१४० दुर्योधनचिन्ता

श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना

(जतुगृहपर्व)
चत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

पाण्डवोंके प्रति पुरवासियोंका अनुराग देखकर दुर्योधनकी चिन्ता

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः सुबलपुत्रस्तु राजा दुर्योधनश्च ह।
दुःशासनश्च कर्णश्च दुष्टं मन्त्रममन्त्रयन् ॥ १ ॥
ते कौरव्यमनुज्ञाप्य धृतराष्ट्रं नराधिपम्।
दहने तु सपुत्रायाः कुन्त्या बुद्धिमकारयन् ॥ २ ॥

मूलम्

ततः सुबलपुत्रस्तु राजा दुर्योधनश्च ह।
दुःशासनश्च कर्णश्च दुष्टं मन्त्रममन्त्रयन् ॥ १ ॥
ते कौरव्यमनुज्ञाप्य धृतराष्ट्रं नराधिपम्।
दहने तु सपुत्रायाः कुन्त्या बुद्धिमकारयन् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! तदनन्तर सुबलपुत्र शकुनि, राजा दुर्योधन, दुःशासन और कर्णने (आपसमें) एक दुष्टतापूर्ण गुप्त सलाह की। उन्होंने कुरुनन्दन महाराज धृतराष्ट्रसे आज्ञा लेकर पुत्रोंसहित कुन्तीको आगमें जला डालनेका विचार किया॥१-२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेषामिङ्गितभावज्ञो विदुरस्तत्त्वदर्शिवान् ।
आकारेण च तं मन्त्रं बुबुधे दुष्टचेतसाम् ॥ ३ ॥

मूलम्

तेषामिङ्गितभावज्ञो विदुरस्तत्त्वदर्शिवान् ।
आकारेण च तं मन्त्रं बुबुधे दुष्टचेतसाम् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्वज्ञानी विदुर उनकी चेष्टाओंसे उनके मनका भाव समझ गये और उनकी आकृतिसे ही उन दुष्टोंकी गुप्त मन्त्रणाका भी उन्होंने पता लगा लिया॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो विदितवेद्यात्मा पाण्डवानां हिते रतः।
पलायने मतिं चक्रे कुन्त्याः पुत्रैः सहानघः ॥ ४ ॥

मूलम्

ततो विदितवेद्यात्मा पाण्डवानां हिते रतः।
पलायने मतिं चक्रे कुन्त्याः पुत्रैः सहानघः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विदुरजीने मन-ही-मन जाननेयोग्य सभी बातें जान लीं। वे सदा पाण्डवोंके हितमें संलग्न रहते थे, अतः निष्पाप विदुरने यही निश्चय किया कि कुन्ती अपने पुत्रोंके साथ यहाँसे भाग जाय॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो वातसहां नावं यन्त्रयुक्तां पताकिनीम्।
ऊर्मिक्षमां दृढां कृत्वा कुन्तीमिदमुवाच ह ॥ ५ ॥

मूलम्

ततो वातसहां नावं यन्त्रयुक्तां पताकिनीम्।
ऊर्मिक्षमां दृढां कृत्वा कुन्तीमिदमुवाच ह ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने एक सुदृढ़ नाव बनवायी, जिसे चलानेके लिये उसमें यन्त्र1 लगाया गया था। वह वायुके वेग और लहरोंके थपेड़ोंका सामना करनेमें समर्थ थी। उसमें झंडियाँ और पताकाएँ फहरा रही थीं। उस नावको तैयार कराके विदुरजीने कुन्तीसे कहा—॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष जातः कुलस्यास्य कीर्तिवंशप्रणाशनः।
धृतराष्ट्रः परीतात्मा धर्मं त्यजति शाश्वतम् ॥ ६ ॥
इयं वारिपथे युक्ता तरङ्गपवनक्षमा।
नौर्यया मृत्युपाशात् त्वं सपुत्रा मोक्ष्यसे शुभे ॥ ७ ॥

