१३५ कर्ण-राज्य-लाभः

श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना

पञ्चत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

कर्णका रंगभूमिमें प्रवेश तथा राज्याभिषेक

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

दत्तेऽवकाशे पुरुषैर्विस्मयोत्फुल्ललोचनैः ।
विवेश रङ्गं विस्तीर्णं कर्णः परपुरंजयः ॥ १ ॥

मूलम्

दत्तेऽवकाशे पुरुषैर्विस्मयोत्फुल्ललोचनैः ।
विवेश रङ्गं विस्तीर्णं कर्णः परपुरंजयः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! आश्चर्यसे आँखें फाड़-फाड़कर देखते हुए द्वारपालोंने जब भीतर जानेका मार्ग दे दिया, तब शत्रुओंकी राजधानीपर विजय पानेवाले कर्णने उस विशाल रंगमण्डपमें प्रवेश किया॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सहजं कवचं बिभ्रत् कुण्डलोद्योतिताननः।
सधनुर्बद्धनिस्त्रिंशः पादचारीव पर्वतः ॥ २ ॥

मूलम्

सहजं कवचं बिभ्रत् कुण्डलोद्योतिताननः।
सधनुर्बद्धनिस्त्रिंशः पादचारीव पर्वतः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसने शरीरके साथ ही उत्पन्न हुए दिव्य कवचको धारण कर रखा था। दोनों कानोंके कुण्डल उसके मुखको उद्भासित कर रहे थे। हाथमें धनुष लिये और कमरमें तलवार बाँधे वह वीर पैरोंसे चलनेवाले पर्वतकी भाँति सुशोभित हो रहा था॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कन्यागर्भः पृथुयशाः पृथायाः पृथुलोचनः।
तीक्ष्णांशोर्भास्करस्यांशः कर्णोऽरिगणसूदनः ॥ ३ ॥

मूलम्

कन्यागर्भः पृथुयशाः पृथायाः पृथुलोचनः।
तीक्ष्णांशोर्भास्करस्यांशः कर्णोऽरिगणसूदनः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुन्तीने कन्यावस्थामें ही उसे अपने गर्भमें धारण किया था। उसका यश सर्वत्र फैला हुआ था। उसके दोनों नेत्र बड़े-बड़े थे। शत्रुसमुदायका संहार करनेवाला कर्ण प्रचण्ड किरणोंवाले भगवान् भास्करका अंश था॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सिंहर्षभगजेन्द्राणां बलवीर्यपराक्रमः ।
दीप्तिकान्तिद्युतिगुणैः सूर्येन्दुज्वलनोपमः ॥ ४ ॥

मूलम्

सिंहर्षभगजेन्द्राणां बलवीर्यपराक्रमः ।
दीप्तिकान्तिद्युतिगुणैः सूर्येन्दुज्वलनोपमः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसमें सिंहके समान बल, साँड़के समान वीर्य तथा गजराजके समान पराक्रम था, वह दीप्तिसे सूर्य, कान्तिसे चन्द्रमा तथा तेजरूपी गुणसे अग्निके समान जान पड़ता था॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रांशुः कनकतालाभः सिंहसंहननो युवा।
असंख्येयगुणः श्रीमान् भास्करस्यात्मसम्भवः ॥ ५ ॥

मूलम्

प्रांशुः कनकतालाभः सिंहसंहननो युवा।
असंख्येयगुणः श्रीमान् भास्करस्यात्मसम्भवः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसका शरीर बहुत ऊँचा था, अतः वह सुवर्णमय ताड़के वृक्ष-सा प्रतीत होता था। उसके अंगोंकी गठन सिंह-जैसी जान पड़ती थी। उसमें असंख्य गुण थे। उसकी तरुण अवस्था थी। वह साक्षात् भगवान् सूर्यसे उत्पन्न हुआ था, अतः (उन्हींके समान) दिव्य शोभासे सम्पन्न था॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स निरीक्ष्य महाबाहुः सर्वतो रङ्गमण्डलम्।
प्रणामं द्रोणकृपयोर्नात्यादृतमिवाकरोत् ॥ ६ ॥

