, इसलिये मैं इसे खोलकर कह नहीं पाता॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न च भीष्मो न च द्रोणो न च क्षत्ता न गौतमः।
विवास्यमानान् कौन्तेयाननुमंस्यन्ति कर्हिचित् ॥ १७ ॥

मूलम्

न च भीष्मो न च द्रोणो न च क्षत्ता न गौतमः।
विवास्यमानान् कौन्तेयाननुमंस्यन्ति कर्हिचित् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुझे यह भी विश्वास है कि भीष्म, द्रोण, विदुर और कृपाचार्य—इनमेंसे कोई भी कुन्तीपुत्रोंको यहाँसे अन्यत्र भेजे जानेकी कदापि अनुमति नहीं देंगे॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समा हि कौरवेयाणां वयं ते चैव पुत्रक।
नैते विषममिच्छेयुर्धर्मयुक्ता मनस्विनः ॥ १८ ॥

मूलम्

समा हि कौरवेयाणां वयं ते चैव पुत्रक।
नैते विषममिच्छेयुर्धर्मयुक्ता मनस्विनः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बेटा! इन सभी कुरुवंशियोंके लिये हमलोग और पाण्डव समान हैं। ये धर्मपरायण मनस्वी महापुरुष उनके प्रति विषम व्यवहार करना नहीं चाहेंगे॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते वयं कौरवेयाणामेतेषां च महात्मनाम्।
कथं न वध्यतां तात गच्छाम जगतस्तथा ॥ १९ ॥

मूलम्

ते वयं कौरवेयाणामेतेषां च महात्मनाम्।
कथं न वध्यतां तात गच्छाम जगतस्तथा ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दुर्योधन! यदि हम पाण्डवोंके साथ विषम व्यवहार करेंगे तो सम्पूर्ण कुरुवंशी और ये (भीष्म, द्रोण आदि) महात्मा एवं सम्पूर्ण जगत्‌के लोग हमें वध करनेयोग्य क्यों न समझेंगे॥१९॥

मूलम् (वचनम्)

दुर्योधन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

मध्यस्थः सततं भीष्मो द्रोणपुत्रो मयि स्थितः।
यतः पुत्रस्ततो द्रोणो भविता नात्र संशयः ॥ २० ॥

मूलम्

मध्यस्थः सततं भीष्मो द्रोणपुत्रो मयि स्थितः।
यतः पुत्रस्ततो द्रोणो भविता नात्र संशयः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दुर्योधन बोला— पिताजी! भीष्म तो सदा ही मध्यस्थ हैं, द्रोणपुत्र अश्वत्थामा मेरे पक्षमें हैं, द्रोणाचार्य भी उधर ही रहेंगे, जिधर उनका पुत्र होगा—इसमें तनिक भी संशय नहीं है॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृपः शारद्वतश्चैव यत एतौ ततो भवेत्।
द्रोणं च भागिनेयं च न स त्यक्ष्यति कर्हिचित्॥२१॥

मूलम्

कृपः शारद्वतश्चैव यत एतौ ततो भवेत्।
द्रोणं च भागिनेयं च न स त्यक्ष्यति कर्हिचित्॥२१॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस पक्षमें ये दोनों होंगे, उसी ओर शरद्वान्‌के पुत्र कृपाचार्य भी रहेंगे। वे अपने बहनोई द्रोण और भानजे अश्वत्थामाको कभी छोड़ न सकेंगे॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षत्तार्थबद्धस्त्वस्माकं प्रच्छन्नं संयतः परैः।
न चैकः स समर्थोऽस्मान् पाण्डवार्थेऽधिबाधितुम् ॥ २२ ॥

मूलम्

क्षत्तार्थबद्धस्त्वस्माकं प्रच्छन्नं संयतः परैः।
न चैकः स समर्थोऽस्मान् पाण्डवार्थेऽधिबाधितुम् ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विदुर भी हमारे आर्थिक बन्धनमें हैं, यद्यपि वे छिपे-छिपे हमारे शत्रुओंके स्नेहपाशमें बँधे हैं। परंतु वे अकेले पाण्डवोंके हितके लिये हमें बाधा पहुँचानेमें समर्थ न हो सकेंगे॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स विस्रब्धः पाण्डुपुत्रान् सह मात्रा प्रवासय।
वारणावतमद्यैव यथा यान्ति तथा कुरु ॥ २३ ॥

मूलम्

स विस्रब्धः पाण्डुपुत्रान् सह मात्रा प्रवासय।
वारणावतमद्यैव यथा यान्ति तथा कुरु ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसलिये आप पूर्ण निश्चिन्त होकर पाण्डवोंको उनकी माताके साथ वारणावत भेज दीजिये और ऐसी व्यवस्था कीजिये, जिससे वे आज ही चले जायँ॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विनिद्रकरणं घोरं हृदि शल्यमिवार्पितम्।
शोकपावकमुद्भूतं कर्मणैतेन नाशय ॥ २४ ॥

मूलम्

विनिद्रकरणं घोरं हृदि शल्यमिवार्पितम्।
शोकपावकमुद्भूतं कर्मणैतेन नाशय ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरे हृदयमें भयंकर काँटा-सा चुभ रहा है, जो मुझे नींद नहीं लेने देता। शोककी आग प्रज्वलित हो उठी है, आप (मेरे द्वारा प्रस्तावित) इस कार्यको पूरा करके मेरे हृदयकी शोकाग्निको बुझा दीजिये॥२४॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि जतुगृहपर्वणि दुर्योधनपरामर्शे एकचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १४१ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत जतुगृहपर्वमें दुर्योधनपरामर्शविषयक एक सौ इकतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१४१॥