मूलम्

एष जातः कुलस्यास्य कीर्तिवंशप्रणाशनः।
धृतराष्ट्रः परीतात्मा धर्मं त्यजति शाश्वतम् ॥ ६ ॥
इयं वारिपथे युक्ता तरङ्गपवनक्षमा।
नौर्यया मृत्युपाशात् त्वं सपुत्रा मोक्ष्यसे शुभे ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘देवि! राजा धृतराष्ट्र इस कुरुकुलकी कीर्ति एवं वंशपरम्पराका नाश करनेवाले पैदा हुए हैं। इनका चित्त पुत्रोंके प्रति ममतासे व्याप्त हुआ है, इसलिये ये सनातन धर्मका त्याग कर रहे हैं। शुभे! जलके मार्गमें यह नाव तैयार है, जो हवा और लहरोंके वेगको भलीभाँति सह सकती है। इसीके द्वारा (कहीं अन्यत्र जाकर) तुम पुत्रोंसहित मौतकी फाँसीसे छूट सकोगी’॥६-७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तच्छ्रुत्वा व्यथिता कुन्ती पुत्रैः सह यशस्विनी।
नावमारुह्य गङ्गायां प्रययौ भरतर्षभ ॥ ८ ॥

मूलम्

तच्छ्रुत्वा व्यथिता कुन्ती पुत्रैः सह यशस्विनी।
नावमारुह्य गङ्गायां प्रययौ भरतर्षभ ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! यह बात सुनकर यशस्विनी कुन्तीको बड़ी व्यथा हुई। वे पुत्रोंसहित (वारणावतके लाक्षागृहसे बचकर) नावपर जा चढ़ीं और गंगाजीकी धारापर यात्रा करने लगीं॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो विदुरवाक्येन नावं विक्षिप्य पाण्डवाः।
धनं चादाय तैर्दत्तमरिष्टं प्राविशन् वनम् ॥ ९ ॥

मूलम्

ततो विदुरवाक्येन नावं विक्षिप्य पाण्डवाः।
धनं चादाय तैर्दत्तमरिष्टं प्राविशन् वनम् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर विदुरजीके कहनेसे पाण्डवोंने नावको वहीं डुबा दिया और उन कौरवोंके दिये हुए धनको लेकर विघ्न-बाधाओंसे रहित वनमें प्रवेश किया॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निषादी पञ्चपुत्रा तु जातुषे तत्र वेश्मनि।
कारणाभ्यागता दग्धा सह पुत्रैरनागसा ॥ १० ॥

मूलम्

निषादी पञ्चपुत्रा तु जातुषे तत्र वेश्मनि।
कारणाभ्यागता दग्धा सह पुत्रैरनागसा ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वारणावतके उस लाक्षागृहमें निषाद जातिकी एक स्त्री किसी कारणवश अपने पाँच पुत्रोंके साथ आकर ठहर गयी थी। वह बेचारी निरपराध होनेपर भी उसमें पुत्रोंसहित जलकर भस्म हो गयी॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स च म्लेच्छाधमः पापो दग्धस्तत्र पुरोचनः।
वञ्चिताश्च दुरात्मानो धार्तराष्ट्राः सहानुगाः ॥ ११ ॥

मूलम्

स च म्लेच्छाधमः पापो दग्धस्तत्र पुरोचनः।
वञ्चिताश्च दुरात्मानो धार्तराष्ट्राः सहानुगाः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

म्लेच्छोंमें (भी) नीच पापी पुरोचन भी उसी घरमें जल मरा और धृतराष्ट्रके दुरात्मा पुत्र अपने सेवकोंसहित धोखा खा गये॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अविज्ञाता महात्मानो जनानामक्षतास्तथा ।
जनन्या सह कौन्तेया मुक्ता विदुरमन्त्रिताः ॥ १२ ॥

मूलम्

अविज्ञाता महात्मानो जनानामक्षतास्तथा ।
जनन्या सह कौन्तेया मुक्ता विदुरमन्त्रिताः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विदुरकी सलाहके अनुसार काम करनेवाले महात्मा कुन्तीपुत्र अपनी माताके साथ मृत्युसे बच गये। उन्हें किसी प्रकारकी क्षति नहीं पहुँची। साधारण लोगोंको उनके जीवित रहनेकी बात ज्ञात न हो सकी॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तस्मिन् पुरे लोका नगरे वारणावते।
दृष्ट्वा जतुगृहं दग्धमन्वशोचन्त दुःखिताः ॥ १३ ॥

