१२४ पाण्डु-मरणम्

श्रावणम् (द्युगङ्गा)
भागसूचना

चतुर्विंशत्यधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

राजा पाण्डुकी मृत्यु और माद्रीका उनके साथ चितारोहण

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

दर्शनीयांस्ततः पुत्रान् पाण्डुः पञ्च महावने।
तान् पश्यन् पर्वते रम्ये स्वबाहुबलमाश्रितः ॥ १ ॥

मूलम्

दर्शनीयांस्ततः पुत्रान् पाण्डुः पञ्च महावने।
तान् पश्यन् पर्वते रम्ये स्वबाहुबलमाश्रितः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! उस महान् वनमें रमणीय पर्वत-शिखरपर महाराज पाण्डु उन पाँचों दर्शनीय पुत्रोंको देखते हुए अपने बाहुबलके सहारे प्रसन्नतापूर्वक निवास करने लगे॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(पूर्णे चतुर्दशे वर्षे फाल्गुनस्य च धीमतः।
तदा उत्तरफल्गुन्यां प्रवृत्ते स्वस्तिवाचने॥
रक्षणे विस्मृता कुन्ती व्यग्रा ब्राह्मणभोजने।
पुरोहितेन सहिता ब्राह्मणान् पर्यवेषयत्॥
तस्मिन् काले समाहूय माद्रीं मदनमोहितः।)
सुपुष्पितवने काले कदाचिन्मधुमाधवे ।
भूतसम्मोहने राजा सभार्यो व्यचरद् वनम् ॥ २ ॥

मूलम्

(पूर्णे चतुर्दशे वर्षे फाल्गुनस्य च धीमतः।
तदा उत्तरफल्गुन्यां प्रवृत्ते स्वस्तिवाचने॥
रक्षणे विस्मृता कुन्ती व्यग्रा ब्राह्मणभोजने।
पुरोहितेन सहिता ब्राह्मणान् पर्यवेषयत्॥
तस्मिन् काले समाहूय माद्रीं मदनमोहितः।)
सुपुष्पितवने काले कदाचिन्मधुमाधवे ।
भूतसम्मोहने राजा सभार्यो व्यचरद् वनम् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक दिनकी बात है, बुद्धिमान् अर्जुनका चौदहवाँ वर्ष पूरा हुआ था। उनकी जन्म-तिथिको उत्तराफाल्गुनी नक्षत्रमें ब्राह्मणलोगोंने स्वस्तिवाचन प्रारम्भ किया। उस समय कुन्तीदेवीको महाराज पाण्डुकी देखभालका ध्यान न रहा। वे ब्राह्मणोंको भोजन करानेमें लग गयीं। पुरोहितके साथ स्वयं ही उनको रसोई परोसने लगीं। इसी समय काममोहित पाण्डु माद्रीको बुलाकर अपने साथ ले गये। उस समय चैत्र और वैशाखके महीनोंकी संधिका समय था, समूचा वन भाँति-भाँतिके सुन्दर पुष्पोंसे अलंकृत हो अपनी अनुपम शोभासे समस्त प्राणियोंको मोहित कर रहा था, राजा पाण्डु अपनी छोटी रानीके साथ वनमें विचरने लगे॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पलाशैस्तिलकैश्चूतैश्चम्पकैः पारिभद्रकैः ।
अन्यैश्च बहुभिर्वृक्षैः फलपुष्पसमृद्धिभिः ॥ ३ ॥
जलस्थानैश्च विविधैः पद्मिनीभिश्च शोभितम्।
पाण्डोर्वनं तत् सम्प्रेक्ष्य प्रजज्ञे हृदि मन्मथः ॥ ४ ॥

मूलम्

पलाशैस्तिलकैश्चूतैश्चम्पकैः पारिभद्रकैः ।
अन्यैश्च बहुभिर्वृक्षैः फलपुष्पसमृद्धिभिः ॥ ३ ॥
जलस्थानैश्च विविधैः पद्मिनीभिश्च शोभितम्।
पाण्डोर्वनं तत् सम्प्रेक्ष्य प्रजज्ञे हृदि मन्मथः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पलाश, तिलक, आम, चम्पा, पारिभद्रक तथा और भी बहुत-से वृक्ष फल-फूलोंकी समृद्धिसे भरे हुए थे, जो उस वनकी शोभा बढ़ा रहे थे। नाना प्रकारके जलाशयों तथा कमलोंसे सुशोभित उस वनकी मनोहर छटा देखकर राजा पाण्डुके मनमें कामका संचार हो गया॥३-४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रहृष्टमनसं तत्र विचरन्तं यथामरम्।
तं माद्र्यनुजगामैका वसनं बिभ्रती शुभम् ॥ ५ ॥

मूलम्

प्रहृष्टमनसं तत्र विचरन्तं यथामरम्।
तं माद्र्यनुजगामैका वसनं बिभ्रती शुभम् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे मनमें हर्षोल्लास भरकर देवताकी भाँति वहाँ विचर रहे थे। उस समय माद्री सुन्दर वस्त्र पहने अकेली उनके पीछे-पीछे जा रही थी॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समीक्षमाणः स तु तां वयःस्थां तनुवाससम्।
तस्य कामः प्रववृधे गहनेऽग्निरिवोद्‌गतः ॥ ६ ॥

मूलम्

समीक्षमाणः स तु तां वयःस्थां तनुवाससम्।
तस्य कामः प्रववृधे गहनेऽग्निरिवोद्‌गतः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह युवावस्थासे युक्त थी और उसके शरीरपर झीनी-झीनी साड़ी सुशोभित थी। उसकी ओर देखते ही पाण्डुके मनमें कामनाकी आग जल उठी, मानो घने वनमें दावाग्नि प्रज्वलित हो उठी हो॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रहस्येकां तु तां दृष्ट्वा राजा राजीवलोचनाम्।
न शशाक नियन्तुं तं कामं कामवशीकृतः ॥ ७ ॥

मूलम्

रहस्येकां तु तां दृष्ट्वा राजा राजीवलोचनाम्।
न शशाक नियन्तुं तं कामं कामवशीकृतः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

एकान्त प्रदेशमें कमलनयनी माद्रीको अकेली देखकर राजा कामका वेग रोक न सके, वे पूर्णतः कामदेवके अधीन हो गये थे॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत एनां बलाद् राजा निजग्राह रहो गताम्।
वार्यमाणस्तया देव्या विस्फुरन्त्या यथाबलम् ॥ ८ ॥