मूलम्

स निरीक्ष्य महाबाहुः सर्वतो रङ्गमण्डलम्।
प्रणामं द्रोणकृपयोर्नात्यादृतमिवाकरोत् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय महाबाहु कर्णने रंगमण्डपमें सब ओर दृष्टि डालकर द्रोणाचार्य और कृपाचार्यको इस प्रकार प्रणाम किया, मानो उनके प्रति उसके मनमें अधिक आदरका भाव न हो॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स समाजजनः सर्वो निश्चलः स्थिरलोचनः।
कोऽयमित्यागतक्षोभः कौतूहलपरोऽभवत् ॥ ७ ॥

मूलम्

स समाजजनः सर्वो निश्चलः स्थिरलोचनः।
कोऽयमित्यागतक्षोभः कौतूहलपरोऽभवत् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

रंगभूमिमें जितने लोग थे, वे सब निश्चल होकर एकटक दृष्टिसे देखने लगे। यह कौन है, यह जाननेके लिये उनका चित्त चंचल हो उठा। वे सब-के-सब उत्कण्ठित हो गये॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽब्रवीन्मेघगम्भीरस्वरेण वदतां वरः ।
भ्राता भ्रातरमज्ञातं सावित्रः पाकशासनिम् ॥ ८ ॥

मूलम्

सोऽब्रवीन्मेघगम्भीरस्वरेण वदतां वरः ।
भ्राता भ्रातरमज्ञातं सावित्रः पाकशासनिम् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इतनेमें ही वक्ताओंमें श्रेष्ठ सूर्यपुत्र कर्ण, जो पाण्डवोंका भाई लगता था, अपने अज्ञात भ्राता इन्द्रकुमार अर्जुनसे मेघके समान गम्भीर वाणीमें बोला—॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पार्थ यत् ते कृतं कर्म विशेषवदहं ततः।
करिष्ये पश्यतां नॄणां माऽऽत्मना विस्मयं गमः ॥ ९ ॥

मूलम्

पार्थ यत् ते कृतं कर्म विशेषवदहं ततः।
करिष्ये पश्यतां नॄणां माऽऽत्मना विस्मयं गमः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कुन्तीनन्दन! तुमने इन दर्शकोंके समक्ष जो कार्य किया है, मैं उससे भी अधिक अद्भुत कर्म कर दिखाऊँगा। अतः तुम अपने पराक्रमपर गर्व न करो’॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

असमाप्ते ततस्तस्य वचने वदतां वर।
यन्त्रोत्क्षिप्त इवोत्तस्थौ क्षिप्रं वै सर्वतो जनः ॥ १० ॥

मूलम्

असमाप्ते ततस्तस्य वचने वदतां वर।
यन्त्रोत्क्षिप्त इवोत्तस्थौ क्षिप्रं वै सर्वतो जनः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वक्ताओंमें श्रेष्ठ जनमेजय! कर्णकी बात अभी पूरी ही न हो पायी थी कि सब ओरके मनुष्य तुरंत उठकर खड़े हो गये, मानो उन्हें किसी यन्त्रसे एक साथ उठा दिया गया हो॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रीतिश्च मनुजव्याघ्र दुर्योधनमुपाविशत् ।
ह्रीश्च क्रोधश्च बीभत्सुं क्षणेनान्वाविवेश ह ॥ ११ ॥

मूलम्

प्रीतिश्च मनुजव्याघ्र दुर्योधनमुपाविशत् ।
ह्रीश्च क्रोधश्च बीभत्सुं क्षणेनान्वाविवेश ह ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरश्रेष्ठ! उस समय दुर्योधनके मनमें बड़ी प्रसन्नता हुई और अर्जुनके चित्तमें क्षणभरमें लज्जा और क्रोधका संचार हो आया॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो द्रोणाभ्यनुज्ञातः कर्णः प्रियरणः सदा।
यत् कृतं तत्र पार्थेन तच्चकार महाबलः ॥ १२ ॥

मूलम्

ततो द्रोणाभ्यनुज्ञातः कर्णः प्रियरणः सदा।
यत् कृतं तत्र पार्थेन तच्चकार महाबलः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब सदा युद्धसे ही प्रेम करनेवाले महाबली कर्णने द्रोणाचार्यकी आज्ञा लेकर, अर्जुनने वहाँ जो-जो अस्त्र-कौशल प्रकट किया था, वह सब कर दिखाया॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ दुर्योधनस्तत्र भ्रातृभिः सह भारत।
कर्णं परिष्वज्य मुदा ततो वचनमब्रवीत् ॥ १३ ॥