मूलम्

ततस्तस्मिन् पुरे लोका नगरे वारणावते।
दृष्ट्वा जतुगृहं दग्धमन्वशोचन्त दुःखिताः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर वारणावत नगरमें वहाँके लोगोंने लाक्षागृहको दग्ध हुआ देख (अत्यन्त) दुःखी हो पाण्डवोंके लिये (बड़ा) शोक किया॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राज्ञे च प्रेषयामासुर्यथावृत्तं निवेदितुम्।
संवृत्तस्ते महान् कामः पाण्डवान् दग्धवानसि ॥ १४ ॥
सकामो भव कौरव्य भुङ्क्ष्व राज्यं सपुत्रकः।
तच्छ्रुत्वा धृतराष्ट्रस्तु सह पुत्रेण शोचयन् ॥ १५ ॥

मूलम्

राज्ञे च प्रेषयामासुर्यथावृत्तं निवेदितुम्।
संवृत्तस्ते महान् कामः पाण्डवान् दग्धवानसि ॥ १४ ॥
सकामो भव कौरव्य भुङ्क्ष्व राज्यं सपुत्रकः।
तच्छ्रुत्वा धृतराष्ट्रस्तु सह पुत्रेण शोचयन् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तथा राजा धृतराष्ट्रके पास यथावत् समाचार कहनेके लिये किसीको भेजकर कहलाया—‘कुरुनन्दन! तुम्हारा महान् मनोरथ पूरा हो गया। पाण्डवोंको तुमने जला दिया। अब तुम कृतार्थ हो जाओ और पुत्रोंके साथ राज्य भोगो।’ यह सुनकर पुत्रसहित धृतराष्ट्र शोकमग्न हो गये॥१४-१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रेतकार्याणि च तथा चकार सह बान्धवैः।
पाण्डवानां तथा क्षत्ता भीष्मश्च कुरुसत्तमः ॥ १६ ॥

मूलम्

प्रेतकार्याणि च तथा चकार सह बान्धवैः।
पाण्डवानां तथा क्षत्ता भीष्मश्च कुरुसत्तमः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने, विदुरजीने तथा कुरुकुलशिरोमणि भीष्मजीने भी भाई-बन्धुओंके साथ (पुत्तल-विधिसे) पाण्डवोंके प्रेतकार्य (दाह और श्राद्ध आदि) सम्पन्न किये॥१६॥

मूलम् (वचनम्)

जनमेजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुनर्विस्तरशः श्रोतुमिच्छामि द्विजसत्तम ।
दाहं जतुगृहस्यैव पाण्डवानां च मोक्षणम् ॥ १७ ॥

मूलम्

पुनर्विस्तरशः श्रोतुमिच्छामि द्विजसत्तम ।
दाहं जतुगृहस्यैव पाण्डवानां च मोक्षणम् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनमेजय बोले— विप्रवर! मैं लाक्षागृहके जलने और पाण्डवोंके उससे बच जानेका वृत्तान्त पुनः विस्तारसे सुनना चाहता हूँ॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनृशंसमिदं कर्म तेषां क्रूरोपसंहितम्।
कीर्तयस्व यथावृत्तं परं कौतूहलं मम ॥ १८ ॥

मूलम्

सुनृशंसमिदं कर्म तेषां क्रूरोपसंहितम्।
कीर्तयस्व यथावृत्तं परं कौतूहलं मम ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्रूर कणिकके उपदेशसे किया हुआ कौरवोंका यह कर्म अत्यन्त निर्दयतापूर्ण था। आप उसका ठीक-ठीक वर्णन कीजिये। मुझे यह सब सुननेके लिये बड़ी उत्कण्ठा हो रही है॥१८॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

शृणु विस्तरशो राजन् वदतो मे परंतप।
दाहं जतुगृहस्यैतत् पाण्डवानां च मोक्षणम् ॥ १९ ॥

मूलम्

शृणु विस्तरशो राजन् वदतो मे परंतप।
दाहं जतुगृहस्यैतत् पाण्डवानां च मोक्षणम् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजीने कहा— शत्रुओंको संताप देनेवाले नरेश! मैं लाक्षागृहके जलने और पाण्डवोंके उससे बच जानेका वृत्तान्त विस्तारपूर्वक कहता हूँ, सुनो॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्राणाधिकं भीमसेनं कृतविद्यं धनंजयम्।
दुर्योधनो लक्षयित्वा पर्यतप्यत दुर्मनाः ॥ २० ॥

