श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना
त्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः
Misc Detail
द्रोणका द्रुपदसे तिरस्कृत हो हस्तिनापुरमें आना, राजकुमारोंसे उनकी भेंट, उनकी बीटा* और अँगूठीको कुएँमेंसे निकालना एवं भीष्मका उन्हें अपने यहाँ सम्मानपूर्वक रखना
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो द्रुपदमासाद्य भारद्वाजः प्रतापवान्।
अब्रवीत् पार्थिवं राजन् सखायं विद्धि मामिह ॥ १ ॥
मूलम्
ततो द्रुपदमासाद्य भारद्वाजः प्रतापवान्।
अब्रवीत् पार्थिवं राजन् सखायं विद्धि मामिह ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! प्रतापी द्रोण राजा द्रुपदके यहाँ जाकर उनसे इस प्रकार बोले—‘राजन्! तुम्हें ज्ञात होना चाहिये कि मैं तुम्हारा मित्र द्रोण यहाँ तुमसे मिलनेके लिये आया हूँ’॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्येवमुक्तः सख्या स प्रीतिपूर्वं जनेश्वरः।
भारद्वाजेन पाञ्चालो नामृष्यत वचोऽस्य तत् ॥ २ ॥
मूलम्
इत्येवमुक्तः सख्या स प्रीतिपूर्वं जनेश्वरः।
भारद्वाजेन पाञ्चालो नामृष्यत वचोऽस्य तत् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मित्र द्रोणके द्वारा इस प्रकार प्रेमपूर्वक कहे जानेपर पंचालदेशके नरेश द्रुपद उनकी इस बातको सह न सके॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सक्रोधामर्षजिह्मभ्रूः कषायीकृतलोचनः ।
ऐश्वर्यमदसम्पन्नो द्रोणं राजाब्रवीदिदम् ॥ ३ ॥
मूलम्
सक्रोधामर्षजिह्मभ्रूः कषायीकृतलोचनः ।
ऐश्वर्यमदसम्पन्नो द्रोणं राजाब्रवीदिदम् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्रोध और अमर्षसे उनकी भौंहें टेढ़ी हो गयीं, आँखोंमें लाली छा गयी; धन और ऐश्वर्यके मदसे उन्मत्त होकर वे राजा द्रोणसे यों बोले॥३॥
मूलम् (वचनम्)
द्रुपद उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अकृतेयं तव प्रज्ञा ब्रह्मन् नातिसमञ्जसा।
यन्मां ब्रवीषि प्रसभं सखा तेऽहमिति द्विज ॥ ४ ॥
मूलम्
अकृतेयं तव प्रज्ञा ब्रह्मन् नातिसमञ्जसा।
यन्मां ब्रवीषि प्रसभं सखा तेऽहमिति द्विज ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
द्रुपदने कहा— ब्रह्मन्! तुम्हारी बुद्धि सर्वथा संस्कारशून्य—अपरिपक्व है। तुम्हारी यह बुद्धि यथार्थ नहीं है। तभी तो तुम धृष्टतापूर्वक मुझसे कह रहे हो कि ‘राजन्! मैं तुम्हारा सखा हूँ’॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न हि राज्ञामुदीर्णानामेवम्भूतैर्नरैः क्वचित्।
सख्यं भवति मन्दात्मन् श्रिया हीनैर्धनच्युतैः ॥ ५ ॥
मूलम्
न हि राज्ञामुदीर्णानामेवम्भूतैर्नरैः क्वचित्।
सख्यं भवति मन्दात्मन् श्रिया हीनैर्धनच्युतैः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ओ मूढ़! बड़े-बड़े राजाओंकी तुम्हारे-जैसे श्रीहीन और निर्धन मनुष्योंके साथ कभी मित्रता नहीं होती॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सौहृदान्यपि जीर्यन्ते कालेन परिजीर्यतः।
सौहृदं मे त्वया ह्यासीत् पूर्वं सामर्थ्यबन्धनम् ॥ ६ ॥
मूलम्
सौहृदान्यपि जीर्यन्ते कालेन परिजीर्यतः।
सौहृदं मे त्वया ह्यासीत् पूर्वं सामर्थ्यबन्धनम् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
समयके अनुसार मनुष्य ज्यों-ज्यों बूढ़ा होता है, त्यों-ही-त्यों उसकी मैत्री भी क्षीण होती चली जाती है। पहले तुम्हारे साथ जो मेरी मित्रता थी, वह सामर्थ्यको लेकर थी—उस समय मैं और तुम दोनों समान शक्तिशाली थे॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न सख्यमजरं लोके हृदि तिष्ठति कस्यचित्।
कालो ह्येनं विहरति क्रोधो वैनं हरत्युत ॥ ७ ॥
मूलम्
न सख्यमजरं लोके हृदि तिष्ठति कस्यचित्।
कालो ह्येनं विहरति क्रोधो वैनं हरत्युत ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
लोकमें किसी भी मनुष्यके हृदयमें मैत्री अमिट होकर नहीं रहती। समय एक मित्रको दूसरेसे विलग कर देता है अथवा क्रोध मनुष्यको मित्रतासे हटा देता है॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मैवं जीर्णमुपास्स्व त्वं सख्यं भवत्वपाकृधि।
आसीत् सख्यं द्विजश्रेष्ठ त्वया मेऽर्थनिबन्धनम् ॥ ८ ॥
मूलम्
मैवं जीर्णमुपास्स्व त्वं सख्यं भवत्वपाकृधि।
आसीत् सख्यं द्विजश्रेष्ठ त्वया मेऽर्थनिबन्धनम् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार क्षीण होनेवाली मैत्रीका भरोसा न करो। हम दोनों एक-दूसरेके मित्र थे—इस भावको हृदयसे निकाल दो। द्विजश्रेष्ठ! तुम्हारे साथ पहले जो मेरी मित्रता थी, वह साथ-साथ खेलने और अध्ययन करने आदि स्वार्थको लेकर हुई थी॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न दरिद्रो वसुमतो नाविद्वान् विदुषः सखा।
न शूरस्य सखा क्लीबः सखिपूर्वं किमिष्यते ॥ ९ ॥
मूलम्
न दरिद्रो वसुमतो नाविद्वान् विदुषः सखा।
न शूरस्य सखा क्लीबः सखिपूर्वं किमिष्यते ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सच्ची बात यह है कि दरिद्र मनुष्य धनवान्का, मूर्ख विद्वान्का और कायर शूरवीरका सखा नहीं हो सकता; अतः पहलेकी मित्रताका क्या भरोसा करते हो॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ययोरेव समं वित्तं ययोरेव समं श्रुतम्।
