१३९ कणिकोपदेशः

श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना

एकोनचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

कणिकका धृतराष्ट्रको कूटनीतिका उपदेश

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुत्वा पाण्डुसुतान्‌ वीरान् बलोद्रिक्तान् महौजसः।
धृतराष्ट्रो महीपालश्चिन्तामगमदातुरः ॥ १ ॥

मूलम्

श्रुत्वा पाण्डुसुतान्‌ वीरान् बलोद्रिक्तान् महौजसः।
धृतराष्ट्रो महीपालश्चिन्तामगमदातुरः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! पाण्डुके वीर पुत्रोंको महान् तेजस्वी और बलमें बढ़े-चढ़े सुनकर महाराज धृतराष्ट्र व्याकुल हो बड़ी चिन्तामें पड़ गये॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत आहूय मन्त्रज्ञं राजशास्त्रार्थवित्तमम्।
कणिकं मन्त्रिणां श्रेष्ठं धृतराष्ट्रोऽब्रवीद् वचः ॥ २ ॥

मूलम्

तत आहूय मन्त्रज्ञं राजशास्त्रार्थवित्तमम्।
कणिकं मन्त्रिणां श्रेष्ठं धृतराष्ट्रोऽब्रवीद् वचः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब उन्होंने राजनीति और अर्थ-शास्त्रके पण्डित तथा उत्तम मन्त्रके ज्ञाता मन्त्रिप्रवर कणिकको बुलाकर इस प्रकार कहा॥२॥

मूलम् (वचनम्)

धृतराष्ट्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्सिक्ताः पाण्डवा नित्यं तेभ्योऽसूये द्विजोत्तम।
तत्र मे निश्चिततमं संधिविग्रहकारणम्।
कणिक त्वं ममाचक्ष्व करिष्ये वचनं तव ॥ ३ ॥

मूलम्

उत्सिक्ताः पाण्डवा नित्यं तेभ्योऽसूये द्विजोत्तम।
तत्र मे निश्चिततमं संधिविग्रहकारणम्।
कणिक त्वं ममाचक्ष्व करिष्ये वचनं तव ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धृतराष्ट्र बोले— द्विजश्रेष्ठ! पाण्डवोंकी दिनोंदिन उन्नति और सर्वत्र ख्याति हो रही है। इस कारण मैं उनसे डाह रखने लगा हूँ। कणिक! तुम भलीभाँति निश्चय करके बतलाओ, मुझे उनके साथ संधि करनी चाहिये या विग्रह? मैं तुम्हारी बात मानूँगा॥३॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

स प्रसन्नमनास्तेन परिपृष्टो द्विजोत्तमः।
उवाच वचनं तीक्ष्णं राजशास्त्रार्थदर्शनम् ॥ ४ ॥

मूलम्

स प्रसन्नमनास्तेन परिपृष्टो द्विजोत्तमः।
उवाच वचनं तीक्ष्णं राजशास्त्रार्थदर्शनम् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! राजा धृतराष्ट्रके इस प्रकार पूछनेपर विप्रवर कणिक मन-ही-मन बहुत प्रसन्न हुए तथा राजनीतिके सिद्धान्तका परिचय देनेवाली तीखी बात कहने लगे—॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शृणु राजन्निदं तत्र प्रोच्यमानं मयानघ।
न मेऽभ्यसूया कर्तव्या श्रुत्वैतत् कुरुसत्तम ॥ ५ ॥

मूलम्

शृणु राजन्निदं तत्र प्रोच्यमानं मयानघ।
न मेऽभ्यसूया कर्तव्या श्रुत्वैतत् कुरुसत्तम ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘निष्पाप नरेश! इस विषयमें मेरी कही हुई ये बातें सुनिये। कुरुवंशशिरोमणे! इसे सुनकर आप मेरे प्रति दोष-दृष्टि न कीजियेगा॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नित्यमुद्यतदण्डः स्यान्नित्यं विवृतपौरुषः ।
अच्छिद्रश्छिद्रदर्शी स्यात् परेषां विवरानुगः ॥ ६ ॥

मूलम्

नित्यमुद्यतदण्डः स्यान्नित्यं विवृतपौरुषः ।
अच्छिद्रश्छिद्रदर्शी स्यात् परेषां विवरानुगः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजाको सर्वदा दण्ड देनेके लिये उद्यत रहना चाहिये और सदा ही पुरुषार्थ प्रकट करना चाहिये। राजा अपना छिद्र—अपनी दुर्बलता प्रकट न होने दे; परंतु दूसरोंके छिद्र या दुर्बलतापर सदा ही दृष्टि रखे और यदि शत्रुओंकी निर्बलताका पता चल जाय तो उनपर आक्रमण कर दे॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नित्यमुद्यतदण्डाद्धि भृशमुद्विजते जनः ।
तस्मात् सर्वाणि कार्याणि दण्डेनैव विधारयेत् ॥ ७ ॥

मूलम्

नित्यमुद्यतदण्डाद्धि भृशमुद्विजते जनः ।
तस्मात् सर्वाणि कार्याणि दण्डेनैव विधारयेत् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो सदा दण्ड देनेके लिये उद्यत रहता है, उससे प्रजाजन बहुत डरते हैं; इसलिये सब कार्य दण्डके द्वारा ही सिद्ध करे॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नास्यच्छिद्रं परः पश्येच्छिद्रेण परमन्वियात्।
गूहेत् कूर्म इवाङ्गानि रक्षेद् विवरमात्मनः ॥ ८ ॥
नासम्यक्कृतकारी स्यादुपक्रम्य कदाचन ।
कण्टको ह्यपि दुश्छिन्न आस्रावं जनयेच्चिरम् ॥ ९ ॥

मूलम्

नास्यच्छिद्रं परः पश्येच्छिद्रेण परमन्वियात्।
गूहेत् कूर्म इवाङ्गानि रक्षेद् विवरमात्मनः ॥ ८ ॥
नासम्यक्कृतकारी स्यादुपक्रम्य कदाचन ।
कण्टको ह्यपि दुश्छिन्न आस्रावं जनयेच्चिरम् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजाको इतनी सावधानी रखनी चाहिये, जिससे शत्रु उसकी कमजोरी न देख सके और यदि शत्रुकी कमजोरी प्रकट हो जाय तो उसपर अवश्य चढ़ाई करे। जैसे कछुआ अपने अंगोंकी रक्षा करता है, उसी प्रकार राजा अपने सब अंगों (राजा, अमात्य, राष्ट्र, दुर्ग, कोष, बल और सुहृद्)-की रक्षा करे और अपनी कमजोरीको छिपाये रखे। यदि कोई कार्य शुरू कर दे तो उसे पूरा किये बिना कभी न छोड़े; क्योंकि शरीरमें गड़ा हुआ काँटा यदि आधा टूटकर भीतर रह जाय तो वह बहुत दिनोंतक मवाद देता रहता है॥८-९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वधमेव प्रशंसन्ति शत्रूणामपकारिणाम् ।
सुविदीर्णं सुविक्रान्तं सुयुद्धं सुपलायितम् ॥ १० ॥
आपद्यापदि काले च कुर्वीत न विचारयेत्।
नावज्ञेयो रिपुस्तात दुर्बलोऽपि कथंचन ॥ ११ ॥

मूलम्

वधमेव प्रशंसन्ति शत्रूणामपकारिणाम् ।
सुविदीर्णं सुविक्रान्तं सुयुद्धं सुपलायितम् ॥ १० ॥
आपद्यापदि काले च कुर्वीत न विचारयेत्।
नावज्ञेयो रिपुस्तात दुर्बलोऽपि कथंचन ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अपना अनिष्ट करनेवाले शत्रुओंका वध कर दिया जाय, इसीकी नीतिज्ञ पुरुष प्रशंसा करते हैं। अत्यन्त पराक्रमी शत्रुको भी आपत्तिमें पड़ा देख उसे सुगमतापूर्वक नष्ट कर दे। इसी प्रकार जो अच्छी तरह युद्ध करनेवाला शत्रु है, उसे भी आपत्तिकालमें ही अनायास ही मार भगाये। आपत्तिके समय शत्रुका संहार अवश्य ही करे। उस समय उसके सम्बन्ध या सौहार्द आदिका विचार कदापि न करे। तात! शत्रु दुर्बल हो, तो भी किसी प्रकार उसकी उपेक्षा न करे॥१०-११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अल्पोऽप्यग्निर्वनं कृत्स्नं दहत्याश्रयसंश्रयात् ।
अन्धः स्यादन्धवेलायां बाधिर्यमपि चाश्रयेत् ॥ १२ ॥

