१३२ अर्जुन-परीक्षा

श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना

द्वात्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

अर्जुनके द्वारा लक्ष्यवेध, द्रोणका ग्राहसे छुटकारा और अर्जुनको ब्रह्मशिर नामक अस्त्रकी प्राप्ति

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो धनंजयं द्रोणः स्मयमानोऽभ्यभाषत।
त्वयेदानीं प्रहर्तव्यमेतल्लक्ष्यं विलोक्यताम् ॥ १ ॥

मूलम्

ततो धनंजयं द्रोणः स्मयमानोऽभ्यभाषत।
त्वयेदानीं प्रहर्तव्यमेतल्लक्ष्यं विलोक्यताम् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! तदनन्तर द्रोणाचार्यने अर्जुनसे मुसकराते हुए कहा—‘अब तुम्हें इस लक्ष्यका वेध करना है। इसे अच्छी तरह देख लो’॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मद्वाक्यसमकालं ते मोक्तव्योऽत्र भवेच्छरः।
वितत्य कार्मुकं पुत्र तिष्ठ तावन्मुहूर्तकम् ॥ २ ॥

मूलम्

मद्वाक्यसमकालं ते मोक्तव्योऽत्र भवेच्छरः।
वितत्य कार्मुकं पुत्र तिष्ठ तावन्मुहूर्तकम् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मेरी आज्ञा मिलनेके साथ ही तुम्हें इसपर बाण छोड़ना होगा। बेटा! धनुष तानकर खड़े हो जाओ और दो घड़ी मेरे आदेशकी प्रतीक्षा करो’॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तः सव्यसाची मण्डलीकृतकार्मुकः ।
तस्थौ भासं समुद्दिश्य गुरुवाक्यप्रचोदितः ॥ ३ ॥

मूलम्

एवमुक्तः सव्यसाची मण्डलीकृतकार्मुकः ।
तस्थौ भासं समुद्दिश्य गुरुवाक्यप्रचोदितः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके ऐसा कहनेपर अर्जुनने धनुषको इस प्रकार खींचा कि वह मण्डलाकार (गोल) प्रतीत होने लगा। फिर वे गुरुकी आज्ञासे प्रेरित हो गीधकी ओर लक्ष्य करके खड़े हो गये॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुहूर्तादिव तं द्रोणस्तथैव समभाषत।
पश्यस्येनं स्थितं भासं द्रुमं मामपि चार्जुन ॥ ४ ॥

मूलम्

मुहूर्तादिव तं द्रोणस्तथैव समभाषत।
पश्यस्येनं स्थितं भासं द्रुमं मामपि चार्जुन ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मानो दो घड़ी बाद द्रोणाचार्यने उनसे भी उसी प्रकार प्रश्न किया—‘अर्जुन! क्या तुम उस वृक्षपर बैठे हुए गीधको, वृक्षको और मुझे भी देखते हो?’॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पश्याम्येकं भासमिति द्रोणं पार्थोऽभ्यभाषत।
न तु वृक्षं भवन्तं वा पश्यामीति च भारत॥५॥

मूलम्

पश्याम्येकं भासमिति द्रोणं पार्थोऽभ्यभाषत।
न तु वृक्षं भवन्तं वा पश्यामीति च भारत॥५॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनमेजय! यह प्रश्न सुनकर अर्जुनने द्रोणाचार्यसे कहा—‘मैं केवल गीधको देखता हूँ। वृक्षको अथवा आपको नहीं देखता’॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः प्रीतमना द्रोणो मुहूर्तादिव तं पुनः।
प्रत्यभाषत दुर्धर्षः पाण्डवानां महारथम् ॥ ६ ॥

मूलम्

ततः प्रीतमना द्रोणो मुहूर्तादिव तं पुनः।
प्रत्यभाषत दुर्धर्षः पाण्डवानां महारथम् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस उत्तरसे द्रोणका मन प्रसन्न हो गया। मानो दो घड़ी बाद दुर्धर्ष द्रोणाचार्यने पाण्डव-महारथी अर्जुनसे फिर पूछा—॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भासं पश्यसि यद्येनं तथा ब्रूहि पुनर्वचः।
शिरः पश्यामि भासस्य न गात्रमिति सोऽब्रवीत् ॥ ७ ॥

मूलम्

भासं पश्यसि यद्येनं तथा ब्रूहि पुनर्वचः।
शिरः पश्यामि भासस्य न गात्रमिति सोऽब्रवीत् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वत्स! यदि तुम इस गीधको देखते हो तो फिर बताओ, उसके अंग कैसे हैं?’ अर्जुन बोले—‘मैं गीधका मस्तकभर देख रहा हूँ, उसके सम्पूर्ण शरीरको नहीं’॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अर्जुनेनैवमुक्तस्तु द्रोणो हृष्टतनूरुहः ।
मुञ्चस्वेत्यब्रवीत् पार्थं स मुमोचाविचारयन् ॥ ८ ॥