तयोर्विवाहः सख्यं च न तु पुष्टविपुष्टयोः ॥ १० ॥
मूलम्
ययोरेव समं वित्तं ययोरेव समं श्रुतम्।
तयोर्विवाहः सख्यं च न तु पुष्टविपुष्टयोः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिनका धन समान है, जिनकी विद्या एक-सी है, उन्हींमें विवाह और मैत्रीका सम्बन्ध हो सकता है। हृष्ट-पुष्ट और दुर्बलमें (धनवान् और निर्धनमें) कभी मित्रता नहीं हो सकती॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाश्रोत्रियः श्रोत्रियस्य नारथी रथिनः सखा।
नाराजा पार्थिवस्यापि सखिपूर्वं किमिष्यते ॥ ११ ॥
मूलम्
नाश्रोत्रियः श्रोत्रियस्य नारथी रथिनः सखा।
नाराजा पार्थिवस्यापि सखिपूर्वं किमिष्यते ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो श्रोत्रिय नहीं है, वह श्रोत्रिय (वेदवेत्ता)-का मित्र नहीं हो सकता। जो रथी नहीं है, वह रथीका सखा नहीं हो सकता। इसी प्रकार जो राजा नहीं है, वह किसी राजाका मित्र कदापि नहीं हो सकता। फिर तुम पुरानी मित्रताका क्यों स्मरण करते हो?॥११॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्रुपदेनैवमुक्तस्तु भारद्वाजः प्रतापवान् ।
मुहूर्तं चिन्तयित्वा तु मन्युनाभिपरिप्लुतः ॥ १२ ॥
स विनिश्चित्य मनसा पाञ्चालं प्रति बुद्धिमान्।
जगाम कुरुमुख्यानां नगरं नागसाह्वयम् ॥ १३ ॥
मूलम्
द्रुपदेनैवमुक्तस्तु भारद्वाजः प्रतापवान् ।
मुहूर्तं चिन्तयित्वा तु मन्युनाभिपरिप्लुतः ॥ १२ ॥
स विनिश्चित्य मनसा पाञ्चालं प्रति बुद्धिमान्।
जगाम कुरुमुख्यानां नगरं नागसाह्वयम् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! राजा द्रुपदके यों कहनेपर प्रतापी द्रोण क्रोधसे जल उठे और दो घड़ीतक गहरी चिन्तामें डूबे रहे। वे बुद्धिमान् तो थे ही, पांचालनरेशसे बदला लेनेके विषयमें मन-ही-मन कुछ निश्चय करके कौरवोंकी राजधानी हस्तिनापुर नगरमें चले गये॥१२-१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स नागपुरमागम्य गौतमस्य निवेशने।
भारद्वाजोऽवसत् तत्र प्रच्छन्नं द्विजसत्तमः ॥ १४ ॥
मूलम्
स नागपुरमागम्य गौतमस्य निवेशने।
भारद्वाजोऽवसत् तत्र प्रच्छन्नं द्विजसत्तमः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हस्तिनापुरमें पहुँचकर द्विजश्रेष्ठ द्रोण गौतमगोत्रीय कृपाचार्यके घरमें गुप्तरूपसे निवास करने लगे॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽस्य तनुजः पार्थान् कृपस्यानन्तरं प्रभुः।
अस्त्राणि शिक्षयामास नाबुध्यन्त च तं जनाः ॥ १५ ॥
मूलम्
ततोऽस्य तनुजः पार्थान् कृपस्यानन्तरं प्रभुः।
अस्त्राणि शिक्षयामास नाबुध्यन्त च तं जनाः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ उनके पुत्र शक्तिशाली अश्वत्थामा कृपाचार्यके बाद पाण्डवोंको स्वयं ही अस्त्रविद्याकी शिक्षा देने लगे; किंतु लोग उन्हें पहचान न सके॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं स तत्र गूढात्मा कंचित् कालमुवास ह।
कुमारास्त्वथ निष्क्रम्य समेता गजसाह्वयात् ॥ १६ ॥
क्रीडन्तो वीटया तत्र वीराः पर्यचरन् मुदा।
पपात कूपे सा वीटा तेषां वै क्रीडतां तदा॥१७॥
मूलम्
एवं स तत्र गूढात्मा कंचित् कालमुवास ह।
कुमारास्त्वथ निष्क्रम्य समेता गजसाह्वयात् ॥ १६ ॥
क्रीडन्तो वीटया तत्र वीराः पर्यचरन् मुदा।
पपात कूपे सा वीटा तेषां वै क्रीडतां तदा॥१७॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार द्रोणने वहाँ अपने आपको छिपाये रखकर कुछ कालतक निवास किया। तदनन्तर एक दिन कौरव-पाण्डव सभी वीर कुमार हस्तिनापुरसे बाहर निकलकर बड़ी प्रसन्नताके साथ मिलकर वहाँ गुल्ली-डंडा खेलने लगे। उस समय खेलमें लगे हुए उन कुमारोंकी वह बीटा कुएँमें गिर पड़ी॥१६-१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्ते यत्नमातिष्ठन् वीटामुद्धर्तुमादृताः ।
न च ते प्रत्यपद्यन्त कर्म वीटोपलब्धये ॥ १८ ॥
मूलम्
ततस्ते यत्नमातिष्ठन् वीटामुद्धर्तुमादृताः ।
न च ते प्रत्यपद्यन्त कर्म वीटोपलब्धये ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब वे उस बीटाको निकालनेके लिये बड़ी तत्परताके साथ प्रयत्नमें लग गये; परंतु उसे प्राप्त करनेका कोई भी उपाय उनके ध्यानमें नहीं आया॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽन्योन्यमवैक्षन्त व्रीडयावनताननाः ।
तस्या योगमविन्दन्तो भृशं चोत्कण्ठिताभवन् ॥ १९ ॥
मूलम्
ततोऽन्योन्यमवैक्षन्त व्रीडयावनताननाः ।
तस्या योगमविन्दन्तो भृशं चोत्कण्ठिताभवन् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस कारण लज्जासे नतमस्तक होकर वे एक-दूसरेकी ओर देखने लगे। गुल्ली निकालनेका कोई उपाय न मिलनेके कारण वे अत्यन्त उत्कण्ठित हो गये॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेऽपश्यन् ब्राह्मणं श्याममापन्नं पलितं कृशम्।
कृत्यवन्तमदूरस्थमग्निहोत्रपुरस्कृतम् ॥ २० ॥
मूलम्
तेऽपश्यन् ब्राह्मणं श्याममापन्नं पलितं कृशम्।
