१३८ युधिष्ठिर-यौवराज्यम्

श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना

अष्टात्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

युधिष्ठिरका युवराजपदपर अभिषेक, पाण्डवोंके शौर्य, कीर्ति और बलके विस्तारसे धृतराष्ट्रको चिन्ता

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः संवत्सरस्यान्ते यौवराज्याय पार्थिव।
स्थापितो धृतराष्ट्रेण पाण्डुपुत्रो युधिष्ठिरः ॥ १ ॥
धृतिस्थैर्यसहिष्णुत्वादानृशंस्यात् तथार्जवात् ।
भृत्यानामनुकम्पार्थं तथैव स्थिरसौहृदात् ॥ २ ॥

मूलम्

ततः संवत्सरस्यान्ते यौवराज्याय पार्थिव।
स्थापितो धृतराष्ट्रेण पाण्डुपुत्रो युधिष्ठिरः ॥ १ ॥
धृतिस्थैर्यसहिष्णुत्वादानृशंस्यात् तथार्जवात् ।
भृत्यानामनुकम्पार्थं तथैव स्थिरसौहृदात् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! तदनन्तर एक वर्ष बीतनेपर धृतराष्ट्रने पाण्डुपुत्र युधिष्ठिरको धृति, स्थिरता, सहिष्णुता, दयालुता, सरलता तथा अविचल सौहार्द आदि सद्‌गुणोंके कारण पालन करनेयोग्य प्रजापर अनुग्रह करनेके लिये युवराजपदपर अभिषिक्त कर दिया॥१-२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽदीर्घेण कालेन कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः।
पितुरन्तर्दधे कीर्तिं शीलवृत्तसमाधिभिः ॥ ३ ॥

मूलम्

ततोऽदीर्घेण कालेन कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः।
पितुरन्तर्दधे कीर्तिं शीलवृत्तसमाधिभिः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद थोड़े ही दिनोंमें कुन्तीकुमार युधिष्ठिरने अपने शील (उत्तम स्वभाव), वृत्त (सदाचार एवं सद्व्यवहार) तथा समाधि (मनोयोगपूर्वक प्रजापालनकी प्रवृत्ति)-के द्वारा अपने पिता महाराज पाण्डुकी कीर्तिको भी ढक दिया॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

असियुद्धे गदायुद्धे रथयुद्धे च पाण्डवः।
संकर्षणादशिक्षद् वै शश्वच्छिक्षां वृकोदरः ॥ ४ ॥

मूलम्

असियुद्धे गदायुद्धे रथयुद्धे च पाण्डवः।
संकर्षणादशिक्षद् वै शश्वच्छिक्षां वृकोदरः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाण्डुनन्दन भीमसेन बलरामजीसे नित्यप्रति खड्‌गयुद्ध, गदायुद्ध तथा रथयुद्धकी शिक्षा लेने लगे॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समाप्तशिक्षो भीमस्तु द्युमत्सेनसमो बले।
पराक्रमेण सम्पन्नो भ्रातॄणामचरद् वशे ॥ ५ ॥

मूलम्

समाप्तशिक्षो भीमस्तु द्युमत्सेनसमो बले।
पराक्रमेण सम्पन्नो भ्रातॄणामचरद् वशे ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शिक्षा समाप्त होनेपर भीमसेन बलमें राजा द्युमत्सेनके समान हो गये और पराक्रमसे सम्पन्न हो अपने भाइयोंके अनुकूल रहने लगे॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रगाढदृढमुष्टित्वे लाघवे वेधने तथा।
क्षुरनाराचभल्लानां विपाठानां च तत्त्ववित् ॥ ६ ॥
ऋजुवक्रविशालानां प्रयोक्ता फाल्गुनोऽभवत् ।
लाघवे सौष्ठवे चैव नान्यः कश्चन विद्यते ॥ ७ ॥
बीभत्सुसदृशो लोके इति द्रोणो व्यवस्थितः।
ततोऽब्रवीद् गुडाकेशं द्रोणः कौरवसंसदि ॥ ८ ॥