मूलम्

अर्जुनेनैवमुक्तस्तु द्रोणो हृष्टतनूरुहः ।
मुञ्चस्वेत्यब्रवीत् पार्थं स मुमोचाविचारयन् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्जुनके यों कहनेपर द्रोणाचार्यके शरीरमें (हर्षातिरेकसे) रोमांच हो आया और वे अर्जुनसे बोले, ‘चलाओ बाण’! अर्जुनने बिना सोचे-विचारे बाण छोड़ दिया॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तस्य नगस्थस्य क्षुरेण निशितेन च।
शिर उत्कृत्य तरसा पातयामास पाण्डवः ॥ ९ ॥

मूलम्

ततस्तस्य नगस्थस्य क्षुरेण निशितेन च।
शिर उत्कृत्य तरसा पातयामास पाण्डवः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर तो पाण्डुनन्दन अर्जुनने अपने चलाये हुए तीखे क्षुर नामक बाणसे वृक्षपर बैठे हुए उस गीधका मस्तक वेगपूर्वक काट गिराया॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मिन् कर्मणि संसिद्धे पर्यष्वजत पाण्डवम्।
मेने च द्रुपदं संख्ये सानुबन्धं पराजितम् ॥ १० ॥

मूलम्

तस्मिन् कर्मणि संसिद्धे पर्यष्वजत पाण्डवम्।
मेने च द्रुपदं संख्ये सानुबन्धं पराजितम् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस कार्यमें सफलता प्राप्त होनेपर आचार्यने अर्जुनको हृदयसे लगा लिया और उन्हें यह विश्वास हो गया कि राजा द्रुपद युद्धमें अर्जुनद्वारा अपने भाई-बन्धुओंसहित अवश्य पराजित हो जायँगे॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कस्यचित् त्वथ कालस्य सशिष्योऽङ्गिरसां वरः।
जगाम गङ्गामभितो मज्जितुं भरतर्षभ ॥ ११ ॥

मूलम्

कस्यचित् त्वथ कालस्य सशिष्योऽङ्गिरसां वरः।
जगाम गङ्गामभितो मज्जितुं भरतर्षभ ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! तदनन्तर किसी समय आंगिरसवंशियोंमें उत्तम आचार्य द्रोण अपने शिष्योंके साथ गंगाजीमें स्नान करनेके लिये गये॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अवगाढमथो द्रोणं सलिले सलिलेचरः।
ग्राहो जग्राह बलवाञ्जङ्घान्ते कालचोदितः ॥ १२ ॥

मूलम्

अवगाढमथो द्रोणं सलिले सलिलेचरः।
ग्राहो जग्राह बलवाञ्जङ्घान्ते कालचोदितः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ जलमें गोता लगाते समय कालसे प्रेरित हो एक बलवान् जलजन्तु ग्राहने द्रोणाचार्यकी पिंडली पकड़ ली॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स समर्थोऽपि मोक्षाय शिष्यान् सर्वानचोदयत्।
ग्राहं हत्वा मोक्षयध्वं मामिति त्वरयन्निव ॥ १३ ॥

मूलम्

स समर्थोऽपि मोक्षाय शिष्यान् सर्वानचोदयत्।
ग्राहं हत्वा मोक्षयध्वं मामिति त्वरयन्निव ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे अपनेको छुड़ानेमें समर्थ होते हुए भी मानो हड़बड़ाये हुए अपने सभी शिष्योंसे बोले—‘इस ग्राहको मारकर मुझे बचाओ’॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तद्वाक्यसमकालं तु बीभत्सुर्निशितैः शरैः।
अवार्यैः पञ्चभिर्ग्राहं मग्नमम्भस्यताडयत् ॥ १४ ॥

मूलम्

तद्वाक्यसमकालं तु बीभत्सुर्निशितैः शरैः।
अवार्यैः पञ्चभिर्ग्राहं मग्नमम्भस्यताडयत् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके इस आदेशके साथ ही बीभत्सु (अर्जुन)-ने पाँच अमोघ एवं तीखे बाणोंद्वारा पानीमें डूबे हुए उस ग्राहपर प्रहार किया॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इतरे त्वथ सम्मूढास्तत्र तत्र प्रपेदिरे।
तं तु दृष्ट्वा क्रियोपेतं द्रोणोऽमन्यत पाण्डवम् ॥ १५ ॥
विशिष्टं सर्वशिष्येभ्यः प्रीतिमांश्चाभवत् तदा।
स पार्थबाणैर्बहुधा खण्डशः परिकल्पितः ॥ १६ ॥
ग्राहः पञ्चत्वमापेदे जङ्घां त्यक्त्वा महात्मनः।
अथाब्रवीन्महात्मानं भारद्वाजो महारथम् ॥ १७ ॥