मूलम्

अथ दुर्योधनस्तत्र भ्रातृभिः सह भारत।
कर्णं परिष्वज्य मुदा ततो वचनमब्रवीत् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! तदनन्तर भाइयोंसहित दुर्योधनने वहाँ बड़ी प्रसन्नताके साथ कर्णको हृदयसे लगाकर कहा॥१३॥

मूलम् (वचनम्)

दुर्योधन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वागतं ते महाबाहो दिष्ट्या प्राप्तोऽसि मानद।
अहं च कुरुराज्यं च यथेष्टमुपभुज्यताम् ॥ १४ ॥

मूलम्

स्वागतं ते महाबाहो दिष्ट्या प्राप्तोऽसि मानद।
अहं च कुरुराज्यं च यथेष्टमुपभुज्यताम् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दुर्योधन बोला— महाबाहो! तुम्हारा स्वागत है। मानद! तुम यहाँ पधारे, यह हमारे लिये बड़े सौभाग्यकी बात है। मैं तथा कौरवोंका यह राज्य सब तुम्हारे हैं। तुम इनका यथेष्ट उपभोग करो॥१४॥

मूलम् (वचनम्)

कर्ण उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृतं सर्वमहं मन्ये सखित्वं च त्वया वृणे।
द्वन्द्वयुद्धं च पार्थेन कर्तुमिच्छाम्यहं प्रभो ॥ १५ ॥

मूलम्

कृतं सर्वमहं मन्ये सखित्वं च त्वया वृणे।
द्वन्द्वयुद्धं च पार्थेन कर्तुमिच्छाम्यहं प्रभो ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कर्णने कहा— प्रभो! आपने जो कुछ कहा है, वह सब पूरा कर दिया, ऐसा मेरा विश्वास है। मैं आपके साथ मित्रता चाहता हूँ और अर्जुनके साथ मेरी द्वन्द्व-युद्ध करनेकी इच्छा है॥१५॥

मूलम् (वचनम्)

दुर्योधन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

भुङ्क्ष्व भोगान् मया सार्धं बन्धूनां पियकृद् भव।
दुर्हृदां कुरु सर्वेषां मूर्ध्नि पादमरिंदम ॥ १६ ॥

मूलम्

भुङ्क्ष्व भोगान् मया सार्धं बन्धूनां पियकृद् भव।
दुर्हृदां कुरु सर्वेषां मूर्ध्नि पादमरिंदम ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दुर्योधन बोला— शत्रुदमन! तुम मेरे साथ उत्तम भोग भोगो। अपने भाई-बन्धुओंका प्रिय करो और समस्त शत्रुओंके मस्तकपर पैर रखो॥१६॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः क्षिप्तमिवात्मानं मत्वा पार्थोऽभ्यभाषत।
कर्णं भ्रातृसमूहस्य मध्येऽचलमिव स्थितम् ॥ १७ ॥

मूलम्

ततः क्षिप्तमिवात्मानं मत्वा पार्थोऽभ्यभाषत।
कर्णं भ्रातृसमूहस्य मध्येऽचलमिव स्थितम् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! उस समय अर्जुनने अपने-आपको कर्णद्वारा तिरस्कृत-सा मानकर दुर्योधन आदि सौ भाइयोंके बीचमें अविचल-से खड़े हुए कर्णको सम्बोधित करके कहा॥१७॥

मूलम् (वचनम्)

अर्जुन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनाहूतोपसृष्टानामनाहूतोपजल्पिनाम् ।
ये लोकास्तान् हतः कर्ण मया त्वं प्रतिपत्स्यसे ॥ १८ ॥

मूलम्

अनाहूतोपसृष्टानामनाहूतोपजल्पिनाम् ।
ये लोकास्तान् हतः कर्ण मया त्वं प्रतिपत्स्यसे ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुन बोले— कर्ण! बिना बुलाये आनेवालों और बिना बुलाये बोलनेवालोंको जो (निन्दनीय) लोक प्राप्त होते हैं, मेरे द्वारा मारे जानेपर तुम उन्हीं लोकोंमें जाओगे॥१८॥