मूलम्

तत एनां बलाद् राजा निजग्राह रहो गताम्।
वार्यमाणस्तया देव्या विस्फुरन्त्या यथाबलम् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः एकान्तमें मिली हुई माद्रीको महाराज पाण्डुने बलपूर्वक पकड़ लिया। देवी माद्री राजाकी पकड़से छूटनेके लिये यथाशक्ति चेष्टा करती हुई उन्हें बार-बार रोक रही थी॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तु कामपरीतात्मा तं शापं नान्वबुध्यत।
माद्रीं मैथुनधर्मेण सोऽन्वगच्छद् बलादिव ॥ ९ ॥
जीवितान्ताय कौरव्य मन्मथस्य वशं गतः।
शापजं भयमुत्सृज्य विधिना सम्प्रचोदितः ॥ १० ॥

मूलम्

स तु कामपरीतात्मा तं शापं नान्वबुध्यत।
माद्रीं मैथुनधर्मेण सोऽन्वगच्छद् बलादिव ॥ ९ ॥
जीवितान्ताय कौरव्य मन्मथस्य वशं गतः।
शापजं भयमुत्सृज्य विधिना सम्प्रचोदितः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परंतु उनके मनपर तो कामका वेग सवार था; अतः उन्होंने मृगरूपधारी मुनिसे प्राप्त हुए शापका विचार नहीं किया। कुरुनन्दन जनमेजय! वे कामके वशमें हो गये थे, इसलिये प्रारब्धसे प्रेरित हो शापके भयकी अवहेलना करके स्वयं ही अपने जीवनका अन्त करनेके लिये बलपूर्वक मैथुन करनेकी इच्छा रखकर माद्रीसे लिपट गये॥९-१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य कामात्मनो बुद्धिः साक्षात् कालेन मोहिता।
सम्प्रमथ्येन्द्रियग्रामं प्रणष्टा सह चेतसा ॥ ११ ॥

मूलम्

तस्य कामात्मनो बुद्धिः साक्षात् कालेन मोहिता।
सम्प्रमथ्येन्द्रियग्रामं प्रणष्टा सह चेतसा ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

साक्षात् कालने कामात्मा पाण्डुकी बुद्धि मोह ली थी। उनकी बुद्धि सम्पूर्ण इन्द्रियोंको मथकर विचार-शक्तिके साथ-साथ स्वयं भी नष्ट हो गयी थी॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तया सह संगम्य भार्यया कुरुनन्दनः।
पाण्डुः परमधर्मात्मा युयुजे कालधर्मणा ॥ १२ ॥

मूलम्

स तया सह संगम्य भार्यया कुरुनन्दनः।
पाण्डुः परमधर्मात्मा युयुजे कालधर्मणा ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुकुलको आनन्दित करनेवाले परम धर्मात्मा महाराज पाण्डु इस प्रकार अपनी धर्मपत्नी माद्रीसे समागम करके कालके गालमें पड़ गये॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो माद्री समालिङ्ग्य राजानं गतचेतसम्।
मुमोच दुःखजं शब्दं पुनः पुनरतीव हि ॥ १३ ॥

मूलम्

ततो माद्री समालिङ्ग्य राजानं गतचेतसम्।
मुमोच दुःखजं शब्दं पुनः पुनरतीव हि ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब माद्री राजाके शवसे लिपटकर बार-बार अत्यन्त दुःखभरी वाणीमें विलाप करने लगी॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सह पुत्रैस्ततः कुन्ती माद्रीपुत्रौ च पाण्डवौ।
आजग्मुः सहितास्तत्र यत्र राजा तथागतः ॥ १४ ॥

मूलम्

सह पुत्रैस्ततः कुन्ती माद्रीपुत्रौ च पाण्डवौ।
आजग्मुः सहितास्तत्र यत्र राजा तथागतः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इतनेमें ही पुत्रोंसहित कुन्ती और दोनों पाण्डुनन्दन माद्रीकुमार एक साथ उस स्थानपर आ पहुँचे, जहाँ राजा पाण्डु मृतकावस्थामें पड़े थे॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो माद्र्यब्रवीद् राजन्नार्ता कुन्तीमिदं वचः।
एकैव त्वमिहागच्छ तिष्ठन्त्वत्रैव दारकाः ॥ १५ ॥

मूलम्

ततो माद्र्यब्रवीद् राजन्नार्ता कुन्तीमिदं वचः।
एकैव त्वमिहागच्छ तिष्ठन्त्वत्रैव दारकाः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनमेजय! यह देख शोकातुर माद्रीने कुन्तीसे कहा—‘बहिन! आप अकेली ही यहाँ आयें। बच्चोंको वहीं रहने दें’॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तच्छ्रुत्वा वचनं तस्यास्तत्रैवाधाय दारकान्।
हताहमिति विक्रुश्य सहसैवाजगाम सा ॥ १६ ॥

मूलम्

तच्छ्रुत्वा वचनं तस्यास्तत्रैवाधाय दारकान्।
हताहमिति विक्रुश्य सहसैवाजगाम सा ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

माद्रीका यह वचन सुनकर कुन्तीने सब बालकोंको वहीं रोक दिया और ‘हाय! मैं मारी गयी’ इस प्रकार आर्तनाद करती हुई सहसा माद्रीके पास आ पहुँची॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दृष्ट्वा पाण्डुं च माद्रीं च शयानौ धरणीतले।
कुन्ती शोकपरीताङ्गी विललाप सुदुःखिता ॥ १७ ॥

मूलम्

दृष्ट्वा पाण्डुं च माद्रीं च शयानौ धरणीतले।
कुन्ती शोकपरीताङ्गी विललाप सुदुःखिता ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आकर उसने देखा, पाण्डु और माद्री धरतीपर पड़े हुए हैं। यह देख कुन्तीके सम्पूर्ण शरीरमें शोकाग्नि व्याप्त हो गयी और वह अत्यन्त दुःखी होकर विलाप करने लगी—॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रक्ष्यमाणो मया नित्यं वीरः सततमात्मवान्।
कथं त्वामत्यतिक्रान्तः शापं जानन् वनौकसः ॥ १८ ॥

मूलम्

रक्ष्यमाणो मया नित्यं वीरः सततमात्मवान्।
कथं त्वामत्यतिक्रान्तः शापं जानन् वनौकसः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘माद्री! मैं सदा वीर एवं जितेन्द्रिय महाराजकी रक्षा करती आ रही थी। उन्होंने मृगके शापकी बात जानते हुए भी तुम्हारे साथ बलपूर्वक समागम कैसे किया?॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ननु नाम त्वया माद्रि रक्षितव्यो नराधिपः।
सा कथं लोभितवती विजने त्वं नराधिपम् ॥ १९ ॥

