श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना
चतुस्त्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
भीमसेन, दुर्योधन तथा अर्जुनके द्वारा अस्त्र-कौशलका प्रदर्शन
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुरुराजे हि रङ्गस्थे भीमे च बलिनां वरे।
पक्षपातकृतस्नेहः स द्विधेवाभवज्जनः ॥ १ ॥
मूलम्
कुरुराजे हि रङ्गस्थे भीमे च बलिनां वरे।
पक्षपातकृतस्नेहः स द्विधेवाभवज्जनः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! जब कुरुराज दुर्योधन और बलवानोंमें श्रेष्ठ भीमसेन रंगभूमिमें उतरकर गदायुद्ध कर रहे थे, उस समय दर्शक जनता उनके प्रति पक्षपातपूर्ण स्नेह करनेके कारण मानो दो दलोंमें बँट गयी॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ही वीर कुरुराजेति ही भीम इति जल्पताम्।
पुरुषाणां सुविपुलाः प्रणादाः सहसोत्थिताः ॥ २ ॥
मूलम्
ही वीर कुरुराजेति ही भीम इति जल्पताम्।
पुरुषाणां सुविपुलाः प्रणादाः सहसोत्थिताः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुछ कहते, ‘अहो! वीर कुरुराज कैसा अद्भुत पराक्रम दिखा रहे हैं।’ दूसरे बोल उठते, ‘वाह! भीमसेन तो गजबका हाथ मारते हैं।’ इस तरहकी बातें करनेवाले लोगोंकी भारी आवाजें वहाँ सहसा सब ओर गूँजने लगीं॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः क्षुब्धार्णवनिभं रंगमालोक्य बुद्धिमान्।
भारद्वाजः प्रियं पुत्रमश्वत्थामानमब्रवीत् ॥ ३ ॥
मूलम्
ततः क्षुब्धार्णवनिभं रंगमालोक्य बुद्धिमान्।
भारद्वाजः प्रियं पुत्रमश्वत्थामानमब्रवीत् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर तो सारी रंगभूमिमें क्षुब्ध महासागरके समान हलचल मच गयी। यह देख बुद्धिमान् द्रोणाचार्यने अपने प्रिय पुत्र अश्वत्थामासे कहा॥३॥
मूलम् (वचनम्)
द्रोण उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
वारयैतौ महावीर्यौ कृतयोग्यावुभावपि ।
मा भूद् रङ्गप्रकोपोऽयं भीमदुर्योधनोद्भवः ॥ ४ ॥
मूलम्
वारयैतौ महावीर्यौ कृतयोग्यावुभावपि ।
मा भूद् रङ्गप्रकोपोऽयं भीमदुर्योधनोद्भवः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
द्रोण बोले— वत्स! ये दोनों महापराक्रमी वीर अस्त्र-विद्यामें अत्यन्त अभ्यस्त हैं। तुम इन दोनोंको युद्धसे रोको, जिससे भीमसेन और दुर्योधनको लेकर रंगभूमिमें सब ओर क्रोध न फैल जाय॥४॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
(तत उत्थाय वेगेन अश्वत्थामा न्यवारयत्।
गुरोराज्ञा भीम इति गान्धारे गुरुशासनम्।
अलं योग्यकृतं वेगमलं साहसमित्युत॥)
ततस्तावुद्यतगदौ गुरुपुत्रेण वारितौ ।
युगान्तानिलसंक्षुब्धौ महावेलाविवार्णवौ ॥ ५ ॥
मूलम्
(तत उत्थाय वेगेन अश्वत्थामा न्यवारयत्।
गुरोराज्ञा भीम इति गान्धारे गुरुशासनम्।
अलं योग्यकृतं वेगमलं साहसमित्युत॥)
ततस्तावुद्यतगदौ गुरुपुत्रेण वारितौ ।