मूलम् (वचनम्)

कर्ण उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

रङ्गोऽयं सर्वसामान्यः किमत्र तव फाल्गुन।
वीर्यश्रेष्ठाश्च राजानो बलं धर्मोऽनुवर्तते ॥ १९ ॥

मूलम्

रङ्गोऽयं सर्वसामान्यः किमत्र तव फाल्गुन।
वीर्यश्रेष्ठाश्च राजानो बलं धर्मोऽनुवर्तते ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कर्णने कहा— अर्जुन! यह रंगमण्डप तो सबके लिये साधारण है, इसमें तुम्हारा क्या लगा है? जो बल और पराक्रममें श्रेष्ठ होते हैं, वे ही राजा कहलानेयोग्य हैं। धर्म भी बलका ही अनुसरण करता है॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किं क्षेपैर्दुर्बलायासैः शरैः कथय भारत।
गुरोः समक्षं यावत् ते हराम्यद्य शिरः शरैः ॥ २० ॥

मूलम्

किं क्षेपैर्दुर्बलायासैः शरैः कथय भारत।
गुरोः समक्षं यावत् ते हराम्यद्य शिरः शरैः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! आक्षेप करना तो दुर्बलोंका प्रयास है। इससे क्या लाभ है? साहस हो तो बाणोंसे बातचीत करो। मैं आज तुम्हारे गुरुके सामने ही बाणोंद्वारा तुम्हारा सिर धड़से अलग किये देता हूँ॥२०॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो द्रोणाभ्यनुज्ञातः पार्थः परपुरंजयः।
भ्रातृभिस्त्वरयाऽऽश्लिष्टो रणायोपजगाम तम् ॥ २१ ॥

मूलम्

ततो द्रोणाभ्यनुज्ञातः पार्थः परपुरंजयः।
भ्रातृभिस्त्वरयाऽऽश्लिष्टो रणायोपजगाम तम् ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! तदनन्तर शत्रुओंके नगरको जीतनेवाले कुन्तीनन्दन अर्जुन आचार्य द्रोणकी आज्ञा ले तुरंत अपने भाइयोंसे गले मिलकर युद्धके लिये कर्णकी ओर बढ़े॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो दुर्योधनेनापि सभ्रात्रा समरोद्यतः।
परिष्वक्तः स्थितः कर्णः प्रगृह्य सशरं धनुः ॥ २२ ॥

मूलम्

ततो दुर्योधनेनापि सभ्रात्रा समरोद्यतः।
परिष्वक्तः स्थितः कर्णः प्रगृह्य सशरं धनुः ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब भाइयोंसहित दुर्योधनने भी धनुष-बाण ले युद्धके लिये तैयार खड़े हुए कर्णका आलिंगन किया॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः सविद्युत्स्यनितैः सेन्द्रायुधपुरोगमैः ।
आवृतं गगनं मेघैर्बलाकापङ्क्तिहासिभिः ॥ २३ ॥

मूलम्

ततः सविद्युत्स्यनितैः सेन्द्रायुधपुरोगमैः ।
आवृतं गगनं मेघैर्बलाकापङ्क्तिहासिभिः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय बकपंक्तियोंके व्याजसे हास्यकी छटा बिखेरनेवाले बादलोंने बिजलीकी चमक, गड़गड़ाहट और इन्द्रधनुषके साथ समूचे आकाशको ढक लिया॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः स्नेहाद्धरिहयं दृष्ट्वा रङ्गावलोकिनम्।
भास्करोऽप्यनयन्नाशं समीपोपगतान् घनान् ॥ २४ ॥

मूलम्

ततः स्नेहाद्धरिहयं दृष्ट्वा रङ्गावलोकिनम्।
भास्करोऽप्यनयन्नाशं समीपोपगतान् घनान् ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् अर्जुनके प्रति स्नेह होनेके कारण इन्द्रको रंगभूमिका अवलोकन करते देख भगवान् सूर्यने भी अपने समीपके बादलोंको छिन्न-भिन्न कर दिया॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेघच्छायोपगूढस्तु ततोऽदृश्यत फाल्गुनः ।
सूर्यातपपरिक्षिप्तः कर्णोऽपि समदृश्यत ॥ २५ ॥