मूलम्

ननु नाम त्वया माद्रि रक्षितव्यो नराधिपः।
सा कथं लोभितवती विजने त्वं नराधिपम् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘माद्री! तुम्हें तो महाराजकी रक्षा करनी चाहिये थी। तुमने एकान्तमें उन्हें लुभाया क्यों?॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथं दीनस्य सततं त्वामासाद्य रहोगताम्।
तं विचिन्तयतः शापं प्रहर्षः समजायत ॥ २० ॥

मूलम्

कथं दीनस्य सततं त्वामासाद्य रहोगताम्।
तं विचिन्तयतः शापं प्रहर्षः समजायत ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वे तो उस शापका चिन्तन करते हुए सदा दीन और उदास बने रहते थे, फिर तुझको एकान्तमें पाकर उनके मनमें कामजनित हर्ष कैसे उत्पन्न हुआ?॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धन्या त्वमसि बाह्लीकि मत्तो भाग्यतरा तथा।
दृष्टवत्यसि यद् वक्त्रं प्रहृष्टस्य महीपतेः ॥ २१ ॥

मूलम्

धन्या त्वमसि बाह्लीकि मत्तो भाग्यतरा तथा।
दृष्टवत्यसि यद् वक्त्रं प्रहृष्टस्य महीपतेः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘बाह्लीकराजकुमारी! तुम धन्य हो, मुझसे बड़भागिनी हो; क्योंकि तुमने हर्षोल्लाससे भरे हुए महाराजके मुखचन्द्रका दर्शन किया है’॥२१॥

मूलम् (वचनम्)

माद्र्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

विलपन्त्या मया देवि वार्यमाणेन चासकृत्।
आत्मा न वारितोऽनेन सत्यं दिष्टं चिकीर्षुणा ॥ २२ ॥

मूलम्

विलपन्त्या मया देवि वार्यमाणेन चासकृत्।
आत्मा न वारितोऽनेन सत्यं दिष्टं चिकीर्षुणा ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

माद्री बोली— महारानी! मैंने रोते-बिलखते बार-बार महाराजको रोकनेकी चेष्टा की; परंतु वे तो उस शापजनित दुर्भाग्यको मोहके कारण मानो सत्य करना चाहते थे, इसलिये अपने-आपको रोक न सके॥२२॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

(तस्यास्तद् वचनं श्रुत्वा कुन्ती शोकाग्नितापिता।
पपात सहसा भूमौ छिन्नमूल इव द्रुमः॥
निश्चेष्टा पतिता भूमौ मोहान्नैव चचाल सा॥
कुन्तीमुत्थाप्य माद्री च मोहेनाविष्टचेतनाम्।
एह्येहीति तां कुन्तीं दर्शयामास कौरवम्॥
पादयोः पतिता कुन्ती पुनरुत्थाय भूमिपम्।
सस्मितेन तु वक्त्रेण गदन्तमिव भारत।
परिरभ्य तदा मोहाद् विललापाकुलेन्द्रिया॥
माद्री चापि समालिङ्ग्य राजानं विललाप सा॥

मूलम्

(तस्यास्तद् वचनं श्रुत्वा कुन्ती शोकाग्नितापिता।
पपात सहसा भूमौ छिन्नमूल इव द्रुमः॥
निश्चेष्टा पतिता भूमौ मोहान्नैव चचाल सा॥
कुन्तीमुत्थाप्य माद्री च मोहेनाविष्टचेतनाम्।
एह्येहीति तां कुन्तीं दर्शयामास कौरवम्॥
पादयोः पतिता कुन्ती पुनरुत्थाय भूमिपम्।
सस्मितेन तु वक्त्रेण गदन्तमिव भारत।
परिरभ्य तदा मोहाद् विललापाकुलेन्द्रिया॥
माद्री चापि समालिङ्ग्य राजानं विललाप सा॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! माद्रीका यह वचन सुनकर कुन्ती शोकाग्निसे संतप्त हो जड़से कटे हुए वृक्षकी भाँति सहसा पृथ्वीपर गिर पड़ी और गिरते ही मूर्च्छा आ जानेके कारण निश्चेष्ट पड़ी रही, हिल-डुल भी न सकी। वह मूर्च्छावश अचेत हो गयी थी। माद्रीने उसे उठाया और कहा—‘बहिन! आइये, आइये!’ यों कहकर उसने कुन्तीको कुरुराज पाण्डुका दर्शन कराया। कुन्ती उठकर पुनः महाराज पाण्डुके चरणोंमें गिर पड़ी। महाराजके मुखपर मुसकराहट थी और ऐसा जान पड़ता था मानो वे अभी-अभी कोई बात कहने जा रहे हैं। उस समय मोहवश उन्हें हृदयसे लगाकर कुन्ती विलाप करने लगी। उसकी सारी इन्द्रियाँ व्याकुल हो गयी थीं। इसी प्रकार माद्री भी राजाका आलिंगन करके करुण विलाप करने लगी।

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं तथाधिगतं पाण्डुमृषयः सह चारणैः।
अभ्येत्य सहिताः सर्वे शोकादश्रूण्यवर्तयन्॥
अस्तं गतमिवादित्यं सुशुष्कमिव सागरम्।
दृष्ट्वा पाण्डुं नरव्याघ्रं शोचन्ति स्म महर्षयः॥
समानशोका ऋषयः पाण्डवाश्च बभूविरे।
ते समाश्वासिते विप्रैः विलेपतुरनिन्दिते॥

मूलम्

तं तथाधिगतं पाण्डुमृषयः सह चारणैः।
अभ्येत्य सहिताः सर्वे शोकादश्रूण्यवर्तयन्॥
अस्तं गतमिवादित्यं सुशुष्कमिव सागरम्।
दृष्ट्वा पाण्डुं नरव्याघ्रं शोचन्ति स्म महर्षयः॥
समानशोका ऋषयः पाण्डवाश्च बभूविरे।
ते समाश्वासिते विप्रैः विलेपतुरनिन्दिते॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार मृत्यु-शय्यापर पड़े हुए पाण्डुके पास चारणोंसहित सभी ऋषि-मुनि जुट आये और शोकवश आँसू बहाने लगे। अस्ताचलको पहुँचे हुए सूर्य तथा एकदम सूखे हुए समुद्रकी भाँति नरश्रेष्ठ पाण्डुको देखकर सभी महर्षि शोकमग्न हो गये। उस समय ऋषियोंको तथा पाण्डुपुत्रोंको समानरूपसे शोकका अनुभव हो रहा था। ब्राह्मणोंने पाण्डुकी दोनों सती-साध्वी रानियोंको समझा-बुझाकर बहुत आश्वासन दिया, तो भी उनका विलाप बंद नहीं हुआ।