मूलम्

अल्पोऽप्यग्निर्वनं कृत्स्नं दहत्याश्रयसंश्रयात् ।
अन्धः स्यादन्धवेलायां बाधिर्यमपि चाश्रयेत् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘क्योंकि जैसे थोड़ी-सी भी आग ईंधनका सहारा मिल जानेपर समूचे वनको जला देती है, उसी प्रकार छोटा शत्रु भी दुर्ग आदि प्रबल आश्रयका सहारा लेकर विनाशकारी बन जाता है। अंधा बननेका अवसर आनेपर अंधा बन जाय—अर्थात् अपनी असमर्थताके समय शत्रुके दोषोंको न देखे। उस समय सब ओरसे धिक्कार और निन्दा मिलनेपर भी उसे अनसुनी कर दे अर्थात् उसकी ओरसे कान बंद करके बहरा बन जाय॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुर्यात् तृणमयं चापं शयीत मृगशायिकाम्।
सान्त्वादिभिरुपायैस्तु हन्याच्छत्रुं वशे स्थितम् ॥ १३ ॥

मूलम्

कुर्यात् तृणमयं चापं शयीत मृगशायिकाम्।
सान्त्वादिभिरुपायैस्तु हन्याच्छत्रुं वशे स्थितम् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘ऐसे समयमें अपने धनुषको तिनकेके समान बना दे अर्थात् शत्रुकी दृष्टिमें सर्वथा दीन-हीन एवं असमर्थ बन जाय; परंतु व्याधकी भाँति सोये—अर्थात् जैसे व्याध झूठे ही नींदका बहाना करके सो जाता है और जब मृग विश्वस्त होकर आसपास चरने लगते हैं, तब उठकर उन्हें बाणोंसे घायल कर देता है, उसी प्रकार शत्रुको मारनेका अवसर देखते हुए ही अपने स्वरूप और मनोभावको छिपाकर असमर्थ पुरुषोंका-सा व्यवहार करे। इस प्रकार कपटपूर्ण बर्तावसे वशमें आये हुए शत्रुको साम आदि उपायोंसे विश्वास उत्पन्न करके मार डाले’॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दया न तस्मिन् कर्तव्या शरणागत इत्युत।
निरुद्विग्नो हि भवति नहताज्जायते भयम् ॥ १४ ॥

मूलम्

दया न तस्मिन् कर्तव्या शरणागत इत्युत।
निरुद्विग्नो हि भवति नहताज्जायते भयम् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यह मेरी शरणमें आया है, यह सोचकर उसके प्रति दया नहीं दिखानी चाहिये। शत्रुको मार देनेसे ही राजा निर्भय हो सकता है। यदि शत्रु मारा नहीं गया तो उससे सदा ही भय बना रहता है॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हन्यादमित्रं दानेन तथा पूर्वापकारिणम्।
हन्यात् त्रीन् पञ्च सप्तेति परपक्षस्य सर्वशः ॥ १५ ॥

मूलम्

हन्यादमित्रं दानेन तथा पूर्वापकारिणम्।
हन्यात् त्रीन् पञ्च सप्तेति परपक्षस्य सर्वशः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो सहज शत्रु है, उसे मुँहमाँगी वस्तु देकर—दानके द्वारा विश्वास उत्पन्न करके मार डाले। इसी प्रकार जो पहलेका अपकारी शत्रु हो और पीछे सेवक बन गया हो, उसे भी जीवित न छोड़े। शत्रुपक्षके त्रिवर्ग1, पंचवर्ग2 और सप्तवर्गका3 सर्वथा नाश कर डाले॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मूलमेवादितश्छिन्द्यात् परपक्षस्य नित्यशः ।
ततः सहायांस्तत्पक्षान् सर्वांश्च तदनन्तरम् ॥ १६ ॥

मूलम्

मूलमेवादितश्छिन्द्यात् परपक्षस्य नित्यशः ।
ततः सहायांस्तत्पक्षान् सर्वांश्च तदनन्तरम् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पहले तो सदा शत्रुपक्षके मूलका ही उच्छेद कर डाले। तत्पश्चात् उसके सहायकों और शत्रुपक्षसे सम्बन्ध रखनेवाले सभी लोगोंका संहार कर दे॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

छिन्नमूले ह्यधिष्ठाने सर्वे तज्जीविनो हताः।
कथं नु शाखास्तिष्ठेरंश्छिन्नमूले वनस्पतौ ॥ १७ ॥

मूलम्

छिन्नमूले ह्यधिष्ठाने सर्वे तज्जीविनो हताः।
कथं नु शाखास्तिष्ठेरंश्छिन्नमूले वनस्पतौ ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यदि मूल आधार नष्ट हो जाय तो उसके आश्रयसे जीवन धारण करनेवाले सभी शत्रु स्वतः नष्ट हो जाते हैं। यदि वृक्षकी जड़ काट दी जाय तो उसकी शाखाएँ कैसे रह सकती हैं?॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकाग्रः स्यादविवृतो नित्यं विवरदर्शकः।
राजन् नित्यं सपत्नेषु नित्योद्विग्नः समाचरेत् ॥ १८ ॥

मूलम्

एकाग्रः स्यादविवृतो नित्यं विवरदर्शकः।
राजन् नित्यं सपत्नेषु नित्योद्विग्नः समाचरेत् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजा सदा शत्रुकी गतिविधिको जाननेके लिये एकाग्र रहे। अपने राज्यके सभी अंगोंको गुप्त रखे। राजन्! सदा अपने शत्रुओंकी कमजोरीपर दृष्टि रखे और उनसे सदा सतर्क (सावधान) रहे॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अग्न्याधानेन यज्ञेन काषायेण जटाजिनैः।
लोकान् विश्वासयित्वैव ततो लुम्पेद् यथा वृकः ॥ १९ ॥

मूलम्

अग्न्याधानेन यज्ञेन काषायेण जटाजिनैः।
लोकान् विश्वासयित्वैव ततो लुम्पेद् यथा वृकः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अग्निहोत्र और यज्ञ करके, गेरुए वस्त्र, जटा और मृगचर्म धारण करके पहले लोगोंमें विश्वास उत्पन्न करे; फिर अवसर देखकर भेड़ियेकी भाँति शत्रुओंपर टूट पड़े और उन्हें नष्ट कर दे॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अङ्कुशं शौचमित्याहुरर्थानामुपधारणे ।
आनाम्य फलितां शाखां पक्वं पक्वं प्रशातयेत् ॥ २० ॥

मूलम्

अङ्कुशं शौचमित्याहुरर्थानामुपधारणे ।
आनाम्य फलितां शाखां पक्वं पक्वं प्रशातयेत् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कार्यसिद्धिके लिये शौच-सदाचार आदिका पालन एक प्रकारका अंकुश (लोगोंको आकृष्ट करनेका साधन) बताया गया है। फलोंसे लदी हुई वृक्षकी शाखाको अपनी ओर कुछ झुकाकर ही मनुष्य उसके पके-पके फलको तोड़े॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

फलार्थोऽयं समारम्भो लोके पुंसां विपश्चिताम्।
वहेदमित्रं स्कन्धेन यावत् कालस्य पर्ययः ॥ २१ ॥

मूलम्

फलार्थोऽयं समारम्भो लोके पुंसां विपश्चिताम्।
वहेदमित्रं स्कन्धेन यावत् कालस्य पर्ययः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘लोकमें विद्वान् पुरुषोंका यह सारा आयोजन ही अभीष्ट फलकी सिद्धिके लिये होता है। जबतक समय बदलकर अपने अनुकूल न हो जाय, तबतक शत्रुको कंधेपर बिठाकर ढोना पड़े, तो ढोये भी॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः प्रत्यागते काले भिन्द्याद् घटमिवाश्मनि।
अमित्रो न विमोक्तव्यः कृपणं बह्वपि ब्रुवन् ॥ २२ ॥
कृपा न तस्मिन् कर्तव्या हन्यादेवापकारिणम्।
हन्यादमित्रं सान्त्वेन तथा दानेन वा पुनः ॥ २३ ॥
तथैव भेददण्डाभ्यां सर्वोपायैः प्रशातयेत्।

मूलम्

ततः प्रत्यागते काले भिन्द्याद् घटमिवाश्मनि।
अमित्रो न विमोक्तव्यः कृपणं बह्वपि ब्रुवन् ॥ २२ ॥
कृपा न तस्मिन् कर्तव्या हन्यादेवापकारिणम्।
हन्यादमित्रं सान्त्वेन तथा दानेन वा पुनः ॥ २३ ॥
तथैव भेददण्डाभ्यां सर्वोपायैः प्रशातयेत्।

अनुवाद (हिन्दी)