मूलम्

मेघच्छायोपगूढस्तु ततोऽदृश्यत फाल्गुनः ।
सूर्यातपपरिक्षिप्तः कर्णोऽपि समदृश्यत ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब अर्जुन मेघकी छायामें छिपे हुए दिखायी देने लगे और कर्ण भी सूर्यकी प्रभासे प्रकाशित दीखने लगा॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धार्तराष्ट्रा यतः कर्णस्तस्मिन् देशो व्यवस्थिताः।
भारद्वाजः कृपो भीष्मो यतः पार्थस्ततोऽभवन् ॥ २६ ॥

मूलम्

धार्तराष्ट्रा यतः कर्णस्तस्मिन् देशो व्यवस्थिताः।
भारद्वाजः कृपो भीष्मो यतः पार्थस्ततोऽभवन् ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धृतराष्ट्रके पुत्र जिस ओर कर्ण था, उसी ओर खड़े हुए तथा द्रोणाचार्य, कृपाचार्य और भीष्म जिधर अर्जुन थे, उस ओर खड़े थे॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्विधा रंगः समभवत् स्त्रीणां द्वैधमजायत।
कुन्तिभोजसुता मोहं विज्ञातार्था जगाम ह ॥ २७ ॥

मूलम्

द्विधा रंगः समभवत् स्त्रीणां द्वैधमजायत।
कुन्तिभोजसुता मोहं विज्ञातार्था जगाम ह ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

रंगभूमिके पुरुषों और स्त्रियोंमें भी कर्ण और अर्जुनको लेकर दो दल हो गये। कुन्तिभोजकुमारी कुन्तीदेवी वास्तविक रहस्यको जानती थीं (कि ये दोनों मेरे ही पुत्र हैं), अतः चिन्ताके कारण उन्हें मूर्च्छा आ गयी॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तां तथा मोहमापन्नां विदुरः सर्वधर्मवित्।
कुन्तीमाश्वासयामास प्रेष्याभिश्चन्दनोदकैः ॥ २८ ॥

मूलम्

तां तथा मोहमापन्नां विदुरः सर्वधर्मवित्।
कुन्तीमाश्वासयामास प्रेष्याभिश्चन्दनोदकैः ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्हें इस प्रकार मूर्च्छामें पड़ी हुई देख सब धर्मोंके ज्ञाता विदुरजीने दासियोंद्वारा चन्दनमिश्रित जल छिड़कवाकर होशमें लानेकी चेष्टा की॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः प्रत्यागतप्राणा तावुभौ परिदंशितौ।
पुत्रौ दृष्ट्वा सुसम्भ्रान्ता नान्वपद्यत किंचन ॥ २९ ॥

मूलम्

ततः प्रत्यागतप्राणा तावुभौ परिदंशितौ।
पुत्रौ दृष्ट्वा सुसम्भ्रान्ता नान्वपद्यत किंचन ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इससे कुन्तीको होश तो आ गया; किंतु अपने दोनों पुत्रोंको युद्धके लिये कवच धारण किये देख वे बहुत घबरा गयीं। उन्हें रोकनेका कोई उपाय उनके ध्यानमें नहीं आया॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तावुद्यतमहाचापौ कृपः शारद्वतोऽब्रवीत् ।
द्वन्द्वयुद्धसमाचारे कुशलः सर्वधर्मवित् ॥ ३० ॥

मूलम्

तावुद्यतमहाचापौ कृपः शारद्वतोऽब्रवीत् ।
द्वन्द्वयुद्धसमाचारे कुशलः सर्वधर्मवित् ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन दोनोंको विशाल धनुष उठाये देख द्वन्द्व-युद्धकी नीति-रीतिमें कुशल और समस्त धर्मोंके ज्ञाता शरद्वान्‌के पुत्र कृपाचार्यने इस प्रकार कहा—॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अयं पृथायास्तनयः कनीयान् पाण्डुनन्दनः।
कौरवो भवता सार्धं द्वन्द्वयुद्धं करिष्यति ॥ ३१ ॥
त्वमप्येवं महाबाहो मातरं पितरं कुलम्।
कथयस्व नरेन्द्राणां येषां त्वं कुलभूषणम् ॥ ३२ ॥