मूलम् (वचनम्)

कुन्त्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

हा राजन् कस्य नौ हित्वा गच्छसि त्रिदशालयम्॥
हा राजन् मम मन्दायाः कथं माद्रीं समेत्य वै।
निधनं प्राप्तवान् राजन् मद्भाग्यपरिसंक्षयात्॥
युधिष्ठिरं भीमसेनमर्जुनं च यमावुभौ।
कस्य हित्वा प्रियान् पुत्रान् प्रयातोऽसि विशाम्पते॥
नूनं त्वां त्रिदशा देवाः प्रतिनन्दन्ति भारत।
यथा हि तप उग्रं ते चरितं विप्रसंसदि॥
आवाभ्यां सहितो राजन् गमिष्यसि दिवं शुभम्।
आजमीढाजमीढानां कर्मणा चरितां गतिम्॥

मूलम्

हा राजन् कस्य नौ हित्वा गच्छसि त्रिदशालयम्॥
हा राजन् मम मन्दायाः कथं माद्रीं समेत्य वै।
निधनं प्राप्तवान् राजन् मद्भाग्यपरिसंक्षयात्॥
युधिष्ठिरं भीमसेनमर्जुनं च यमावुभौ।
कस्य हित्वा प्रियान् पुत्रान् प्रयातोऽसि विशाम्पते॥
नूनं त्वां त्रिदशा देवाः प्रतिनन्दन्ति भारत।
यथा हि तप उग्रं ते चरितं विप्रसंसदि॥
आवाभ्यां सहितो राजन् गमिष्यसि दिवं शुभम्।
आजमीढाजमीढानां कर्मणा चरितां गतिम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुन्ती बोली— हा! महाराज! आप हम दोनोंको किसे सौंपकर स्वर्गलोकमें जा रहे हैं। हाय! मैं कितनी भाग्यहीना हूँ। मेरे राजा! आप किसलिये अकेली माद्रीसे मिलकर सहसा कालके गालमें चले गये। मेरा भाग्य नष्ट हो जानेके कारण ही आज यह दिन देखना पड़ा है। प्रजानाथ! युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन तथा नकुल-सहदेव—इन प्यारे पुत्रोंको किसके जिम्मे छोड़कर आप चले गये? भारत! निश्चय ही देवता आपका अभिनन्दन करते होंगे; क्योंकि आपने ब्राह्मणोंकी मण्डलीमें रहकर कठोर तपस्या की है। अजमीढकुलनन्दन! आपके पूर्वजोंने पुण्य-कर्मोंद्वारा जिस गतिको प्राप्त किया है, उसी शुभ स्वर्गीय गतिको आप हम दोनों पत्नियोंके साथ प्राप्त करेंगे।

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

(विलपित्वा भृशं त्वेवं निःसंज्ञे पतिते भुवि।
युधिष्ठिरमुखाः सर्वे पाण्डवा वेदपारगाः।
तेऽप्यागत्य पितुर्मूले निःसंज्ञाः पतिता भुवि॥
पाण्डोः पादौ परिष्वज्य विलपन्ति स्म पाण्डवाः॥)

मूलम्

(विलपित्वा भृशं त्वेवं निःसंज्ञे पतिते भुवि।
युधिष्ठिरमुखाः सर्वे पाण्डवा वेदपारगाः।
तेऽप्यागत्य पितुर्मूले निःसंज्ञाः पतिता भुवि॥
पाण्डोः पादौ परिष्वज्य विलपन्ति स्म पाण्डवाः॥)

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! इस प्रकार अत्यन्त विलाप करके कुन्ती और माद्री दोनों अचेत हो पृथ्वीपर गिर पड़ीं। युधिष्ठिर आदि सभी पाण्डव वेदविद्यामें पारंगत हो चुके थे, वे भी पिताके समीप आकर संज्ञाशून्य हो पृथ्वीपर गिर पड़े। सभी पाण्डव पाण्डुके चरणोंको हृदयसे लगाकर विलाप करने लगे।

मूलम् (वचनम्)

कुन्त्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहं ज्येष्ठा धर्मपत्नी ज्येष्ठं धर्मफलं मम।
अवश्यम्भाविनो भावान्मा मां माद्रि निवर्तय ॥ २३ ॥
अन्विष्यामीह भर्तारमहं प्रेतवशं गतम्।
उत्तिष्ठ त्वं विसृज्यैनमिमान् पालय दारकान् ॥ २४ ॥
अवाप्य पुत्राल्ँलब्धात्मा वीरपत्नीत्वमर्थये ।

मूलम्

अहं ज्येष्ठा धर्मपत्नी ज्येष्ठं धर्मफलं मम।
अवश्यम्भाविनो भावान्मा मां माद्रि निवर्तय ॥ २३ ॥
अन्विष्यामीह भर्तारमहं प्रेतवशं गतम्।
उत्तिष्ठ त्वं विसृज्यैनमिमान् पालय दारकान् ॥ २४ ॥
अवाप्य पुत्राल्ँलब्धात्मा वीरपत्नीत्वमर्थये ।

अनुवाद (हिन्दी)

कुन्तीने कहा— माद्री! मैं इनकी ज्येष्ठ धर्मपत्नी हूँ, अतः धर्मके ज्येष्ठ फलपर भी मेरा ही अधिकार है। जो अवश्यम्भावी बात है, उससे मुझे मत रोको। मैं मृत्युके वशमें पड़े हुए अपने स्वामीका अनुगमन करूँगी। अब तुम इन्हें छोड़कर उठो और इन बच्चोंका पालन करो। पुत्रोंको पाकर मेरा लौकिक मनोरथ पूर्ण हो चुका है; अब मैं पतिके साथ दग्ध होकर वीरपत्नीका पद पाना चाहती हूँ॥२३-२४॥

मूलम् (वचनम्)

माद्र्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहमेवानुयास्यामि भर्तारमपलायिनम् ।
न हि तृप्तास्मि कामानां ज्येष्ठा मामनुमन्यताम् ॥ २५ ॥