कृत्यवन्तमदूरस्थमग्निहोत्रपुरस्कृतम् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी समय उन्होंने एक श्याम वर्णके ब्राह्मणको थोड़ी ही दूरपर बैठे देखा, जो अग्निहोत्र करके किसी प्रयोजनसे वहाँ रुके हुए थे। वे आपत्तिग्रस्त जान पड़ते थे। उनके सिरके बाल सफेद हो गये थे और शरीर अत्यन्त दुर्बल था॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते तं दृष्ट्वा महात्मानमुपगम्य कुमारकाः।
भग्नोत्साहक्रियात्मानो ब्राह्मणं पर्यवारयन् ॥ २१ ॥
मूलम्
ते तं दृष्ट्वा महात्मानमुपगम्य कुमारकाः।
भग्नोत्साहक्रियात्मानो ब्राह्मणं पर्यवारयन् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन महात्मा ब्राह्मणको देखकर वे सभी कुमार उनके पास गये और उन्हें घेरकर खड़े हो गये। उनका उत्साह भंग हो गया था। कोई काम करनेकी इच्छा नहीं होती थी। मनमें भारी निराशा भर गयी थी॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ द्रोणः कुमारांस्तान् दृष्ट्वा कृत्यवतस्तदा।
प्रहस्य मन्दं पैशल्यादभ्यभाषत वीर्यवान् ॥ २२ ॥
मूलम्
अथ द्रोणः कुमारांस्तान् दृष्ट्वा कृत्यवतस्तदा।
प्रहस्य मन्दं पैशल्यादभ्यभाषत वीर्यवान् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर पराक्रमी द्रोण यह देखकर कि इन कुमारोंका अभीष्ट कार्य पूर्ण नहीं हुआ है—ये उसी प्रयोजनसे मेरे पास आये हैं, उस समय मन्द मुसकराहटके साथ बड़े कौशलसे बोले—॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहो वो धिग् बलं क्षात्रं धिगेतां वः कृतास्त्राताम्।
भरतस्यान्वये जाता ये वीटां नाधिगच्छत ॥ २३ ॥
मूलम्
अहो वो धिग् बलं क्षात्रं धिगेतां वः कृतास्त्राताम्।
भरतस्यान्वये जाता ये वीटां नाधिगच्छत ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अहो! तुमलोगोंके क्षत्रियबलको धिक्कार है और तुमलोगोंकी इस अस्त्र-विद्या-विषयक निपुणताको भी धिक्कार है; क्योंकि तुमलोग भरतवंशमें जन्म लेकर भी कुएँमें गिरी हुई गुल्लीको नहीं निकाल पाते॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वीटां च मुद्रिकां चैव ह्यहमेतदपि द्वयम्।
उद्धरेयमिषीकाभिर्भोजनं मे प्रदीयताम् ॥ २४ ॥
मूलम्
वीटां च मुद्रिकां चैव ह्यहमेतदपि द्वयम्।
उद्धरेयमिषीकाभिर्भोजनं मे प्रदीयताम् ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘देखो, मैं तुम्हारी गुल्ली और अपनी इस अँगूठी दोनोंको सींकोंसे निकाल सकता हूँ। तुमलोग मेरी जीविकाकी व्यवस्था करो’॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्त्वा कुमारांस्तान् द्रोणः स्वाङ्गुलिवेष्टनम्।
कूपे निरुदके तस्मिन्नपातयदरिंदमः ॥ २५ ॥
मूलम्
एवमुक्त्वा कुमारांस्तान् द्रोणः स्वाङ्गुलिवेष्टनम्।
कूपे निरुदके तस्मिन्नपातयदरिंदमः ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन कुमारोंसे यों कहकर शत्रुओंका दमन करनेवाले द्रोणने उस निर्जल कुएँमें अपनी अँगूठी डाल दी॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽब्रवीत् तदा द्रोणं कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः।
मूलम्
ततोऽब्रवीत् तदा द्रोणं कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः।
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय कुन्तीनन्दन युधिष्ठिरने द्रोणसे कहा ॥ २५ ॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृपस्यानुमते ब्रह्मन् भिक्षामाप्नुहि शाश्वतीम् ॥ २६ ॥
एवमुक्तः प्रत्युवाच प्रहस्य भरतानिदम्।
मूलम्
कृपस्यानुमते ब्रह्मन् भिक्षामाप्नुहि शाश्वतीम् ॥ २६ ॥
एवमुक्तः प्रत्युवाच प्रहस्य भरतानिदम्।
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर बोले— ब्रह्मन्! आप कृपाचार्यकी अनुमति ले सदा यहीं रहकर भिक्षा प्राप्त करें।
उनके यों कहनेपर द्रोणने हँसकर उन भरतवंशी राजकुमारोंसे कहा॥२६॥
मूलम् (वचनम्)
द्रोण उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एषा मुष्टिरिषीकाणां मयास्त्रेणाभिमन्त्रिता ॥ २७ ॥
मूलम्
एषा मुष्टिरिषीकाणां मयास्त्रेणाभिमन्त्रिता ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
द्रोण बोले— ये मुट्ठीभर सींकें हैं, जिन्हें मैंने अस्त्र-मन्त्रके द्वारा अभिमन्त्रित किया है॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्या वीर्यं निरीक्षध्वं यदन्यस्य न विद्यते।
भेत्स्यामीषीकया वीटां तामिषीकां तथान्यया ॥ २८ ॥
मूलम्
अस्या वीर्यं निरीक्षध्वं यदन्यस्य न विद्यते।
भेत्स्यामीषीकया वीटां तामिषीकां तथान्यया ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुमलोग इसका बल देखो, जो दूसरेमें नहीं है। मैं पहले एक सींकसे उस गुल्लीको बींध दूँगा; फिर दूसरी सींकसे उस पहली सींकको बींधूँगा॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तामन्यया समायोगे वीटाया ग्रहणं मम।
मूलम्
तामन्यया समायोगे वीटाया ग्रहणं मम।
अनुवाद (हिन्दी)
इसी प्रकार दूसरीको तीसरीसे बींधते हुए अनेक सींकोंका संयोग होनेपर मुझे गुल्ली मिल जायगी॥२८॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो यथोक्तं द्रोणेन तत् सर्वं कृतमञ्जसा ॥ २९ ॥