‘परंतु जब अपने अनुकूल समय आ जाय, तब उसे उसी प्रकार नष्ट कर दे, जैसे घड़ेको पत्थरपर पटककर फोड़ डालते हैं। शत्रु बहुत दीनतापूर्ण वचन बोले, तो भी उसे जीवित नहीं छोड़ना चाहिये। उसपर दया नहीं करनी चाहिये। अपकारी शत्रुको मार ही डालना चाहिये। साम अथवा दान तथा भेद एवं दण्ड सभी उपायोंद्वारा शत्रुको मार डाले—उसे मिटा दे’॥२२-२३॥

मूलम् (वचनम्)

धृतराष्ट्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथं सान्त्वेन दानेन भेदैर्दण्डेन वा पुनः ॥ २४ ॥
अमित्रः शक्यते हन्तुं तन्मे ब्रूहि यथातथम्।

मूलम्

कथं सान्त्वेन दानेन भेदैर्दण्डेन वा पुनः ॥ २४ ॥
अमित्रः शक्यते हन्तुं तन्मे ब्रूहि यथातथम्।

अनुवाद (हिन्दी)

धृतराष्ट्रने पूछा— कणिक! साम, दान, भेद अथवा दण्डके द्वारा शत्रुका नाश कैसे किया जा सकता है, यह मुझे यथार्थरूपसे बताइये॥२४॥

मूलम् (वचनम्)

कणिक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

शृणु राजन् यथावृत्तं वने निवसतः पुरा ॥ २५ ॥
जम्बुकस्य महाराज नीतिशास्त्रार्थदर्शिनः ।

मूलम्

शृणु राजन् यथावृत्तं वने निवसतः पुरा ॥ २५ ॥
जम्बुकस्य महाराज नीतिशास्त्रार्थदर्शिनः ।

अनुवाद (हिन्दी)

कणिकने कहा— महाराज! इस विषयमें नीतिशास्त्रके तत्त्वको जाननेवाले एक वनवासी गीदड़का प्राचीन वृत्तान्त सुनाता हूँ, सुनिये॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ कश्चित् कृतप्रज्ञः शृगालः स्वार्थपण्डितः ॥ २६ ॥
सखिभिर्न्यवसत् सार्धं व्याघ्राखुवृकबभ्रुभिः ।
तेऽपश्यन् विपिने तस्मिन् बलिनं मृगयूथपम् ॥ २७ ॥
अशक्ता ग्रहणे तस्य ततो मन्त्रममन्त्रयन्।

मूलम्

अथ कश्चित् कृतप्रज्ञः शृगालः स्वार्थपण्डितः ॥ २६ ॥
सखिभिर्न्यवसत् सार्धं व्याघ्राखुवृकबभ्रुभिः ।
तेऽपश्यन् विपिने तस्मिन् बलिनं मृगयूथपम् ॥ २७ ॥
अशक्ता ग्रहणे तस्य ततो मन्त्रममन्त्रयन्।

अनुवाद (हिन्दी)

एक वनमें कोई बड़ा बुद्धिमान् और स्वार्थ साधनेमें कुशल गीदड़ अपने चार मित्रों—बाघ, चूहा, भेड़िया और नेवलेके साथ निवास करता था। एक दिन उन सबने हरिणोंके एक सरदारको देखा, जो बड़ा बलवान् था। वे सब उसे पकड़नेमें सफल न हो सके, अतः सबने मिलकर यह सलाह की॥२६-२७॥

मूलम् (वचनम्)

जम्बुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

असकृद् यतितो ह्येष हन्तुं व्याघ्र वने त्वया ॥ २८ ॥
युवा वै जवसम्पन्नो बुद्धिशाली न शक्यते।
मूषिकोऽस्य शयानस्य चरणौ भक्षयत्वयम् ॥ २९ ॥
यथैनं भक्षितैः पादैर्व्याघ्रो गृह्णातु वै ततः।
ततो वै भक्षयिष्यामः सर्वे मुदितमानसाः ॥ ३० ॥

मूलम्

असकृद् यतितो ह्येष हन्तुं व्याघ्र वने त्वया ॥ २८ ॥
युवा वै जवसम्पन्नो बुद्धिशाली न शक्यते।
मूषिकोऽस्य शयानस्य चरणौ भक्षयत्वयम् ॥ २९ ॥
यथैनं भक्षितैः पादैर्व्याघ्रो गृह्णातु वै ततः।
ततो वै भक्षयिष्यामः सर्वे मुदितमानसाः ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गीदड़ने कहा— भाई बाघ! तुमने वनमें इस हरिणको मारनेके लिये कई बार यत्न किया, परंतु यह बड़े वेगसे दौड़नेवाला, जवान और बुद्धिमान् है, इसलिये पकड़में नहीं आता। मेरी राय है कि जब यह हरिण सो रहा हो, उस समय यह चूहा इसके दोनों पैरोंको काट खाये। (फिर कटे हुए पैरोंसे यह उतना तेज नहीं दौड़ सकता।) उस अवस्थामें बाघ उसे पकड़ ले; फिर तो हम सब लोग प्रसन्नचित्त होकर उसे खायँगे॥२८—३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जम्बुकस्य तु तद् वाक्यं तथा चक्रुः समाहिताः।
मूषिकाभक्षितैः पादैर्मृगं व्याघ्रोऽवधीत् तदा ॥ ३१ ॥

मूलम्

जम्बुकस्य तु तद् वाक्यं तथा चक्रुः समाहिताः।
मूषिकाभक्षितैः पादैर्मृगं व्याघ्रोऽवधीत् तदा ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गीदड़की वह बात सुनकर सबने सावधान होकर वैसा ही किया। चूहेके द्वारा काटे हुए पैरोंसे लड़खड़ाते हुए मृगको बाघने तत्काल ही मार डाला॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दृष्ट्वैवाचेष्टमानं तु भूमौ मृगकलेवरम्।
स्नात्वाऽऽगच्छत भद्रं वो रक्षामीत्याह जम्बुकः ॥ ३२ ॥

मूलम्

दृष्ट्वैवाचेष्टमानं तु भूमौ मृगकलेवरम्।
स्नात्वाऽऽगच्छत भद्रं वो रक्षामीत्याह जम्बुकः ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पृथ्वीपर हरिणके शरीरको निश्चेष्ट पड़ा देख गीदड़ने कहा—‘आपलोगोंका भला हो। स्नान करके आइये। तबतक मैं इसकी रखवाली करता हूँ’॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शृगालवचनात् तेऽपि गताः सर्वे नदीं ततः।
स चिन्तापरमो भूत्वा तस्थौ तत्रैव जम्बुकः ॥ ३३ ॥

मूलम्

शृगालवचनात् तेऽपि गताः सर्वे नदीं ततः।
स चिन्तापरमो भूत्वा तस्थौ तत्रैव जम्बुकः ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गीदड़के कहनेसे वे (बाघ आदि) सब साथी नदीमें (नहानेके लिये) चले गये। इधर वह गीदड़ किसी चिन्तामें निमग्न होकर वहीं खड़ा रहा॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथाजगाम पूर्वं तु स्नात्वा व्याघ्रो महाबलः।
ददर्श जम्बुकं चैव चिन्ताकुलितमानसम् ॥ ३४ ॥

मूलम्

अथाजगाम पूर्वं तु स्नात्वा व्याघ्रो महाबलः।
ददर्श जम्बुकं चैव चिन्ताकुलितमानसम् ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इतनेमें ही महाबली बाघ स्नान करके सबसे पहले वहाँ लौट आया। आनेपर उसने देखा, गीदड़का चित्त चिन्तासे व्याकुल हो रहा है॥३४॥

मूलम् (वचनम्)

व्याघ्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

किं शोचसि महाप्राज्ञ त्वं नो बुद्धिमतां वरः।
अशित्वा पिशितान्यद्य विहरिष्यामहे वयम् ॥ ३५ ॥

मूलम्

किं शोचसि महाप्राज्ञ त्वं नो बुद्धिमतां वरः।
अशित्वा पिशितान्यद्य विहरिष्यामहे वयम् ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब बाघने पूछा— महामते! क्यों सोचमें पड़े हो? हमलोगोंमें तुम्हीं सबसे बड़े बुद्धिमान् हो। आज इस हरिणका मांस खाकर हमलोग मौजसे घूमें-फिरेंगे॥३५॥

मूलम् (वचनम्)

जम्बुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

शृणु मे त्वं महाबाहो यद् वाक्यं मूषिकोऽब्रवीत्।
धिग् बलं मृगराजस्य मयाद्यायं मृगो हतः ॥ ३६ ॥