मूलम्

अहमेवानुयास्यामि भर्तारमपलायिनम् ।
न हि तृप्तास्मि कामानां ज्येष्ठा मामनुमन्यताम् ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

माद्री बोली— रणभूमिसे कभी पीठ न दिखानेवाले अपने पतिदेवके साथ मैं ही जाऊँगी; क्योंकि उनके साथ होनेवाले कामभोगसे मैं तृप्त नहीं हो सकी हूँ। आप बड़ी बहिन हैं, इसलिये मुझे आपको आज्ञा प्रदान करनी चाहिये॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मां चाभिगम्य क्षीणोऽयं कामाद् भरतसत्तमः।
तमुच्छिन्द्यामस्य कामं कथं नु यमसादने ॥ २६ ॥

मूलम्

मां चाभिगम्य क्षीणोऽयं कामाद् भरतसत्तमः।
तमुच्छिन्द्यामस्य कामं कथं नु यमसादने ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये भरतश्रेष्ठ मेरे प्रति आसक्त हो मुझसे समागम करके मृत्युको प्राप्त हुए हैं; अतः मुझे किसी प्रकार परलोकमें पहुँचकर उनकी उस कामवासनाकी निवृत्ति करनी चाहिये॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न चाप्यहं वर्तयन्ती निर्विशेषं सुनेषु ते।
वृत्तिमार्ये चरिष्यामि स्पृशेदेनस्तथा च माम् ॥ २७ ॥

मूलम्

न चाप्यहं वर्तयन्ती निर्विशेषं सुनेषु ते।
वृत्तिमार्ये चरिष्यामि स्पृशेदेनस्तथा च माम् ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आर्ये! मैं आपके पुत्रोंके साथ अपने सगे पुत्रोंकी भाँति बर्ताव नहीं कर सकूँगी। उस दशामें मुझे पाप लगेगा॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मान्मे सुतयोः कुन्ति वर्तितव्यं स्वपुत्रवत्।
मां च कामयमानोऽयं राजा प्रेतवशं गतः ॥ २८ ॥

मूलम्

तस्मान्मे सुतयोः कुन्ति वर्तितव्यं स्वपुत्रवत्।
मां च कामयमानोऽयं राजा प्रेतवशं गतः ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः आप ही जीवित रहकर मेरे पुत्रोंका भी अपने पुत्रोंके समान ही पालन कीजियेगा। इसके सिवा ये महाराज मेरी ही कामना रखकर मृत्युके अधीन हुए हैं॥२८॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

(ऋषयस्तान् समाश्वास्य पाण्डवान् सत्यविक्रमान्।
ऊचुः कुन्तीं च माद्रीं च समाश्वास्य तपस्विनः॥
सुभगे बालपुत्रे तु न मर्तव्यं कथंचन।
पाण्डवांश्चापि नेष्यामः कुरुराष्ट्रं परंतपान्॥
अधर्मेष्वर्थजातेषु धृतराष्ट्रश्च लोभवान् ।
स कदाचिन्न वर्तेत पाण्डवेषु यथाविधि॥
कुन्त्याश्च वृष्णयो नाथाः कुन्तिभोजस्तथैव च।
माद्र्याश्च बलिनां श्रेष्ठः शल्यो भ्राता महारथः॥
भर्त्रा तु मरणं सार्धं फलवन्नात्र संशयः।
युवाभ्यां दुष्करं चैतद् वदन्ति द्विजपुङ्गवाः॥
मृते भर्तरि या साध्वी ब्रह्मचर्यव्रते स्थिता।
यमैश्च नियमैः श्रान्ता मनोवाक्कायजैः शुभैः॥
व्रतोपवासनियमैः कृच्छ्रैश्चान्द्रायणादिभिः ।
भूशय्यां क्षारलवणवर्जनं चैकभोजनम् ॥
येन केनापि विधिना देहशोषणतत्परा।
देहपोषणसंयुक्ता विषयैर्हृतचेतना ॥
देहव्ययेन नरकं महदाप्नोत्यसंशयः ।
तस्मात्संशोषयेद् देहं विषया नाशमाप्नुयुः॥
भर्तारं चिन्तयन्ती सा भर्तारं निस्तरेच्छुभा।
तारितश्चापि भर्ता स्यादात्मा पुत्रस्तथैव च॥
तस्माज्जीवितमेवैतद् युवयोर्विद्म शोभनम् ॥