मूलम्

प्रगाढदृढमुष्टित्वे लाघवे वेधने तथा।
क्षुरनाराचभल्लानां विपाठानां च तत्त्ववित् ॥ ६ ॥
ऋजुवक्रविशालानां प्रयोक्ता फाल्गुनोऽभवत् ।
लाघवे सौष्ठवे चैव नान्यः कश्चन विद्यते ॥ ७ ॥
बीभत्सुसदृशो लोके इति द्रोणो व्यवस्थितः।
ततोऽब्रवीद् गुडाकेशं द्रोणः कौरवसंसदि ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुन अत्यन्त दृढ़तापूर्वक मुट्ठीसे धनुषको पकड़नेमें, हाथोंकी फुर्तीमें और लक्ष्यको बींधनेमें बड़े चतुर निकले। वे क्षुर1, नाराच2, भल्ल3 और विपाठ4 नामक ऋजु, वक्र और विशाल5 अस्त्रोंके संचालनका गूढ़ तत्त्व अच्छी तरह जानते और उनका सफलतापूर्वक प्रयोग कर सकते थे। इसलिये द्रोणाचार्यको यह दृढ़ विश्वास हो गया था कि फुर्ती और सफाईमें अर्जुनके समान दूसरा कोई योद्धा इस जगत्‌में नहीं है। एक दिन द्रोणने कौरवोंकी भरी सभामें निद्राको जीतनेवाले अर्जुनसे कहा—॥६—८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अगस्त्यस्य धनुर्वेदे शिष्यो मम गुरुः पुरा।
अग्निवेश इति ख्यातस्तस्य शिष्योऽस्मि भारत ॥ ९ ॥
तीर्थात् तीर्थं गमयितुमहमेतत् समुद्यतः।
तपसा यन्मया प्राप्तममोघमशनिप्रभम् ॥ १० ॥
अस्त्रं ब्रह्मशिरो नाम यद् दहेत् पृथिवीमपि।
ददता गुरुणा चोक्तं न मनुष्येष्विदं त्वया ॥ ११ ॥
भारद्वाज विमोक्तव्यमल्पवीर्येष्वपि प्रभो ।
त्वया प्राप्तमिदं वीर दिव्यं नान्योऽर्हति त्विदम् ॥ १२ ॥
समयस्तु त्वया रक्ष्यो मुनिसृष्टो विशाम्पते।
आचार्यदक्षिणां देहि ज्ञातिग्रामस्य पश्यतः ॥ १३ ॥