मूलम्

प्राणाधिकं भीमसेनं कृतविद्यं धनंजयम्।
दुर्योधनो लक्षयित्वा पर्यतप्यत दुर्मनाः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीमसेनको सबसे अधिक बलवान् और अर्जुनको अस्त्र-विद्यामें सबसे श्रेष्ठ देखकर दुर्योधन सदा संतप्त होता रहता था। उसके मनमें बड़ा दुःख था॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो वैकर्तनः कर्णः शकुनिश्चापि सौबलः।
अनेकैरभ्युपायैस्ते जिघांसन्ति स्म पाण्डवान् ॥ २१ ॥

मूलम्

ततो वैकर्तनः कर्णः शकुनिश्चापि सौबलः।
अनेकैरभ्युपायैस्ते जिघांसन्ति स्म पाण्डवान् ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब सूर्यपुत्र कर्ण और सुबलकुमार शकुनि आदि अनेक उपायोंसे पाण्डवोंको मार डालनेकी इच्छा करने लगे॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पाण्डवा अपि तत् सर्वं प्रतिचक्रुर्यथागतम्।
उद्भावनमकुर्वन्तो विदुरस्य मते स्थिताः ॥ २२ ॥

मूलम्

पाण्डवा अपि तत् सर्वं प्रतिचक्रुर्यथागतम्।
उद्भावनमकुर्वन्तो विदुरस्य मते स्थिताः ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाण्डवोंने भी जब जैसा संकट आया, सबका निवारण किया और विदुरकी सलाह मानकर वे कौरवोंके षड्‌यन्त्रका कभी भंडाफोड़ नहीं करते थे॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुणैः समुदितान्‌ दृष्ट्वा पौराः पाण्डुसुतांस्तदा।
कथयांचक्रिरे तेषां गुणान् संसत्सु भारत ॥ २३ ॥

मूलम्

गुणैः समुदितान्‌ दृष्ट्वा पौराः पाण्डुसुतांस्तदा।
कथयांचक्रिरे तेषां गुणान् संसत्सु भारत ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! उन दिनों पाण्डवोंको सर्वगुणसम्पन्न देख नगरके निवासी भरी सभाओंमें उनके सद्‌गुणोंकी प्रशंसा करते थे॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राज्यप्राप्तिं च सम्प्राप्तं ज्येष्ठं पाण्डुसुतं तदा।
कथयन्ति स्म सम्भूय चत्वरेषु सभासु च ॥ २४ ॥

मूलम्

राज्यप्राप्तिं च सम्प्राप्तं ज्येष्ठं पाण्डुसुतं तदा।
कथयन्ति स्म सम्भूय चत्वरेषु सभासु च ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे जहाँ कहीं चौराहोंपर और सभाओंमें इकट्ठे होते वहीं पाण्डुके ज्येष्ठ पुत्र युधिष्ठिरको राज्यप्राप्तिके योग्य बताते थे॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रज्ञाचक्षुरचक्षुष्ट्वाद् धृतराष्ट्रो जनेश्वरः ।
राज्यं न प्राप्तवान् पूर्वं स कथं नृपतिर्भवेत् ॥ २५ ॥

मूलम्

प्रज्ञाचक्षुरचक्षुष्ट्वाद् धृतराष्ट्रो जनेश्वरः ।
राज्यं न प्राप्तवान् पूर्वं स कथं नृपतिर्भवेत् ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे कहते, ‘प्रज्ञाचक्षु महाराज धृतराष्ट्र नेत्रहीन होनेके कारण जब पहले ही राज्य न पा सके, तब (अब) वे कैसे राजा हो सकते हैं॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा शांतनवो भीष्मः सत्यसंधो महाव्रतः।
प्रत्याख्याय पुरा राज्यं न स जातु ग्रहीष्यति ॥ २६ ॥