मूलम्

शृणु मे त्वं महाबाहो यद् वाक्यं मूषिकोऽब्रवीत्।
धिग् बलं मृगराजस्य मयाद्यायं मृगो हतः ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गीदड़ बोला— महाबाहो! चूहेने (तुम्हारे विषयमें) जो बात कही है, उसे तुम मुझसे सुनो। वह कहता था, ‘मृगोंके राजा बाघके बलको धिक्कार है! आज इस मृगको तो मैंने मारा है॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मद्‌बाहुबलमाश्रित्य तृप्तिमद्य गमिष्यति ।
गर्जमानस्य तस्यैवमतो भक्ष्यं न रोचये ॥ ३७ ॥

मूलम्

मद्‌बाहुबलमाश्रित्य तृप्तिमद्य गमिष्यति ।
गर्जमानस्य तस्यैवमतो भक्ष्यं न रोचये ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मेरे बाहुबलका आश्रय लेकर आज वह अपनी भूख बुझायेगा।’ उसने इस प्रकार गरज-गरजकर (घमंडभरी) बातें कहीं हैं, अतः उसकी सहायतासे प्राप्त हुए इस भोजनको ग्रहण करना मुझे अच्छा नहीं लगता॥३७॥

मूलम् (वचनम्)

व्याघ्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रवीति यदि स ह्येवं काले ह्यस्मिन् प्रबोधितः।
स्वबाहुबलमाश्रित्य हनिष्येऽहं वनेचरान् ॥ ३८ ॥
खादिष्ये तत्र मांसानि इत्युक्त्वा प्रस्थितो वनम्।
एतस्मिन्नेव काले तु मूषिकोऽप्याजगाम ह ॥ ३९ ॥
तमागतमभिप्रेत्य शृगालोऽप्यब्रवीद् वचः ।

मूलम्

ब्रवीति यदि स ह्येवं काले ह्यस्मिन् प्रबोधितः।
स्वबाहुबलमाश्रित्य हनिष्येऽहं वनेचरान् ॥ ३८ ॥
खादिष्ये तत्र मांसानि इत्युक्त्वा प्रस्थितो वनम्।
एतस्मिन्नेव काले तु मूषिकोऽप्याजगाम ह ॥ ३९ ॥
तमागतमभिप्रेत्य शृगालोऽप्यब्रवीद् वचः ।

अनुवाद (हिन्दी)

बाघने कहा— यदि वह ऐसी बात कहता है, तब तो उसने इस समय मेरी आँखें खोल दीं—मुझे सचेत कर दिया। आजसे मैं अपने ही बाहुबलके भरोसे वन-जन्तुओंका वध किया करूँगा और उन्हींका मांस खाऊँगा।
यों कहकर बाघ वनमें चला गया। इसी समय चूहा भी (नहा-धोकर) वहाँ आ पहुँचा। उसे आया देख गीदड़ने कहा॥३८-३९॥

मूलम् (वचनम्)

जम्बुक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

शृणु मूषिक भद्रं ते नकुलो यदिहाब्रवीत् ॥ ४० ॥

मूलम्

शृणु मूषिक भद्रं ते नकुलो यदिहाब्रवीत् ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गीदड़ बोला— चूहा भाई! तुम्हारा भला हो। नेवलेने यहाँ जो बात कही है, उसे सुन लो॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मृगमांसं न खादेयं गरमेतन्न रोचते।
मूषिकं भक्षयिष्यामि तद् भवाननुमन्यताम् ॥ ४१ ॥

मूलम्

मृगमांसं न खादेयं गरमेतन्न रोचते।
मूषिकं भक्षयिष्यामि तद् भवाननुमन्यताम् ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह कह रहा था कि ‘बाघके काटनेसे इस हरिणका मांस जहरीला हो गया है, मैं तो इसे खाऊँगा नहीं; क्योंकि यह मुझे पसंद नहीं है। यदि तुम्हारी अनुमति हो तो मैं चूहेको ही खा लूँ’॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तच्छ्रुत्वा मूषिको वाक्यं संत्रस्तः प्रगतो बिलम्।
ततः स्नात्वा स वै तत्र आजगाम वृको नृप॥४२॥

मूलम्

तच्छ्रुत्वा मूषिको वाक्यं संत्रस्तः प्रगतो बिलम्।
ततः स्नात्वा स वै तत्र आजगाम वृको नृप॥४२॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह बात सुनकर चूहा अत्यन्त भयभीत होकर बिलमें घुस गया। राजन्! तत्पश्चात् भेड़िया भी स्नान करके वहाँ आ पहुँचा॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमागतमिदं वाक्यमब्रवीज्जम्बुकस्तदा ।
मृगराजो हि संक्रुद्धो न ते साधु भविष्यति ॥ ४३ ॥
सकलत्रस्त्विहायाति कुरुष्व यदनन्तरम् ।
एवं संचोदितस्तेन जम्बुकेन तदा वृकः ॥ ४४ ॥
ततोऽवलुम्पनं कृत्वा प्रयातः पिशिताशनः।
एतस्मिन्नेव काले तु नकुलोऽप्याजगाम ह ॥ ४५ ॥

मूलम्

तमागतमिदं वाक्यमब्रवीज्जम्बुकस्तदा ।
मृगराजो हि संक्रुद्धो न ते साधु भविष्यति ॥ ४३ ॥
सकलत्रस्त्विहायाति कुरुष्व यदनन्तरम् ।
एवं संचोदितस्तेन जम्बुकेन तदा वृकः ॥ ४४ ॥
ततोऽवलुम्पनं कृत्वा प्रयातः पिशिताशनः।
एतस्मिन्नेव काले तु नकुलोऽप्याजगाम ह ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसके आनेपर गीदड़ने इस प्रकार कहा—‘भेड़िया भाई! आज बाघ तुमपर बहुत नाराज हो गया है, अतः तुम्हारी खैर नहीं; वह अभी बाघिनको साथ लेकर यहाँ आ रहा है। इसलिये अब तुम्हें जो उचित जान पड़े, वह करो।’ गीदड़के इस प्रकार कहनेपर कच्चा मांस खानेवाला वह भेड़िया दुम दबाकर भाग गया। इतनेमें ही नेवला भी आ पहुँचा॥४३—४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमुवाच महाराज नकुलं जम्बुको वने।
स्वबाहुबलमाश्रित्य निर्जितास्तेऽन्यतो गताः ॥ ४६ ॥
मम दत्त्वा नियुद्धं त्वं भुङ्क्ष्व मांसं यथेप्सितम्।

मूलम्

तमुवाच महाराज नकुलं जम्बुको वने।
स्वबाहुबलमाश्रित्य निर्जितास्तेऽन्यतो गताः ॥ ४६ ॥
मम दत्त्वा नियुद्धं त्वं भुङ्क्ष्व मांसं यथेप्सितम्।

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! उस नेवलेसे गीदड़ने वनमें इस प्रकार कहा—‘ओ नेवले! मैंने अपने बाहुबलका आश्रय ले उन सबको परास्त कर दिया है। वे हार मानकर अन्यत्र चले गये। यदि तुझमें हिम्मत हो तो पहले मुझसे लड़ ले; फिर इच्छानुसार मांस खाना’॥४६॥

मूलम् (वचनम्)

नकुल उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

मृगराजो वृकश्चैव बुद्धिमानपि मूषिकः ॥ ४७ ॥
निर्जिता यत् त्वया वीरास्तस्माद् वीरतरो भवान्।
न त्वयाप्युत्सहे योद्धुमित्युक्त्वा सोऽप्युपागमत् ॥ ४८ ॥

मूलम्

मृगराजो वृकश्चैव बुद्धिमानपि मूषिकः ॥ ४७ ॥
निर्जिता यत् त्वया वीरास्तस्माद् वीरतरो भवान्।
न त्वयाप्युत्सहे योद्धुमित्युक्त्वा सोऽप्युपागमत् ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नेवलेने कहा— जब बाघ, भेड़िया और बुद्धिमान् चूहा—ये सभी वीर तुमसे परास्त हो गये, तब तो तुम वीरशिरोमणि हो। मैं भी तुम्हारे साथ युद्ध नहीं कर सकता। यों कहकर नेवला भी चला गया॥४७-४८॥

मूलम् (वचनम्)

कणिक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं तेषु प्रयातेषु जम्बुको हृष्टमानसः।
खादति स्म तदा मांसमेकः सन् मन्त्रनिश्चयात् ॥ ४९ ॥