मूलम्

अगस्त्यस्य धनुर्वेदे शिष्यो मम गुरुः पुरा।
अग्निवेश इति ख्यातस्तस्य शिष्योऽस्मि भारत ॥ ९ ॥
तीर्थात् तीर्थं गमयितुमहमेतत् समुद्यतः।
तपसा यन्मया प्राप्तममोघमशनिप्रभम् ॥ १० ॥
अस्त्रं ब्रह्मशिरो नाम यद् दहेत् पृथिवीमपि।
ददता गुरुणा चोक्तं न मनुष्येष्विदं त्वया ॥ ११ ॥
भारद्वाज विमोक्तव्यमल्पवीर्येष्वपि प्रभो ।
त्वया प्राप्तमिदं वीर दिव्यं नान्योऽर्हति त्विदम् ॥ १२ ॥
समयस्तु त्वया रक्ष्यो मुनिसृष्टो विशाम्पते।
आचार्यदक्षिणां देहि ज्ञातिग्रामस्य पश्यतः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भारत! मेरे गुरु अग्निवेश नामसे विख्यात हैं। उन्होंने पूर्वकालमें महर्षि अगस्त्यसे धनुर्वेदकी शिक्षा प्राप्त की थी। मैं उन्हीं महात्मा अग्निवेशका शिष्य हूँ। एक पात्र (गुरु)-से दूसरे (सुयोग्य शिष्य)-को इसकी प्राप्ति करानेके उद्देश्यसे सर्वथा उद्यत होकर मैंने तुम्हें यह ब्रह्मशिर नामक अस्त्र प्रदान किया, जो मुझे बड़ी तपस्यासे मिला था। वह अमोघ अस्त्र वज्रके समान प्रकाशमान है। उसमें समूची पृथ्वीको भी भस्म कर डालनेकी शक्ति है। मुझे वह अस्त्र देते समय गुरु अग्निवेशजीने कहा था, ‘शक्तिशाली भारद्वाज! तुम यह अस्त्र मनुष्योंपर न चलाना। मनुष्येतर प्राणियोंमें भी जो अल्पवीर्य हों, उनपर भी इस अस्त्रको न छोड़ना।’ वीर अर्जुन! इस दिव्य अस्त्रको तुमने मुझसे पा लिया है। दूसरा कोई इसे नहीं प्राप्त कर सकता। राजकुमार! इस अस्त्रके सम्बन्धमें मुनिके बताये हुए इस नियमका तुम्हें भी पालन करना चाहिये। अब तुम अपने भाई-बन्धुओंके सामने ही मुझे एक गुरु-दक्षिणा दो’॥९—१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ददानीति प्रतिज्ञाते फाल्गुनेनाब्रवीद् गुरुः।
युद्धेऽहं प्रतियोद्धव्यो युध्यमानस्त्वयानघ ॥ १४ ॥

मूलम्

ददानीति प्रतिज्ञाते फाल्गुनेनाब्रवीद् गुरुः।
युद्धेऽहं प्रतियोद्धव्यो युध्यमानस्त्वयानघ ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब अर्जुनने प्रतिज्ञा की—‘अवश्य दूँगा।’ उनके यों कहनेपर गुरु द्रोण बोले—‘निष्पाप अर्जुन! यदि युद्धभूमिमें मैं भी तुम्हारे विरुद्ध लड़नेको आऊँ तो तुम (अवश्य) मेरा सामना करना’॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथेति च प्रतिज्ञाय द्रोणाय कुरुपुङ्गवः।
उपसंगृह्य चरणौ स प्रायादुत्तरां दिशम् ॥ १५ ॥

मूलम्

तथेति च प्रतिज्ञाय द्रोणाय कुरुपुङ्गवः।
उपसंगृह्य चरणौ स प्रायादुत्तरां दिशम् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह सुनकर कुरुश्रेष्ठ अर्जुनने ‘बहुत अच्छा’ कहते हुए उनकी इस आज्ञाका पालन करनेकी प्रतिज्ञा की और गुरुके दोनों चरण पकड़कर उन्होंने सर्वोत्तम उपदेश प्राप्त कर लिया॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वभावादगमच्छब्दो महीं सागरमेखलाम् ।
अर्जुनस्य समो लोके नास्ति कश्चिद् धनुर्धरः ॥ १६ ॥

मूलम्

स्वभावादगमच्छब्दो महीं सागरमेखलाम् ।
अर्जुनस्य समो लोके नास्ति कश्चिद् धनुर्धरः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार समुद्रपर्यन्त पृथ्वीपर सब ओर अपने-आप ही यह बात फैल गयी कि संसारमें अर्जुनके समान दूसरा कोई धनुर्धर नहीं है॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गदायुद्धेऽसियुद्धे च रथयुद्धे च पाण्डवः।
पारगश्च धनुर्युद्धे बभूवाथ धनंजयः ॥ १७ ॥