मूलम्
ततो यथोक्तं द्रोणेन तत् सर्वं कृतमञ्जसा ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! तदनन्तर द्रोणने जैसा कहा था, वह सब कुछ अनायास ही कर दिखाया॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदवेक्ष्य कुमारास्ते विस्मयोत्फुल्ललोचनाः ।
आश्चर्यमिदमत्यन्तमिति मत्वा वचोऽब्रुवन् ॥ ३० ॥
मूलम्
तदवेक्ष्य कुमारास्ते विस्मयोत्फुल्ललोचनाः ।
आश्चर्यमिदमत्यन्तमिति मत्वा वचोऽब्रुवन् ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह अद्भुत कार्य देखकर उन कुमारोंके नेत्र आश्चर्यसे खिल उठे। इसे अत्यन्त आश्चर्य मानकर वे इस प्रकार बोले॥३०॥
मूलम् (वचनम्)
कुमारा ऊचुः
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुद्रिकामपि विप्रर्षे शीघ्रमेतां समुद्धर।
मूलम्
मुद्रिकामपि विप्रर्षे शीघ्रमेतां समुद्धर।
अनुवाद (हिन्दी)
कुमारोंने कहा— ब्रह्मर्षे! अब आप शीघ्र ही इस अँगूठीको भी निकाल दीजिये॥३०॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः शरं समादाय धनुर्द्रोणो महायशाः ॥ ३१ ॥
शरेण विद्ध्वा मुद्रां तामूर्ध्वमावाहयत् प्रभुः।
सशरं समुपादाय कूपादङ्गुलिवेष्टनम् ॥ ३२ ॥
ददौ ततः कुमाराणां विस्मितानामविस्मितः।
मुद्रिकामुद्धृतां दृष्ट्वा तमाहुस्ते कुमारकाः ॥ ३३ ॥
मूलम्
ततः शरं समादाय धनुर्द्रोणो महायशाः ॥ ३१ ॥
शरेण विद्ध्वा मुद्रां तामूर्ध्वमावाहयत् प्रभुः।
सशरं समुपादाय कूपादङ्गुलिवेष्टनम् ॥ ३२ ॥
ददौ ततः कुमाराणां विस्मितानामविस्मितः।
मुद्रिकामुद्धृतां दृष्ट्वा तमाहुस्ते कुमारकाः ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— तब महायशस्वी द्रोणने धनुष-बाण लेकर बाणसे उस अँगूठीको बींध दिया और उसे ऊपर निकाल लिया। शक्तिशाली द्रोणने इस प्रकार कुएँसे बाणसहित अँगूठी निकालकर उन आश्चर्यचकित कुमारोंके हाथमें दे दी; किंतु वे स्वयं तनिक भी विस्मित नहीं हुए। उस अँगूठीको कुएँसे निकाली हुई देखकर उन कुमारोंने द्रोणसे कहा॥३१—३३॥
मूलम् (वचनम्)
कुमारा ऊचुः
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभिवादयामहे ब्रह्मन् नैतदन्येषु विद्यते।
कोऽसि कस्यासि जानीमो वयं किं करवामहे ॥ ३४ ॥
मूलम्
अभिवादयामहे ब्रह्मन् नैतदन्येषु विद्यते।
कोऽसि कस्यासि जानीमो वयं किं करवामहे ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुमार बोले— ब्रह्मन्! हम आपको प्रणाम करते हैं। यह अद्भुत अस्त्र-कौशल दूसरे किसीमें नहीं है। आप कौन हैं, किसके पुत्र हैं—यह हम जानना चाहते हैं। बताइये, हमलोग आपकी क्या सेवा करें?॥३४॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्तस्ततो द्रोणः प्रत्युवाच कुमारकान्।
मूलम्
एवमुक्तस्ततो द्रोणः प्रत्युवाच कुमारकान्।
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! कुमारोंके इस प्रकार पूछनेपर द्रोणने उनसे कहा॥३४॥
मूलम् (वचनम्)
द्रोण उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
आचक्षध्वं च भीष्माय रूपेण च गुणैश्च माम् ॥ ३५ ॥
स एव सुमहातेजाः साम्प्रतं प्रतिपत्स्यते।
मूलम्
आचक्षध्वं च भीष्माय रूपेण च गुणैश्च माम् ॥ ३५ ॥
स एव सुमहातेजाः साम्प्रतं प्रतिपत्स्यते।
अनुवाद (हिन्दी)
द्रोण बोले— तुम सब लोग भीष्मजीके पास जाकर मेरे रूप और गुणोंका परिचय दो। वे महातेजस्वी भीष्मजी ही मुझे इस समय पहचान सकते हैं॥३५॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथेत्युक्त्वा च गत्वा च भीष्ममूचुः कुमारकाः ॥ ३६ ॥
ब्राह्मणस्य वचस्तथ्यं तच्च कर्म तथाविधम्।
भीष्मः श्रुत्वा कुमाराणां द्रोणं तं प्रत्यजानत ॥ ३७ ॥
मूलम्
तथेत्युक्त्वा च गत्वा च भीष्ममूचुः कुमारकाः ॥ ३६ ॥
ब्राह्मणस्य वचस्तथ्यं तच्च कर्म तथाविधम्।
भीष्मः श्रुत्वा कुमाराणां द्रोणं तं प्रत्यजानत ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— ‘बहुत अच्छा’ कहकर वे कुमार भीष्मजीके पास गये और ब्राह्मणकी सच्ची बातों तथा उनके उस अद्भुत पराक्रमको भी उन्होंने भीष्मजीसे कह सुनाया। कुमारोंकी बातें सुनकर भीष्मजी समझ गये कि वे आचार्य द्रोण हैं॥३६-३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
युक्तरूपः स हि गुरुरित्येवमनुचिन्त्य च।
अथैनमानीय तदा स्वयमेव सुसत्कृतम् ॥ ३८ ॥
परिपप्रच्छ निपुणं भीष्मः शस्त्रभृतां वरः।
हेतुमागमने तच्च द्रोणः सर्वं न्यवेदयत् ॥ ३९ ॥
मूलम्
युक्तरूपः स हि गुरुरित्येवमनुचिन्त्य च।
अथैनमानीय तदा स्वयमेव सुसत्कृतम् ॥ ३८ ॥
परिपप्रच्छ निपुणं भीष्मः शस्त्रभृतां वरः।
हेतुमागमने तच्च द्रोणः सर्वं न्यवेदयत् ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर यह सोचकर कि द्रोणाचार्य ही इन कुमारोंके उपयुक्त गुरु हो सकते हैं, भीष्मजी स्वयं ही आकर उन्हें सत्कारपूर्वक घर ले गये। वहाँ शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ भीष्मने बड़ी बुद्धिमत्ताके साथ द्रोणाचार्यसे उनके आगमनका कारण पूछा और द्रोणने वह सब कारण इस प्रकार निवेदन किया॥३८-३९॥
मूलम् (वचनम्)
द्रोण उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