मूलम्

तथा शांतनवो भीष्मः सत्यसंधो महाव्रतः।
प्रत्याख्याय पुरा राज्यं न स जातु ग्रहीष्यति ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महान् व्रतका पालन करनेवाले शंतनुनन्दन भीष्म तो सत्यप्रतिज्ञ हैं। वे पहले ही राज्य ठुकरा चुके हैं, अतः अब उसे कदापि ग्रहण न करेंगे॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते वयं पाण्डवज्येष्ठं तरुणं वृद्धशीलिनम्।
अभिषिञ्चाम साध्वद्य सत्यकारुण्यवेदिनम् ॥ २७ ॥

मूलम्

ते वयं पाण्डवज्येष्ठं तरुणं वृद्धशीलिनम्।
अभिषिञ्चाम साध्वद्य सत्यकारुण्यवेदिनम् ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पाण्डवोंके बड़े भाई युधिष्ठिर यद्यपि अभी तरुण हैं, तो भी उनका शील-स्वभाव वृद्धोंके समान है। वे सत्यवादी, दयालु और वेदवेत्ता हैं; अतः अब हमलोग उन्हींका विधिपूर्वक राज्याभिषेक करें॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स हि भीष्मं शांतनवं धृतराष्ट्रं च धर्मवित्।
सपुत्रं विविधैर्भोगैर्योजयिष्यति पूजयन् ॥ २८ ॥

मूलम्

स हि भीष्मं शांतनवं धृतराष्ट्रं च धर्मवित्।
सपुत्रं विविधैर्भोगैर्योजयिष्यति पूजयन् ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाराज युधिष्ठिर बड़े धर्मज्ञ हैं। वे शंतनुनन्दन भीष्म तथा पुत्रोंसहित धृतराष्ट्रका आदर करते हुए उन्हें नाना प्रकारके भोगोंसे सम्पन्न रखेंगे’॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेषां दुर्योधनः श्रुत्वा तानि वाक्यानि जल्पताम्।
युधिष्ठिरानुरक्तानां पर्यतप्यत दुर्मतिः ॥ २९ ॥

मूलम्

तेषां दुर्योधनः श्रुत्वा तानि वाक्यानि जल्पताम्।
युधिष्ठिरानुरक्तानां पर्यतप्यत दुर्मतिः ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरमें अनुरक्त हो उपर्युक्त उद्‌गार प्रकट करनेवाले लोगोंकी बातें सुनकर खोटी बुद्धिवाला दुर्योधन भीतर-ही-भीतर जलने लगा॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तप्यमानो दुष्टात्मा तेषां वाचो न चक्षमे।
ईर्ष्यया चापि संतप्तो धृतराष्ट्रमुपागमत् ॥ ३० ॥

मूलम्

स तप्यमानो दुष्टात्मा तेषां वाचो न चक्षमे।
ईर्ष्यया चापि संतप्तो धृतराष्ट्रमुपागमत् ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार संतप्त हुआ वह दुष्टात्मा लोगोंकी बातोंको सहन न कर सका। वह ईर्ष्याकी आगसे जलता हुआ धृतराष्ट्रके पास आया॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो विरहितं दृष्ट्वा पितरं प्रतिपूज्य सः।
पौरानुरागसंतप्तः पश्चादिदमभाषत ॥ ३१ ॥

मूलम्

ततो विरहितं दृष्ट्वा पितरं प्रतिपूज्य सः।
पौरानुरागसंतप्तः पश्चादिदमभाषत ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ अपने पिताको अकेला पाकर पुरवासियोंके युधिष्ठिरविषयक अनुरागसे दुःखी हुए दुर्योधनने पहले पिताके प्रति आदर प्रदर्शित किया। तत्पश्चात् इस प्रकार कहा॥३१॥

मूलम् (वचनम्)

दुर्योधन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुता मे जल्पतां तात पौराणामशिवा गिरः।
त्वामनादृत्य भीष्मं च पतिमिच्छन्ति पाण्डवम् ॥ ३२ ॥

मूलम्

श्रुता मे जल्पतां तात पौराणामशिवा गिरः।
त्वामनादृत्य भीष्मं च पतिमिच्छन्ति पाण्डवम् ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दुर्योधन बोला— ‘पिताजी! मैंने परस्पर वार्तालाप करते हुए पुरवासियोंके मुखसे (बड़ी) अशुभ बातें सुनी हैं। वे आपका और भीष्मजीका अनादर करके पाण्डुनन्दन युधिष्ठिरको राजा बनाना चाहते हैं॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मतमेतच्च भीष्मस्य न स राज्यं बुभुक्षति।
अस्माकं तु परां पीडां चिकीर्षन्ति पुरे जनाः ॥ ३३ ॥