मूलम्

गदायुद्धेऽसियुद्धे च रथयुद्धे च पाण्डवः।
पारगश्च धनुर्युद्धे बभूवाथ धनंजयः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाण्डुनन्दन धनंजय गदा, खड्ग, रथ तथा धनुषद्वारा युद्ध करनेकी कलामें पारंगत हुए॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नीतिमान् सकलां नीतिं विबुधाधिपतेस्तदा।
अवाप्य सहदेवोऽपि भ्रातॄणां ववृते वशे ॥ १८ ॥
द्रोणेनैव विनीतश्च भ्रातॄणां नकुलः प्रियः।
चित्रयोधी समाख्यातो बभूवातिरथोदितः ॥ १९ ॥

मूलम्

नीतिमान् सकलां नीतिं विबुधाधिपतेस्तदा।
अवाप्य सहदेवोऽपि भ्रातॄणां ववृते वशे ॥ १८ ॥
द्रोणेनैव विनीतश्च भ्रातॄणां नकुलः प्रियः।
चित्रयोधी समाख्यातो बभूवातिरथोदितः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सहदेव भी उस समय द्रोणके रूपमें अवतीर्ण देवताओंके आचार्य बृहस्पतिसे सम्पूर्ण नीतिशास्त्रकी शिक्षा पाकर नीतिमान् हो अपने भाइयोंके अधीन (अनुकूल) होकर रहते थे। नकुलने भी द्रोणाचार्यसे ही अस्त्र-शस्त्रोंकी शिक्षा पायी थी। वे अपने भाइयोंको बहुत ही प्रिय थे और विचित्र प्रकारसे युद्ध करनेमें उनकी बड़ी ख्याति थी। वे अतिरथी वीर कहे जाते थे॥१८-१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रिवर्षकृतयज्ञस्तु गन्धर्वाणामुपप्लवे ।
अर्जुनप्रमुखैः पार्थैः सौवीरः समरे हतः ॥ २० ॥
न शशाक वशे कर्तुं यं पाण्डुरपि वीर्यवान्।
सोऽर्जुनेन वशं नीतो राजाऽऽसीद् यवनाधिपः ॥ २१ ॥

मूलम्

त्रिवर्षकृतयज्ञस्तु गन्धर्वाणामुपप्लवे ।
अर्जुनप्रमुखैः पार्थैः सौवीरः समरे हतः ॥ २० ॥
न शशाक वशे कर्तुं यं पाण्डुरपि वीर्यवान्।
सोऽर्जुनेन वशं नीतो राजाऽऽसीद् यवनाधिपः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सौवीर देशका राजा, जो गन्धर्वोंके उपद्रव करनेपर भी लगातार तीन वर्षोंतक बिना किसी विघ्न-बाधाके यज्ञोंका अनुष्ठान करता रहा, युद्धमें अर्जुन आदि पाण्डवोंके हाथों मारा गया। पराक्रमी राजा पाण्डु भी जिसे वशमें न ला सके थे, उस यवनदेश (यूनान)-के राजाको भी जीतकर अर्जुनने अपने अधीन कर लिया॥२०-२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतीव बलसम्पन्नः सदा मानी कुरून् प्रति।
विपुलो नाम सौवीरः शस्तः पार्थेन धीमता ॥ २२ ॥
दत्तामित्र इति ख्यातं संग्रामे कृतनिश्चयम्।
सुमित्रं नाम सौवीरमर्जुनोऽदमयच्छरैः ॥ २३ ॥

मूलम्

अतीव बलसम्पन्नः सदा मानी कुरून् प्रति।
विपुलो नाम सौवीरः शस्तः पार्थेन धीमता ॥ २२ ॥
दत्तामित्र इति ख्यातं संग्रामे कृतनिश्चयम्।
सुमित्रं नाम सौवीरमर्जुनोऽदमयच्छरैः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो अत्यन्त बली तथा कौरवोंके प्रति सदा अभिमान एवं उद्दण्डतापूर्ण बर्ताव करनेवाला था, वह सौवीरनरेश विपुल भी बुद्धिमान् अर्जुनके हाथसे संग्रामभूमिमें मारा गया। जो सदा युद्धके लिये दृढ़ संकल्प किये रहता था, जिसे लोग दत्तामित्रके नामसे जानते थे, उस सौवीरनिवासी सुमित्रका भी अर्जुनने अपने बाणोंसे दमन कर दिया॥२२-२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भीमसेनसहायश्च रथानामयुतं च सः।
अर्जुनः समरे प्राच्यान् सर्वानेकरथोऽजयत् ॥ २४ ॥