महर्षेरग्निवेशस्य सकाशमहमच्युत ।
अस्त्रार्थमगमं पूर्वं धनुर्वेदजिघृक्षया ॥ ४० ॥
मूलम्
महर्षेरग्निवेशस्य सकाशमहमच्युत ।
अस्त्रार्थमगमं पूर्वं धनुर्वेदजिघृक्षया ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
द्रोणाचार्यने कहा— अपनी प्रतिज्ञासे कभी च्युत न होनेवाले भीष्मजी! पहलेकी बात है, मैं अस्त्र-शस्त्रोंकी शिक्षा तथा धनुर्वेदका ज्ञान प्राप्त करनेके लिये महर्षि अग्निवेशके समीप गया था॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्मचारी विनीतात्मा जटिलो बहुलाः समाः।
अवसं सुचिरं तत्र गुरुशुश्रूषणे रतः ॥ ४१ ॥
मूलम्
ब्रह्मचारी विनीतात्मा जटिलो बहुलाः समाः।
अवसं सुचिरं तत्र गुरुशुश्रूषणे रतः ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ मैं विनीत हृदयसे ब्रह्मचर्यका पालन करते हुए सिरपर जटा धारण किये बहुत वर्षोंतक रहा। गुरुकी सेवामें निरन्तर संलग्न रहकर मैंने दीर्घकालतक उनके आश्रममें निवास किया॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पाञ्चालो राजपुत्रश्च यज्ञसेनो महाबलः।
इष्वस्त्रहेतोर्न्यवसत् तस्मिन्नेव गुरौ प्रभुः ॥ ४२ ॥
मूलम्
पाञ्चालो राजपुत्रश्च यज्ञसेनो महाबलः।
इष्वस्त्रहेतोर्न्यवसत् तस्मिन्नेव गुरौ प्रभुः ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन दिनों पंचालराजकुमार महाबली यज्ञसेन द्रुपद भी, जो बड़े शक्तिशाली थे, धनुर्वेदकी शिक्षा पानेके लिये उन्हीं गुरुदेव अग्निवेशके समीप रहते थे॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स मे तत्र सखा चासीदुपकारी प्रियश्च मे।
तेनाहं सह संगम्य वर्तयन् सुचिरं प्रभो ॥ ४३ ॥
मूलम्
स मे तत्र सखा चासीदुपकारी प्रियश्च मे।
तेनाहं सह संगम्य वर्तयन् सुचिरं प्रभो ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे उस गुरुकुलमें मेरे बड़े ही उपकारी और प्रिय मित्र थे। प्रभो! उनके साथ मिल-जुलकर मैं बहुत दिनोंतक आश्रममें रहा॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बाल्यात् प्रभृति कौरव्य सहाध्ययनमेव च।
स मे सखा सदा तत्र प्रियवादी प्रियंकरः ॥ ४४ ॥
मूलम्
बाल्यात् प्रभृति कौरव्य सहाध्ययनमेव च।
स मे सखा सदा तत्र प्रियवादी प्रियंकरः ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बचपनसे ही हम दोनोंका अध्ययन साथ-साथ चलता था। द्रुपद वहाँ मेरे घनिष्ठ मित्र थे। वे सदा मुझसे प्रिय वचन बोलते और मेरा प्रिय कार्य करते थे॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अब्रवीदिति मां भीष्म वचनं प्रीतिवर्धनम्।
अहं प्रियतमः पुत्रः पितुर्द्रोण महात्मनः ॥ ४५ ॥
मूलम्
अब्रवीदिति मां भीष्म वचनं प्रीतिवर्धनम्।
अहं प्रियतमः पुत्रः पितुर्द्रोण महात्मनः ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी! वे एक दिन मुझसे मेरी प्रसन्नताको बढ़ानेवाली यह बात बोले—‘द्रोण! मैं अपने महात्मा पिताका अत्यन्त प्रिय पुत्र हूँ॥४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभिषेक्ष्यति मां राज्ये स पाञ्चालो यदा तदा।
त्वद्भोग्यं भविता तात सखे सत्येन ते शपे ॥ ४६ ॥
मम भोगाश्च वित्तं च त्वदधीनं सुखानि च।
एवमुक्त्वाथ वव्राज कृतास्त्रः पूजितो मया ॥ ४७ ॥
मूलम्
अभिषेक्ष्यति मां राज्ये स पाञ्चालो यदा तदा।
त्वद्भोग्यं भविता तात सखे सत्येन ते शपे ॥ ४६ ॥
मम भोगाश्च वित्तं च त्वदधीनं सुखानि च।
एवमुक्त्वाथ वव्राज कृतास्त्रः पूजितो मया ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तात! जब पांचालनरेश मुझे राज्यपर अभिषिक्त करेंगे, उस समय मेरा राज्य तुम्हारे उपभोगमें आयेगा। सखे! मैं सत्यकी सौगंध खाकर कहता हूँ—मेरे भोग, वैभव और सुख सब तुम्हारे अधीन होंगे।’ यों कहकर वे अस्त्रविद्यामें निपुण हो मुझसे सम्मानित होकर अपने देशको लौट गये॥४६-४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तच्च वाक्यमहं नित्यं मनसा धारयंस्तदा।
सोऽहं पितृनियोगेन पुत्रलोभाद् यशस्विनीम् ॥ ४८ ॥
नातिकेशीं महाप्रज्ञामुपयेमे महाव्रताम् ।
अग्निहोत्रे च सत्रे च दमे च सततं रताम्॥४९॥
मूलम्
तच्च वाक्यमहं नित्यं मनसा धारयंस्तदा।
सोऽहं पितृनियोगेन पुत्रलोभाद् यशस्विनीम् ॥ ४८ ॥
नातिकेशीं महाप्रज्ञामुपयेमे महाव्रताम् ।
अग्निहोत्रे च सत्रे च दमे च सततं रताम्॥४९॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनकी उस समय कही हुई इस बातको मैं अपने मनमें सदा याद रखता था। कुछ दिनोंके बाद पितरोंकी प्रेरणासे मैंने पुत्र-प्राप्तिके लोभसे परम बुद्धिमती, महान् व्रतका पालन करनेवाली, अग्निहोत्र, सत्र तथा शम-दमके पालनमें मेरे साथ सदा संलग्न रहनेवाली शरद्वान्की पुत्री यशस्विनी कृपीसे, जिसके केश बहुत बड़े नहीं थे, विवाह किया॥४८-४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अलभद् गौतमी पुत्रमश्वत्थामानमौरसम् ।
भीमविक्रमकर्माणमादित्यसमतेजसम् ॥ ५० ॥
मूलम्
अलभद् गौतमी पुत्रमश्वत्थामानमौरसम् ।