मूलम्

एवं तेषु प्रयातेषु जम्बुको हृष्टमानसः।
खादति स्म तदा मांसमेकः सन् मन्त्रनिश्चयात् ॥ ४९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कणिक कहते हैं— इस प्रकार उन सबके चले जानेपर अपनी युक्तिमें सफल हो जानेके कारण गीदड़का हृदय हर्षसे खिल उठा। तब उसने अकेले ही वह मांस खाया॥४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं समाचरन्नित्यं सुखमेधेत भूपतिः।
भयेन भेदयेद् भीरुं शूरमञ्जलिकर्मणा ॥ ५० ॥

मूलम्

एवं समाचरन्नित्यं सुखमेधेत भूपतिः।
भयेन भेदयेद् भीरुं शूरमञ्जलिकर्मणा ॥ ५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! ऐसा ही आचरण करनेवाला राजा सदा सुखसे रहता और उन्नतिको प्राप्त होता है। डरपोकको भय दिखाकर फोड़ ले तथा जो अपनेसे शूरवीर हो, उसे हाथ जोड़कर वशमें करे॥५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लुब्धमर्थप्रदानेन समं न्यूनं तथौजसा।
एवं ते कथितं राजञ्शृणु चाप्यपरं तथा ॥ ५१ ॥

मूलम्

लुब्धमर्थप्रदानेन समं न्यूनं तथौजसा।
एवं ते कथितं राजञ्शृणु चाप्यपरं तथा ॥ ५१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

लोभीको धन देकर तथा बराबर और कमजोरको पराक्रमसे वशमें करे। राजन्! इस प्रकार आपसे नीतियुक्त बर्तावका वर्णन किया गया। अब दूसरी बातें सुनिये॥५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुत्रः सखा वा भ्राता वा पिता वा यदि वा गुरुः।
रिपुस्थानेषु वर्तन्तो हन्तव्या भूतिमिच्छता ॥ ५२ ॥

मूलम्

पुत्रः सखा वा भ्राता वा पिता वा यदि वा गुरुः।
रिपुस्थानेषु वर्तन्तो हन्तव्या भूतिमिच्छता ॥ ५२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुत्र, मित्र, भाई, पिता अथवा गुरु—कोई भी क्यों न हो, जो शत्रुके स्थानपर आ जायँ—शत्रुवत् बर्ताव करने लगें, तो उन्हें वैभव चाहनेवाला राजा अवश्य मार डाले॥५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शपथेनाप्यरिं हन्यादर्थदानेन वा पुनः।
विषेण मायया वापि नोपेक्षेत कथंचन।
उभौ चेत् संशयोपेतौ श्रद्धावांस्तत्र वर्द्धते ॥ ५३ ॥

मूलम्

शपथेनाप्यरिं हन्यादर्थदानेन वा पुनः।
विषेण मायया वापि नोपेक्षेत कथंचन।
उभौ चेत् संशयोपेतौ श्रद्धावांस्तत्र वर्द्धते ॥ ५३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सौगंध खाकर, धन अथवा जहर देकर या धोखेसे भी शत्रुको मार डाले। किसी तरह भी उसकी उपेक्षा न करे। यदि दोनों राजा समानरूपसे विजयके लिये यत्नशील हों और उनकी जीत संदेहास्पद जान पड़ती हो तो उनमें भी जो मेरे इस नीतिपूर्ण कथनपर श्रद्धा-विश्वास रखता है, वही उन्नतिको प्राप्त होता है॥५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरोरप्यवलिप्तस्य कार्याकार्यमजानतः ।
उत्पथप्रतिपन्नस्य न्याय्यं भवति शासनम् ॥ ५४ ॥

मूलम्

गुरोरप्यवलिप्तस्य कार्याकार्यमजानतः ।
उत्पथप्रतिपन्नस्य न्याय्यं भवति शासनम् ॥ ५४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि गुरु भी घमंडमें भरकर कर्तव्य और अकर्तव्यको न जानता हो तथा बुरे मार्गपर चलता हो तो उसे भी दण्ड देना उचित माना जाता है॥५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्रुद्धोऽप्यक्रुद्धरूपः स्यात् स्मितपूर्वाभिभाषिता ।
न चाप्यन्यमपध्वंसेत् कदाचित् कोपसंयुतः ॥ ५५ ॥
प्रहरिष्यन् प्रियं ब्रूयात् प्रहरन्नपि भारत।
प्रहृत्य च कृपायीत शोचेत च रुदेत च ॥ ५६ ॥

मूलम्

क्रुद्धोऽप्यक्रुद्धरूपः स्यात् स्मितपूर्वाभिभाषिता ।
न चाप्यन्यमपध्वंसेत् कदाचित् कोपसंयुतः ॥ ५५ ॥
प्रहरिष्यन् प्रियं ब्रूयात् प्रहरन्नपि भारत।
प्रहृत्य च कृपायीत शोचेत च रुदेत च ॥ ५६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनमें क्रोध भरा हो, तो भी ऊपरसे क्रोधशून्य बना रहे और मुसकराकर बातचीत करे। कभी क्रोधमें आकर किसी दूसरेका तिरस्कार न करे। भारत! शत्रुपर प्रहार करनेसे पहले और प्रहार करते समय भी उससे मीठे वचन ही बोले। शत्रुको मारकर भी उसके प्रति दया दिखाये, उसके लिये शोक करे तथा रोये और आँसू बहाये॥५५-५६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आश्वासयेच्चापि परं सान्त्वधर्मार्थवृत्तिभिः ।
अथास्य प्रहरेत् काले यदा विचलिते पथि ॥ ५७ ॥

मूलम्

आश्वासयेच्चापि परं सान्त्वधर्मार्थवृत्तिभिः ।
अथास्य प्रहरेत् काले यदा विचलिते पथि ॥ ५७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुको समझा-बुझाकर, धर्म बताकर, धन देकर और सद्व्यवहार करके आश्वासन दे—अपने प्रति उसके मनमें विश्वास उत्पन्न करे; फिर समय आनेपर ज्यों ही वह मार्गसे विचलित हो, त्यों ही उसपर प्रहार करे॥५७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपि घोरापराधस्य धर्ममाश्रित्य तिष्ठतः।
स हि प्रच्छाद्यते दोषः शैलो मेघैरिवासितैः ॥ ५८ ॥

मूलम्

अपि घोरापराधस्य धर्ममाश्रित्य तिष्ठतः।
स हि प्रच्छाद्यते दोषः शैलो मेघैरिवासितैः ॥ ५८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धर्मके आचरणका ढोंग करनेसे घोर अपराध करनेवालेका दोष भी उसी प्रकार ढक जाता है, जैसे पर्वत काले मेघोंकी घटासे ढक जाता है॥५८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यः स्यादनुप्राप्तवधस्तस्यागारं प्रदीपयेत् ।
अधनान्‌ नास्तिकांश्चौरान् विषये स्वे न वासयेत् ॥ ५९ ॥

मूलम्

यः स्यादनुप्राप्तवधस्तस्यागारं प्रदीपयेत् ।
अधनान्‌ नास्तिकांश्चौरान् विषये स्वे न वासयेत् ॥ ५९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसे शीघ्र ही मार डालनेकी इच्छा हो, उसके घरमें आग लगा दे। धनहीनों, नास्तिकों और चोरोंको अपने राज्यमें न रहने दे॥५९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रत्युत्थानासनाद्येन सम्प्रदानेन केनचित् ।
प्रतिविश्रब्धघाती स्यात् तीक्ष्णदंष्ट्रो निमग्नकः ॥ ६० ॥

मूलम्

प्रत्युत्थानासनाद्येन सम्प्रदानेन केनचित् ।
प्रतिविश्रब्धघाती स्यात् तीक्ष्णदंष्ट्रो निमग्नकः ॥ ६० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

(शत्रुके) आनेपर उठकर अगवानी करे, आसन और भोजन दे और कोई प्रिय वस्तु भेंट करे। ऐसे बर्तावोंसे अपने प्रति जिसका पूर्ण विश्वास हो गया हो, उसे भी (अपने लाभके लिये) मारनेमें संकोच न करे। सर्पकी भाँति तीखे दाँतोंसे काटे, जिससे शत्रु फिर उठकर बैठ न सके॥६०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अशङ्कितेभ्यः शङ्केत शङ्कितेभ्यश्च सर्वशः।
अशङ्क्याद् भयमुत्पन्नमपि मूलं निकृन्तति ॥ ६१ ॥

मूलम्

अशङ्कितेभ्यः शङ्केत शङ्कितेभ्यश्च सर्वशः।
अशङ्क्याद् भयमुत्पन्नमपि मूलं निकृन्तति ॥ ६१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनसे भय प्राप्त होनेका संदेह न हो, उनसे भी सशंक (चौकन्ना) ही रहे और जिनसे भयकी आशंका हो, उनकी ओरसे तो सब प्रकारसे सावधान रहे ही। जिनसे भयकी शंका नहीं है, ऐसे लोगोंसे यदि भय उत्पन्न होता है तो वह मूलोच्छेद कर डालता है॥६१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न विश्वसेदविश्वस्ते विश्वस्ते नातिविश्वसेत्।
विश्वासाद् भयमुत्पन्नं मूलान्यपि निकृन्तति ॥ ६२ ॥