युगान्तानिलसंक्षुब्धौ महावेलाविवार्णवौ ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! तदनन्तर अश्वत्थामाने बड़े वेगसे उठकर भीमसेन और दुर्योधनको रोकते हुए कहा—‘भीम! तुम्हारे गुरुकी आज्ञा है, गान्धारीनन्दन! आचार्यका आदेश है, तुम दोनोंका युद्ध बंद होना चाहिये। तुम दोनों ही योग्य हो, तुम्हारा एक-दूसरेके प्रति वेगपूर्वक आक्रमण अवांछनीय है। तुम दोनोंका यह दुःसाहस अनुचित है। अतः इसे बंद करो।’ इस प्रकार कहकर प्रलयकालीन वायुसे विक्षुब्ध उत्ताल तरंगोंवाले दो समुद्रोंकी भाँति गदा उठाये हुए दुर्योधन और भीमसेनको गुरुपुत्र अश्वत्थामाने युद्धसे रोक दिया॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो रङ्गाङ्गणगतो द्रोणो वचनमब्रवीत्।
निवार्य वादित्रगणं महामेघनिभस्वनम् ॥ ६ ॥
मूलम्
ततो रङ्गाङ्गणगतो द्रोणो वचनमब्रवीत्।
निवार्य वादित्रगणं महामेघनिभस्वनम् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् द्रोणाचार्यने महान् मेघोंके समान कोलाहल करनेवाले बाजोंको बंद कराकर रंगभूमिमें उपस्थित हो यह बात कही—॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यो मे पुत्रात् प्रियतरः सर्वशस्त्रविशारदः।
ऐन्द्रिरिन्द्रानुजसमः स पार्थो दृश्यतामिति ॥ ७ ॥
मूलम्
यो मे पुत्रात् प्रियतरः सर्वशस्त्रविशारदः।
ऐन्द्रिरिन्द्रानुजसमः स पार्थो दृश्यतामिति ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘दर्शकगण! जो मुझे पुत्रसे भी अधिक प्रिय है, जिसने सम्पूर्ण शस्त्रोंमें निपुणता प्राप्त की है तथा जो भगवान् नारायणके समान पराक्रमी है, उस इन्द्रकुमार कुन्तीपुत्र अर्जुनका कौशल आपलोग देखें’॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आचार्यवचनेनाथ कृतस्वस्त्ययनो युवा ।
बद्धगोधाङ्गुलित्राणः पूर्णतूणः सकार्मुकः ॥ ८ ॥
काञ्चनं कवचं बिभ्रत् प्रत्यदृश्यत फाल्गुनः।
सार्कः सेन्द्रायुधतडित् ससंध्य इव तोयदः ॥ ९ ॥
मूलम्
आचार्यवचनेनाथ कृतस्वस्त्ययनो युवा ।
बद्धगोधाङ्गुलित्राणः पूर्णतूणः सकार्मुकः ॥ ८ ॥
काञ्चनं कवचं बिभ्रत् प्रत्यदृश्यत फाल्गुनः।
सार्कः सेन्द्रायुधतडित् ससंध्य इव तोयदः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर आचार्यके कहनेसे स्वस्तिवाचन कराकर तरुण वीर अर्जुन गोहके चमड़ेके बने हुए हाथके दस्ताने पहने, बाणोंसे भरा तरकस लिये धनुषसहित रंगभूमिमें दिखायी दिये। वे श्याम शरीरपर सोनेका कवच धारण किये ऐसे सुशोभित हो रहे थे, मानो सूर्य, इन्द्रधनुष, विद्युत् और संध्याकालसे युक्त मेघ शोभा पाता हो॥८-९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः सर्वस्य रङ्गस्य समुत्पिञ्जलकोऽभवत्।
प्रावाद्यन्त च वाद्यानि सशङ्खानि समन्ततः ॥ १० ॥
मूलम्
ततः सर्वस्य रङ्गस्य समुत्पिञ्जलकोऽभवत्।