भीमविक्रमकर्माणमादित्यसमतेजसम् ॥ ५० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस गौतमी कृपीने मुझसे मेरे औरस पुत्र अश्वत्थामाको प्राप्त किया, जो सूर्यके समान तेजस्वी तथा भयंकर पराक्रम एवं पुरुषार्थ करनेवाला है॥५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुत्रेण तेन प्रीतोऽहं भरद्वाजो मया यथा।
गोक्षीरं पिबतो दृष्ट्वा धनिनस्तत्र पुत्रकान्।
अश्वत्थामारुदद् बालस्तन्मे संदेहयद् दिशः ॥ ५१ ॥
मूलम्
पुत्रेण तेन प्रीतोऽहं भरद्वाजो मया यथा।
गोक्षीरं पिबतो दृष्ट्वा धनिनस्तत्र पुत्रकान्।
अश्वत्थामारुदद् बालस्तन्मे संदेहयद् दिशः ॥ ५१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस पुत्रसे मुझे उतनी ही प्रसन्नता हुई, जितनी मुझसे मेरे पिता भरद्वाजको हुई थी। एक दिनकी बात है, गोधनके धनी ऋषिकुमार गायका दूध पी रहे थे। उन्हें देखकर मेरा छोटा बच्चा अश्वत्थामा भी बाल-स्वभावके कारण दूध पीनेके लिये मचल उठा और रोने लगा। इससे मेरी आँखोंके सामने अँधेरा छा गया—मुझे दिशाओंके पहचाननेमें भी संशय होने लगा॥५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न स्नातकोऽवसीदेत वर्तमानः स्वकर्मसु।
इति संचिन्त्य मनसा तं देशं बहुशो भ्रमन् ॥ ५२ ॥
विशुद्धमिच्छन् गाङ्गेय धर्मोपेतं प्रतिग्रहम्।
अन्तादन्तं परिक्रम्य नाध्यगच्छं पयस्विनीम् ॥ ५३ ॥
मूलम्
न स्नातकोऽवसीदेत वर्तमानः स्वकर्मसु।
इति संचिन्त्य मनसा तं देशं बहुशो भ्रमन् ॥ ५२ ॥
विशुद्धमिच्छन् गाङ्गेय धर्मोपेतं प्रतिग्रहम्।
अन्तादन्तं परिक्रम्य नाध्यगच्छं पयस्विनीम् ॥ ५३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैंने मन-ही-मन सोचा, यदि मैं किसी कम गायवाले ब्राह्मणसे गाय माँगता हूँ तो कहीं ऐसा न हो कि वह अपने अग्निहोत्र आदि कर्मोंमें लगा हुआ स्नातक गोदुग्धके बिना कष्टमें पड़ जाय; अतः जिसके पास बहुत-सी गौएँ हों, उसीसे धर्मानुकूल विशुद्ध दान लेनेकी इच्छा रखकर मैंने उस देशमें कई बार भ्रमण किया। गंगानन्दन! एक देशसे दूसरे देशमें घूमनेपर भी मुझे दूध देनेवाली कोई गाय न मिल सकी॥५२-५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ पिष्टोदकेनैनं लोभयन्ति कुमारकाः।
पीत्वा पिष्टरसं बालः क्षीरं पीतं मयापि च ॥ ५४ ॥
ननर्तोत्थाय कौरव्य हृष्टो बाल्याद् विमोहितः।
तं दृष्ट्वा नृत्यमानं तु बालैः परिवृतं सुतम् ॥ ५५ ॥
हास्यतामुपसम्प्राप्तं कश्मलं तत्र मेऽभवत्।
द्रोणं धिगस्त्वधनिनं यो धनं नाधिगच्छति ॥ ५६ ॥
मूलम्
अथ पिष्टोदकेनैनं लोभयन्ति कुमारकाः।
पीत्वा पिष्टरसं बालः क्षीरं पीतं मयापि च ॥ ५४ ॥
ननर्तोत्थाय कौरव्य हृष्टो बाल्याद् विमोहितः।
तं दृष्ट्वा नृत्यमानं तु बालैः परिवृतं सुतम् ॥ ५५ ॥
हास्यतामुपसम्प्राप्तं कश्मलं तत्र मेऽभवत्।
द्रोणं धिगस्त्वधनिनं यो धनं नाधिगच्छति ॥ ५६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं लौटकर आया तो देखता हूँ कि छोटे-छोटे बालक आटेके पानीसे अश्वत्थामाको ललचा रहे हैं और वह अज्ञानमोहित बालक उस आटेके जलको ही पीकर मारे हर्षके फूला नहीं समाता तथा यह कहता हुआ उठकर नाच रहा है कि ‘मैंने दूध पी लिया’। कुरुनन्दन! बालकोंसे घिरे हुए अपने पुत्रको इस प्रकार नाचते और उसकी हँसी उड़ायी जाती देख मेरे मनमें बड़ा क्षोभ हुआ। उस समय कुछ लोग इस प्रकार कह रहे थे, ‘इस धनहीन द्रोणको धिक्कार है, जो धनका उपार्जन नहीं करता॥५४—५६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पिष्टोदकं सुतो यस्य पीत्वा क्षीरस्य तृष्णया।
नृत्यति स्म मुदाविष्टः क्षीरं पीतं मयाप्युत ॥ ५७ ॥
इति सम्भाषतां वाचं श्रुत्वा मे बुद्धिरच्यवत्।
आत्मानं चात्मना गर्हन् मनसेदं व्यचिन्तयम् ॥ ५८ ॥
अपि चाहं पुरा विप्रैर्वर्जितो गर्हितो वसे।
परोपसेवां पापिष्ठां न च कुर्यां धनेप्सया ॥ ५९ ॥
मूलम्
पिष्टोदकं सुतो यस्य पीत्वा क्षीरस्य तृष्णया।
नृत्यति स्म मुदाविष्टः क्षीरं पीतं मयाप्युत ॥ ५७ ॥
इति सम्भाषतां वाचं श्रुत्वा मे बुद्धिरच्यवत्।
आत्मानं चात्मना गर्हन् मनसेदं व्यचिन्तयम् ॥ ५८ ॥
अपि चाहं पुरा विप्रैर्वर्जितो गर्हितो वसे।
परोपसेवां पापिष्ठां न च कुर्यां धनेप्सया ॥ ५९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जिसका बेटा दूधकी लालसासे आटा मिला हुआ जल पीकर आनन्दमग्न हो यह कहता हुआ नाच रहा है कि ‘मैंने भी दूध पी लिया।’ इस प्रकारकी बातें करनेवाले लोगोंकी आवाज मेरे कानोंमें पड़ी तो मेरी बुद्धि स्थिर न रह सकी। मैं स्वयं ही अपने-आपकी निन्दा करता हुआ मन-ही-मन इस प्रकार सोचने लगा—‘मुझे दरिद्र जानकर पहलेसे ही ब्राह्मणोंने मेरा साथ छोड़ दिया। मैं धनाभावके कारण निन्दित होकर उपवास भले ही कर लूँगा, परंतु धनके लोभसे दूसरोंकी सेवा, जो अत्यन्त पापपूर्ण कर्म है, कदापि नहीं कर सकता’॥५७—५९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति मत्वा प्रियं पुत्रं भीष्मादाय ततो ह्यहम्।
पूर्वस्नेहानुरागित्वात् सदारः सौमकिं गतः ॥ ६० ॥
मूलम्
इति मत्वा प्रियं पुत्रं भीष्मादाय ततो ह्यहम्।
पूर्वस्नेहानुरागित्वात् सदारः सौमकिं गतः ॥ ६० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी! ऐसा निश्चय करके मैं अपने प्रिय पुत्र और पत्नीको साथ लेकर पहलेके स्नेह और अनुरागके कारण राजा द्रुपदके यहाँ गया॥६०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभिषिक्तं तु श्रुत्वैव कृतार्थोऽस्मीति चिन्तयन्।