मूलम्

न विश्वसेदविश्वस्ते विश्वस्ते नातिविश्वसेत्।
विश्वासाद् भयमुत्पन्नं मूलान्यपि निकृन्तति ॥ ६२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो विश्वासपात्र नहीं है, उसपर कभी विश्वास न करे; परंतु जो विश्वासपात्र है, उसपर भी अति विश्वास न करे; क्योंकि अति विश्वाससे उत्पन्न होनेवाला भय राजाकी जड़मूलका भी नाश कर डालता है॥६२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चारः सुविहितः कार्य आत्मनश्च परस्य वा।
पाषण्डांस्तापसादींश्च परराष्ट्रेषु योजयेत् ॥ ६३ ॥

मूलम्

चारः सुविहितः कार्य आत्मनश्च परस्य वा।
पाषण्डांस्तापसादींश्च परराष्ट्रेषु योजयेत् ॥ ६३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भलीभाँति जाँच-परखकर अपने तथा शत्रुके राज्यमें गुप्तचर रखे। शत्रुके राज्यमें ऐसे गुप्तचरोंको नियुक्त करे, जो पाखण्ड-वेशधारी अथवा तपस्वी आदि हों॥६३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उद्यानेषु विहारेषु देवतायतनेषु च।
पानागारेषु रथ्यासु सर्वतीर्थेषु चाप्यथ ॥ ६४ ॥
चत्वरेषु च कूपेषु पर्वतेषु वनेषु च।
समवायेषु सर्वेषु सरित्सु च विचारयेत् ॥ ६५ ॥

मूलम्

उद्यानेषु विहारेषु देवतायतनेषु च।
पानागारेषु रथ्यासु सर्वतीर्थेषु चाप्यथ ॥ ६४ ॥
चत्वरेषु च कूपेषु पर्वतेषु वनेषु च।
समवायेषु सर्वेषु सरित्सु च विचारयेत् ॥ ६५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उद्यान, घूमने-फिरनेके स्थान, देवालय, मद्यपानके अड्डे, गली या सड़क, सम्पूर्ण तीर्थस्थान, चौराहे, कुएँ, पर्वत, वन, नदी तथा जहाँ मनुष्योंकी भीड़ इकट्ठी होती हो, उन सभी स्थानोंमें अपने गुप्तचरोंको घुमाता रहे॥६४-६५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वाचा भृशं विनीतः स्याद् हृदयेन तथा क्षुरः।
स्मितपूर्वाभिभाषी स्यात् सृष्टो रौद्राय कर्मणे ॥ ६६ ॥

मूलम्

वाचा भृशं विनीतः स्याद् हृदयेन तथा क्षुरः।
स्मितपूर्वाभिभाषी स्यात् सृष्टो रौद्राय कर्मणे ॥ ६६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा बातचीतमें अत्यन्त विनयशील हो, परंतु हृदय छूरेके समान तीखा बनाये रखे। अत्यन्त भयानक कर्म करनेके लिये उद्यत हो तो भी मुसकराकर ही वार्तालाप करे॥६६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अञ्जलिः शपथः सान्त्वं शिरसा पादवन्दनम्।
आशाकरणमित्येवं कर्तव्यं भूतिमिच्छता ॥ ६७ ॥

मूलम्

अञ्जलिः शपथः सान्त्वं शिरसा पादवन्दनम्।
आशाकरणमित्येवं कर्तव्यं भूतिमिच्छता ॥ ६७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अवसर देखकर हाथ जोड़ना, शपथ खाना, आश्वासन देना, पैरोंपर मस्तक रखकर प्रणाम करना और आशा बँधाना—ये सब ऐश्वर्य-प्राप्तिकी इच्छावाले राजाके कर्तव्य हैं॥६७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुपुष्पितः स्यादफलः फलवान् स्याद्‌ दुरारुहः।
आमः स्यात् पक्वसंकाशो न च जीर्येत कर्हिचित् ॥ ६८ ॥

मूलम्

सुपुष्पितः स्यादफलः फलवान् स्याद्‌ दुरारुहः।
आमः स्यात् पक्वसंकाशो न च जीर्येत कर्हिचित् ॥ ६८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नीतिज्ञ राजा ऐसे वृक्षके समान रहे, जिसमें फूल तो खूब लगे हों परंतु फल न हों (वह बातोंसे लोगोंको फलकी आशा दिलाये, उसकी पूर्ति न करे)। फल लगनेपर भी उसपर चढ़ना अत्यन्त कठिन हो (लोगोंकी स्वार्थसिद्धिमें वह विघ्न डाले या विलम्ब करे)। वह रहे तो कच्चा, पर दीखे पकेके समान (अर्थात् स्वार्थ-साधकोंकी दुराशाको पूर्ण न होने दे)। कभी स्वयं जीर्ण न हो (तात्पर्य यह कि अपना धन खर्च करके शत्रुओंका पोषण करते हुए अपने-आपको निर्धन न बना दे)॥६८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रिवर्गे त्रिविधा पीडा ह्यनुबन्धस्तथैव च।
अनुबन्धाः शुभा ज्ञेयाः पीडास्तु परिवर्जयेत् ॥ ६९ ॥

मूलम्

त्रिवर्गे त्रिविधा पीडा ह्यनुबन्धस्तथैव च।
अनुबन्धाः शुभा ज्ञेयाः पीडास्तु परिवर्जयेत् ॥ ६९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धर्म, अर्थ और काम—इन त्रिविध पुरुषार्थोंके सेवनमें तीन प्रकारकी बाधा—अड़चन उपस्थित होती है[^*]। उसी प्रकार उनके तीन ही प्रकारके फल होते हैं। (धर्मका फल है अर्थ एवं काम अर्थात् भोगकी प्राप्ति, अर्थका फल है धर्मका सेवन एवं भोगकी प्राप्ति और काम अर्थात् भोगका फल है—इन्द्रियतृप्ति।) इन (तीनों प्रकारके) फलोंको शुभ (वरणीय) जानना चाहिये; परंतु (उक्त तीनों प्रकारकी) बाधाओंसे यत्नपूर्वक बचना चाहिये। (त्रिविध पुरुषार्थोंका सेवन इस प्रकार करना चाहिये कि तीनों एक-दूसरेके बाधक न हों अर्थात् जीवनमें तीनोंका सामंजस्य ही सुखदायक है।)॥६९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मं विचरतः पीडा सापि द्वाभ्यां नियच्छति।
अर्थं चाप्यर्थलुब्धस्य कामं चातिप्रवर्तिनः ॥ ७० ॥

मूलम्

धर्मं विचरतः पीडा सापि द्वाभ्यां नियच्छति।
अर्थं चाप्यर्थलुब्धस्य कामं चातिप्रवर्तिनः ॥ ७० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धर्मका अनुष्ठान करनेवाले धर्मात्मा पुरुषके धर्ममें काम और अर्थ—इन दोनोंके द्वारा प्राप्त होनेवाली पीड़ा बाधा पहुँचाती है। इसी प्रकार अर्थलोभीके अर्थमें और अत्यन्त भोगासक्तके काममें भी शेष दो वर्गोंद्वारा प्राप्त होनेवाली पीड़ा बाधा उपस्थित करती है॥७०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अगर्वितात्मा युक्तश्च सान्त्वयुक्तोऽनसूयिता ।
अवेक्षितार्थः शुद्धात्मा मन्त्रयीत द्विजैः सह ॥ ७१ ॥

मूलम्

अगर्वितात्मा युक्तश्च सान्त्वयुक्तोऽनसूयिता ।
अवेक्षितार्थः शुद्धात्मा मन्त्रयीत द्विजैः सह ॥ ७१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा अपने हृदयसे अहंकारको निकाल दे। चित्तको एकाग्र रखे। सबसे मधुर बोले। दूसरोंके दोष प्रकाशित न करे। सब विषयोंपर दृष्टि रखे और शुद्धचित्त हो द्विजोंके साथ बैठकर मन्त्रणा करे॥७१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर्मणा येन केनैव मृदुना दारुणेन च।
उद्धरेद् दीनमात्मानं समर्थो धर्ममाचरेत् ॥ ७२ ॥