प्रावाद्यन्त च वाद्यानि सशङ्खानि समन्ततः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर तो समूचे रंगमण्डपमें हर्षोल्लास छा गया। सब ओर भाँति-भाँतिके बाजे और शंख बजने लगे॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एष कुन्तीसुतः श्रीमानेष मध्यमपाण्डवः।
एष पुत्रो महेन्द्रस्य कुरूणामेष रक्षिता ॥ ११ ॥
एषोऽस्त्रविदुषां श्रेष्ठ एष धर्मभृतां वरः।
एष शीलवतां चापि शीलज्ञाननिधिः परः ॥ १२ ॥
इत्येवं तुमुला वाचः शृण्वत्याः प्रेक्षकेरिताः।
कुन्त्याः प्रस्रवसंयुक्तैरस्रैः क्लिन्नमुरोऽभवत् ॥ १३ ॥
मूलम्
एष कुन्तीसुतः श्रीमानेष मध्यमपाण्डवः।
एष पुत्रो महेन्द्रस्य कुरूणामेष रक्षिता ॥ ११ ॥
एषोऽस्त्रविदुषां श्रेष्ठ एष धर्मभृतां वरः।
एष शीलवतां चापि शीलज्ञाननिधिः परः ॥ १२ ॥
इत्येवं तुमुला वाचः शृण्वत्याः प्रेक्षकेरिताः।
कुन्त्याः प्रस्रवसंयुक्तैरस्रैः क्लिन्नमुरोऽभवत् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘ये कुन्तीके तेजस्वी पुत्र हैं। ये ही पाण्डुके मझले बेटे हैं। ये देवराज इन्द्रकी संतान हैं। ये ही कुरुवंशके रक्षक हैं। अस्त्र-विद्याके विद्वानोंमें ये सबसे उत्तम हैं। ये धर्मात्माओं और शीलवानोंमें श्रेष्ठ हैं। शील और ज्ञानकी तो ये सर्वोत्तम निधि हैं।’ उस समय दर्शकोंके मुखसे तुमुल ध्वनिके साथ निकली हुई ये बातें सुनकर कुन्तीके स्तनोंसे दूध और नेत्रोंसे स्नेहके आँसू बहने लगे। उन दुग्धमिश्रित आँसुओंसे कुन्तीदेवीका वक्षःस्थल भीग गया॥११—१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेन शब्देन महता पूर्णश्रुतिरथाब्रवीत्।
धृतराष्ट्रो नरश्रेष्ठो विदुरं हृष्टमानसः ॥ १४ ॥
मूलम्
तेन शब्देन महता पूर्णश्रुतिरथाब्रवीत्।
धृतराष्ट्रो नरश्रेष्ठो विदुरं हृष्टमानसः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह महान् कोलाहल धृतराष्ट्रके कानोंमें भी गूँज उठा। तब नरश्रेष्ठ धृतराष्ट्र प्रसन्नचित्त होकर विदुरसे पूछने लगे—॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षत्तः क्षुब्धार्णवनिभः किमेष सुमहास्वनः।
सहसैवोत्थितो रङ्गे भिन्दन्निव नभस्तलम् ॥ १५ ॥
मूलम्
क्षत्तः क्षुब्धार्णवनिभः किमेष सुमहास्वनः।
सहसैवोत्थितो रङ्गे भिन्दन्निव नभस्तलम् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘विदुर! विक्षुब्ध महासागरके समान यह कैसा महान् कोलाहल हो रहा है? यह शब्द मानो आकाशको विदीर्ण करता हुआ रंगभूमिमें सहसा व्यक्त हो उठा है’॥१५॥
मूलम् (वचनम्)
विदुर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एष पार्थो महाराज फाल्गुनः पाण्डुनन्दनः।
अवतीर्णः सकवचस्तत्रैष सुमहास्वनः ॥ १६ ॥
मूलम्
एष पार्थो महाराज फाल्गुनः पाण्डुनन्दनः।
अवतीर्णः सकवचस्तत्रैष सुमहास्वनः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विदुरने कहा— महाराज! ये पाण्डुनन्दन अर्जुन कवच बाँधकर रंगभूमिमें उतरे हैं। इसी कारण यह भारी आवाज हो रही है॥१६॥