मूलम्

(ऋषयस्तान् समाश्वास्य पाण्डवान् सत्यविक्रमान्।
ऊचुः कुन्तीं च माद्रीं च समाश्वास्य तपस्विनः॥
सुभगे बालपुत्रे तु न मर्तव्यं कथंचन।
पाण्डवांश्चापि नेष्यामः कुरुराष्ट्रं परंतपान्॥
अधर्मेष्वर्थजातेषु धृतराष्ट्रश्च लोभवान् ।
स कदाचिन्न वर्तेत पाण्डवेषु यथाविधि॥
कुन्त्याश्च वृष्णयो नाथाः कुन्तिभोजस्तथैव च।
माद्र्याश्च बलिनां श्रेष्ठः शल्यो भ्राता महारथः॥
भर्त्रा तु मरणं सार्धं फलवन्नात्र संशयः।
युवाभ्यां दुष्करं चैतद् वदन्ति द्विजपुङ्गवाः॥
मृते भर्तरि या साध्वी ब्रह्मचर्यव्रते स्थिता।
यमैश्च नियमैः श्रान्ता मनोवाक्कायजैः शुभैः॥
व्रतोपवासनियमैः कृच्छ्रैश्चान्द्रायणादिभिः ।
भूशय्यां क्षारलवणवर्जनं चैकभोजनम् ॥
येन केनापि विधिना देहशोषणतत्परा।
देहपोषणसंयुक्ता विषयैर्हृतचेतना ॥
देहव्ययेन नरकं महदाप्नोत्यसंशयः ।
तस्मात्संशोषयेद् देहं विषया नाशमाप्नुयुः॥
भर्तारं चिन्तयन्ती सा भर्तारं निस्तरेच्छुभा।
तारितश्चापि भर्ता स्यादात्मा पुत्रस्तथैव च॥
तस्माज्जीवितमेवैतद् युवयोर्विद्म शोभनम् ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— तदनन्तर तपस्वी ऋषियोंने सत्यपराक्रमी पाण्डवोंको धीरज बँधाकर कुन्ती और माद्रीको भी आश्वासन देते हुए कहा—‘सुभगे! तुम दोनोंके पुत्र अभी बालक हैं, अतः तुम्हें किसी प्रकार देह-त्याग नहीं करना चाहिये। हमलोग शत्रुदमन पाण्डवोंको कौरव राष्ट्रकी राजधानीमें पहुँचा देंगे। राजा धृतराष्ट्र अधर्ममय धनके लिये लोभ रखता है, अतः वह कभी पाण्डवोंके साथ यथायोग्य बर्ताव नहीं कर सकता। कुन्तीके रक्षक एवं सहायक वृष्णिवंशी और राजा कुन्तिभोज हैं तथा माद्रीके बलवानोंमें श्रेष्ठ महारथी शल्य उसके भाई हैं। इसमें संदेह नहीं कि पतिके साथ मृत्यु स्वीकार करना पत्नीके लिये महान् फलदायक होता है; तथापि तुम दोनोंके लिये यह कार्य अत्यन्त कठोर है, यह बात सभी श्रेष्ठ ब्राह्मण कहते हैं। जो स्त्री साध्वी होती है, वह अपने पतिकी मृत्यु हो जानेके बाद ब्रह्मचर्यके पालनमें अविचलभावसे लगी रहती है, यम और नियमोंके पालनका क्लेश सहन करती है और मन, वाणी एवं शरीरद्वारा किये जानेवाले शुभ कर्मों तथा कृच्छ्रचान्द्रायणादि व्रत, उपवास और नियमोंका अनुष्ठान करती है। वह क्षार (पापड़ आदि) और लवणका त्याग करके एक बार ही भोजन करती और भूमिपर शयन करती है। वह जिस किसी प्रकारसे अपने शरीरको सुखानेके प्रयत्नमें लगी रहती है। किंतु विषयोंके द्वारा नष्ट हुई बुद्धिवाली जो नारी देहको पुष्ट करनेमें ही लगी रहती है, वह तो इस (दुर्लभ मनुष्य-) शरीरको व्यर्थ ही नष्ट करके निःसंदेह महान् नरकको प्राप्त होती है। अतः साध्वी स्त्रीको उचित है कि वह अपने शरीरको सुखाये, जिससे सम्पूर्ण विषय-कामनाएँ नष्ट हो जायँ। इस प्रकार उपर्युक्त धर्मका पालन करनेवाली जो शुभलक्षणा नारी अपने पतिदेवका चिन्तन करती रहती है, वह अपने पतिका भी उद्धार कर देती है। इस तरह वह स्वयं अपनेको, अपने पतिको एवं पुत्रको भी संसारसे तार देती है। अतः हमलोग तो यही अच्छा मानते हैं कि तुम दोनों जीवन धारण करो’।

मूलम् (वचनम्)

कुन्त्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा पाण्डोश्च निर्देशस्तथा विप्रगणस्य च।
आज्ञा शिरसि निक्षिप्ता करिष्यामि च तत् तथा॥
यथाऽऽहुर्भगवन्तो हि तन्मन्ये शोभनं परम्।
भर्तुश्च मम पुत्राणां मम चैव न संशयः॥

मूलम्

यथा पाण्डोश्च निर्देशस्तथा विप्रगणस्य च।
आज्ञा शिरसि निक्षिप्ता करिष्यामि च तत् तथा॥
यथाऽऽहुर्भगवन्तो हि तन्मन्ये शोभनं परम्।
भर्तुश्च मम पुत्राणां मम चैव न संशयः॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुन्ती बोली— महात्माओ! हमारे लिये महाराज पाण्डुकी आज्ञा जैसे शिरोधार्य है, उसी प्रकार आप सब ब्राह्मणोंकी भी है। आपका आदेश मैं सिर-माथे रखती हूँ। आप जैसा कहेंगे, वैसा ही करूँगी। पूज्यपाद विप्रगण जैसा कहते हैं, उसीको मैं अपने पति, पुत्रों तथा अपने-आपके लिये भी परम कल्याणकारी समझती हूँ—इसमें तनिक भी संशय नहीं है।

मूलम् (वचनम्)

माद्र्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुन्ती समर्था पुत्राणां योगक्षेमस्य धारणे।
अस्या हि न समा बुद्ध्या यद्यपि स्यादरुन्धती॥
कुन्त्याश्च वृष्णयो नाथाः कुन्तिभोजस्तथैव च।
नाहं त्वमिव पुत्राणां समर्था धारणे तथा॥
साहं भर्तारमन्वेष्ये अतृप्ता नन्वहं तथा।
भर्तृलोकस्य तु ज्येष्ठा देवी मामनुमन्यताम्॥
धर्मज्ञस्य कृतज्ञस्य सत्यधर्मस्य धीमतः।
पादौ परिचरिष्यामि तदार्ये ह्यनुमन्यताम्॥

मूलम्

कुन्ती समर्था पुत्राणां योगक्षेमस्य धारणे।
अस्या हि न समा बुद्ध्या यद्यपि स्यादरुन्धती॥
कुन्त्याश्च वृष्णयो नाथाः कुन्तिभोजस्तथैव च।
नाहं त्वमिव पुत्राणां समर्था धारणे तथा॥
साहं भर्तारमन्वेष्ये अतृप्ता नन्वहं तथा।
भर्तृलोकस्य तु ज्येष्ठा देवी मामनुमन्यताम्॥
धर्मज्ञस्य कृतज्ञस्य सत्यधर्मस्य धीमतः।
पादौ परिचरिष्यामि तदार्ये ह्यनुमन्यताम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

माद्रीने कहा— कुन्तीदेवी सभी पुत्रोंके योग-क्षेमके निर्वाहमें—पालन-पोषणमें समर्थ हैं। कोई भी स्त्री, चाहे वह अरुन्धती ही क्यों न हो, बुद्धिमें इनकी समानता नहीं कर सकती। वृष्णिवंशके लोग तथा महाराज कुन्तिभोज भी कुन्तीके रक्षक एवं सहायक हैं। बहिन! पुत्रोंके पालन-पोषणकी शक्ति जैसी आपमें है, वैसी मुझमें नहीं है। अतः मैं पतिका ही अनुगमन करना चाहती हूँ। पतिके संयोग-सुखसे मेरी तृप्ति भी नहीं हुई है। अतः आप बड़ी महारानीसे मेरी प्रार्थना है कि मुझे पतिलोकमें जानेकी आज्ञा दें। मैं वहीं धर्मज्ञ, कृतज्ञ, सत्यप्रतिज्ञ और बुद्धिमान् पतिके चरणोंकी सेवा करूँगी। आर्ये! आप मेरी इस इच्छाका अनुमोदन करें।

