१३६ अधिरथ-प्रवेशः

श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना

षट्त्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

भीमसेनके द्वारा कर्णका तिरस्कार और दुर्योधनद्वारा उसका सम्मान

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः स्रस्तोत्तरपटः सप्रस्वेदः सवेपथुः।
विवेशाधिरथो रङ्गं यष्टिप्राणो ह्वयन्निव ॥ १ ॥

मूलम्

ततः स्रस्तोत्तरपटः सप्रस्वेदः सवेपथुः।
विवेशाधिरथो रङ्गं यष्टिप्राणो ह्वयन्निव ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! तदनन्तर लाठी ही जिसका सहारा था, वह अधिरथ कर्णको पुकारता हुआ-सा काँपता-काँपता रंगभूमिमें आया। उसकी चादर खिसककर गिर पड़ी थी और वह पसीनेसे लथपथ हो रहा था॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमालोक्य धनुस्त्यक्त्वा पितृगौरवयन्त्रितः ।
कर्णोऽभिषेकार्द्रशिराः शिरसा समवन्दत ॥ २ ॥

मूलम्

तमालोक्य धनुस्त्यक्त्वा पितृगौरवयन्त्रितः ।
कर्णोऽभिषेकार्द्रशिराः शिरसा समवन्दत ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पिताके गौरवसे बँधा हुआ कर्ण अधिरथको देखते ही धनुष त्यागकर सिंहासनसे नीचे उतर आया। उसका मस्तक अभिषेकके जलसे भीगा हुआ था। उसी दशामें उसने अधिरथके चरणोंमें सिर रखकर प्रणाम किया॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः पादाववच्छाद्य पटान्तेन ससम्भ्रमः।
पुत्रेति परिपूर्णार्थमब्रवीद् रथसारथिः ॥ ३ ॥

मूलम्

ततः पादाववच्छाद्य पटान्तेन ससम्भ्रमः।
पुत्रेति परिपूर्णार्थमब्रवीद् रथसारथिः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अधिरथने अपने दोनों पैरोंको कपड़ेके छोरसे छिपा लिया और ‘बेटा! बेटा!’ पुकारते हुए अपनेको कृतार्थ समझा॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परिष्वज्य च तस्याथ मूर्धानं स्नेहविक्लवः।
अंगराज्याभिषेकार्द्रमश्रुभिः सिषिचे पुनः ॥ ४ ॥

मूलम्

परिष्वज्य च तस्याथ मूर्धानं स्नेहविक्लवः।
अंगराज्याभिषेकार्द्रमश्रुभिः सिषिचे पुनः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसने स्नेहसे विह्वल होकर कर्णको हृदयसे लगा लिया और अंगदेशके राज्यपर अभिषेक होनेसे भीगे हुए उसके मस्तकको आँसुओंसे पुनः अभिषिक्त कर दिया॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं दृष्ट्वा सूतपुत्रोऽयमिति संचिन्त्य पाण्डवः।
भीमसेनस्तदा वाक्यमब्रवीत् प्रहसन्निव ॥ ५ ॥

मूलम्

तं दृष्ट्वा सूतपुत्रोऽयमिति संचिन्त्य पाण्डवः।
भीमसेनस्तदा वाक्यमब्रवीत् प्रहसन्निव ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अधिरथको देखकर पाण्डुकुमार भीमसेन यह समझ गये कि कर्ण सूतपुत्र है; फिर तो वे हँसते हुए-से बोले—॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न त्वमर्हसि पार्थेन सूतपुत्र रणे वधम्।
कुलस्य सदृशस्तूर्णं प्रतोदो गृह्यतां त्वया ॥ ६ ॥

मूलम्

न त्वमर्हसि पार्थेन सूतपुत्र रणे वधम्।
कुलस्य सदृशस्तूर्णं प्रतोदो गृह्यतां त्वया ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अरे ओ सूतपुत्र! तू तो अर्जुनके हाथसे मरने-योग्य भी नहीं है। तुझे तो शीघ्र ही चाबुक हाथमें लेना चाहिये; क्योंकि यही तेरे कुलके अनुरूप है॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अङ्गराज्यं च नार्हस्त्वमुपभोक्तुं नराधम।
श्वा हुताशसमीपस्थं पुरोडाशमिवाध्वरे ॥ ७ ॥