मूलम् (वचनम्)
धृतराष्ट्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
धन्योऽस्म्यनुगृहीतोऽस्मि रक्षितोऽस्मि महामते ।
पृथारणिसमुद्भूतैस्त्रिभिः पाण्डववह्निभिः ॥ १७ ॥
मूलम्
धन्योऽस्म्यनुगृहीतोऽस्मि रक्षितोऽस्मि महामते ।
पृथारणिसमुद्भूतैस्त्रिभिः पाण्डववह्निभिः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धृतराष्ट्र बोले— महामते! कुन्तीरूपी अरणिसे प्रकट हुए इन तीनों पाण्डवरूपी अग्नियोंसे मैं धन्य हो गया। इन तीनोंके द्वारा मैं सर्वथा अनुगृहीत और सुरक्षित हूँ॥१७॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मिन् प्रमुदिते रङ्गे कथंचित् प्रत्युपस्थिते।
दर्शयामास बीभत्सुराचार्यायास्त्रलाघवम् ॥ १८ ॥
आग्नेयेनासृजद् वह्निं वारुणेनासृजत् पयः।
वायव्येनासृजद् वायुं पार्जन्येनासृजद् घनान् ॥ १९ ॥
मूलम्
तस्मिन् प्रमुदिते रङ्गे कथंचित् प्रत्युपस्थिते।
दर्शयामास बीभत्सुराचार्यायास्त्रलाघवम् ॥ १८ ॥
आग्नेयेनासृजद् वह्निं वारुणेनासृजत् पयः।
वायव्येनासृजद् वायुं पार्जन्येनासृजद् घनान् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! इस प्रकार आनन्दातिरेकसे मुखरित हुआ वह रंगमण्डप जब किसी तरह कुछ शान्त हुआ, तब अर्जुनने आचार्यको अपनी अस्त्र-संचालनकी फुर्ती दिखानी आरम्भ की। उन्होंने पहले आग्नेयास्त्रसे आग पैदा की, फिर वारुणास्त्रसे जल उत्पन्न करके उसे बुझा दिया। वायव्यास्त्रसे आँधी चला दी और पर्जन्यास्त्रसे बादल पैदा कर दिये॥१८-१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भौमेन प्राविशद् भूमिं पार्वतेनासृजद् गिरीन्।
अन्तर्धानेन चास्त्रेण पुनरन्तर्हितोऽभवत् ॥ २० ॥
मूलम्
भौमेन प्राविशद् भूमिं पार्वतेनासृजद् गिरीन्।
अन्तर्धानेन चास्त्रेण पुनरन्तर्हितोऽभवत् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने भौमास्त्रसे पृथ्वी और पार्वतास्त्रसे पर्वतोंको उत्पन्न कर दिया; फिर अन्तर्धानास्त्रके द्वारा वे स्वयं अदृश्य हो गये॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षणात् प्रांशुः क्षणाद् ह्रस्वः क्षणाच्च रथधूर्गतः।
क्षणेन रथमध्यस्थः क्षणेनावतरन्महीम् ॥ २१ ॥
मूलम्
क्षणात् प्रांशुः क्षणाद् ह्रस्वः क्षणाच्च रथधूर्गतः।
क्षणेन रथमध्यस्थः क्षणेनावतरन्महीम् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे क्षणभरमें बहुत लंबे हो जाते और क्षणभरमें ही बहुत छोटे बन जाते थे। एक क्षणमें रथके धुरेपर खड़े होते तो दूसरे क्षण रथके बीचमें दिखायी देते थे। फिर पलक मारते-मारते पृथ्वीपर उतरकर अस्त्र-कौशल दिखाने लगते थे॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुकुमारं च सूक्ष्मं च गुरुं चापि गुरुप्रियः।
सौष्ठवेनाभिसंक्षिप्तः सोऽविध्यद् विविधैः शरैः ॥ २२ ॥
मूलम्