प्रियं सखायं सुप्रीतो राज्यस्थं समुपागमम् ॥ ६१ ॥
मूलम्
अभिषिक्तं तु श्रुत्वैव कृतार्थोऽस्मीति चिन्तयन्।
प्रियं सखायं सुप्रीतो राज्यस्थं समुपागमम् ॥ ६१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैंने सुन रखा था कि द्रुपदका राज्याभिषेक हो चुका है, अतः मैं मन-ही-मन अपनेको कृतार्थ मानने लगा और बड़ी प्रसन्नताके साथ राज्यसिंहासनपर बैठे हुए अपने प्रिय सखाके समीप गया॥६१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संस्मरन् संगमं चैव वचनं चैव तस्य तत्।
ततो द्रुपदमागम्य सखिपूर्वमहं प्रभो ॥ ६२ ॥
अब्रुवं पुरुषव्याघ्र सखायं विद्धि मामिति।
उपस्थितस्तु द्रुपदं सखिवच्चास्मि संगतः ॥ ६३ ॥
मूलम्
संस्मरन् संगमं चैव वचनं चैव तस्य तत्।
ततो द्रुपदमागम्य सखिपूर्वमहं प्रभो ॥ ६२ ॥
अब्रुवं पुरुषव्याघ्र सखायं विद्धि मामिति।
उपस्थितस्तु द्रुपदं सखिवच्चास्मि संगतः ॥ ६३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय मुझे द्रुपदकी मैत्री और उनकी कही हुई पूर्वोक्त बातोंका बारंबार स्मरण हो आता था। तदनन्तर अपने पहलेके सखा द्रुपदके पास पहुँचकर मैंने कहा—‘नरश्रेष्ठ! मुझ अपने मित्रको पहचानो तो सही।’ प्रभो! मैं द्रुपदके पास पहुँचनेपर उनसे मित्रकी ही भाँति मिला॥६२-६३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स मां निराकारमिव प्रहसन्निदमब्रवीत्।
अकृतेयं तव प्रज्ञा ब्रह्मन् नातिसमञ्जसा ॥ ६४ ॥
मूलम्
स मां निराकारमिव प्रहसन्निदमब्रवीत्।
अकृतेयं तव प्रज्ञा ब्रह्मन् नातिसमञ्जसा ॥ ६४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परंतु द्रुपदने मुझे नीच मनुष्यके समान समझकर उपहास करते हुए इस प्रकार कहा—‘ब्राह्मण! तुम्हारी बुद्धि अत्यन्त असंगत एवं अशुद्ध है॥६४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदात्थ मां त्वं प्रसभं सखा तेऽहमिति द्विज।
संगतानीह जीर्यन्ति कालेन परिजीर्यतः ॥ ६५ ॥
मूलम्
यदात्थ मां त्वं प्रसभं सखा तेऽहमिति द्विज।
संगतानीह जीर्यन्ति कालेन परिजीर्यतः ॥ ६५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तभी तो तुम मुझसे यह कहनेकी धृष्टता कर रहे हो कि ‘राजन्! मैं तुम्हारा सखा हूँ!’ समयके अनुसार मनुष्य ज्यों-ज्यों बूढ़ा होता है, त्यों-त्यों उसकी मैत्री भी क्षीण होती चली जाती है॥६५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सौहृदं मे त्वया ह्यासीत् पूर्वं सामर्थ्यबन्धनम्।
नाश्रोत्रियः श्रोत्रियस्य नारथी रथिनः सखा ॥ ६६ ॥
मूलम्
सौहृदं मे त्वया ह्यासीत् पूर्वं सामर्थ्यबन्धनम्।
नाश्रोत्रियः श्रोत्रियस्य नारथी रथिनः सखा ॥ ६६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पहले तुम्हारे साथ मेरी जो मित्रता थी, वह सामर्थ्यको लेकर थी—उस समय हम दोनोंकी शक्ति समान थी (किंतु अब वैसी बात नहीं है)। जो श्रोत्रिय नहीं है, वह श्रोत्रिय (वेदवेत्ता)-का, जो रथी नहीं है, वह रथीका सखा नहीं हो सकता॥६६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
साम्याद्धि सख्यं भवति वैषम्यान्नोपपद्यते।
न सख्यमजरं लोके विद्यते जातु कस्यचित् ॥ ६७ ॥
मूलम्
साम्याद्धि सख्यं भवति वैषम्यान्नोपपद्यते।
न सख्यमजरं लोके विद्यते जातु कस्यचित् ॥ ६७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सब बातोंमें समानता होनेसे ही मित्रता होती है। विषमता होनेपर मैत्रीका होना असम्भव है। फिर लोकमें कभी किसीकी मैत्री अजर-अमर नहीं होती॥६७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कालो वैनं विहरति क्रोधो वैनं हरत्युत।
मैवं जीर्णमुपास्स्व त्वं सत्यं भवत्वपाकृधि ॥ ६८ ॥
मूलम्
कालो वैनं विहरति क्रोधो वैनं हरत्युत।
मैवं जीर्णमुपास्स्व त्वं सत्यं भवत्वपाकृधि ॥ ६८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘समय एक मित्रको दूसरेसे विलग कर देता है अथवा क्रोध मनुष्यको मित्रतासे हटा देता है। इस प्रकार क्षीण होनेवाली मैत्रीकी उपासना (भरोसा) न करो। हम दोनों एक-दूसरेके मित्र थे, इस भावको हृदयसे निकाल दो’॥६८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसीत् सख्यं द्विजश्रेष्ठ त्वया मेऽर्थनिबन्धनम्।
न ह्यनाढ्यः सखाढ्यस्य नाविद्वान् विदुषः सखा ॥ ६९ ॥
न शूरस्य सखा क्लीबः सखिपूर्वं किमिष्यते।
न हि राज्ञामुदीर्णानामेवम्भूतैर्नरैः क्वचित् ॥ ७० ॥
सख्यं भवति मन्दात्मन् श्रियाहीनैर्धनच्युतैः।
नाश्रोत्रियः श्रोत्रियस्य नारथी रथिनः सखा ॥ ७१ ॥
नाराजा पार्थिवस्यापि सखिपूर्वं किमिष्यते।
अहं त्वया न जानामि राज्यार्थे संविदं कृताम् ॥ ७२ ॥
मूलम्
आसीत् सख्यं द्विजश्रेष्ठ त्वया मेऽर्थनिबन्धनम्।
न ह्यनाढ्यः सखाढ्यस्य नाविद्वान् विदुषः सखा ॥ ६९ ॥
न शूरस्य सखा क्लीबः सखिपूर्वं किमिष्यते।
न हि राज्ञामुदीर्णानामेवम्भूतैर्नरैः क्वचित् ॥ ७० ॥
सख्यं भवति मन्दात्मन् श्रियाहीनैर्धनच्युतैः।