मूलम्

भीमसेनसहायश्च रथानामयुतं च सः।
अर्जुनः समरे प्राच्यान् सर्वानेकरथोऽजयत् ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके सिवा अर्जुनने केवल भीमसेनकी सहायतासे एकमात्र रथपर आरूढ़ हो युद्धमें पूर्व दिशाके सम्पूर्ण योद्धाओं तथा दस हजार रथियोंको जीत लिया॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथैवैकरथो गत्वा दक्षिणामजयद् दिशम्।
धनौघं प्रापयामास कुरुराष्ट्रं धनंजयः ॥ २५ ॥

मूलम्

तथैवैकरथो गत्वा दक्षिणामजयद् दिशम्।
धनौघं प्रापयामास कुरुराष्ट्रं धनंजयः ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी प्रकार एकमात्र रथसे यात्रा करके धनंजयने दक्षिण दिशापर भी विजय पायी और अपने ‘धनंजय’ नामको सार्थक करते हुए कुरुदेशकी राजधनीमें धनकी राशि पहुँचायी॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं सर्वे महात्मानः पाण्डवा मनुजोत्तमाः।
परराष्ट्राणि निर्जित्य स्वराष्ट्रं ववृधुः पुरा ॥ २६ ॥

मूलम्

एवं सर्वे महात्मानः पाण्डवा मनुजोत्तमाः।
परराष्ट्राणि निर्जित्य स्वराष्ट्रं ववृधुः पुरा ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनमेजय! इस तरह नरश्रेष्ठ महामना पाण्डवोंने प्राचीन कालमें दूसरे राष्ट्रोंको जीतकर अपने राष्ट्रकी अभिवृद्धि की॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो बलमतिख्यातं विज्ञाय दृढधन्विनाम्।
दूषितः सहसा भावो धृतराष्ट्रस्य पाण्डुषु।
स चिन्तापरमो राजा न निद्रामलभन्निशि ॥ २७ ॥

मूलम्

ततो बलमतिख्यातं विज्ञाय दृढधन्विनाम्।
दूषितः सहसा भावो धृतराष्ट्रस्य पाण्डुषु।
स चिन्तापरमो राजा न निद्रामलभन्निशि ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब दृढ़तापूर्वक धनुष धारण करनेवाले पाण्डवोंके अत्यन्त विख्यात बल-पराक्रमकी बात जानकर उनके प्रति राजा धृतराष्ट्रका भाव सहसा दूषित हो गया। अत्यन्त चिन्तामें निमग्न हो जानेके कारण उन्हें रातमें नींद नहीं आती थी॥२७॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि धृतराष्ट्रचिन्तायामष्टात्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १३८ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत सम्भवपर्वमें धृतराष्ट्रकी चिन्ताविषयक एक सौ अड़तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१३८॥


  1. क्षुर उस बाणको कहते हैं, जिसके बगलमें तेज धार होती है, जैसे नाईका छूरा। ↩︎

  2. नाराच सीधे बाणको कहते हैं, जिसका अग्रभाग तीखा होता है। ↩︎

  3. भल्ल उस बाणको कहते हैं, जिसकी नोकका पिछला भाग चौड़ा और नोकदार होता है। ↩︎

  4. विपाठ नामक बाणकी आकृति खनतीकी भाँति होती है। यह दूसरे बाणोंसे बड़ा होता है। ↩︎

  5. उपर्युक्त बाणोंमें क्षुर और नाराच सीधा है, भल्ल टेढ़ा है और विपाठ विशाल है। ↩︎