मूलम्

अङ्गराज्यं च नार्हस्त्वमुपभोक्तुं नराधम।
श्वा हुताशसमीपस्थं पुरोडाशमिवाध्वरे ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘नराधम! जैसे यज्ञमें अग्निके समीप रखे हुए पुरोडाशको कुत्ता नहीं पा सकता, उसी प्रकार तू भी अंगदेशका राज्य भोगनेयोग्य नहीं है’॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तस्ततः कर्णः किंचित्प्रस्फुरिताधरः ।
गगनस्थं विनिःश्वस्य दिवाकरमुदैक्षत ॥ ८ ॥

मूलम्

एवमुक्तस्ततः कर्णः किंचित्प्रस्फुरिताधरः ।
गगनस्थं विनिःश्वस्य दिवाकरमुदैक्षत ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीमसेनके यों कहनेपर क्रोधके मारे कर्णका होठ कुछ काँपने लगा और उसने लंबी साँस लेकर आकाशमण्डलमें स्थित भगवान् सूर्यकी ओर देखा॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो दुर्योधनः कोपादुत्पपात महाबलः।
भ्रातृपद्मवनात् तस्मान्मदोत्कट इव द्विपः ॥ ९ ॥

मूलम्

ततो दुर्योधनः कोपादुत्पपात महाबलः।
भ्रातृपद्मवनात् तस्मान्मदोत्कट इव द्विपः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी समय महाबली दुर्योधन कुपित हो मदोन्मत्त गजराजकी भाँति भ्रातृसमूहरूपी कमलवनसे उछलकर बाहर निकल आया॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽब्रवीद् भीमकर्माणं भीमसेनमवस्थितम् ।
वृकोदर न युक्तं ते वचनं वक्तुमीदृशम् ॥ १० ॥

मूलम्

सोऽब्रवीद् भीमकर्माणं भीमसेनमवस्थितम् ।
वृकोदर न युक्तं ते वचनं वक्तुमीदृशम् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसने वहाँ खड़े हुए भयंकर कर्म करनेवाले भीमसेनसे कहा—‘वृकोदर! तुम्हें ऐसी बात नहीं कहनी चाहिये’॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षत्रियाणां बलं ज्येष्ठं योद्धव्यं क्षत्रबन्धुना।
शूराणां च नदीनां च दुर्विदाः प्रभवाः किल ॥ ११ ॥

मूलम्

क्षत्रियाणां बलं ज्येष्ठं योद्धव्यं क्षत्रबन्धुना।
शूराणां च नदीनां च दुर्विदाः प्रभवाः किल ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘क्षत्रियोंमें बलकी ही प्रधानता है। बलवान् होनेपर क्षत्रबन्धु (हीन क्षत्रिय)-से भी युद्ध करना चाहिये (अथवा मुझ क्षत्रियका मित्र होनेके कारण कर्णके साथ तुम्हें युद्ध करना चाहिये)। शूरवीरों और नदियोंकी उत्पत्तिके वास्तविक कारणको जान लेना बहुत कठिन है॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सलिलादुत्थितो वह्निर्येन व्याप्तं चराचरम्।
दधीचस्यास्थितो वज्रं कृतं दानवसूदनम् ॥ १२ ॥

मूलम्

सलिलादुत्थितो वह्निर्येन व्याप्तं चराचरम्।
दधीचस्यास्थितो वज्रं कृतं दानवसूदनम् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जिसने सम्पूर्ण चराचर जगत्‌को व्याप्त कर रखा है, वह तेजस्वी अग्नि जलसे प्रकट हुआ है। दानवोंका संहार करनेवाला वज्र महर्षि दधीचिकी हड्डियोंसे निर्मित हुआ है॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आग्नेयः कृत्तिकापुत्रो रौद्रो गाङ्गेय इत्यपि।
श्रूयते भगवान् देवः सर्वगुह्यमयो गुहः ॥ १३ ॥

मूलम्

आग्नेयः कृत्तिकापुत्रो रौद्रो गाङ्गेय इत्यपि।
श्रूयते भगवान् देवः सर्वगुह्यमयो गुहः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सुना जाता है, सर्वगुह्यस्वरूप भगवान् स्कन्ददेव अग्नि, कृत्तिका, रुद्र तथा गंगा—इन सबके पुत्र हैं॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षत्रियेभ्यश्च ये जाता ब्राह्मणास्ते च ते श्रुताः।
विश्वामित्रप्रभृतयः प्राप्ता ब्रह्मत्वमव्ययम् ॥ १४ ॥