नाश्रोत्रियः श्रोत्रियस्य नारथी रथिनः सखा ॥ ७१ ॥
नाराजा पार्थिवस्यापि सखिपूर्वं किमिष्यते।
अहं त्वया न जानामि राज्यार्थे संविदं कृताम् ॥ ७२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘द्विजश्रेष्ठ! तुम्हारे साथ पहले जो मेरी मित्रता थी, वह (साथ-साथ खेलने और अध्ययन करने आदि) स्वार्थको लेकर हुई थी। सच्ची बात यह है कि दरिद्र मनुष्य धनवान्का, मूर्ख विद्वान्का और कायर शूरवीरका सखा नहीं हो सकता; अतः पहलेकी मित्रताका क्या भरोसा करते हो? मन्दमते! बड़े-बड़े राजाओंकी तुम्हारे-जैसे श्रीहीन और निर्धन मनुष्योंके साथ कभी मित्रता हो सकती है? जो श्रोत्रिय नहीं है, वह श्रोत्रियका; जो रथी नहीं है, वह रथीका तथा जो राजा नहीं है, वह राजाका मित्र नहीं हो सकता। फिर तुम मुझे जीर्ण-शीर्ण मित्रताका स्मरण क्यों दिलाते हो? मैंने अपने राज्यके लिये तुमसे कोई प्रतिज्ञा की थी, इसका मुझे कुछ भी स्मरण नहीं है॥६९—७२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकरात्रं तु ते ब्रह्मन् कामं दास्यामि भोजनम्।
एवमुक्तस्त्वहं तेन सदारः प्रस्थितस्तदा ॥ ७३ ॥
मूलम्
एकरात्रं तु ते ब्रह्मन् कामं दास्यामि भोजनम्।
एवमुक्तस्त्वहं तेन सदारः प्रस्थितस्तदा ॥ ७३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘ब्रह्मन्! तुम्हारी इच्छा हो तो मैं तुम्हें एक रातके लिये अच्छी तरह भोजन दे सकता हूँ।’ राजा द्रुपदके यों कहनेपर मैं पत्नी और पुत्रके साथ वहाँसे चल दिया॥७३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तां प्रतिज्ञां प्रतिज्ञाय यां कर्तास्म्यचिरादिव।
द्रुपदेनैवमुक्तोऽहं मन्युनाभिपरिप्लुतः ॥ ७४ ॥
मूलम्
तां प्रतिज्ञां प्रतिज्ञाय यां कर्तास्म्यचिरादिव।
द्रुपदेनैवमुक्तोऽहं मन्युनाभिपरिप्लुतः ॥ ७४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
चलते समय मैंने एक प्रतिज्ञा की थी, जिसे शीघ्र पूर्ण करूँगा। द्रुपदके द्वारा जो इस प्रकार तिरस्कारपूर्ण वचन मेरे प्रति कहा गया है, उसके कारण मैं क्षोभसे अत्यन्त व्याकुल हो रहा हूँ॥७४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभ्यागच्छं कुरून् भीष्म शिष्यैरर्थी गुणान्वितैः।
ततोऽहं भवतः कामं संवर्धयितुमागतः ॥ ७५ ॥
इदं नागपुरं रम्यं ब्रूहि किं करवाणि ते।
मूलम्
अभ्यागच्छं कुरून् भीष्म शिष्यैरर्थी गुणान्वितैः।
ततोऽहं भवतः कामं संवर्धयितुमागतः ॥ ७५ ॥
इदं नागपुरं रम्यं ब्रूहि किं करवाणि ते।
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी! मैं गुणवान् शिष्योंके द्वारा अपने अभीष्टकी सिद्धि चाहता हुआ आपके मनोरथको पूर्ण करनेके लिये पंचालदेशसे कुरुराज्यके भीतर इस रमणीय हस्तिनापुर नगरमें आया हूँ। बताइये, मैं आपका कौन-सा प्रिय कार्य करूँ?॥७५॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्तस्तदा भीष्मो भारद्वाजमभाषत ॥ ७६ ॥
मूलम्
एवमुक्तस्तदा भीष्मो भारद्वाजमभाषत ॥ ७६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— द्रोणाचार्यके यों कहनेपर भीष्मने उनसे कहा॥७६॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपज्यं क्रियतां चापं साध्वस्त्रं प्रतिपादय।
भुङ्क्ष्व भोगान् भृशं प्रीतः पूज्यमानः कुरुक्षये ॥ ७७ ॥
मूलम्
अपज्यं क्रियतां चापं साध्वस्त्रं प्रतिपादय।
भुङ्क्ष्व भोगान् भृशं प्रीतः पूज्यमानः कुरुक्षये ॥ ७७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी बोले— विप्रवर! अब आप अपने धनुषकी डोरी उतार दीजिये और यहाँ रहकर राजकुमारोंको धनुर्वेद एवं अस्त्र-शस्त्रोंकी अच्छी शिक्षा दीजिये। कौरवोंके घरमें सदा सम्मानित रहकर अत्यन्त प्रसन्नताके साथ मनोवांछित भोगोंका उपभोग कीजिये॥७७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुरूणामस्ति यद् वित्तं राज्यं चेदं सराष्ट्रकम्।
त्वमेव परमो राजा सर्वे च कुरवस्तव ॥ ७८ ॥
मूलम्
कुरूणामस्ति यद् वित्तं राज्यं चेदं सराष्ट्रकम्।
त्वमेव परमो राजा सर्वे च कुरवस्तव ॥ ७८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कौरवोंके पास जो धन, राज्य-वैभव तथा राष्ट्र है, उसके आप ही सबसे बड़े राजा हैं। समस्त कौरव आपके अधीन हैं॥७८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यच्च ते प्रार्थितं ब्रह्मन् कृतं तदिति चिन्त्यताम्।
दिष्ट्या प्राप्तोऽसि विप्रर्षे महान् मेऽनुग्रहः कृतः ॥ ७९ ॥
मूलम्
यच्च ते प्रार्थितं ब्रह्मन् कृतं तदिति चिन्त्यताम्।
दिष्ट्या प्राप्तोऽसि विप्रर्षे महान् मेऽनुग्रहः कृतः ॥ ७९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्मन्! आपने जो माँग की है, उसे पूर्ण हुई समझिये। ब्रह्मर्षे! आप आये, यह हमारे लिये बड़े सौभाग्यकी बात है। आपने यहाँ पधारकर मुझपर महान् अनुग्रह किया है॥७९॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि भीष्मद्रोणसमागमे त्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १३० ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत सम्भवपर्वमें भीष्म-द्रोण-समागमविषयक एक सौ तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१३०॥