सुकुमारं च सूक्ष्मं च गुरुं चापि गुरुप्रियः।
सौष्ठवेनाभिसंक्षिप्तः सोऽविध्यद् विविधैः शरैः ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपने गुरुके प्रिय शिष्य अर्जुनने बड़ी फुर्ती और खूबसूरतीके साथ सुकुमार, सूक्ष्म और भारी निशानेको भी बिना हिलाये-डुलाये नाना प्रकारके बाणोंद्वारा बींध दिया॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भ्रमतश्च वराहस्य लोहस्य प्रमुखे समम्।
पञ्च बाणानसंयुक्तान् सम्मुमोचैकबाणवत् ॥ २३ ॥
मूलम्
भ्रमतश्च वराहस्य लोहस्य प्रमुखे समम्।
पञ्च बाणानसंयुक्तान् सम्मुमोचैकबाणवत् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रंगभूमिमें लोहेका बना हुआ सूअर इस प्रकार रखा गया था कि वह सब ओर चक्कर लगा रहा था। उस घूमते हुए सूअरके मुखमें अर्जुनने एक ही साथ एक बाणकी भाँति पाँच बाण मारे। वे पाँचों बाण एक-दूसरेसे सटे हुए नहीं थे॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गव्ये विषाणकोषे च चले रज्ज्ववलम्बिनि।
निचखान महावीर्यः सायकानेकविंशतिम् ॥ २४ ॥
मूलम्
गव्ये विषाणकोषे च चले रज्ज्ववलम्बिनि।
निचखान महावीर्यः सायकानेकविंशतिम् ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक जगह गायका सींग एक रस्सीमें लटकाया गया था, जो हिल रहा था। महापराक्रमी अर्जुनने उस सींगके छेदमें लगातार इक्कीस बाण गड़ा दिये॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्येवमादि सुमहत् खड्गे धनुषि चानघ।
गदायां शस्त्रकुशलो मण्डलानि ह्यदर्शयत् ॥ २५ ॥
मूलम्
इत्येवमादि सुमहत् खड्गे धनुषि चानघ।
गदायां शस्त्रकुशलो मण्डलानि ह्यदर्शयत् ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
निष्पाप जनमेजय! इस प्रकार उन्होंने बड़ा भारी अस्त्र-कौशल दिखाया। खड्ग, धनुष और गदा आदिके भी शस्त्र-कुशल अर्जुनने अनेक पैंतरे और हाथ दिखलाये॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः समाप्तभूयिष्ठे तस्मिन् कर्मणि भारत।
मन्दीभूते समाजे च वादित्रस्य च निःस्वने ॥ २६ ॥
द्वारदेशात् समुद्भूतो माहात्म्यबलसूचकः ।
वज्रनिष्पेषसदृशः शुश्रुवे भुजनिःस्वनः ॥ २७ ॥
मूलम्
ततः समाप्तभूयिष्ठे तस्मिन् कर्मणि भारत।
मन्दीभूते समाजे च वादित्रस्य च निःस्वने ॥ २६ ॥
द्वारदेशात् समुद्भूतो माहात्म्यबलसूचकः ।
वज्रनिष्पेषसदृशः शुश्रुवे भुजनिःस्वनः ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! इस प्रकार अस्त्र-कौशल दिखानेका अधिकांश कार्य जब समाप्त हो चला, मनुष्योंका कोलाहल और बाजे-गाजेका शब्द जब शान्त होने लगा, उसी समय दरवाजेकी ओरसे किसीका अपनी भुजाओंपर ताल ठोंकनेका भारी शब्द सुनायी पड़ा; मानो वज्र आपसमें टकरा रहे हों। वह शब्द किसी वीरके माहात्म्य तथा बलका सूचक था॥२६-२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दीर्यन्ते किं नु गिरयः किंस्विद् भूमिर्विदीर्यते।