मूलम्

क्षत्रियेभ्यश्च ये जाता ब्राह्मणास्ते च ते श्रुताः।
विश्वामित्रप्रभृतयः प्राप्ता ब्रह्मत्वमव्ययम् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कितने ही ब्राह्मण क्षत्रियोंसे उत्पन्न हुए हैं, उनका नाम तुमने भी सुना ही होगा तथा विश्वामित्र आदि क्षत्रिय भी अक्षय ब्राह्मणत्वको प्राप्त हो चुके हैं॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आचार्यः कलशाज्जातो द्रोणः शस्त्रभृतां वरः।
गौतमस्यान्ववाये च शरस्तम्बाच्च गौतमः ॥ १५ ॥

मूलम्

आचार्यः कलशाज्जातो द्रोणः शस्त्रभृतां वरः।
गौतमस्यान्ववाये च शरस्तम्बाच्च गौतमः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘समस्त शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ हमारे आचार्य द्रोणका जन्म कलशसे हुआ है। महर्षि गौतमके कुलमें कृपाचार्यकी उत्पत्ति भी सरकंडोंके समूहसे हुई है॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भवतां च यथा जन्म तदप्यागमितं मया।
सकुण्डलं सकवचं सर्वलक्षणलक्षितम् ।
कथमादित्यसदृशं मृगी व्याघ्रं जनिष्यति ॥ १६ ॥

मूलम्

भवतां च यथा जन्म तदप्यागमितं मया।
सकुण्डलं सकवचं सर्वलक्षणलक्षितम् ।
कथमादित्यसदृशं मृगी व्याघ्रं जनिष्यति ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुम सब भाइयोंका जन्म जिस प्रकार हुआ है, वह भी मुझे अच्छी तरह मालूम है। समस्त शुभ लक्षणोंसे सुशोभित तथा कुण्डल और कवचके साथ उत्पन्न हुआ सूर्यके समान तेजस्वी कर्ण किसी सूत जातिकी स्त्रीका पुत्र कैसे हो सकता है। क्या कोई हरिणी अपने पेटसे बाघ पैदा कर सकती है?॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(कथमादित्यसंकाशं सूतोऽमुं जनयिष्यति ।
एवं क्षत्रगुणैर्युक्तं शूरं समितिशोभनम्॥)
पृथिवीराज्यमर्होऽयं नाङ्गराज्यं नरेश्वरः ।
अनेन बाहुवीर्येण मया चाज्ञानुवर्तिना ॥ १७ ॥

मूलम्

(कथमादित्यसंकाशं सूतोऽमुं जनयिष्यति ।
एवं क्षत्रगुणैर्युक्तं शूरं समितिशोभनम्॥)
पृथिवीराज्यमर्होऽयं नाङ्गराज्यं नरेश्वरः ।
अनेन बाहुवीर्येण मया चाज्ञानुवर्तिना ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इस सूर्य-सदृश तेजस्वी वीरको, जो इस प्रकार क्षत्रियोचित गुणोंसे सम्पन्न तथा समरांगणको सुशोभित करनेवाला है, कोई सूत जातिका मनुष्य कैसे उत्पन्न कर सकता है? राजा कर्ण अपने इस बाहुबलसे तथा मुझ-जैसे आज्ञापालक मित्रकी सहायतासे अंग-देशका ही नहीं, समूची पृथ्वीका राज्य पानेका अधिकारी है॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्य वा मनुजस्येदं न क्षान्तं मद्विचेष्टितम्।
रथमारुह्य पद्भ्यां स विनामयतु कार्मुकम् ॥ १८ ॥

मूलम्

यस्य वा मनुजस्येदं न क्षान्तं मद्विचेष्टितम्।
रथमारुह्य पद्भ्यां स विनामयतु कार्मुकम् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जिस मनुष्यसे मेरा यह बर्ताव नहीं सहा जाता हो, वह रथपर चढ़कर पैरोंसे अपने धनुषको नवावे—हमारे साथ युद्धके लिये तैयार हो जाय’॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः सर्वस्य रङ्गस्य हाहाकारो महानभूत्।
साधुवादानुसम्बद्धः सूर्यश्चास्तमुपागमत् ॥ १९ ॥