मूलम्

अयं पृथायास्तनयः कनीयान् पाण्डुनन्दनः।
कौरवो भवता सार्धं द्वन्द्वयुद्धं करिष्यति ॥ ३१ ॥
त्वमप्येवं महाबाहो मातरं पितरं कुलम्।
कथयस्व नरेन्द्राणां येषां त्वं कुलभूषणम् ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कर्ण! ये कुन्तीदेवीके सबसे छोटे पुत्र पाण्डु-नन्दन अर्जुन कुरुवंशके रत्न हैं, जो तुम्हारे साथ इन्द्र-युद्ध करेंगे। महाबाहो! इसी प्रकार तुम भी अपने माता-पिता तथा कुलका परिचय दो और उन नरेशके नाम बताओ, जिनका वंश तुमसे विभूषित हुआ है॥३१-३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो विदित्वा पार्थस्त्वां प्रतियोत्स्यति वा न वा।
वृथाकुलसमाचारैर्न युध्यन्ते नृपात्मजाः ॥ ३३ ॥

मूलम्

ततो विदित्वा पार्थस्त्वां प्रतियोत्स्यति वा न वा।
वृथाकुलसमाचारैर्न युध्यन्ते नृपात्मजाः ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इसे जान लेनेके बाद यह निश्चय होगा कि अर्जुन तुम्हारे साथ युद्ध करेंगे या नहीं; क्योंकि राजकुमार नीच कुल और हीन आचार-विचारवाले लोगोंके साथ युद्ध नहीं करते’॥३३॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तस्य कर्णस्य व्रीडावनतमाननम् ।
बभौ वर्षाम्बुविक्लिन्नं पद्ममागलितं यथा ॥ ३४ ॥

मूलम्

एवमुक्तस्य कर्णस्य व्रीडावनतमाननम् ।
बभौ वर्षाम्बुविक्लिन्नं पद्ममागलितं यथा ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! कृपाचार्यके यों कहनेपर कर्णका मुख लज्जासे नीचेको झुक गया। जैसे वर्षाके पानीसे भींगकर कमल मुरझा जाता है, उसी प्रकार कर्णका मुँह म्लान हो गया॥३४॥

मूलम् (वचनम्)

दुर्योधन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

आचार्य त्रिविधा योनी राज्ञां शास्त्रविनिश्चये।
सत्कुलीनश्च शूरश्च यश्च सेनां प्रकर्षति ॥ ३५ ॥

मूलम्

आचार्य त्रिविधा योनी राज्ञां शास्त्रविनिश्चये।
सत्कुलीनश्च शूरश्च यश्च सेनां प्रकर्षति ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब दुर्योधनने कहा— आचार्य! शास्त्रीय सिद्धान्तके अनुसार राजाओंकी तीन योनियाँ हैं—उत्तम कुलमें उत्पन्न पुरुष, शूरवीर तथा सेनापति (अतः शूरवीर होनेके कारण कर्ण भी राजा ही हैं)॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यद्ययं फाल्गुनो युद्धे नाराज्ञा योद्‌धुमिच्छति।
तस्मादेषोऽङ्गविषये मया राज्येऽभिषिच्यते ॥ ३६ ॥

मूलम्

यद्ययं फाल्गुनो युद्धे नाराज्ञा योद्‌धुमिच्छति।
तस्मादेषोऽङ्गविषये मया राज्येऽभिषिच्यते ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि ये अर्जुन राजासे भिन्न पुरुषके साथ रणभूमिमें लड़ना नहीं चाहते तो मैं कर्णको इसी समय अंगदेशके राज्यपर अभिषिक्त करता हूँ॥३६॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

(ततो राजानमामन्त्र्य गाङ्गेयं च पितामहम्।
अभिषेकस्य सम्भारान् समानीय द्विजातिभिः॥)
ततस्तस्मिन् क्षणे कर्णः सलाजकुसुमैर्घटैः।
काञ्चनैः काञ्चने पीठे मन्त्रविद्भिर्महारथः ॥ ३७ ॥
अभिषिक्तोऽङ्गराज्ये स श्रिया युक्तो महाबलः।
(समौलिहारकेयूरैः सहस्ताभरणाङ्गदैः ।
राजलिङ्गैस्तथान्यैश्च भूषितो भूषणैः शुभैः॥)
सच्छत्रवालव्यजनो जयशब्दोत्तरेण च ॥ ३८ ॥