मूलम्

मतमेतच्च भीष्मस्य न स राज्यं बुभुक्षति।
अस्माकं तु परां पीडां चिकीर्षन्ति पुरे जनाः ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी तो इस बातको मान लेंगे; क्योंकि वे स्वयं राज्य भोगना नहीं चाहते। परंतु नगरके लोग हमारे लिये बहुत बड़े कष्टका आयोजन करना चाहते हैं॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पितृतः प्राप्तवान् राज्यं पाण्डुरात्मगुणैः पुरा।
त्वमन्धगुणसंयोगात् प्राप्तं राज्यं न लब्धवान् ॥ ३४ ॥

मूलम्

पितृतः प्राप्तवान् राज्यं पाण्डुरात्मगुणैः पुरा।
त्वमन्धगुणसंयोगात् प्राप्तं राज्यं न लब्धवान् ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाण्डुने अपने सद्‌गुणोंके कारण पितासे राज्य प्राप्त कर लिया और आप अंधे होनेके कारण अधिकारप्राप्त राज्यको भी नहीं पा सके॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स एष पाण्डोर्दायाद्यं यदि प्राप्नोति पाण्डवः।
तस्य पुत्रो ध्रुवं प्राप्तस्तस्य तस्यापि चापरः ॥ ३५ ॥

मूलम्

स एष पाण्डोर्दायाद्यं यदि प्राप्नोति पाण्डवः।
तस्य पुत्रो ध्रुवं प्राप्तस्तस्य तस्यापि चापरः ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि ये पाण्डुकुमार युधिष्ठिर पाण्डुके राज्यको, जिसका उत्तराधिकारी पुत्र ही होता है, प्राप्त कर लेते हैं तो निश्चय ही उनके बाद उनका पुत्र ही इस राज्यका अधिकारी होगा और उसके बाद पुनः उसीकी पुत्रपरम्परामें दूसरे-दूसरे लोग इसके अधिकारी होते जायँगे॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते वयं राजवंशेन हीनाः सह सुतैरपि।
अवज्ञाता भविष्यामो लोकस्य जगतीपते ॥ ३६ ॥

मूलम्

ते वयं राजवंशेन हीनाः सह सुतैरपि।
अवज्ञाता भविष्यामो लोकस्य जगतीपते ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! ऐसी दशामें हमलोग अपने पुत्रोंसहित राजपरम्परासे वंचित होनेके कारण सब लोगोंकी अव-हेलनाके पात्र बन जायँगे॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सततं निरयं प्राप्ताः परपिण्डोपजीविनः।
न भवेम यथा राजंस्तथा नीतिर्विधीयताम् ॥ ३७ ॥

मूलम्

सततं निरयं प्राप्ताः परपिण्डोपजीविनः।
न भवेम यथा राजंस्तथा नीतिर्विधीयताम् ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! आप कोई ऐसी नीति काममें लाइये, जिससे हमें दूसरोंके दिये हुए अन्नसे गुजारा करके सदा नरकतुल्य कष्ट न भोगना पड़े॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि त्वं हि पुरा राजन्निदं राज्यमवाप्तवान्।
ध्रुवं प्राप्स्याम च वयं राज्यमप्यवशे जने ॥ ३८ ॥

मूलम्

यदि त्वं हि पुरा राजन्निदं राज्यमवाप्तवान्।
ध्रुवं प्राप्स्याम च वयं राज्यमप्यवशे जने ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! यदि पहले ही आपने यह राज्य पा लिया होता तो आज हम अवश्य ही इसे प्राप्त कर लेते; फिर तो लोगोंका कोई वश नहीं चलता॥३८॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि जतुगृहपर्वणि दुर्योधनेर्ष्यायां चत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १४० ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत जतुगृहपर्वमें दुर्योधनकी ईर्ष्याविषयक एक सौ चालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१४०॥


  1. इससे महाभारतकालमें यन्त्रयुक्त नौकाओं (जहाजों)-का निर्माण सूचित होता है। ↩︎