मूलम्

इतरे त्वथ सम्मूढास्तत्र तत्र प्रपेदिरे।
तं तु दृष्ट्वा क्रियोपेतं द्रोणोऽमन्यत पाण्डवम् ॥ १५ ॥
विशिष्टं सर्वशिष्येभ्यः प्रीतिमांश्चाभवत् तदा।
स पार्थबाणैर्बहुधा खण्डशः परिकल्पितः ॥ १६ ॥
ग्राहः पञ्चत्वमापेदे जङ्घां त्यक्त्वा महात्मनः।
अथाब्रवीन्महात्मानं भारद्वाजो महारथम् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परंतु दूसरे राजकुमार हक्के-बक्के-से होकर अपने-अपने स्थानपर ही खड़े रह गये। अर्जुनको तत्काल कार्यमें तत्पर देख द्रोणाचार्यने उन्हें अपने सब शिष्योंसे बढ़कर माना और उस समय वे उनपर बहुत प्रसन्न हुए। अर्जुनके बाणोंसे ग्राहके टुकड़े-टुकड़े हो गये और वह महात्मा द्रोणकी पिंडली छोड़कर मर गया। तब द्रोणाचार्यने महारथी महात्मा अर्जुनसे कहा—॥१५—१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गृहाणेदं महाबाहो विशिष्टमतिदुर्धरम् ।
अस्त्रं ब्रह्मशिरो नाम सप्रयोगनिवर्तनम् ॥ १८ ॥

मूलम्

गृहाणेदं महाबाहो विशिष्टमतिदुर्धरम् ।
अस्त्रं ब्रह्मशिरो नाम सप्रयोगनिवर्तनम् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाबाहो! यह ब्रह्मशिर नामक अस्त्र मैं तुम्हें प्रयोग और उपसंहारके साथ बता रहा हूँ। यह सब अस्त्रोंसे बढ़कर है तथा इसे धारण करना भी अत्यन्त कठिन है। तुम इसे ग्रहण करो’॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न च ते मानुषेष्वेतत् प्रयोक्तव्यं कथंचन।
जगद् विनिर्दहेदेतदल्पतेजसि पातितम् ॥ १९ ॥

मूलम्

न च ते मानुषेष्वेतत् प्रयोक्तव्यं कथंचन।
जगद् विनिर्दहेदेतदल्पतेजसि पातितम् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मनुष्योंपर तुम्हें इस अस्त्रका प्रयोग किसी भी दशामें नहीं करना चाहिये। यदि किसी अल्प तेजवाले पुरुषपर इसे चलाया गया तो यह उसके साथ ही समस्त संसारको भस्म कर सकता है॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

असामान्यमिदं तात लोकेष्वस्त्रं निगद्यते।
तद् धारयेथाः प्रयतः शृणु चेदं वचो मम ॥ २० ॥

मूलम्

असामान्यमिदं तात लोकेष्वस्त्रं निगद्यते।
तद् धारयेथाः प्रयतः शृणु चेदं वचो मम ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तात! यह अस्त्र तीनों लोकोंमें असाधारण बताया गया है। तुम मन और इन्द्रियोंको संयममें रखकर इस अस्त्रको धारण करो और मेरी यह बात सुनो॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बाधेतामानुषः शत्रुर्यदि त्वां वीर कश्चन।
तद्वधाय प्रयुञ्जीथास्तदस्त्रमिदमाहवे ॥ २१ ॥

मूलम्

बाधेतामानुषः शत्रुर्यदि त्वां वीर कश्चन।
तद्वधाय प्रयुञ्जीथास्तदस्त्रमिदमाहवे ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वीर! यदि कोई अमानव शत्रु तुम्हें युद्धमें पीड़ा देने लगे तो तुम उसका वध करनेके लिये इस अस्त्रका प्रयोग कर सकते हो’॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथेति सम्प्रतिश्रुत्य बीभत्सुः स कृताञ्जलिः।
जग्राह परमास्त्रं तदाह चैनं पुनर्गुरुः।
भविता त्वत्समो नान्यः पुमाल्ँलोके धनुर्धरः ॥ २२ ॥

मूलम्

तथेति सम्प्रतिश्रुत्य बीभत्सुः स कृताञ्जलिः।
जग्राह परमास्त्रं तदाह चैनं पुनर्गुरुः।
भविता त्वत्समो नान्यः पुमाल्ँलोके धनुर्धरः ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब अर्जुनने ‘तथास्तु’ कहकर वैसा ही करनेकी प्रतिज्ञा की और हाथ जोड़कर उस उत्तम अस्त्रको ग्रहण किया। उस समय गुरु द्रोणने अर्जुनसे पुनः यह बात कही—‘संसारमें दूसरा कोई पुरुष तुम्हारे समान धनुर्धर न होगा’॥२२॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि द्रोणग्राहमोक्षणे द्वात्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १३२ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत सम्भवपर्वमें द्रोणाचार्यका ग्राहसे छुटकारा नामक एक सौ बत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१३२॥