मूलम्

(ततो राजानमामन्त्र्य गाङ्गेयं च पितामहम्।
अभिषेकस्य सम्भारान् समानीय द्विजातिभिः॥)
ततस्तस्मिन् क्षणे कर्णः सलाजकुसुमैर्घटैः।
काञ्चनैः काञ्चने पीठे मन्त्रविद्भिर्महारथः ॥ ३७ ॥
अभिषिक्तोऽङ्गराज्ये स श्रिया युक्तो महाबलः।
(समौलिहारकेयूरैः सहस्ताभरणाङ्गदैः ।
राजलिङ्गैस्तथान्यैश्च भूषितो भूषणैः शुभैः॥)
सच्छत्रवालव्यजनो जयशब्दोत्तरेण च ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! तदनन्तर दुर्योधनने राजा धृतराष्ट्र और गंगानन्दन भीष्मकी आज्ञा ले ब्राह्मणोंद्वारा अभिषेकका सामान मँगवाया। फिर उसी समय महाबली एवं महारथी कर्णको सोनेके सिंहासनपर बिठाकर मन्त्रवेत्ता ब्राह्मणोंने लावा और फूलोंसे युक्त सुवर्णमय कलशोंके जलसे अंगदेशके राज्यपर अभिषिक्त किया। तब मुकुट, हार, केयूर, कंगन, अंगद, राजोचित चिह्न तथा अन्य शुभ आभूषणोंसे विभूषित हो वह छत्र, चँवर तथा जय-जयकारके साथ राज्यश्रीसे सुशोभित होने लगा॥३७-३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(सभाज्यमानो विप्रैश्च प्रदत्त्वा ह्यमितं वसु।)
उवाच कौरवं राजन् वचनं स वृषस्तदा।
अस्य राज्यप्रदानस्य सदृशं किं ददानि ते ॥ ३९ ॥
प्रब्रूहि राजशार्दूल कर्ता ह्यस्मि तथा नृप।
अत्यन्तं सख्यमिच्छामीत्याह तं स सुयोधनः ॥ ४० ॥

मूलम्

(सभाज्यमानो विप्रैश्च प्रदत्त्वा ह्यमितं वसु।)
उवाच कौरवं राजन् वचनं स वृषस्तदा।
अस्य राज्यप्रदानस्य सदृशं किं ददानि ते ॥ ३९ ॥
प्रब्रूहि राजशार्दूल कर्ता ह्यस्मि तथा नृप।
अत्यन्तं सख्यमिच्छामीत्याह तं स सुयोधनः ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर ब्राह्मणोंसे समादृत हो राजा कर्णने उन्हें असीम धन प्रदान किया। राजन्! उस समय उसने कुरुश्रेष्ठ दुर्योधनसे कहा—‘नृपतिशिरोमणे! आपने मुझे जो यह राज्य प्रदान किया है, इसके अनुरूप मैं आपको क्या भेंट दूँ? बताइये, आप जैसा कहेंगे वैसा ही करूँगा।’ यह सुनकर दुर्योधनने कहा—‘अंगराज! मैं तुम्हारे साथ ऐसी मित्रता चाहता हूँ, जिसका कभी अन्त न हो’॥३९-४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तस्ततः कर्णस्तथेति प्रत्युवाच तम्।
हर्षाच्चोभौ समाश्लिष्य परां मुदमवापतुः ॥ ४१ ॥

मूलम्

एवमुक्तस्ततः कर्णस्तथेति प्रत्युवाच तम्।
हर्षाच्चोभौ समाश्लिष्य परां मुदमवापतुः ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसके यों कहनेपर कर्णने ‘तथास्तु’ कहकर उसके साथ मैत्री कर ली। फिर वे दोनों बड़े हर्षसे एक-दूसरेको हृदयसे लगाकर आनन्दमग्न हो गये॥४१॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि कर्णाभिषेके पञ्चत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १३५ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत सम्भवपर्वमें कर्णके राज्याभिषेकसे सम्बन्ध रखनेवाला एक सौ पैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१३५॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठके २ श्लोक मिलाकर कुल ४३ श्लोक हैं)