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्त्वा महाराज मद्रराजसुता शुभा।
ददौ कुन्त्यै यमौ माद्री शिरसाभिप्रणम्य च॥
अभिवाद्य ऋषीन् सर्वान् परिष्वज्य च पाण्डवान्।
मूर्ध्न्युपाघ्राय बहुशः पार्थानात्मसुतौ तथा॥
हस्ते युधिष्ठिरं गृह्य माद्री वाक्यमभाषत॥

मूलम्

एवमुक्त्वा महाराज मद्रराजसुता शुभा।
ददौ कुन्त्यै यमौ माद्री शिरसाभिप्रणम्य च॥
अभिवाद्य ऋषीन् सर्वान् परिष्वज्य च पाण्डवान्।
मूर्ध्न्युपाघ्राय बहुशः पार्थानात्मसुतौ तथा॥
हस्ते युधिष्ठिरं गृह्य माद्री वाक्यमभाषत॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— महाराज! यों कहकर मद्रदेशकी राजकुमारी सती-साध्वी माद्रीने कुन्तीको प्रणाम करके अपने दोनों जुड़वें पुत्र उन्हींको सौंप दिये। तत्पश्चात् उसने महर्षियोंको मस्तक नवाकर पाण्डवोंको हृदयसे लगा लिया और बारंबार कुन्तीके तथा अपने पुत्रोंके मस्तक सूँघकर युधिष्ठिरका हाथ पकड़कर कहा।

मूलम् (वचनम्)

माद्र्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुन्ती माता अहं धात्री युष्माकं तु पिता मृतः।
युधिष्ठिरः पिता ज्येष्ठश्चतुर्णां धर्मतः सदा॥
वृद्धानुशासने सक्ताः सत्यधर्मपरायणाः ।
तादृशा न विनश्यन्ति नैव यान्ति पराभवम्॥
तस्मात् सर्वे कुरुध्वं वै गुरुवृत्तिमतन्द्रिताः॥

मूलम्

कुन्ती माता अहं धात्री युष्माकं तु पिता मृतः।
युधिष्ठिरः पिता ज्येष्ठश्चतुर्णां धर्मतः सदा॥
वृद्धानुशासने सक्ताः सत्यधर्मपरायणाः ।
तादृशा न विनश्यन्ति नैव यान्ति पराभवम्॥
तस्मात् सर्वे कुरुध्वं वै गुरुवृत्तिमतन्द्रिताः॥

अनुवाद (हिन्दी)

माद्री बोली— बच्चो! कुन्तीदेवी ही तुम सबोंकी असली माता हैं, मैं तो केवल दूध पिलानेवाली धाय थी। तुम्हारे पिता तो मर गये। अब बड़े भैया युधिष्ठिर ही धर्मतः तुम चारों भाइयोंके पिता हैं। तुम सब बड़े-बूढ़ों—गुरुजनोंकी सेवामें संलग्न रहना और सत्य एवं धर्मके पालनसे कभी मुँह न मोड़ना। ऐसा करनेवाले लोग कभी नष्ट नहीं होते और न कभी उनकी पराजय ही होती है। अतः तुम सब भाई आलस्य छोड़कर गुरुजनोंकी सेवामें तत्पर रहना।

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऋषीणां च पृथायाश्च नमस्कृत्य पुनः पुनः।
आयासकृपणा माद्री प्रत्युवाच पृथां तथा॥
धन्या त्वमसि वार्ष्णेयि नास्ति स्त्री सदृशी त्वया।
वीर्यं तेजश्च योगं च माहात्म्यं च यशस्विनाम्॥
कुन्ति द्रक्ष्यसि पुत्राणां पञ्चानाममितौजसाम्।
ऋषीणां संनिधावेषां मया वागभ्युदीरिता॥
स्वर्गं दिदृक्षमाणाया ममैषा न वृथा भवेत्।
आर्या चाप्यभिवाद्या च मम पूज्या च सर्वतः॥
ज्येष्ठा वरिष्ठा त्वं देवि भूषिता स्वगुणैः शुभैः।
अभ्यनुज्ञातुमिच्छामि त्वया यादवनन्दिनि ॥
धर्मं स्वर्गं च कीर्तिं च त्वत्कृतेऽहमवाप्नुयाम्।
यथा तथा विधत्स्वेह मा च कार्षीर्विचारणाम्॥

मूलम्

ऋषीणां च पृथायाश्च नमस्कृत्य पुनः पुनः।
आयासकृपणा माद्री प्रत्युवाच पृथां तथा॥
धन्या त्वमसि वार्ष्णेयि नास्ति स्त्री सदृशी त्वया।
वीर्यं तेजश्च योगं च माहात्म्यं च यशस्विनाम्॥
कुन्ति द्रक्ष्यसि पुत्राणां पञ्चानाममितौजसाम्।
ऋषीणां संनिधावेषां मया वागभ्युदीरिता॥
स्वर्गं दिदृक्षमाणाया ममैषा न वृथा भवेत्।
आर्या चाप्यभिवाद्या च मम पूज्या च सर्वतः॥
ज्येष्ठा वरिष्ठा त्वं देवि भूषिता स्वगुणैः शुभैः।
अभ्यनुज्ञातुमिच्छामि त्वया यादवनन्दिनि ॥
धर्मं स्वर्गं च कीर्तिं च त्वत्कृतेऽहमवाप्नुयाम्।
यथा तथा विधत्स्वेह मा च कार्षीर्विचारणाम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजीने कहा— राजन्! तत्पश्चात् माद्रीने ऋषियों तथा कुन्तीको बारंबार नमस्कार करके, क्लेशसे क्लान्त होकर कुन्तीदेवीसे दीनतापूर्वक कहा—‘वृष्णिकुलनन्दिनि! आप धन्य हैं। आपकी समानता करनेवाली दूसरी कोई स्त्री नहीं है; क्योंकि आपको इन अमिततेजस्वी तथा यशस्वी पाँचों पुत्रोंके बल, पराक्रम, तेज, योगबल तथा माहात्म्य देखनेका सौभाग्य प्राप्त होगा। मैंने स्वर्गलोकमें जानेकी इच्छा रखकर इन महर्षियोंके समीप जो यह बात कही है, वह कदापि मिथ्या न हो। देवि! आप मेरी गुरु, वन्दनीया तथा पूजनीया हैं; अवस्थामें बड़ी तथा गुणोंमें भी श्रेष्ठ हैं। समस्त नैसर्गिक सद्‌गुण आपकी शोभा बढ़ाते हैं। यादवनन्दिनि! अब मैं आपकी आज्ञा चाहती हूँ। आपके प्रयत्नद्वारा जैसे भी मुझे धर्म, स्वर्ग तथा कीर्तिकी प्राप्ति हो, वैसा सहयोग आप इस अवसरपर करें। मनमें किसी दूसरे विचारको स्थान न दें’।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बाष्पसंदिग्धया वाचा कुन्त्युवाच यशस्विनी॥
अनुज्ञातासि कल्याणि त्रिदिवे संगमोऽस्तु ते।
भर्त्रा सह विशालाक्षि क्षिप्रमद्यैव भामिनि॥
संगता स्वर्गलोके त्वं रमेथाः शाश्वतीः समाः॥)
राज्ञः शरीरेण सह ममापीदं कलेवरम्।
दग्धव्यं सुप्रतिच्छन्नमेतदार्ये प्रियं कुरु ॥ २९ ॥