मूलम्

ततः सर्वस्य रङ्गस्य हाहाकारो महानभूत्।
साधुवादानुसम्बद्धः सूर्यश्चास्तमुपागमत् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह सुनकर समूचे रंगमण्डपमें दुर्योधनको मिलने-वाले साधुवादके साथ ही (युद्धकी सम्भावनासे) महान् हाहाकार मच गया। इतनेमें ही सूर्यदेव अस्ताचलको चले गये॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो दुर्योधनः कर्णमालम्ब्याग्रकरे नृपः।
दीपिकाग्निकृतालोकस्तस्माद् रङ्गाद् विनिर्ययौ ॥ २० ॥

मूलम्

ततो दुर्योधनः कर्णमालम्ब्याग्रकरे नृपः।
दीपिकाग्निकृतालोकस्तस्माद् रङ्गाद् विनिर्ययौ ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब दुर्योधन कर्णके हाथकी अगुँलियाँ पकड़कर मशालकी रोशनी करा उस रंगभूमिसे बाहर निकल गया॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पाण्डवाश्च सहद्रोणाः सकृपाश्च विशाम्पते।
भीष्मेण सहिताः सर्वे ययुः स्वं स्वं निवेशनम् ॥ २१ ॥

मूलम्

पाण्डवाश्च सहद्रोणाः सकृपाश्च विशाम्पते।
भीष्मेण सहिताः सर्वे ययुः स्वं स्वं निवेशनम् ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! समस्त पाण्डव भी द्रोण, कृपाचार्य और भीष्मजीके साथ अपने-अपने निवासस्थानको चल दिये॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अर्जुनेति जनः कश्चित् कश्चित् कर्णेति भारत।
कश्चिद् दुर्योधनेत्येवं ब्रुवन्तः प्रस्थितास्तदा ॥ २२ ॥

मूलम्

अर्जुनेति जनः कश्चित् कश्चित् कर्णेति भारत।
कश्चिद् दुर्योधनेत्येवं ब्रुवन्तः प्रस्थितास्तदा ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! उस समय दर्शकोंमेंसे कोई अर्जुनकी, कोई कर्णकी और कोई दुर्योधनकी प्रशंसा करते हुए चले गये॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुन्त्याश्च प्रत्यभिज्ञाय दिव्यलक्षणसूचितम् ।
पुत्रमङ्गेश्वरं स्नेहाच्छन्ना प्रीतिरजायत ॥ २३ ॥

मूलम्

कुन्त्याश्च प्रत्यभिज्ञाय दिव्यलक्षणसूचितम् ।
पुत्रमङ्गेश्वरं स्नेहाच्छन्ना प्रीतिरजायत ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दिव्य लक्षणोंसे लक्षित अपने पुत्र अंगराज कर्णको पहचानकर कुन्तीके मनमें बड़ी प्रसन्नता हुई; किंतु वह दूसरोंपर प्रकट न हुई॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुर्योधनस्यापि तदा कर्णमासाद्य पार्थिव।
भयमर्जुनसंजातं क्षिप्रमन्तरधीयत ॥ २४ ॥

मूलम्

दुर्योधनस्यापि तदा कर्णमासाद्य पार्थिव।
भयमर्जुनसंजातं क्षिप्रमन्तरधीयत ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनमेजय! उस समय कर्णको मित्रके रूपमें पाकर दुर्योधनका भी अर्जुनसे होनेवाला भय शीघ्र दूर हो गया॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स चापि वीरः कृतशस्त्रनिश्रमः
परेण साम्नाभ्यवदत् सुयोधनम् ।
युधिष्ठिरस्याप्यभवत् तदा मति-
र्न कर्णतुल्योऽस्ति धनुर्धरः क्षितौ ॥ २५ ॥

मूलम्

स चापि वीरः कृतशस्त्रनिश्रमः
परेण साम्नाभ्यवदत् सुयोधनम् ।
युधिष्ठिरस्याप्यभवत् तदा मति-
र्न कर्णतुल्योऽस्ति धनुर्धरः क्षितौ ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वीरवर कर्णने शस्त्रोंके अभ्यासमें बड़ा परिश्रम किया था, वह भी दुर्योधनके साथ परम स्नेह और सान्त्वनापूर्ण बातें करने लगा। उस समय युधिष्ठिरको भी यह विश्वास हो गया कि इस पृथ्वीपर कर्णके समान धनुर्धर कोई नहीं है॥२५॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि अस्त्रदर्शने षट्त्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १३६ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत सम्भवपर्वमें अस्त्र-कौशलदर्शनविषयक एक सौ छत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१३६॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठका १ श्लोक मिलाकर कुल २६ श्लोक हैं)