मूलम्

कर्मणा येन केनैव मृदुना दारुणेन च।
उद्धरेद् दीनमात्मानं समर्थो धर्ममाचरेत् ॥ ७२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा यदि संकटमें हो तो कोमल या भयंकर—जिस किसी भी कर्मके द्वारा उस दुरवस्थासे अपना उद्धार करे; फिर समर्थ होनेपर धर्मका आचरण करे॥७२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न संशयमनारुह्य नरो भद्राणि पश्यति।
संशयं पुनरारुह्य यदि जीवति पश्यति ॥ ७३ ॥

मूलम्

न संशयमनारुह्य नरो भद्राणि पश्यति।
संशयं पुनरारुह्य यदि जीवति पश्यति ॥ ७३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कष्ट सहे बिना मनुष्य कल्याणका दर्शन नहीं करता। प्राण-संकटमें पड़कर यदि वह पुनः जीवित रह जाता है तो अपना भला देखता है॥७३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्य बुद्धिः परिभवेत् तमतीतेन सान्त्वयेत्।
अनागतेन दुर्बुद्धिं प्रत्युत्पन्नेन पण्डितम् ॥ ७४ ॥

मूलम्

यस्य बुद्धिः परिभवेत् तमतीतेन सान्त्वयेत्।
अनागतेन दुर्बुद्धिं प्रत्युत्पन्नेन पण्डितम् ॥ ७४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसकी बुद्धि संकटमें पड़कर शोकाभिभूत हो जाय, उसे भूतकालकी बातें (राजा नल तथा श्रीरामचन्द्रजी आदिके जीवनका वृत्तान्त) सुनाकर सान्त्वना दे। जिसकी बुद्धि अच्छी नहीं है, उसे भविष्यमें लाभकी आशा दिलाकर तथा विद्वान् पुरुषको तत्काल ही धन आदि देकर शान्त करे॥७४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

योऽरिणा सह संधाय शयीत कृतकृत्यवत्।
स वृक्षाग्रे यथा सुप्तः पतितः प्रतिबुध्यते ॥ ७५ ॥

मूलम्

योऽरिणा सह संधाय शयीत कृतकृत्यवत्।
स वृक्षाग्रे यथा सुप्तः पतितः प्रतिबुध्यते ॥ ७५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे वृक्षके ऊपरकी शाखापर सोया हुआ पुरुष जब गिरता है, तब होशमें आता है उसी प्रकार जो अपने शत्रुके साथ संधि करके कृतकृत्यकी भाँति सोता (निश्चिन्त हो जाता) है, वह शत्रुसे धोखा खानेपर सचेत होता है॥७५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन्त्रसंवरणे यत्नः सदा कार्योऽनसूयता।
आकारमभिरक्षेत चारेणाप्यनुपालितः ॥ ७६ ॥

मूलम्

मन्त्रसंवरणे यत्नः सदा कार्योऽनसूयता।
आकारमभिरक्षेत चारेणाप्यनुपालितः ॥ ७६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाको चाहिये कि वह दूसरोंके दोष प्रकाशित न करके अपनी गुप्त मन्त्रणाको सदा छिपाये रखनेकी चेष्टा करे। दूसरोंके गुप्तचरोंसे तो अपने आकारतकको (क्रोध और हर्ष आदिको सूचित करनेवाली चेष्टातकको) गुप्त रखे; परंतु अपने गुप्तचरसे भी सदा अपनी गुप्त मन्त्रणाकी रक्षा करे॥७६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाच्छित्त्वा परमर्माणि नाकृत्वा कर्म दारुणम्।
नाहत्वा मत्स्यघातीव प्राप्नोति महतीं श्रियम् ॥ ७७ ॥

मूलम्

नाच्छित्त्वा परमर्माणि नाकृत्वा कर्म दारुणम्।
नाहत्वा मत्स्यघातीव प्राप्नोति महतीं श्रियम् ॥ ७७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा मछलीमारोंकी भाँति दूसरोंके मर्म विदीर्ण किये बिना, अत्यन्त क्रूर कर्म किये बिना तथा बहुतोंके प्राण लिये बिना बड़ी भारी सम्पत्ति नहीं पाता॥७७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर्शितं व्याधितं क्लिन्नमपानीयमघासकम् ।
परिविश्वस्तमन्दं च प्रहर्तव्यमरेर्बलम् ॥ ७८ ॥

मूलम्

कर्शितं व्याधितं क्लिन्नमपानीयमघासकम् ।
परिविश्वस्तमन्दं च प्रहर्तव्यमरेर्बलम् ॥ ७८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब शत्रुकी सेना दुर्बल, रोगग्रस्त, जल या कीचड़में फँसी, भूख-प्याससे पीड़ित और सब ओरसे विश्वस्त होकर निश्चेष्ट पड़ी हो, उस समय उसपर प्रहार करना चाहिये॥७८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नार्थिकोऽर्थिनमभ्येति कृतार्थे नास्ति संगतम्।
तस्मात् सर्वाणि साध्यानि सावशेषाणि कारयेत् ॥ ७९ ॥

मूलम्

नार्थिकोऽर्थिनमभ्येति कृतार्थे नास्ति संगतम्।
तस्मात् सर्वाणि साध्यानि सावशेषाणि कारयेत् ॥ ७९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धनवान् मनुष्य किसी धनीके पास नहीं जाता। जिसके सब काम पूरे हो चुके हैं, वह किसीके साथ मैत्री निभानेकी चेष्टा नहीं करता; अतः अपनेद्वारा सिद्ध होनेवाले दूसरोंके कार्य ही अधूरे रख दे (जिससे अपने कार्यके लिये उनका आना-जाना बना रहे)॥७९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संग्रहे विग्रहे चैव यत्नः कार्योऽनसूयता।
उत्साहश्चापि यत्नेन कर्तव्यो भूतिमिच्छता ॥ ८० ॥

मूलम्

संग्रहे विग्रहे चैव यत्नः कार्योऽनसूयता।
उत्साहश्चापि यत्नेन कर्तव्यो भूतिमिच्छता ॥ ८० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐश्वर्यकी इच्छा रखनेवाले राजाको दूसरोंके दोष न बताकर सदा आवश्यक सामग्रीके संग्रह और शत्रुओंके साथ विग्रह (युद्ध) करनेका प्रयत्न करते रहना चाहिये; साथ ही यत्नपूर्वक अपने उत्साहको बनाये रखना चाहिये॥८०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नास्य कृत्यानि बुध्येरन् मित्राणि रिपवस्तथा।
आरब्धान्येव पश्येरन् सुपर्यवसितान्यपि ॥ ८१ ॥

मूलम्

नास्य कृत्यानि बुध्येरन् मित्राणि रिपवस्तथा।
आरब्धान्येव पश्येरन् सुपर्यवसितान्यपि ॥ ८१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मित्र और शत्रु—किसीको भी यह पता न चले कि राजा कब क्या करना चाहता है। कार्यके आरम्भ अथवा समाप्त हो जानेपर ही (सब) लोग उसे देखें॥८१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भीतवत् संविधातव्यं यावद् भयमनागतम्।
आगतं तु भयं दृष्ट्वा प्रहर्तव्यमभीतवत् ॥ ८२ ॥

मूलम्

भीतवत् संविधातव्यं यावद् भयमनागतम्।
आगतं तु भयं दृष्ट्वा प्रहर्तव्यमभीतवत् ॥ ८२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जबतक अपने ऊपर भय आया न हो, तबतक डरे हुएकी भाँति उसको टालनेका प्रयत्न करना चाहिये; परंतु जब भयको सामने आया देखे, तब निडर होकर शत्रुपर प्रहार करना चाहिये॥८२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दण्डेनोपनतं शत्रुमनुगृह्णाति यो नरः।
स मृत्युमुपगृह्णीयाद् गर्भमश्वतरी यथा ॥ ८३ ॥

मूलम्

दण्डेनोपनतं शत्रुमनुगृह्णाति यो नरः।
स मृत्युमुपगृह्णीयाद् गर्भमश्वतरी यथा ॥ ८३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मनुष्य दण्डके द्वारा वशमें किये हुए शत्रुपर दया करता है, वह मौतको ही अपनाता है—ठीक उसी तरह जैसे खच्चरी गर्भके रूपमें अपनी मृत्युको ही उदरमें धारण करती है॥८३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनागतं हि बुध्येत यच्च कार्यं पुरः स्थितम्।
न तु बुद्धिक्षयात् किंचिदतिक्रामेत् प्रयोजनम् ॥ ८४ ॥