किंस्विदापूर्यते व्योम जलधाराघनैर्घनैः ॥ २८ ॥
मूलम्
दीर्यन्ते किं नु गिरयः किंस्विद् भूमिर्विदीर्यते।
किंस्विदापूर्यते व्योम जलधाराघनैर्घनैः ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसे सुनकर लोग कहने लगे, ‘कहीं पहाड़ तो नहीं फट गये! पृथ्वी तो नहीं विदीर्ण हो गयी! अथवा जलकी धारासे परिपूर्ण घनीभूत बादलोंकी गम्भीर गर्जनासे आकाशमण्डल तो नहीं गूँज रहा है?’॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रङ्गस्यैवं मतिरभूत् क्षणेन वसुधाधिप।
द्वारं चाभिमुखाः सर्वे बभूवुः प्रेक्षकास्तदा ॥ २९ ॥
मूलम्
रङ्गस्यैवं मतिरभूत् क्षणेन वसुधाधिप।
द्वारं चाभिमुखाः सर्वे बभूवुः प्रेक्षकास्तदा ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! उस रंगमण्डपमें बैठे हुए लोगोंके मनमें क्षणभरमें उपर्युक्त विचार आने लगे। उस समय सभी दर्शक दरवाजेकी ओर मुँह घुमाकर देखने लगे॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पञ्चभिर्भ्रातृभिः पार्थैर्द्रोणः परिवृतो बभौ।
पञ्चतारेण संयुक्तः सावित्रेणेव चन्द्रमाः ॥ ३० ॥
मूलम्
पञ्चभिर्भ्रातृभिः पार्थैर्द्रोणः परिवृतो बभौ।
पञ्चतारेण संयुक्तः सावित्रेणेव चन्द्रमाः ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इधर कुन्तीकुमार पाँचों भाइयोंसे घिरे हुए आचार्य द्रोण पाँच तारोंवाले हस्त नक्षत्रसे संयुक्त चन्द्रमाकी भाँति शोभा पा रहे थे॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अश्वत्थाम्ना च सहितं भ्रातॄणां शतमूर्जितम्।
दुर्योधनममित्रघ्नमुत्थितं पर्यवारयत् ॥ ३१ ॥
स तैस्तदा भ्रातृभिरुद्यतायुधै-
र्गदाग्रपाणिः समवस्थितैर्वृतः ।
बभौ यथा दानवसंक्षये पुरा
पुरन्दरो देवगणैः समावृतः ॥ ३२ ॥
मूलम्
अश्वत्थाम्ना च सहितं भ्रातॄणां शतमूर्जितम्।
दुर्योधनममित्रघ्नमुत्थितं पर्यवारयत् ॥ ३१ ॥
स तैस्तदा भ्रातृभिरुद्यतायुधै-
र्गदाग्रपाणिः समवस्थितैर्वृतः ।
बभौ यथा दानवसंक्षये पुरा
पुरन्दरो देवगणैः समावृतः ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुहन्ता बलवान् दुर्योधन भी उठकर खड़ा हो गया। अश्वत्थामासहित उसके सौ भाइयोंने आकर उसे चारों ओरसे घेर लिया। हाथोंमें आयुध उठाये खड़े हुए अपने भाइयोंसे घिरा हुआ गदाधारी दुर्योधन पूर्वकालमें दानवसंहारके समय देवताओंसे घिरे देवराज इन्द्रके समान शोभा पाने लगा॥३१-३२॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि अस्त्रदर्शने चतुस्त्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १३४ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत सम्भवपर्वमें अस्त्रदर्शनविषयक एक सौ चौंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१३४॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके १ श्लोक मिलाकर कुल ३३ श्लोक हैं)