मूलम्

बाष्पसंदिग्धया वाचा कुन्त्युवाच यशस्विनी॥
अनुज्ञातासि कल्याणि त्रिदिवे संगमोऽस्तु ते।
भर्त्रा सह विशालाक्षि क्षिप्रमद्यैव भामिनि॥
संगता स्वर्गलोके त्वं रमेथाः शाश्वतीः समाः॥)
राज्ञः शरीरेण सह ममापीदं कलेवरम्।
दग्धव्यं सुप्रतिच्छन्नमेतदार्ये प्रियं कुरु ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब यशस्विनी कुन्तीने बाष्पगद्‌गद वाणीमें कहा—‘कल्याणि! मैंने तुम्हें आज्ञा दे दी। विशाललोचने! तुम्हें आज ही स्वर्गलोकमें पतिका समागम प्राप्त हो। भामिनि! तुम स्वर्गमें पतिसे मिलकर अनन्त वर्षोंतक प्रसन्न रहो।’
माद्री बोली—‘मेरे इस शरीरको महाराजके शरीरके साथ ही अच्छी प्रकार ढँककर दग्ध कर देना चाहिये। बड़ी बहिन! आप मेरा यह प्रिय कार्य कर दें॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दारकेष्वप्रमत्ता च भवेथाश्च हिता मम।
अतोऽन्यन्न प्रपश्यामि संदेष्टव्यं हि किंचन ॥ ३० ॥

मूलम्

दारकेष्वप्रमत्ता च भवेथाश्च हिता मम।
अतोऽन्यन्न प्रपश्यामि संदेष्टव्यं हि किंचन ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मेरे पुत्रोंका हित चाहती हुई सावधान रहकर उनका पालन-पोषण करें। इसके सिवा दूसरी कोई बात मुझे आपसे कहनेयोग्य नहीं जान पड़ती’॥३०॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्त्वा तं चिताग्निस्थं धर्मपत्नी नरर्षभम्।
मद्रराजसुता तूर्णमन्वारोहद् यशस्विनी ॥ ३१ ॥

मूलम्

इत्युक्त्वा तं चिताग्निस्थं धर्मपत्नी नरर्षभम्।
मद्रराजसुता तूर्णमन्वारोहद् यशस्विनी ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! कुन्तीसे यह कहकर पाण्डुकी यशस्विनी धर्मपत्नी माद्री चिताकी आगपर रखे हुए नरश्रेष्ठ पाण्डुके शवके साथ स्वयं भी चितापर जा बैठी॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(ततः पुरोहितः स्नात्वा प्रेतकर्मणि पारगः।
हिरण्यशकलान्याज्यं तिलान् दधि च तण्डुलान्॥
उदकुम्भं सपरशुं समानीय तपस्विभिः।
अश्वमेधाग्निमाहृत्य यथान्यायं समन्ततः ॥
काश्यपः कारयामास पाण्डोः प्रेतस्य तां क्रियाम्॥

मूलम्

(ततः पुरोहितः स्नात्वा प्रेतकर्मणि पारगः।
हिरण्यशकलान्याज्यं तिलान् दधि च तण्डुलान्॥
उदकुम्भं सपरशुं समानीय तपस्विभिः।
अश्वमेधाग्निमाहृत्य यथान्यायं समन्ततः ॥
काश्यपः कारयामास पाण्डोः प्रेतस्य तां क्रियाम्॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर प्रेतकर्मके पारंगत विद्वान् पुरोहित काश्यपने स्नान करके सुवर्णखण्ड, घृत, तिल, दही, चावल, जलसे भरा घड़ा और फरसा आदि वस्तुओंको एकत्र करके तपस्वी मुनियोंद्वारा अश्वमेधकी अग्नि मँगवायी और उसे चारों ओरसे चितासे छुलाकर यथायोग्य शास्त्रीय विधिसे पाण्डुका दाह-संस्कार करवाया।

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहताम्बरसंवीतो भ्रातृभिः सहितोऽनघः ।
उदकं कृतवांस्तत्र पुरोहितमते स्थितः॥
अर्हतस्तस्य कृत्यानि शतशृङ्गनिवासिनः ।
तापसा विधिवच्चक्रुश्चारणा ऋषिभिः सह॥)

मूलम्

अहताम्बरसंवीतो भ्रातृभिः सहितोऽनघः ।
उदकं कृतवांस्तत्र पुरोहितमते स्थितः॥
अर्हतस्तस्य कृत्यानि शतशृङ्गनिवासिनः ।
तापसा विधिवच्चक्रुश्चारणा ऋषिभिः सह॥)

अनुवाद (हिन्दी)

भाइयोंसहित निष्पाप युधिष्ठिरने नूतन वस्त्र धारण करके पुरोहितकी आज्ञाके अनुसार जलांजलि देनेका कार्य पूरा किया। शतशृंगनिवासी तपस्वी मुनियों और चारणोंने आदरणीय राजा पाण्डुके परलोक-सम्बन्धी सब कार्य विधिपूर्वक सम्पन्न किये।

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि पाण्डूपरमे चतुर्विंशत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १२४ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्वके अन्तर्गत सम्भवपर्वमें पाण्डुके परलोकगमनविषयक एक सौ चौबीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१२४॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ५० श्लोक मिलाकर कुल ८१ श्लोक हैं)