मूलम्

अनागतं हि बुध्येत यच्च कार्यं पुरः स्थितम्।
न तु बुद्धिक्षयात् किंचिदतिक्रामेत् प्रयोजनम् ॥ ८४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो कार्य भविष्यमें करना हो, उसपर बुद्धिसे विचार करे और विचारनेके पश्चात् तदनुकूल व्यवस्था करे। इसी प्रकार जो कार्य सामने उपस्थित हो, उसे भी बुद्धिसे विचारकर ही करे। बुद्धिसे निश्चय किये बिना किसी भी कार्य या उद्देश्यका परित्याग न करे॥८४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्साहश्चापि यत्नेन कर्तव्यो भूतिमिच्छता।
विभज्य देशकालौ च दैवं धर्मादयस्त्रयः।
नैःश्रेयसौ तु तौ ज्ञेयौ देशकालाविति स्थितिः ॥ ८५ ॥

मूलम्

उत्साहश्चापि यत्नेन कर्तव्यो भूतिमिच्छता।
विभज्य देशकालौ च दैवं धर्मादयस्त्रयः।
नैःश्रेयसौ तु तौ ज्ञेयौ देशकालाविति स्थितिः ॥ ८५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐश्वर्यकी इच्छा रखनेवाले राजाको देश और कालका विभाग करके ही यत्नपूर्वक उत्साह एवं उद्यम करना चाहिये। इसी प्रकार देश-कालके विभाग-पूर्वक ही प्रारब्धकर्म तथा धर्म, अर्थ और कामका सेवन करना चाहिये। देश और कालको ही मंगलके प्रधान हेतु समझना चाहिये। यही नीतिशास्त्रका सिद्धान्त है॥८५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तालवत् कुरुते मूलं बालः शत्रुरुपेक्षितः।
गहनेऽग्निरिवोत्सृष्टः क्षिप्रं संजायते महान् ॥ ८६ ॥

मूलम्

तालवत् कुरुते मूलं बालः शत्रुरुपेक्षितः।
गहनेऽग्निरिवोत्सृष्टः क्षिप्रं संजायते महान् ॥ ८६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

छोटे शत्रुकी भी उपेक्षा कर दी जाय, तो वह ताड़के वृक्षकी भाँति जड़ जमा लेता है और घने वनमें छोड़ी हुई आगकी भाँति शीघ्र ही महान् विनाशकारी बन जाता है॥८६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अग्निं स्तोकमिवात्मानं संधुक्षयति यो नरः।
स वर्धमानो ग्रसते महान्तमपि संचयम् ॥ ८७ ॥

मूलम्

अग्निं स्तोकमिवात्मानं संधुक्षयति यो नरः।
स वर्धमानो ग्रसते महान्तमपि संचयम् ॥ ८७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मनुष्य थोड़ी-सी अग्निकी भाँति अपने-आपको (सहायक सामग्रियोंद्वारा धीरे-धीरे) प्रज्वलित या समृद्ध करता रहता है, वह एक दिन बहुत बड़ा होकर शत्रुरूपी ईंधनकी बहुत बड़ी राशिको भी अपना ग्रास बना लेता है॥८७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आशां कालवतीं कुर्यात् कालं विघ्नेन योजयेत्।
विघ्नं निमित्ततो ब्रूयान्निमित्तं वापि हेतुतः ॥ ८८ ॥

मूलम्

आशां कालवतीं कुर्यात् कालं विघ्नेन योजयेत्।
विघ्नं निमित्ततो ब्रूयान्निमित्तं वापि हेतुतः ॥ ८८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि किसीको किसी बातकी आशा दे तो उसे शीघ्र पूरी न करके दीर्घकालतक लटकाये रखे। जब उसे पूर्ण करनेका समय आये, तब उसमें कोई विघ्न डाल दे और इस प्रकार समयकी अवधिको बढ़ा दे। उस विघ्नके पड़नेमें कोई उपयुक्त कारण बता दे और उस कारणको भी युक्तियोंसे सिद्ध कर दे॥८८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षुरो भूत्वा हरेत् प्राणान् निशितः कालसाधनः।
प्रतिच्छन्नो लोमहारी द्विषतां परिकर्तनः ॥ ८९ ॥

मूलम्

क्षुरो भूत्वा हरेत् प्राणान् निशितः कालसाधनः।
प्रतिच्छन्नो लोमहारी द्विषतां परिकर्तनः ॥ ८९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

लोहेका बना हुआ छूरा शानपर चढ़ाकर तेज किया जाता है और चमड़ेके सम्पुटमें छिपाकर रखा जाता है तो वह समय आनेपर (सिर आदि अंगोंके समस्त) बालोंको काट देता है। उसी प्रकार राजा अनुकूल अवसरकी अपेक्षा रखकर अपने मनोभावको छिपाये हुए अनुकूल साधनोंका संग्रह करता रहे और छूरेकी तरह तीक्ष्ण या निर्दय होकर शत्रुओंके प्राण ले ले—उनका मूलोच्छेद कर डाले॥८९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पाण्डवेषु यथान्यायमन्येषु च कुरूद्वह।
वर्तमानो न मज्जेस्त्वं तथा कृत्यं समाचर ॥ ९० ॥
सर्वकल्याणसम्पन्नो विशिष्ट इति निश्चयः।
तस्मात् त्वं पाण्डुपुत्रेभ्यो रक्षात्मानं नराधिप ॥ ९१ ॥

मूलम्

पाण्डवेषु यथान्यायमन्येषु च कुरूद्वह।
वर्तमानो न मज्जेस्त्वं तथा कृत्यं समाचर ॥ ९० ॥
सर्वकल्याणसम्पन्नो विशिष्ट इति निश्चयः।
तस्मात् त्वं पाण्डुपुत्रेभ्यो रक्षात्मानं नराधिप ॥ ९१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुश्रेष्ठ! आप भी इसी नीतिका अनुसरण करके पाण्डवों तथा दूसरे लोगोंके साथ यथोचित बर्ताव करते रहें। परंतु ऐसा कार्य करें, जिससे स्वयं संकटके समुद्रमें डूब न जायँ। आप समस्त कल्याणकारी साधनोंसे सम्पन्न और सबसे श्रेष्ठ हैं, यही सबका निश्चय है; अतः नरेश्वर! आप पाण्डुके पुत्रोंसे अपनी रक्षा कीजिये॥९०-९१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भ्रातृव्या बलिनो यस्मात् पाण्डुपुत्रा नराधिप।
पश्चात्तापो यथा न स्यात् तथा नीतिर्विधीयताम् ॥ ९२ ॥

मूलम्

भ्रातृव्या बलिनो यस्मात् पाण्डुपुत्रा नराधिप।
पश्चात्तापो यथा न स्यात् तथा नीतिर्विधीयताम् ॥ ९२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! आपके भतीजे पाण्डव बहुत बलवान् हैं; अतः ऐसी नीति काममें लाइये, जिससे आगे चलकर आपको पछताना न पड़े॥९२॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्त्वा सम्प्रतस्थे कणिकः स्वगृहं ततः।
धृतराष्ट्रोऽपि कौरव्यः शोकार्तः समपद्यत ॥ ९३ ॥

मूलम्

एवमुक्त्वा सम्प्रतस्थे कणिकः स्वगृहं ततः।
धृतराष्ट्रोऽपि कौरव्यः शोकार्तः समपद्यत ॥ ९३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! यों कहकर कणिक अपने घरको चले गये। इधर कुरुवंशी धृतराष्ट्र शोकसे व्याकुल हो गये॥९३॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि कणिकवाक्ये एकोनचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १३९ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत सम्भवपर्वमें कणिकवाक्यविषयक एक सौ उन्तालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१३९॥

  • इन बाधाओंको श्लोक ७० में स्पष्ट किया गया है।

  1. तीन प्रकारकी शक्तियाँ ही यहाँ त्रिवर्ग कही गयी हैं। उनके नाम ये हैं—प्रभुशक्ति (ऐश्वर्यशक्ति), उत्साहशक्ति और मन्त्रशक्ति। दुर्ग आदिपर आक्रमण करके शत्रुकी ऐश्वर्यशक्तिका नाश करे। विश्वसनीय व्यक्तियोंद्वारा अपने उत्कर्षका वर्णन कराकर शत्रुको तेजोहीन बनाना, उसके उत्साह एवं साहसको घटा देना ही उत्साहशक्तिका नाश करना है। गुप्तचरोंद्वारा उनकी गुप्त मन्त्रणाको प्रकट कर देना ही मन्त्रशक्तिका नाश करना है। ↩︎

  2. अमात्य, राष्ट्र, दुर्ग, कोष और सेना—ये पाँच प्रकृतियाँ ही पंचवर्ग हैं। ↩︎

  3. साम, दान, भेद, दण्ड, उद्‌बन्धन, विषप्रयोग और आग लगाना—शत्रुको वशमें करने या दबानेके ये सात साधन ही सप्तवर्ग हैं। ↩︎